रामदयाल / पद्मजा शर्मा

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रामदयाल पेड़-पौधों की सार-सम्भाल अपने बच्चों की तरह करता है। लिली को पानी पिलाते हुए कहता है 'सुगनी, प्यासी मत रह जाना।'

जूही को खुर्पी देते हुए कहता है 'मेरी मोहनी खूब खिल रही है।'

रातरानी को खाद देते हुए लोकगीत गाता है।

गुलाब के पास से गुजरता है और गुलाब पकड़ ले तो समझ जाता है कि उसे बातें करनी हैं और वह बातें करता है। रंगों की, खुशबुओं की, कलियों की, काँटों की, फूलों की, चाँद तारों की, बादलों की, हवाओं की। हम सब उसकी ये बातें सुनकर हंसते हैं।

एक बार की बात है। रामदयाल गर्मी की छुट्टियों में महीने भर के लिए गांव चला गया। बगीचे की देख-भाल की जिम्मेदारी मुझे दे गया। मैं बिना नागा पेड़-पौधों को पानी दे रही थी। सुबह नहीं दे पाती तो शाम को देती। शाम को नहीं दे पाती तो सुबह देती। पर देती ज़रूर कि जेठ महीने की गर्मी प्राण लेवा होती है। दिन बीतते जा रहे थे। पर, जाने क्यों पौधे जलते जा रहे थे। पानी कम हो तो सूख जाएँ, ज़्यादा हो तो गल जाएँ। क्या करूँ क्या न करूँ कुछ समझ में न आए.

महीने भर बाद रामदयाल लौट आया। उसने बगीचा देखा। बगीचे में बगीचा नहीं था। सब पौधे सूख चुके थे। काँटों जैसे कांटे भी नहीं थे। रामदयाल ने लम्बी सांस ली और तत्काल पेड़-पौधों की सार-संभाल में लग गया, यह कहते हुए कि 'हमारे बिना इनका जी नहीं लगा। हम भी तो छटपटा रहे थे।' वह किसी पौधे को सहलाता। किसी को निहारता। किसी से बतियाता तो किसी के कान में गुनगुनाता। उन्हें खिलाते-पिलाते संवारते हुए उसने रात-दिन एक कर दिए.

दसेक दिन बाद ही क्या देखते हैं कि पौधों में जान आ गई है। वे नौ महीने के बच्चे की तरह, सहारे के साथ उठना-चलना सीख रहे हैं।

मै प्रकृति की इस अदा पर चकित ही नहीं मोहित भी थी।

पहली बार जाना कि पौधे हों या इंसान, प्रेम और स्नेहिल स्पर्श पाकर सब खिल उठते हैं।