रामचंद्र शुक्ल / परिचय

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 रामचन्द्र शुक्ल की रचनाएँ     
गद्य कोश में रामचन्द्र शुक्ल का परिचय
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रामचन्द्र शुक्ल

जीवन परिचय

आचार्य रामचंद्र शुक्ल (४ अक्तूबर, १८८२-१९४२) बीसवीं शताब्दी के हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार थे। उनका जन्म बस्ती, उत्तर प्रदेश मे हुआ था। उनकी द्वारा लिखी गई पुस्तको मे प्रमुख है हिन्दी साहित्य का इतिहास, जिसका हिन्दी पाठ्यक्रम को निर्धारित करने मे प्रमुख स्थान है। शुक्ल जी हिंदी साहित्य के कीर्ति स्तंभ हैं। हिंदी में वैज्ञानिक आलोचना का सूत्रपात उन्हीं के द्वारा हुआ।हिन्दी निबंध के क्षेत्र में शुक्ल जी का स्थान बहुत ऊंचा है। वे श्रेष्ठ और मौलिक निबंधकार थे। उन्होंने अपने दृष्टिकोण से भाव ,विभाव,रस आदि की पुनर्व्याख्या की, साथ ही साथ विभिन्न भावों की व्याख्या में उनका पांडित्य ,मौलिकता और सूक्ष्म पर्यवेक्षण पग -पग पर दिखाई देता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म सं. १८८४ में बस्ती जिले के अगोना नामक गांव में हुआ था। उनके पिता पं. चंद्रबली शुक्ल की नियुक्ति सदर कानूनगो के पद पर मिर्ज़ापुर में हुई तो सारा परिवार भी मिर्ज़ापुर में आकर रहने लगा।जिस समय शुक्ल जी की अवस्था नौ वर्ष की थी, उनकी माता का देहांत हो गया। माता के दुख के अभाव के साथ-साथ उन्हें विमाता से मिलने वाले दुःख को भी सहना पड़ा, इससे उनका व्यक्तित्व बड़ा गंभीर बन गया।पढ़ने की लगन शुक्ल जी में बचपन से ही थी। किंतु इसके लिए उन्हें अनुकूल वातावरण न मिल सका। किसी तरह उन्होंने एंन्ट्रेंस और एफ. ए. की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। उनके पिता की इच्छा थी कि शुक्ल जी कचहरी में जाकर दफ्तर का काम सीखें, किंतु शुक्ल जी उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे। अंत में पिता जी ने उन्हें वकालत पढ़ने के लिए इलाहाबाद भेजा पर उनकी रुचि वकालत में न होकर साहित्य में थी। अतः परिणाम यह हुआ कि वे उसमें अनुत्तीर्ण रहे। शुक्ल जी के पिताजी ने उन्हें नायब तहसीलदारी की जगह दिलाने का प्रयास किया, किंतु उनकी स्वाभिमानी प्रकृति के कारण यह संभव न हो सका।

शुक्ल जी मिर्ज़ापुर के मिशन स्कूल में अध्यापक हो गए। इसी समय से उनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे और धीरे-धीरे उनकी विद्वता का यश चारों ओर फैल गया। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने उन्हें हिंदी शब्द सागर के सहायक संपादक का कार्य-भार सौंपा,जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक पूरा किया। वे नागरी प्रचारिणी पत्रिका के भी संपादक रहे। अंत में शुक्ल जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी अध्यापन का कार्य किया। बाबू श्याम सुंदर दास की मृत्यु के बाद वे वहां हिंदी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त हुए। १९४० में हृदय की गति रुक जाने से शुक्ल जी का देहांत हो गया। ३० सितंबर, २००८ को दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में इनकी जीवनी का विमोचन हुआ।

कृतियाँ

शुक्ल जी की कृतियाँ तीन प्रकार के हैं। मौलिक कृतियाँ तीन प्रकार की हैं--

आलोचनात्मक ग्रंथ

सूर, तुलसी, जायसी पर की गई आलोचनाएं, काव्य में रहस्यवाद, काव्य में अभिव्यंजनावाद, रस मीमांसा आदि शुक्ल जी की आलोचनात्मक रचनाएं हैं।

निबंधात्मक ग्रंथ

उनके निबंध चिंतामणि नामक ग्रंथ के दो भागों में संग्रहीत हैं। चिंतामणि के निबन्धों के अतिरिक्त शुक्लजी ने कुछ अन्य निबन्ध भी लिखे हैं , जिनमें मित्रता, अध्ययन आदि निबन्ध सामान्य विषयों पर लिखे गये निबन्ध हैं। मित्रता निबन्ध जीवनोपयोगी विषय पर लिखा गया उच्चकोटि का निबन्ध है जिसमें शुक्लजी की लेखन शैली गत विशेषतायें झलकती हैं।

ऐतिहासिक ग्रंथ

हिंदी साहित्य का इतिहास उनका अनूठा ऐतिहासिक ग्रंथ है।


अनूदित कृतियां

शुक्ल जी की अनूदित कृतियां कई हैं। 'शशांक' उनका बंगला से अनुवादित उपन्यास है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेज़ी से विश्वप्रपंच, आदर्श जीवन, मेगस्थनीज का भारतवर्षीय वर्णन, कल्पना का आनंद आदि रचनाओं का अनुवाद किया।


संपादित कृतियां

संपादित ग्रंथों में हिंदी शब्दसागर, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भ्रमरगीत सार , सूर, तुलसी जायसी ग्रंथावली उल्लेखनीय है।

साहित्य में स्थान

शुक्ल जी हिंदी साहित्य के कीर्ति स्तंभ हैं। हिंदी में वैज्ञानिक आलोचना का सूत्रपात उन्हीं के द्वारा हुआ। तुलसी, सूर और जायसी की जैसी निष्पक्ष, मौलिक और विद्वत्तापूर्ण आलोचनाएं उन्होंने प्रस्तुत की वैसी अभी तक कोई नहीं कर सका। शुक्ल जी की ये आलोचनाएं हिंदी साहित्य की अनुपम विधियां हैं। निबंध के क्षेत्र में शुक्ल जी का स्थान बहुत ऊंचा है। वे श्रेष्ठ और मौलिक निबंधकार थे। हिन्दी में गद्य -शैली के सर्वश्रेष्ठ प्रस्थापकों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का नाम सर्वोपरि है। उन्होंने अपने दृष्टिकोण से भाव ,विभाव,रस आदि की पुनव्याख्या की, साथ ही साथ विभिन्न भावों की व्याख्या में उनका पांडित्य ,मौलिकता और सूक्ष्म पर्यवेक्षण पग -पग पर दिखाई देता है। हिन्दी की सैधांतिक आलोचना को परिचय और सामान्य विवेचन के धरातल से ऊपर उठाकर गंभीर स्वरुप प्रदान करने का श्रेय शुक्ल जी को ही है। "काव्य में रहस्यवाद" निबंध पर इन्हें हिन्दुस्तानी अकादमी से ५०० रुपये का तथा चिंतामणि पर हिन्दी साहित्य सम्मलेन ,प्रयाग द्वारा १२०० रुपये का मंगला प्रशाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।

संकलन आलेखः-अशोक कुमार शुक्ला