रामकुमार सिंह और चंद्रप्रकाश द्विवेदी का कमाल / जयप्रकाश चौकसे

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रामकुमार सिंह और चंद्रप्रकाश द्विवेदी का कमाल
प्रकाशन तिथि : 27 नवम्बर 2014


जब एक आदतन सिनेमा दर्शक सप्ताह दर सप्ताह लार्जर दैन लाइफ नायक के हैरतअंगेज कारनामे, बेहिसाब अर्थहीन रॉम-कॉम और फूहड़ता देख हिन्दुस्तानी सिनेमा से निराश होने लगता है और फिर एक सितारा-विहीन फिल्म से बेहद प्रसन्न होकर, उसके मनोरंजन से आल्हादित होकर, आंख में नमी के साथ सिनेमाघर से खोया विश्वास ले लौटता है तो उसे अपनी विविधता वाली एक सौ एक वर्षीय सिनेमा परम्परा पर गर्व होता है। राजस्थान के पत्रकार रामकुमार सिंह की विलक्षण कहानी और सिनेमाई "चाणक्य' चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म "जेड प्लस' देखकर ऐसी ही अनुभूति हुई। इसके अधिकांश पात्र साधारण हैं जो थोड़ा सा भटकने, बहकने के बाद जब अपने ईमान पर लौट आते हैं तब हम रोजमर्रा की जिंदगी के लार्जर दैन लाइफ का दीदार करते हैं। हवा में उड़ सकने वाला नायक, एक घूंसे में पचास को मार गिराने वाला नायक इन साधारण सुविधाहीन जीवन जीने वालों के सामने कितना खोखला लगता है। आप तुलना करें सुपरमैन कॉमिक्स और आरके लक्ष्मण के कार्टून के आम आदमी से तो पाएंगे कि इस आम आदमी के दिल की धड़कन आपके दिल के कितने करीब है। भारत में भ्रष्टाचार के घटाटोप में जब एक गरीब चूड़ियां बेचने वाली को यह कहते देखते हैं कि वह पति के बेईमानी के धन को हाथ भी नहीं लगाएगी और अपनी मेहनत से खुद को और बच्चे को पाल लेगी तो घटाटोप में क्षीण सी रोशनी की डोर पकड़कर आप भवसागर पार करने का साहस जुटा पाते हैं और लगता है कि अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ। जब साइकिल के पंचर सुधारने वाला सरेआम अपनी लम्पटता स्वीकार कर कहता है कि वह पशेमान है और अपनी बीबी से सरेआम माफी मांगना चाहता है तथा व्यवस्था के पंचर भी सुधारने का वादा करता है, तब बाजार और विज्ञापन द्वारा विकृत की जाने वाली डेमोक्रेसी के अपने सच्चे रूप में लौटनेे की उम्मीद जागती है।

चंद्रप्रकाश द्विवेदी भारत में सदैव से विद्यमान आत्मविरोधी प्रवृत्तियों, कबीर की उलटबांसियों में विद्यमान इन प्रवृत्तियों को विविध पात्रों के माध्यम से समानांतर रेखाओं पर खड़े करते हैं कि दर्शक सिनेमाई परदे पर भारत को अपने विरोधाभास के साथ देखते हुए इस देश की विविधता में एकता और मनुष्यों के बीच भाईचारे को देखता है। आम गरीबों की बस्तियों के साथ नेताओं की हवेलियां और हमारे फौज के तंबुओं को देखता है और साथ ऊंचे अफसरों के कमीनेपन को घटित होते देखता है तो जिंदगी की बिसात पर अपने को मामूली प्यादा होने का शिद्दत से उसे अहसास होता है।

चंद्रप्रकाश द्विवेदी की सबसे बड़ी सफलता यह है कि पूरी फिल्म अत्यंत मनोरंजक बनी है और सारा समय दर्शक को गुदगुदी महसूस होती है, ठहाके लगाए जाते हैं और कभी कभी आंखें नम भी होती हैं। यही हिंदुस्तानी सिनेमा का अपना तेवर है। बाद मुद्दत के किसी फिल्म में एक पान की दुकान और उसमें बैठा पनवाड़ी देखा। इन दुकानों पर समाज का आम वर्ग मिलता है और ये दुकानें मध्यम वर्ग की गलियों के नुक्कड़ की तरह होती हैं या गांव के चौपाल की तरह, जहां किस्सागोई अपने मूल रूप में हम देखते हैं। इस फिल्म के मुख्य पात्र को अभिनीत करने वाले आदिल हुसैन को हम श्रीदेवी की "इंग्लिश विंग्लिश' में देख चुके हैं। ये इरफान, निजामुद्दीन की उस परम्परा के अभिनेता हैं जिनके पुरोधा नसीरुद्दीन शाह और आेमपुरी हैं। "जस्सी' सीरियल की मोना ने प्रभावोत्पादक अभिनय किया है। शिवानी के "दूसरी औरत' के पात्र में किस तरह प्रयासहीन मादकता प्रस्तुत की है - "यह शीला की जवानी' और "पव्वा चढ़ा के आई' से बेहतर असर रखती है। बहरहाल, यह चंद्रप्रकाश की "पिंजर' की तरह क्लासिक तो नहीं है परन्तु अत्यंत सार्थक व्यंग्य फिल्म है और अगर उनके राजनैतिक दृष्टिकोण में दोष है तो 21वीं सदी में "चाणक्य' की उनकी व्याख्या का मामला है परन्तु इस फिल्म को इसकी राजनीति नहीं, वरन् मानवीय करुणा के लिए देखना चाहिए और फूहड़ता को हास्य समझने की भूल करने वाले युवा वर्ग को देखना चाहिए कि निर्मल अानंद और विशुद्ध हास्य-व्यंग्य क्या होता है।