रामबहोरन की अनात्मकथा / आशुतोष

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वह एक जिद्दी और घमंडी दोपहर थी जो अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद एक उदास शाम में ढल रही थी।

कमरे में घूमते पंखे को एकटक देखते हुए रामबहोरन ने सोचने की कोशिश की कि दिन बहुत जल्दी जल्दी बीत रहे हैं। उनके सोचने में थोड़ा व्यवधान आया कि दिन बीत रहे हैं या वे खुद बीत रहे हैं। थोड़ी-सी उधेड़बुन के बाद वे इस बात पर तय हुए कि दोनों बीत रहे हैं। पर इस गुंजाइश के साथ कि वे ज़्यादा बीत रहे हैं, दिन थोड़े कम। वैसे भी रामबहोरन से कोई पूछता है कि 'कहो डॉक्टर कैसी कट रही है?' तो रामबहोरन प्रतिप्रश्न करते हैं 'कौन, आदमी या समय'? सवाल करने वाला शायद अपना जवाब पा जाता और रामबहोरन अपने रास्ते हो लेते।

यहाँ बताते चलें कि रामबहोरन विश्वविद्यालय में शोधछात्र हैं। शोध करने वाले तमाम 'रामबहोरनों' को छात्रावास में डॉक्टर कहने का रिवाज-सा है। सो इस लिहाज से रामबहोरन डॉक्टर हुए ही।

रामबहोरन छात्रावास के अपने कमरे में इस कहानी के शुरू होने के ठीक पहले लौटे हैं। कहानी के शुरू में वे जिस पंखे को घूमते हुए देख रहे थे, वह उसी कमरे में लगा है। शहर में इधर उधर घूम-घामकर जब वे थक जाते हैं, तो वापस उसी कमरे में लौट आते हैं। वैसे उस शहर में उनके लौटने की वही एकमात्र जगह है। पहले टहलते हुए वे काफी दूर निकल जाते थे। वापसी के समय इतना थक जाते थे कि कमरे तक पहुँचना दूभर हो जाता। ऐसे में वे सोचते कि कितना अच्छा होता कि जहाँ उनको थकान लगे वहीं उनका कमरा भी हो। अपने इस विचार को आगे बढ़ाते हुए वे अक्सर एक विचित्र दार्शनिक सूत्र तक पहुँच जाते कि आदमी का जीवन भी ऐसा ही होना चाहिए. जब तक जिंदा रहे तब तक टहलता रहे, और जब मौत आए तो श्मशान सामने हो। अगर ऐसा हो जाए तो जिंदगी के आखिरी समय में भी दोस्तों का एहसान नहीं लेना पड़ेगा। संपूर्ण स्वावलंबी जीवन कुछ ऐसा होता होगा शायद। रामबहोरन के लिए यह सब सिर्फ विचार के स्तर तक ही नहीं था, इन सभी बातों को उन्होंने अपने जीवन में उतारने का भरपूर प्रयास किया। श्मशान वाली बात तो बाद की बात थी, पर थकान वाली बात के लिए उन्होंने एक तरकीब निकाली। अब वे टहलने उतनी ही दूर जाते हैं जहाँ से वापस कमरे पर आकर पूरी एक थकान हो जाती है और कमरा भी वहीं मिल जाता है। इस विचार को अपने व्यवहार में इतना सफल प्रयोग कर देने से वे आश्वस्त थे कि श्मशान वाले विचार को भी व्यावहारिक जीवन में सफल करेंगे।

इस पूरे प्रसंग में एक बात छूटती जा रही है। वह यह कि अपने कमरे में वापस आते समय रामबहोरन अपने विभाग में ज़रूर जाते हैं। उनकी यह दिनचर्या जब वे पढ़ते थे तब से है। (अब वे पढ़ते थोड़े हैं, वे तो शोध कार्य करते हैं) विभाग में विभिन्न कमरों के ऊपर लगे नामों को पढ़ना, सूचनापट देखना, कार्यालय सहायक, परिचारक से दुआ सलाम करना उनका रोज का काम है। इतने बड़े प्रतिष्ठित और संवेदना से भरे हुए विभाग में उनके लिए और कोई काम है भी नहीं। आज भी वे इन्हीं विभागीय औपचारिकताओं को निपटाकर रोज की तरह कमरे में लौटे हैं। रोज की तरह थक भी गए हैं। रोज की तरह पंखा भी घूम रहा है। रोज की तरह वे उसी घूमते हुए पंखे को एकटक देखकर सोच भी रहे हैं।

अब उनके सोचने में यह भी शामिल हो गया है कि जिस कमरे में वे बैठकर सोच रहे हैं, उस कमरे के वैधता के दिन भी बीत रहे हैं।

रामबहोरन ने सोचने की कोशिश की कि जिस दिन ये कमरा भी नहीं रहेगा, तब वे कहाँ सोकर सोचेंगे, इस प्रश्न पर थोड़ी-सी राहत मिली कि वे सड़क पर अनायास टहलते हुए भी सोच लेते हैं पर यह आश्वासन ज़्यादा देर टिक न सका। जैसे ही यह विचार आया कि वे तो सोकर भी सोचते हैं।

इस बार रामबहोरन ने सोचने की कोशिश नहीं कि कि जिस दिन यह कमरा भी नहीं रहेगा, तब वे कहाँ सोकर सोचेंगे?

यह बहुत कठिन मसला था। न चाहते हुए भी रामबहोरन इस प्रश्न से टूट गए. इस बात पर उनके लिए कोई राहत नहीं थी। वे अपना माथा पकड़कर बैठ गए. दिमाग में जैसे हथौड़ा चल रहा हो। देह पसीने से नहा गई. आँखों के सामने कई तरह के दृश्य और छवियाँ आने जाने लगीं। थोड़ी देर में कान भी बजने लगे...

“ संस्कृति का क्या अर्थ लिया है आपने? “

गंभीर से दिखने वाले सदस्य ने रामबहोरन के बायोडेटा को उलटते हुए पूछा था। रामबहोरन छूटते ही टेपरिकॉर्डर की तरह बजने लगे, “ सर, रेमंड विलियम ने अपने 'की वर्ड्स में संस्कृति के चार भाग बताए हैं, उनमें से एक है' द होल वे ऑफ लाइफ'। यहाँ मैंने संस्कृति का यही अर्थ लिया है।”

रामबहोरन अभी कुछ और कहते तब तक महात्मा जैसे दिखने वाले सदस्य ने टोका, “ संस्कृति के बारे में अपने देश में किसी ने कुछ नहीं कहा है क्या? कि आप विदेशी आदमी को कोट कर रहे हैं।” रामबहोरन स्थिर होकर बोले, “ कहा है सर, अज्ञेय ने, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने, दिनकर ने, रामविलास शर्मा ने और भी तमाम विद्वानों ने संस्कृति के संदर्भ में अपने विचार प्रकट किए हैं? “

महात्मा सदस्य ने कुपित स्वर में पूछा, “ आसाराम बाबू को आप विद्वान नहीं मानते हैं क्या? “

रामबहोरन ने विनम्रतापूर्वक कहा, “ सॉरी सर, मैं प्रश्न नहीं समझ पाया।” तभी एक दूसरे सदस्य ने पान से भरे अपने मुँह को सीधे छत की ओर उठाया, जैसे बाँग दे रहे हों, और कहा, “ भाड़तीय संस्कृति की मूल टेटना क्या है? “

रामबहोरन उस अलाप के बोल समझ नहीं पाए किंतु प्रसंग और धुन के हिसाब से

उन्होंने जवाब दिया, “ भारतीय संस्कृति की मूल चेतना धर्म है।” सदस्य ने हाथ से रामबहोरन को रुकने का इशारा किया और कुर्सी के पास ही रखे पीकदान में अपना मुँह खाली कर लगभग भाषण दे दिया, “ भारतीय संस्कृति की मूल चेतना धर्म नहीं त्याग है... भारतीय संस्कृति विश्व की महान संस्कृति है।” और भी तमाम बातें वे आँख बंदकर उच्च स्वर में बताते रहे। रामबहोरन का मन किया कि मुस्कराएँ पर साक्षात्कार का ख्यालकर मुस्कराने की जगह पर बोल पड़े, “ त्याग तो सबसे बड़ा धर्म है।”

रामबहोरन ने सोचना चाहा कि वे अगर ऐन वक्त पर बोले नहीं होते तो क्या मुस्कराए होते। तब तक भाषण वाले सदस्य ने दूसरा पान मुँह में लिया और उन्हें टोका, “ मान्यवड़ ढयान नहीं डे रहे हैं मेरी बातों पर, औड़ आपके बोलने में भी टमाम भाषाई अशुड्ढियाँ हैं।”

रामबहोरन घबरा गए, सफाई देते हुए कुछ कहना चाह रहे थे पर एक अन्य सदस्य ने उन्हें टोका, “ खामोश रहिए और ध्यान दीजिए... साक्षात्कार चालू है।”

रामबहोरन को एक झटका लगा। जैसे उन्हें होश आया हो। माथे का दर्द अब देह में उतरने लगा था। कमरे में लगा पंखा रोज की तरह चल रहा था। रामबहोरन को घबराहट होने लगी थी। वे इससे भागना चाहते थे। इस घुटन से, इस दर्द से, इस तनाव से और इस देह से भी, जिसमें एक साथ इतना कुछ हो रहा था। गर्मी बढ़ती जा रही थी। पंखे को और तेज करने के लिए रामबहोरन ने हाथ उठाया, तभी यह ख्याल आया कि उस पंखे में अपने ज़रूरत के हिसाब से कम या अधिक करने वाला रेगुलेटर नहीं है। पंखा अपने हिसाब से चलता है। जिंदगी अपने हिसाब से खर्च होती है। रामबहोरन ने इस बार सोचने की सच में कोई कोशिश नहीं की, फिर भी अनायास ही उनके ध्यान में यह आया कि पंखा हो या जिंदगी इनमें से किसी पर उनका कोई वश नहीं है।

रामबहोरन की एक खास किस्म की आदत ये है कि वे बुरी से बुरी बेबस परिस्थितियों में भी मुस्कराने वाली बात खोज लेते हैं। पंखा और जिंदगी दोनों पर रामबहोरन का कोई अख्तियार नहीं है। इस बात पर रामबहोरन एक मजेदार निष्कर्ष पर पहुँचे कि दरअसल दोनों में रेगुलेटर नहीं है। अब रेगुलेटर वाली जिंदगी कैसी होगी यही सोचकर रामबहोरन देर तक मुस्कराते रहे।

अपने नितांत अकेले में जब रामबहोरन ये वाली हँसी हँसने बैठते हैं तो इतना तो टाइम लेते ही हैं कि जितने में एक गर्म चाय एकदम से ठंडी हो जाए... हो क्या जाए...हो गई.

रामबहोरन ने देखा कि वह जिंदगी और पंखे में उलझे रह गए और सामने मेज पर रखी चाय कब की ठंडी हो गई है।

बिना पिए ही चाय के ठंडे होने पर रामबहोरन को ध्यान आया कि इस समय उनकी वह बीए सेकंड ईयर वाली क्लास मेट होती, जो बहुत सुंदर थी, उससे भी अधिक गोरी थी, उसस भी अधिक अच्छी थी, और उससे भी अधिक रामबहोरन उसको प्यार करते थे तो कहती पागल कहीं के (...) क्या सोचते रहते हो (...) अब यह नहीं कि सामने चाय पड़ी है तो पी लें।

रामबहोरन के वे प्यार वाले दिन थे। पहले प्यार वाले दिन। उन प्यार वाले दिनों में उस प्यार वाली लड़की के घर पर मई जून की गर्म दोपहरी में रामबहोरन की चाय अक्सर ठंडी हो जाया करती थी। लड़की गुस्सा हो जाती थी। वे कॉलेज के छुट्टी के दिन थे। वह छुट्टियों का प्यार था। मतलब कि दोनों छुट्टी पाकर छूटकर प्यार कर रहे थे।

लड़की के पापा बिहार में कहीं मास्टर थे। रामबहोरन के पहले प्यार वाले गर्मी के उन्हीं दिनों में वे रिटायर होकर घर आ गए. रामबहोरन और उस लड़की का घर पर मिलना छूट गया। कॉलेज भी उन दिनों बंद था। हिम्मत करके एकाध शाम रामबहोरन लड़की की गली में आते भी थे तो टाइमिंग सेट नहीं हो पाने के कारण लड़की छत पर नहीं आ पाती थी। गर्मियों में उपजा यह प्रेम बरसात में देर तक भीगता रहा और ठंड के मौसम आते आते ठंडा हो गया। जैसे था ही नहीं।

यह सब बीते हुए बहुत दिन हुए. पर अब भी जब कभी किसी दोपहर में रामबहोरन को बहुत गर्मी लगती है या फिर किसी शाम वे किसी गली से गुजरते हैं तब उनको उस लड़की की बहुत याद आती है।

रामबहोरन ने सोचने की कोशिश नहीं की, पर वे जानते हैं कि वह लड़की जहाँ कहीं भी होगी, शाम को पहले ही की तरह छत पर नहीं आती होगी। इसके बावजूद जब कोई चाय ठंडी हो जाती है तो रामबहोरन को भरी और गर्म दोपहरी में उस लड़की का मुँह बनाकर 'पागल' कहना अक्सर याद आता है।

रामबहोरन इन सभी बातों को भुला देना चाहते हैं, यह जानते हुए भी कि वे इन्हें कभी भूल नहीं पाएँगे। इस तरह की यादों से रामबहोरन के माथे का दर्द बढ़ने लगा। वे दर्द के आवेग से अपना ध्यान हटाना चाहते थे। कमरे में रखा रेडियो चालू किया। रेडियो जैसे इसी का इंतजार कर रहा था। यहाँ भी दर्द खबरों की शक्ल में जारी था...

“परमाणु करार पर सत्ता पक्ष और सहयोगियों में आम सहमति नहीं बन पाई...”

“प्रधानमंत्री ने भूमि अधिग्रहण का विरोध करने वालों को विकास विरोधी कहा...”

“अयोध्या में विवादित ढाँचा गिराने वाले मामले की सुनवाई टली...”

“सरकार ने कहा - भोपाल गैस कांड के आरोपी एंडरसन का प्रत्यर्पण ज़रूरी नहीं...”

रामबहोरन का दम घुटने लगा। बिजली से चल रहे उस रेडियो के तार को रामबहोरन ने घबराकर नोंच दिया। जैसे इतनी सारी भयानक खबरें उसी तार से प्रवाहित हो रही थीं। रामबहोरन के इस कृत्य से जैसे रेडियो को सदमा लगा हो, वह झटके से चुप हो गया। फिर भी उन खबरों का असर पूरा हो गया था। दर्द बढ़ता ही जा रहा था। रामबहोरन टूट जाने से पहले उस दर्द से छुटकारा पाना चाहते थे।

व्यक्ति की अपनी सीमा है। वह वर्तमान से घबराकर हर बार भविष्य के सुनहरे सपनों में नहीं जा पाता। कई बार तो वह वर्तमान से फिसलकर अपने पुराने दिनों में चला जाता है। रामबहोरन के साथ भी यही हुआ। वे भी भाग रहे थे। इसी भागने में उनके बचपन का पन्ना हाथ लग गया।

बहुत बड़ा संयुक्त परिवार था। यहाँ 'संयुक्त' विशेषण सिर्फ ढाँचे के लिए है, वरना परिवार के लोगों का मन एक दूसरे से हमेशा विभक्त ही रहा। घर में दूध दही तो खूब होता था, किंतु ढेर सारे बच्चों के बीच दो दो करछुल ही बँटता था। शेष आने जाने वालों को चाय पिलाने में इस्तेमाल किया जाता था।

इस तरह के माहौल में रामबहोरन की पढ़ाई लिखाई के लिए उनकी माँ हमेशा चिंतित रहती थीं। महिलाओं की पहुँच सबसे अधिक उनके मायके तक होती है। इसी पहुँच का फायदा उठाकर रामबहोरन पढ़ाई के लिए ननिहाल भेज दिए गए. रामबहोरन को ननिहाल में रहकर पढ़ना बहुत खराब लगता था। हमेशा उनको यही लगता था कि ननिहाल का पूरा गाँव जान गया है कि उनके घर में कुछ गड़बड़ चल रहा है। इसी मनःस्थिति में रामबहोरन खुद को अपवादित बनाते गए. किसी तरह से साल निबह पाया। नए सत्र में रामबहोरन की वापसी उसी प्राइमरी पाठशाला में हो गई जहाँ से वे गए थे। इस पूरे प्रकरण में सर्वाधिक रुसवाई माँ की हुई. घर के लोग बात बात में ताना कसने लगे कि कैसा मायका है कि वहाँ एक बच्चा नहीं टिक पाया। माँ अपने बच्चे को सही ठहराती तो उसके मायके की बदनामी होती।

इस तरह आम भारतीय महिला का सहज मायका सम्मान बचा लिया गया। रामबहोरन बहुत कम उम्र में बदनाम बहोरन हो गए.

छठी कक्षा में रामबहोरन का दाखिला घर से दस किलोमीटर दूर किसान इंटर कॉलेज में हो गया। कॉलेज अपना 'किसान' नाम पूरी तरह सार्थक कर रहा था। कॉलेज के फर्श, छत, दरो-दीवार सभी का धूप हवा पानी से सीधा रिश्ता कायम था। यानी किसान इंटर कॉलेज किसानों की ही तरह मौसम की मेहरबानी पर खड़ा था।

स्कूल आने जाने के लिए पिता को दहेज में मिली साइकिल रामबहोरन के काम आई. इतनी कम उम्र में रोज लगभग बीस किलोमीटर साइकिल चलाना एक तरह से क्या सभी तरह से ज्यादती थी। शाम को जब रामबहोरन स्कूल से वापस आते तो उनका चेहरा देखकर यही लगता कि शायद कल स्कूल न जा सकें। किंतु रामबहोरन के भीतर उस उम्र में साइकिल चलाने का उत्साह इतना प्रबल था कि रोज सवेरे फिर तैयार हो जाते थे। पर इतनी पुरानी साइकिल उस चंचल, उत्साही, नौसिखिए सवार को कभी स्वीकार नहीं कर पाई. वह अपनी टूटती थकती हुई साँसों को सँभालते हुए रामबहोरन के आवेग और उत्साह की भेंट चढ़ती रही। वैसे रामबहोरन उस साइकिल को बहुत प्यार करते थे, किंतु उस समय साइकिल को प्यार नहीं मरम्मत की ज़रूरत थी, जो कभी उसे नहीं मिल पाया। खैर! कुछ साल तक रामबहोरन और साइकिल एक दूसरे को चलाते रहे।

बहुत बाद में जब वह साइकिल कबाड़ के रूप में बिकने के लिए निकाली गई तो उसे देखकर रामबहोरन को लगा कि दहेज में मिली चीजों का आखिरी में यही अंजाम होता है। आज भी जब रामबहोरन को उस साइकिल का ख्याल आता है तो उनकी हथेलियाँ पसीज जाती हैं।

रामबहोरन के पिता को विवाह में एक पत्नी, एक साइकिल और एक रेडियो मिले थे। बाद के दिनों में परिवार में कलह और शोर इतना बढ़ा कि रेडियो की बोलती बंद हो गई. एक दिन उसने पलंग से कूदकर अपनी जान दे दी। ससुराल से मिली चीजों की मौत के बाद जो कुछ कहा जाता है, रेडियो की मौत पर भी वही बातें हुईं। मौत की आधिकारिक सूचना जारी हुई कि 'बिल्ली ने रेडियो को गिरा दिया'। माँ बहुत दिनों तक उसके कलपुर्जों को रस्सी से बाँधकर रखे रही, बाद में जाने क्या हुआ। साइकिल का जो हुआ वह सबको पता ही है। तो क्या माँ के साथ भी एक दिन वही होगा जो उस रेडियो और साइकिल के साथ हुआ? ऐसा सोचकर ही रामबहोरन का रोने का मन करता है।

बहुत...

माँ, रामबहोरन की साइकिल यात्रा बंद कराना चाहती थी। फिर भी वे दो साल तक साइकिल चलाते रहे। आठवीं कक्षा से एक दूसरे संबंधी के यहाँ शहर में स्थांतरित कर दिए गए. गाँव की अनगढ़ मिट्टी शहर के संस्कारों में ढल नहीं पाई. धीरे धीरे रामबहोरन मिट्टी से मलबा बनते गए. दिन में इधर उधर घूमते रहते और शाम होते ही चुपचाप किसी कोने में बैठकर माँ के लिए बहुत कम उम्र में बहुत अधिक कुहूक कुहूक कर रोते थे।

कुछ साल तक रामबहोरन का यह आत्मविलाप चलता रहा। पर एक दिन बड़ा ही अजीब-सा एक इतवार आया।

मतलब समझ लीजिए कि इतिहास बनते बनते रह गया। अगर उस घटना के बाद रामबहोरन प्रसिद्ध हो गए होते तो उनकी जीवनी लिखने वाले तमाम लेखक, अलेखक उस घटना का उल्लेख 'इतवार क्रांति' के रूप में करते। दरअसल हुआ यह कि उस इतवार को रामबहोरन ने टी.वी. पर बी.आर. चोपड़ा के महाभारत में एकलव्य का अँगूठा कटते हुए देखा और देर तक अपने अँगूठे को सहलाते रहे। टी.वी. बंद होने के बहुत बाद तक उसके काले स्क्रीन पर रामबहोरन को लाल लाल धब्बे दिखाई दे रहे थे। पूरा इतवार घरघराता रहा। एक अजीब-सी बेचैनी में रामबहोरन परेशान रहे। पानी पीते, खाना खाते अचानक उनको लगता कि उनके हाथ में एक अँगूठा कम है। रामबहोरन के भीतर एक अजीब-सा आक्रोश भरता जा रहा था। थोड़ी देर के लिए आँख भी लगी तो उन्होंने देखा कि ढेर सारे लोग टी.वी. वाले महाभारत के खिलाफ गोलबंद हो नारे लगा रहे हैं, और उनके हाथों में अँगूठे नहीं हैं। रामबहोरन उस इतवार से निकलकर कहीं बाहर भाग जाना चाहते थे। पर अभी उस इतवार की शाम बाकी थी। वह वही शाम थी जिसमें दूरदर्शन पर देवानंद की प्रसिद्ध फिल्म 'गाइड' को आना था।

खैर, इक्कीस इंच के ब्लैक एंड वाइट टी.वी. के काले स्क्रीन पर एकदम समय से वह शाम आई, 'गाइड' फिल्म को साथ लेकर। जैसे फिल्म और शाम दोनों का कहीं से कोई प्रसारण कर रहा हो। फिर क्या था, इतवार की वह शाम लंबी होकर अगले कई सुबहों तक पसर गई. रात भर कोई गाता रहा 'वहाँ कौन है तेरा... मुसाफिर जाएगा कहाँ'। रामबहोरन किसी से कुछ नहीं बोले। एकदम खामोश, एक ही करवट सोए सोए वे रातें बदलते रहे। सुबह उठे। चुपचाप अपना कपड़ा लत्ता सहेजा और चल दिए. किसी को बिना यह बताए कि '...मुसाफिर जाएगा कहाँ'।

एक बात और उस घटना के बाद भी यदि रामबहोरन प्रसिद्ध हो गए होते तो इतिहासकार उस घटना को कम से कम 'महाभिनिष्क्रमण' तो कहते ही। पर होनी पर उनका कोई वश नहीं है। दरअसल रामबहोरन के निकलने के साथ ही जन जन की आस्था के प्रतीक श्री श्री (एक नहीं बहुत ज्यादा) आठ श्री लालकृष्ण आडवाणी जी महाराज एक रथयात्रा लेकर निकल पड़े। अब कहाँ राम और कहाँ रामबहोरन। उस समय के अखबारों में या तो राम छपते थे या फिर दर्द निवारण दवाइयों के व्यावसायिक विज्ञापन। रामबहोरन को कोई जगह नहीं मिल पाई. वैसे भी धर्म और व्यवसाय की उत्तेजना में पीड़ा को जगह कहाँ? लेकिन रामबहोरन ना सत्ता के थे और ना विपक्ष के, ना धर्माचार्य थे और ना धर्मोद्योगी, तो इतिहास में कैसे दर्ज होते? बाद में रामबहोरन को लगता था कि इतिहास में भी एक 'तीसरा दर्जा' होना चाहिए, नहीं तो कितने लोग यूँ ही छूटते जाएँगे।

खैर, रामबहोरन का जाना महाभिनिष्क्रमण हो भी नहीं सकता। क्योंकि उनके पास छोड़कर जाने के लिए ना कोई राज्य था, ना सुंदर पत्नी और ना कोई बच्चा। शायद इसीलिए वह रात में नहीं दिन के उजाले में गए. केवल 'दर्द' किसी महान आदमी से 'मैच' कर जाए इससे किसी की हर बात महान नहीं हो जाती। किसी से कुछ कहकर जाने का कोई मतलब नहीं था और सच तो यह है कि जो थे वह पूछे भी नहीं। तो 'सखि वे मुझसे कहकर जाते' जैसी कोई भावुक या मार्मिक बात नहीं हुई. पर बाद के दिनों में रामबहोरन ने अपने सादे से उस गृहत्याग को 'महानिलंबन' की संज्ञा दे दी थी। उस घटना के बाद रामबहोरन के घर से उनका संबंध लगभग टूट गया।

तब से आज तक रामबहोरन छात्रवास में पड़े रहे। उसी छात्रावास में जहाँ वे इस कहानी की शुरुआत में आए थे। वह बिना रेगुलेटर वाला पंखा अब भी उसी कमरे में चलता है। दिन बीत रहे थे। किताब दर किताब जिंदगी खत्म होती रही। हर बरस एक और डिग्री फाइल में बढ़ती रही। एक अनगढ़ पौधे की तरह बढ़ते हुए रामबहोरन वहाँ आ गए जिसे पढ़े लिखे लोग उच्च शिक्षा कहते हैं। यही बात रामबहोरन से कोई पूछता तो वे मुस्कराकर कहते 'नहीं समझे... उच्च शिक्षा बोले तो शिक्षा का बीहड़'। रामबहोरन की इस शैक्षिक यात्रा के पीछे सीधा तर्क था। पढ़ने के नाम पर हाईस्कूल पास कर लिया। इंटर इसलिए किया कि सबकी उम्मीदों पर हर बार की तरह पानी फेरते हुए हाईस्कूल पास हो गए. बी.ए. की पढ़ाई इसलिए हो गई कि इंटर के बाद माँग और आपूर्ति सेट नहीं हो पाने के कारण नगरपालिका में क्लर्क नहीं बन पाए. बी.ए. के बाद सिंचाई विभाग में बाबू होते होते रह गए. बात पक्की थी। पर नया साहब आ गया। बिरादरी मैच नहीं कर पाई. घर भर के अरमानों की धरती सूखी की सूखी रह गई. अब कुछ नहीं हो पाए तो एम.ए. करने लगे। एम.ए. के दौरान ही रामबहोरन के चारों तरफ एक बड़ी दुनिया खुलने लगी थी। वे भौंचक हैरान उस दुनिया में बहुत दूर निकल आए. इतनी दूर कि अब वहाँ से लौट नहीं सकते। यदि लौट भी गए तो किसी काम के नहीं रह जाएँगे। तो रामबहोरन वहीं डटे हैं। वहीं मतलब उच्च शिक्षा या फिर घनघोर बीहड़ में।

हाँ, इस बीहड़ में होनेवाले बौद्धिक या अबौद्धिक गैंगवार में रामबहोरन गड़बड़ा जाते हैं। जब कभी एकदम अकेले में छात्रावास के बगल वाली चाय की दुकान में बैठकर अपनी चाय ठंडी कर रहे होते, और उस समय उनकी वह बी.ए. सेकंड ईयर वाली क्लासमेट भी नहीं होती, तब वे खुद से ही कहते, “ससुरा इहाँ समझ में नहीं आता कवन किस पार्टी में है? समझ में आए कैसे? इधर के बीहड़ का जो सरदार है वह भोपाल में उपन्यास पर बोलता है, दिल्ली में जनतंत्र पर बोलता है। और हम लोगों को देखता है तो 'अवसरवाद' के विरोध में बोलता है। नई उम्र की साहित्य साधिकाओं से देर तक मुस्कराते हुए बोलता है। और तो और कुछ लोग बताते हैं कि सालों हो गए अपनी पत्नी से नहीं बोलता है।”

इस दुनिया की इन्हीं बातों से रामबहोरन कभी कभी घबरा जाते हैं। पर कहीं कोई रोशनी दिखेगी इसी उम्मीद में जी रहे हैं। बौद्धिकता में आदमी रो भी नहीं पाता, पर रामबहोरन का रोने का मन बहुत होता है। ऐसे पन्नों में रामबहोरन को उनकी माँ बहुत याद आती है। जब याद आती है तो रामबहोरन रोने ही लगते हैं।

माँ का ख्याल आते ही रामबहोरन को झटका लगा। बचपन के पन्नों से फिसलकर बाहर आ गए. अंदर से एक लहर-सी उठी, और मुँह से कराह निकल आई. रामबहोरन को लगा कि उन्होंने गहन पीड़ा के क्षणों में माँ कहा हो। माँ।

(सफेद थुलथुल भयानक से शख्स ने घूरा... “ माँ कौन है”)

आनन फानन में रामबहोरन बोल गए, “ गोबर की माँ है सर... धनिया”

कोट टाई वाले सदस्य ने टोका, “ यू नो गोर्कीज मदर? “

“ यस सर... आई नो।”

“ कहाँ जानते हैं? ...जानते होते तो पहले ही नहीं बताते...विश्व साहित्य में आपका ज्ञान बिल्कुल शून्य है।”

रामबहोरन ने स्थिर होकर जवाब दिया, “ ऐसा नहीं है सर... गोर्की का नाम मैंने इसलिए नहीं लिया कि साक्षात्कार के आरंभ में रेमंड विलियम का नाम लेने पर बोर्ड की ओर से ही आपत्ति हुई थी कि अपने देश के विद्वानों का ही हवाला दिया जाए... इसलिए मैंने”, तब तक एक दूसरे सदस्य ने उनकी बात काटते हुए कहा, “ अच्छा... ठीक है... ठीक है..., यह बताइए कि धनिया की उम्र कितनी थी? “

इस प्रश्न पर रामबहोरन चकरा गए. जवाब देने में देर लगते देख अब तक खामोश बैठे सदस्य ने मुस्कराते हुए कहा कि “ डॉक्टर साहब पूछ रहे हैं कि धनिया की उम्र कितनी थी? ... मतलब वह कितने बरस की थी।”

प्रश्न और प्रश्नकर्ता की इस भंगिमा पर रामबहोरन तिलमिला गए. दूसरी तरफ बैठे विषय विशेषज्ञों की तरफ मायूसी से देखा। रामबहोरन को लगा कि प्रगतिशील एक्सप्रेस के गार्ड साहब इस तरह की 'चैन पुलिंग' पर कुछ बोलेंगे, पर वे नहीं बोले। दूसरे सांस्कृतिक नैतिकवाद के अकादमिक पुरोहित जी जानते थे कि कुछ बोले तो निश्चित है कि अगले बैच में नहीं बुलाए जाएँगे। इंटरव्यू के पैनल में होना बेमौसम का सम्मान तो है ही, साथ ही टीए डीए आदि...आदि। इसलिए कोई नहीं बोला। बस, कहीं से कोई आवाज आ रही थी 'सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक...'

रामबहोरन के मन में आया कि कह दें 'धनिया की उम्र आपकी माँ की उम्र के बराबर थी...' पर खामोश, साक्षात्कार चालू है।)

रामबहोरन को लगता है कि एक बार नौकरी मिल जाए तो वे पिता की आँखों की

चमक को वापस ला सकते हैं, घर को रहने लायक बना सकते हैं, बहन की शादी के लिए पैसा जोड़ सकते हैं। बहुत कुछ कर सकते हैं सिवाय नौकरी पाने के.

रामबहोरन की समस्या है कि वह जीते हैं इक्कीसवीं सदी में और समस्याएँ पाले हुए हैं उन्नीसवीं सदी की। पिता की आँखों की चमक, माँ की ममता, बहन की शादी यह सब इक्कीसवीं सदी की 'ग्लोबल विलेज' की नहीं, पुराने दिनों के गाँव-गँवार की बातें हैं। जब ये पुराने किस्म का दर्द पालेंगे तो परेशान रहेंगे ही। हाँ, कोई समकालीन दर्द पालते तो कुछ और बात होती। कभी कभी घर गाँव की उन्हीं यादों से विवश होकर इधर का कुछ हालचाल जानना चाहते भी तो उसमें और परेशानी होती। घर की बहुत याद आती तो चिट्ठी लिखने बैठ जाते। अपनी चिट्ठियों को लेकर शाम के अँधेरे में छात्रावास से निकलते और चुपके से डाकखाने में छोड़ आते। चिट्ठी बॉक्स में डालते हुए उन्हें लगता कि इधर से गुजरने वाला हर आदमी उनको ही घूर रहा है कि 'यह कौन आदमी है, जो आज के जमाने में चिट्ठी लिखता है।'

रामबहोरन अक्सर ये सोचते हैं कि यह देश महान लोकतांत्रिक देश है, जिसमें सभी के लिए उसका पारिवारिक पेशा सुरक्षित रहता है। तभी तो नेता का बेटा नेता, और व्यापारी का बेटा व्यापारी आसानी से बन जाता है। इसका दूसरा पहलू यह है कि मजदूर का बेटा मजदूर और नौकर का बेटा नौकर बन ही जाएगा। तब तो रामबहोरन का किसान बनना लगभग तय है। ऐसे में उनके हिस्से में 'होरी की मौत' ही शामिल है। पर इसमें भी रामबहोरन को एक पेंच नजर आता है। वह यह कि आजकल वह उन्नीस सौ छत्तीस वाला जमाना नहीं है, जब प्रेमचंद ने होरी को 'नेशनल हीरो' बना दिया था। आज 'मीडियम इज द मैसेज' का जमाना है। उपन्यास से जयादा आज 'चैनल' विश्वसनीय हैं। यही सब सोचते हुए रामबहोरन छात्रावास के कॉमनहॉल तक आ गए. वहाँ WWF देखने वाले दर्शकों की संख्या आज कम थी। इसलिए रामबहोरन ने अपने को बौद्धिक साबित करते हुए न्यूज लगा दिया। समाचार देखकर बहुत ही तीखा अनुभव हुआ। हुआ यह कि महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में एक ही परिवार के तीन किसानों ने कर्ज से आजिज आकर आत्महत्या कर ली। जिस खेत के लिए कर्ज लिया था उसी में खड़े पेड़ से लटकते हुए उन किसानों की साँस जिस समय टूटी थी, ठीक उसी समय देश की राजधानी में आयोजित एक फैशन शो में रैम्प पर कैटवॉक कर रही मॉडल के ब्रा के हुक टूट गए. धन्य हो वह सुपरमॉडल, जिसने तुरंत ही जिम में गढ़े गए अपने सुडौल स्तनों को नहीं ड्रग्स से लस्त अपनी आँखों को ढक लिया। बाद में कह दिया कि मैंने कुछ देखा ही नहीं। सच है 'मूँदहु आँखि कतहुँ कुछ नाहि'।

बस क्या था, टीवी चैनलों पर किसानों की टूटती साँसों को मिला डेढ़ मिनट का कवरेज और मॉडल के हुक टूटने को मिला तेईस घंटा अट्ठावन मिनट तीस सेकेंड का कवरेज। चैनल वालों ने ब्रा के हुक टूटने की उस नियोजित घटना को इतनी बार इतने स्लो मोशन में दिखाया कि भाई लोगों को उस मॉडल का सही साइज याद हो गया। 'ब्रा ब्रेकिंग' की वह घटना सभी चैनलों के लिए 'ब्रेकिंग न्यूज' बन गई. चैनलों में होड़ मची थी। किसी चैनल का दावा था कि हुक टूटने की सबसे पहली तस्वीरें उसके पास हैं, तो किसी का दावा था कि हुक टूटने के बाद की सबसे पहली तस्वीरें हमारे पास हैं। अपने अपने दावों को लेकर चैनल वालों ने इतनी बार उस मॉडल का हुक तोड़ा कि दूसरे दिन सभी अखबारों के मुखपृष्ठ पर छपी वह मॉडल रामबहोरन को नंगी लग रही थी। उन्हीं अखबारों में दसवें पृष्ठ पर एक कॉलम में जिलाधिकारी का बयान छपा था कि 'किसानों की मौतें कच्ची दारू पीने के कारण हुई थीं'। इस खबर के नीचे लगभग आधे पृष्ठ में एक बहुराष्ट्रीय बैंक का 'कार लोन' का विज्ञापन छपा था।

अखबार पढ़ते हुए रामबहोरन सोच रहे थे कि अब मरने वरने से भी कोई 'हेरोइक इमेज' नहीं बनने वाली। कौन जाने जिस दिन मरें उसी दिन किसी '...वलिए' या किसी रिएलिटी शो के सेट पर किन्हीं रोहतगी या सावंत की वक्षक्रांति में उनके जैसों का मरना जीना बिला जाय। रामबहोरन के होठों से बुदबुदाहट निकली, “साला, इस देश में किसान मजदूर का कहीं कुछ भी नहीं है। ना इनका जीना खबर और ना मरना खबर। एक ये लोग हैं कि इनका पहनना भी खबर है और नंगा होना भी खबर है। अगर भूखे भटके कहीं किसान मजदूर टीवी चैनल पर आते भी हैं तो दूरबीन विधि से नसबंदी कराने के प्रचार में या फिर स्टेशन पर बैठकर कंडोम बिंदास बोलते हुए दिखते हैं।”

इस तरह न दिखें तो कहीं गढ़चिरौली या कालाहांडी में मरे पड़े मिलते हैं। उनके मरने की खबर टीवी पर आने से पहले किसी मल्टीनेशनल कंपनी के 'डीयो' लगाती हुई किसी सुंदरी की बहुचर्चित नाभि से लहरें उठने लगती हैं और उस नाभि की टीआरपी में सब कुछ बह जाता है। यह सब समझते हुए रामबहोरन इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह टीआरपी का ही मामला है कि आजकल चैनलों पर 'नाभिदर्शना क्रांतियों' की भरमार है। इस तरह ये सुंदरियाँ और ये चैनल आपस में 'नाभिनालबद्ध' हैं।

रामबहोरन की जिंदगी में एक और रोचक प्रसंग है -

यूँ समझ लीजिए कि तयशुदा मौत से पहले थोड़ा जिए भी थे रामबहोरन। पूरे होशोहवास में ये उनका दूसरा प्रेम था। पहला प्रेम तो उनको अपनी उस बी.ए. सेकंड इयर वाली 'क्लासमेट' से हुआ था। दूसरा प्रेम भी 'क्लास' की ही लड़की से हुआ। 'क्लास' मतलब एम.ए. की कक्षा। रामबहोरन के दोस्त कहते थे कि 'कुछ भी कहो पार्टनर लड़की हाई क्लास की है।' रामबहोरन ये सुनकर फिक्क से हँस देते।

रामबहोरन को प्यार हो गया है, इस बात की खबर उनसे पहले उनके मित्रो को लगी थी। पहले तो रामबहोरन टालमटोल करते रहे। बाद में उनके दोस्तों ने उनसे देह मन के तमाम लक्षणों को चिन्हित कर बताया तो उन्होंने भी मान लिया कि उनको प्रेम हो गया है। अब जब मान लिया तो हो भी गया। क्योंकि गणित के प्रश्नों को हल करते समय 'माना कि' से शुरू कर ही असली जवाब पाते हैं। वैसे भी रामबहोरन की जिंदगी गणित से कम जटिल नहीं है। यह अलग बात है कि इसमें दो और दो का जोड़ कभी चार नहीं हुआ।

प्रेम और प्रेमिका के मामले में रामबहोरन छायावादी निकले। उनको प्रेमिका से ज़्यादा उसकी यादें अच्छी लगती थीं। प्रेमिका यथार्थवादी थी। प्रेमिका को रामबहोरन की लिखावट अच्छी लगती थी, फिर तो वह अपने सारे नोट्स रामबहोरन से ही बनवाने लगी। कैरियर के प्रति अत्यधिक जागरूकता में वह कभी इग्नू से तो कभी कहीं से कुछ न कुछ नया कोर्स आदि करती रहती थी। रामबहोरन उसके लिए स्थायी लेखक थे। धीरे धीरे उनकी जिम्मेदारी बढ़ती गई. प्यार करने से इतर और भी बहुत सारे काम रामबहोरन के पास आ गए थे।

रामबहोरन के प्रेमिका के घर की स्थिति कुछ रहस्यमय थी। उसके पिता की मौत हो गई थी। भाई अपनी अपनी पत्नियों को लेकर अलग रहते थे। रामबहोरन जब कभी इस संदर्भ में कुछ जानना चाहते थे तब प्रेमिका उनको झिड़क देती थी, “मेरे घर के बारे में तुम कुछ ज़्यादा ही रुचि लेते हो, ऐसा क्यों।” अब रामबहोरन कैसे कहें कि “मैं तुमसे प्यार करता हूँ यही पर्याप्त कारण है।”

इस प्रसंग में हुआ यही कि प्रेमिका के घरवालों के संदर्भ में रामबहोरन का ज्ञान शून्य ही रहा। प्रेमिका अपनी माँ के साथ रहती थी। और जब कभी जीवन संघर्षों को लेकर बहुत घबरा जाती तो वैसे में रामबहोरन उसके लिए तसल्ली बनकर आ जाते थे।

कुछ बातें थीं जो शुरू से ही रामबहोरन के मन में खटकती थीं।

रामबहोरन की प्रेमिका की जान-पहचान रामबहोरन के दोस्तों से भी हुई. प्रेमिका की एक आदत काफी रहस्यमय थी कि वह रामबहोरन की जानकारी के बगैर उनके रूममेट या उनके दूसरे नजदीकी मित्रो को खाने या चाय पर घर या बाहर बुला लेती थी। उनके दोस्त वहाँ पहुँचकर रामबहोरन की अनुपस्थिति पा बहुत संकोच में पड़ जाते थे। फिर काफी दिनों तक उनसे मुँह चुराते रहते थे। रामबहोरन कहते कि “हर बात मुझे बताकर ही करे ये ज़रूरी नहीं है, और ना ही मैं ऐसा चाहता हूँ, पर बता देने में हर्ज क्या है, यह मैं समझ नहीं पाया।” आखिरकार हर दावत की खबर रामबहोरन को हो ही जाती थी। पर रामबहोरन ने कभी अपनी प्रेमिका से नहीं पूछा कि इन गुमनाम दावतों का रहस्य क्या है। बहुत बाद तक दावत खाने वाले नहीं समझ पाए कि रामबहोरन के दोस्तों को उनकी प्रेमिका उनकी गैर जानकारी में ट्रीट क्यों देती है?

इन सभी चीजों के बावजूद रामबहोरन उस लड़की से प्यार करने लगे थे। कभी चुपचाप खुद से ही कहा था कि शादी यदि करनी है तो इसी लड़की से। किंतु इन सबमें रामबहोरन ने धैर्य से काम लिया। छात्रावास की छत पर लेटकर चाँद को एकटक देखते हुए चाँद से ही अपनी रणनीति बताई थी: 'बहुत कूदना फादना नहीं है... बस धीरे धीरे प्यार को बढ़ाना है।'

रामबहोरन ने चाँद से कुछ चुपचाप जब कहा था उस समय कई देशों के द्वारा छोड़े गए सेटेलाइट चाँद और पृथ्वी के बीच चक्कर लगा रहे थे। संचार क्रांति का ऐलान हो चुका था। फलस्वरूप टेलीफोन के बेसफोन से संचार क्रांति ने क्रिया कर मोबाइल पैदा कर दिया। फिर अचानक ढेर सारी कंपनियों का उदय हुआ। जो अपने अपने हाथों में एक अजूबा लेकर आई थीं। जिसे बाद में 'सिम' के नाम से जाना गया।

आधे इंच के इस अनोखे जीव को अपने उसी मोबाइल में रामबहोरन ने लगाया। मोबाइल को ऑन किया। मोबाइल से आवाज आई... टिन... टिन। रामबहोरन ने समझा, अच्छा, कह रहा है खुल जा सिम... सिम। मोबाइल एक बार खुला तो रामबहोरन का मुँह खुला का खुला रह गया। गजब का रहस्यलोक समाया हुआ था उसके भीतर। फिर क्या, प्यारवाली से रात भर प्यार की बातें होने लगीं। उस दौरान वे खुद को थोड़ा स्पेशल ही समझने लगे थे। उनको लगता था कि इतनी अच्छी सुविधा सिर्फ उन्हीं को उपलब्ध है। किंतु उनका यह विशिष्टताबोध एक रात टूट गया।

हुआ यह कि रामबहोरन रात के ढाई बजे फोन पर प्यार वाली लड़की से प्यार की बातें करते हुए अपने कमरे से बाहर निकले। वे यह देखकर दंग रह गए कि हॉस्टल की सीढ़ी पर, बाथरूम की छत पर, बाहर के चबूतरे पर, बैडमिंटन कोर्ट पर कोई पेटकुनियाँ तो कोई उतान लेटकर मोबाइल से कहीं किसी घर में बैठी या लेटी किसी लड़की से प्यार की बातें कर रहा था। रामबहोरन पूरा हॉस्टल घूम आए, कहीं कोई जगह उनको खाली नहीं मिली।

रामबहोरन कमरे में लौट आए. लड़की के साथ हर बार की तरह बात बंद करने की सारी औपचारिकताएँ निपटाकर उन्होंने फोन रख दिया। आज कुछ जल्दी ही औपचारिकताएँ पूरी कर ली गईं। वरना कभी कभी तो फोन रखने की प्रक्रिया भी आधे घंटे खिंच जाती है... गुड नाइट, ...अच्छा अब रखो...और सब ठीक ना...मिस यू...लव यू... ऐसे बहुत सारे शब्द लगभग रोज ही दोनों तरफ से देर तक उछाले जाते। तब जाकर कहीं फोन कटता।

रामबहोरन ने महसूस किया कि लगभग पूरा हॉस्टल एक अजीब किस्म के प्रेमपूर्ण माहौल में झनझना रहा है। नींद आने से ठीक पहले रामबहोरन ने सोचा कि इन मोबाइल कंपनियों का गजब का मैनेजमेंट है, इन्होंने अपनी रात भर फ्री वाली योजना सबको बता दी है। यही वह आखिरी बात है जिसको सोचते हुए वे सो गए. ये अलग बात है कि सोते हुए भी बड़बड़ा रहे थे कि प्रेम के विकास में मोबाइल का योगदान... यह एक स्वतंत्र शोध का विषय है... इस पर भी किसी न किसी को डॉक्टरेट मिल ही जाएगी।

प्यार की राह में अहर्निश सेवा में लगा मोबाइल कई तरह की सुविधा उपलब्ध करा रहा था। प्रेम के अतिरेक में जो आप मुँह से नहीं कह सकते उसको लिखकर एसएमएस कर सकते हैं।

रामबहोरन ने सेंड कर दिया।

How r u?

पल भर में रामबहोरन के मोबाइल के मैसेज बॉक्स में हलचल हुई. खोलकर देखा तो चकरा गए. वही प्यार वाली लड़की का मैसेज था...

I m fine ... and... 143, ...Do U ... 42, ...Tell me?

रामबहोरन कहें तो क्या कहें? कुछ समझ में आए तब ना उसका जवाब दें। आधा अंग्रेजी और आधा गणित में आए हुए मैसेज ने रामबहोरन के प्यार का गीत बिगाड़ दिया। अंत में उन्होंने प्यारवाली लड़की की बुद्धिमत्ता को प्यार करते हुए सरेंडर कर दिया। लड़की बहुत देर तक हँसती रही।

“तुम इतने इनोसेंट हो, मैं यह नहीं जानती थी।”

“कुछ गड़बड़ हो गया क्या? “

लड़की हँसते हुए बोली, “हाँ, गड़बड़ है, बहुत गड़बड़ है।”

रामबहोरन अपनी झेंप मिटाते हुए बोले, “अरे भाई, इसका मतलब बता दो तब देखो इसका जवाब हम क्या देते हैं? “

I m fine का मतलब तो समझते ही हो।”

“अरे हाँ... लेकिन यह... 143 और 42 का क्या मतलब है? “

“अरे पागल, 143 का मतलब है I Love you और do you 42 का मतलब है... do you love me? “

यह कहकर लड़की जोर से हँसने लगी। रामबहोरन की आँखें गोल हो गईं, और चेहरा सिंदूरी। पूरी ताकत लगाकर भी वे धीरे से बोले, “मतलब।”

लड़की इतराते हुए बोली, “मतलब... पागल... पागल... पागल।” और हँसते हुए फोन काट दिया। रामबहोरन का मन किया कि वे भी 'मोहब्बत में ये नाम मुझको मिला है...' गाते हुए कहीं भाग जाएँ।

वो रामबहोरन की प्यार भरी रातें और बेकरार दिन थे। ऐसे में एक दिन लड़की ने उनके कंधे पर अपना सिर टिकाते हुए कहा, “सोचती हूँ... एक दो अटेंप्ट ठीक से तैयारी करके दे दूँ, प्री तो हर बार लगता ही है, थोड़ा और समय दे दूँ तो मेन्स भी लग सकता है।”

रामबहोरन तो जैसे तेलू बन जाते थे उसके सामने। अपनी आवाज को चिपचिपा करके बोले, “लग सकता है नहीं, लग जाएगा, और इंटरव्यू तो तुम यूँ... यूँ चुटकी बजाते निकाल लोगी।” रामबहोरन जब इस तरह प्रोत्साहित करते हैं, तब लड़की को अच्छा लगता है। जब लड़की को कुछ अच्छा लगता है तो रामबहोरन को बहुत अच्छा लगता है।

प्यार वाली लड़की कंपीटीशन में 'एक दो अटेंप्ट' आजमाने चली गई. पर अपना नेह छोड़ गई थी रामबाहेरन के पास। रामबहोरन बीच की दूरी को एसएमएस से पाट रहे थे, संचार क्रांति की महत्तम महत्त्वाकांक्षा 'समय में दूरी को निगल जाना' को साकार होते देख रहे थे। वे भी क्या व्यस्त दिन थे। हर बात पर एसएमएस करते और हर एसएमएस पर बात करते।

ऐसे ही एक दिन उन्होंने अपने मोबाइल के 'राइट बॉक्स' में जाकर टाइप किया 'छोटा-सा नजराना पिया याद रखोगे कि...' और भेज दिया। मोबाइल पर रिपोर्ट आई 'डिलीवर्ड टू प्यार वाली' और तुरंत ही रामबहोरन के मोबाइल का मैसेज टोन बजा 'संदेशे आते हैं...' लड़की का जवाब आ गया था।

“मुझे सब याद है ज़रा जरा... यहाँ बहुत खराब है। MISS U यार, बहुत कुछ छूट गया है, बड़ा मुश्किल है कवर करना, रोने का मन करता है, But. *** Some text missing"

मैसेज पढ़कर रामबहोरन को लगा कि वे कुछ पाते पाते रह गए. बहुत देर तक सोचते रहे कि *** के बाद क्या लिखा होगा, खैर, वे अपने को समझा लिए कि उनके साथ हमेशा से यही होता है कि जब भी कुछ पाने को होते हैं तो। जो भी हो रामबहोरन का आदर्शवाद जाग गया। उनके भीतर कहीं न कहीं एक प्रवचनकारी बैठा है। उनको लगा कि प्यार उनको आवाज दे रहा है। पर क्या करें। देश की राजधानी दिल्ली मुहावरे में नहीं वास्तव में उनके लिए दूर थी। उन्होंने सारा हिसाब बैठाया। आने जाने से लेकर वहाँ के खर्च आदि में कम से कम हजार पंद्रह सौ तो लगेंगे ही, जो संभव नहीं। अतः उन्होंने व्यावहारिक बुद्धि का प्रयोग किया। ब्लॉक सर्वेंट से पाँच रुपये का एक लिफाफा मंगवाया और लिख दिया एक चिट्ठी।

हे मेरी तुम,

यूँ ही याद आया करो,

तुम्हारा एसएमएस पढ़ा। लगा कि तुम परेशान हो। तुम्हें तैयारी से घबराहट हो रही है। लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए. स्त्री जब कोई निर्णय लेती है तो उसको पूरा करने की जिम्मेदारी उस पर ज़्यादा होती है। तुम घबराओ नहीं, तुम्हारे में साहस है, शक्ति है। तुम कुछ भी कर सकती हो। मैं तुमको एक कहानी सुनाता हूँ, सुनो... एक राजा के राज्य में अकाल पड़ गया। उसी समय वहाँ एक संत आए. संत ने राजा से कहा कि तुम अपने तालाब की मछलियों को आजाद कर दो तो अकाल खत्म हो जाएगा। राजा ने तालाब से एक नहर निकलवाकर नदी में मिलवा दिया। सचमुच अकाल खत्म हो गया। लेकिन कुछ दिन बाद फिर अकाल पड़ गया। संत जी फिर बुला कर लाए गए. राजा ने पूछा, जैसा आपने कहा था वैसा ही मैंने किया, फिर यह अकाल क्यों? संत ने कहा, “ राजन, तुमने मछलियों को आजाद तो कर दिया था, पर उन्हें बताया नहीं था कि वे आजाद हो गई हैं।” अब शायद तुम्हें मेरी बात समझ में आ गई होगी। आजाद होने से ज़्यादा ज़रूरी है उस आजादी को जानना और महसूस करना। तुम अपने लक्ष्य पर अडिग रहो। वह सब कुछ तुम पा सकती हो, जो तुम चाहती हो। अपना ख्याल रखना।

तुम्हारी याद में... तुम्हारा मैं।

बाद के दिनों में जब वह अपना कोर्स पूरा करके वापस आई तब उसने बताया कि तुम्हारे खत से मुझे बहुत प्रेरणा मिली। पर यार, तुम इतना व्यवस्थित ढंग से 'शरदचंद्रीय खत' कैसे लिख लेते हो... सही में यार, तुम्हारी चिट्ठी से लगा कि वह आज से चालीस पचास साल पहले लिखी गई हो, पर इतने दिनों बाद पते पर पहुँची हो।”

रामबहोरन बहुत बाद तक समझ नहीं पाए कि वह 'कमेंट' था या 'कांप्लीमेंट'?

पर रामबहोरान सही में चालीस पचास साल पुराने आदमी थे। प्यार किए तो पूरा का पूरा फिदा हो गए. बल्कि रामबहोरन के तमाम दोस्त गणित बिठाकर एक साथ तीन तीन प्रेमिकाओं पर फिदा हो रहे थे। वे प्रेम का एक व्यूह रचते थे। किसी के लिए वे एक बड़ी कंपनी में मैनेजर थे, तो किसी के लिए सरकारी मुलाजिम, तो किसी के लिए भारत सरकार की किसी बृहद परियोजना के इंचार्ज। यानी किसी प्रेमिका को उनकी असलियत का पता नहीं था। जब कभी वे अपने मोबाइल के मेमोरी कार्ड में सुरक्षित किसी भोली भाली प्रेमिका को ब्लैकमेल कर बनाया गया 'एमएमएस' देखकर उत्तेजित हो रहे होते, ऐसे में यदि उनकी प्रेमिकाओं के फोन आ जाते तो कहते 'बाद में करना, अभी मैं दिल्ली की पार्टी के साथ एक मीटिंग में हूँ।' और हैरानी यह कि वे प्रेमिकाएँ उन्हीं लोगों को आराध्य प्रेमी मानती थीं। रामबहोरन को इन प्रेमियों को देखकर घिन आती। वे इन सभी छल और पाखंडों को देख कर कहते 'मैं प्रेम में इतना फरेब नहीं कर सकता'। शायद इसीलिए वे पूरी ईमानदारी से एक ही लड़की से सही सही प्यार कर रहे थे।

ईमानदारी के इसी संकल्प के चलते रामबहोरन ने 'मोबाइल पीढ़ी' की अपनी प्रेमिका को 'चिट्ठी वाले दिनों' के प्रेमी की तरह कलेजा निकालकर दिखा दिया। अपने घर परिवार के बारे में सब कुछ बता दिया। एक ज़रूरी काम की तरह उन्होंने अपने घर के बारे में बताया, “जानती हो मेरा घर धुर गाँव में है। माँ की तबीयत अक्सर खराब रहती है। तीन छोटी बहनें और दो छोटे भाई गाँव में पढ़ रहे हैं। सबने अपने हिस्से का वर्तमान मेरे भविष्य को उज्ज्वल करने में लगा दिया है। सरकारी उजाले से बहुत दूर पूरा घर शाम से ही लालटेन की मटमैली रोशनी में ऊँघता रहता है।”

लड़की ने टोका, “और तुम्हारे पापा? “

रामबहोरन को जैसे कुछ याद आया हो, “पापा..., हाँ, हम लोग उनको बाबूजी कहते

हैं।”

लड़की ने कहा, “अरे, वही तुम्हारे बाबूजी, वे क्या करते हैं? “

“करते क्या हैं... वही, अपनी खेतीबारी और छोटे बड़े तीन चार गोरू हैं, उनके लिए

चारा पानी में अपना समय लगाते हैं।”

लड़की को लगा कि वह जैसे प्रेमचंद का कोई उपन्यास पढ़ रही हो। अचानक उठी, “अच्छा अब चलती हूँ।”

“क्यों, तुम आज तो देर तक बैठने वाली थी।”

“हाँ यार, पर... मेरा सिर भारी लग रहा है। इसलिए चलती हूँ।”

लड़की जाने की इतनी-सी भूमिका बनाकर चली गई. रामबहोरन को लगता था कि सच सुनकर वह उनसे और प्यार करेगी। पर नहीं, लड़की ने उनका सच दिल से नहीं दिमाग से सुना था और उसका सिर भारी हो गया था।

इसके बाद लड़की ने फोन करना लगभग बंद कर दिया। जब कभी रामबहोरन इधर से मिलाते तब या तो वह फोन काट देती या कहती कि 'अभी रक्खो... बाद में करती हूँ...'

बाद में फिर शायद ही उसका फोन आता। लेकिन रामबहोरन महसूस कर रहे थे कि लड़की की आवाज में अब पहले जैसी नजदीकी नहीं है, उसकी आवाज जैसे कहीं बहुत दूर से आती है... और हर बार यह दूरी बढ़ती जा रही है।

रामबहोरन जान रहे थे कि वह लड़की अब भी उनको प्यार करती है लेकिन सिर्फ राम बहोरन से, उनकी जिम्मेदारियों से नहीं। वह धीरे धीरे जान गई थी कि रामबहोरन से विवाह कर उसे सिर्फ संघर्ष करना है। इसमें लड़की का विशेष दोष हो ऐसा भी नहीं था। दरअसल लड़की के अपने पारिवारिक अनुभव में माँ बाप, भाई बहन जैसा कोई संवेदनात्मक जुड़ाव तो था नहीं। उसका पालन पोषण इस तरह के रिश्तों के बीच में नहीं हुआ था। न्यूक्लियस फैमिली के बहुचर्चित नारे में पली बढ़ी लड़की का परिचय जब रामबहोरन के इस कुनबे से हुआ, तब उसके शरीर में जहाँ कहीं भी रोएँ थे वह खड़े हो गए. उसे जोर से मिचली आई और रामबहोरन को फोन किया, “सुनो, तुम मुझे फोन मत करना... मेरे यहाँ एक बुआ जी आई हैं... इसलिए मैं ही तुमसे बात कर लिया करूँगी... ठीक है ना।” यह कह कर उसन फोन काट दिया। रामबहोरन देर तक अपने उस मोबाइल को देखते रहे, जिस पर अभी उनकी प्रेमिका की आवाज बज रही थी।

लड़की ने अपनी आखिरी बातचीत में कहा था कि मैं ही तुमसे बातकर लिया करूँगी, तुम फोन मत करना। रामबहोरन ने फिर कभी फोन नहीं किया, और इस तरह इश्क की वह आखिरी रस्म भी निभा ले गए.

रामबहोरन के जीवन में जितने दिन संयोग शृंगार के थे उसके चक्रवृद्धि ब्याज से ज़्यादा वियोग के दिन हुए. उन दिनों रामबहोरन के मोबाइल पर बजता 'कॉलर टोन' कि 'दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा...', दोस्तों के बीच काफी चर्चा का विषय रहा। बाद में जब बैलेंस माइनस में आ गया तब पहले वह गाना बंद हुआ, फिर रामबहोरन ने वह मोबाइल भी बंद कर दिया।

मोबाइल को हमेशा के लिए 'स्विच ऑफ' करने से पहले रामबहोरन ने उसके मैसेज बॉक्स में जाकर प्यार वाली लड़की के प्यारवाले सारे एसएमएस फिर से पढ़े। दिल बहुत भर आया। स्विच ऑफ का बटन ऐसे दबाया जैसे अपने किसी प्रिय को मिट्टी दे रहे हों।

बाल्टी से एक मग पानी लेकर हकर हकर पीते हुए रामबहोरन ने कनखी से मोबाइल के डिब्बे को देखा और प्रण किया कि 'कुछ भी हो, अब मोबाइल पर किसी से प्यार नहीं करूँगा।'

बहुत बाद में उस लड़की की एक सहेली से पता चला कि धीरे धीरे वह रामबहोरन से ऊबने लगी थी। कई बार वह बताती थी कि “लड़का तो बहुत अच्छा है, लेकिन उसके घर परिवार, जीवन संघर्ष की बातें सुनकर मुझे घिन आने लगती थी। और तो और ठेले पर चाय पीता है, फुटपाथ पर खाना खाता है, हमेशा बहुराष्ट्रीय कंपनी, पूँजीवाद जैसे मुद्दों पर बोलता रहता है। भला बताओ, इस लड़के से कोई कैसे निभा सकता है। कोई स्टैंडर्ड नहीं है यार, वह न बाइक पर बैठाकर घुमा सकता है, ना तो कोई अच्छा-सा गिफ्ट दे सकता है। भला बताओ खाली 'कार्ल मार्क्स' के भरोसे जिंदगी कटेगी... सो बोरिंग यार।”

यह सब सुनने के बाद भी रामबहोरन उस लड़की को बेवफा नहीं कहते थे। वह जानते थे कि यह दौर ही ऐसा है कि जिसमें कोई भी गुमराह हो जाएगा। रामबहोरन सोचते हैं कि 'ये कौन लोग हैं जो इतने महँगे मोबाइल बना रहे हैं, इतनी बड़ी गाड़ियाँ भेज रहे हैं। बड़ी बड़ी चमचमाती चीजों वाले ये लोग शरीफ आदमी को प्यार भी नहीं करने देंगे।' यह सोचते हुए रामबहोरन रुआँसे हो जाते हैं... 'ये कैसी दुनिया है, सब छीन ले जाएँगे क्या? क्या ताकत केवल पैसे की होती है।' यह कहते हुए रामबहोरन लगभग चिल्लाने लगे थे। छात्रवास के बाहर सड़क पर आधी रात के समय रामबहोरन को इस मुद्रा में आते देख छात्रवास का पालतू कुत्ता मोती खड़ा हो गया। मोती को देखकर रामबहोरन को लगा यही एक है जिसके प्यार और क्रोध पर 'ग्लोबलाइजेशन' का प्रभाव नहीं पड़ा है। रामबहोरन को उस कुत्ते पर बहुत प्यार आया। वे वहीं बैठ गए और कुत्ते का सिर अपनी गोद में लेकर पता नहीं कब तक उसे पूँजीवाद के 'साइड इफेक्ट' समझाते रहे, “जानते हो भाई मोती, यह पूँजीवाद एक तरह की ठेकेदारी है, हर चीज का ठेका है, लूट, हत्या, बलात्कार, दंगा, प्यार सब कुछ ठेके पर हो रहा है। इन सबके पीछे एक बहुत बड़ी साजिश है। कोई एक है जो हर चीज पर काबिज हो रहा है। ग्लोबल गाँव बना रहा है, सिटी माल बना रहा है, करोड़ से लेकर लखटकिया तक की कार बना रहा है। मोबाइल बना रहा है, उस पर तरह तरह के एसएमएस उपलब्ध करा रहा है। कभी दुर्गा तो कभी हनुमान दस नामों की लिस्ट हर मोबाइल पर फैला दे रहा है, तरह तरह के जाने अनजाने त्योहारों पर शुभकामना संदेश गढ़ रहा है। सरकारें गिरा रहा है। चुनाव करा रहा है। राजनीतिक पार्टियों के आलाकमानों को एकमुश्त रकम देकर सारे टिकट खरीद लेता है और फिर अपने हिसाब से एक एक टिकट बेचता है। ज़रूरत पड़ने पर दंगा कराता है। बाकायदा दंगे का टेंडर भरा जाता है। जमानत राशि जमा कराई जाती है। सब कुछ पहले से तय है, मसलन, दंगा कब शुरू होगा, कितने दिन चलेगा आदि। इनमें कभी कोई गड़बड़ी होने पर जमानतराशि जब्त कर संस्था ब्लैकलिस्ट कर दी जाती है।”

पता नहीं मोती डरा हुआ था या फिर सही में उसको रामबहोरन की बातें समझ में आने लगी थीं: क्योंकि बीच बीच में मोती की खामोशी गुर्राहट में बदल जा रही थी। रामबहोरन इससे बेपरवाह अपनी रौ में बोले जा रहे थे, “धर्म, विज्ञान, राजनीति, अर्थव्यवस्था, प्यार, नफरत, युद्ध, संधि सब कुछ उसके नियंत्रण में है। वह अपनी मर्जी से इन चीजों की सप्लाई करता है। किस देश में सैनिक तानाशाह लाना है या कहाँ लोकतंत्र के नाम पर नरमेध आयोजित करना है, कहाँ सबसे बड़ी इमारत बनाना है और कब उसे गिराना है। कब और कहाँ बुश और लादेन पैदा होंगे? बाज़ार में उछाल कब होगा और आर्थिक मंदी कब आएगी, इन सभी चीजों पर उसी का नियंत्रण है। वही इनका ठेका बाँटता है, जो सामर्थ्यवान हैं वही इनमें से किसी भी चीज का ठेका लेते हैं, रामबहोरन जैसे आखिरी आदमियों के लिए इस ठेका व्यवस्था में कोई जगह नहीं है। वह अदृश्य सत्ता जिसके नियंत्रण में ये सारी चीजें चल रही हैं, वह दिखता कहीं नहीं है, पर इन सबमें व्याप्त है ईश्वर की तरह।”

अचानक एक भारी-सी आवाज गूँजने लगी। रामबहोरन की नींद टूटी, उन्होंने देखा कि वे और मोती दोनों पूँजी और सत्ता के यथार्थ पर बात करते करते कबीर प्रतिमा के चबूतरे पर सो गए थे।...दोनों अनाथ थे, दोनों ईश्वरविहीन थे। दोनों के प्यार और क्रोध पर ग्लोबलाइजेशन का प्रभाव नहीं पड़ा था। शायद इसीलिए एक कुत्ता था और दूसरा कुत्ते की जिंदगी की ओर धीरे धीरे बढ़ रहा था। वह भारी आवाज फिर कौंधी, मोती उठकर भाग गया। रामबहोरन कहाँ जाते? उन्हें तो उसका सामना करना ही था।

“ होरी गाय ही क्यों पालना चाहता था, कुछ और क्यों नहीं पाल लिया, जैसे मुर्गी या सुअर।” साहित्य के नए विमर्शों में रुचि लेने वाले सदस्य ने पूछा था।)

रामबहोरन ने सँभलते हुए जवाब दिया, “ मुर्गी या सुअर क्यों नहीं पाला ये तो मैं नहीं जानता पर गाय इसलिए पालना चाहता था कि...” तब तक चेयरमैन साहब हुमरने लगे। रामबहोरन को चुप हो जाना पड़ा। आयोग के चेयरमैन साहब ने अपने गले की घरघराहट को रोकते हुए पूछा, “ अच्छा यह बताइए, होरी मरा कैसे? “

रामबहोरन ने जवाब दिया, “ भूख से सर।”

कॉमर्स पढ़ाने वाले चेयरमैन साहब ने प्रतिवाद किया, “ इसका मतलब आपका अध्ययन अधूरा है, पोथी में तो लिखा है कि बीमारी से मरा।”

“ भूख से बड़ी कोई बीमारी नहीं है सर।” रामबहोरन सँभलते हुए बोले।

चेयरमैन साहब अपनी कुर्सी पर थोड़ा और अधिक पसरते हुए बोले, “ लगता है आपको भी कोई बीमारी है।”

रामबहोरन हड़बड़ा गए, “ क्या... क्या...सर”,

“ हाँ... यही कि आप कोई जवाब ठीक से नहीं दे रहे हैं।”

“ जितनी समझ है उतना तो दे ही रहा हूँ सर।” रामबहोरन घिघियाए.

जैसे कोई राज की बात कही जाती है ठीक वैसे ही चेयरमैन साहब ने कहा, “ हाँ... पर इस समझ से नौकरी थोड़े मिलती है, नौकरी पाने के लिए चाहिए कुछ और समझ।” रामबहोरन ने हैरानी प्रगट की, “ मैं कुछ समझा नहीं सर।” चेयरमैन साहब ने समझाया, “ देखिए, बौद्धिक क्षमता की ज़रूरत कक्षा में होती है, पर इस व्यवस्था में शामिल होने के लिए सबसे बड़ी और पहली योग्यता है आर्थिक क्षमता का होना... हमारा क्या है हम आपसे प्रभावित होकर अपना हिस्सा छोड़ दें तो भी सदस्य, स्टाफ, सचिव, शिक्षामंत्री, मुख्यमंत्री, योजना आयोग, विश्वबैंक... इन सबका हिस्सा तो आपको देना ही होगा। देखिए सारा सिस्टम बहुत ईमानदारी से चल रहा है। दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी को कुछ भी लाभ हो इसकी सूचना सीधे विश्वबैंक को हो जाती है। इसलिए मैं तो यही कहूँगा कि आप अपनी आर्थिक क्षमता का प्रदर्शन करें और जो चाहें वह ले जाएँ।

यह सब सुनते हुए रामबहोरन भौंचक बैठे थे। तब तक एक दूसरे सदस्य ने बताया, “ हाँ भाई इसी आर्थिक क्षमता के कारण तो डॉट साहब आयोग के चेयरमैन हैं।”

चेयरमैन साहब ने नहले पर दहला दिया, “ तो आप लोग क्या बौद्धिक क्षमता से आयोग के सदस्य हैं।” चेयरमैन के इस बात पर सभी हो होकर हँसने लगे। रामबहोरन सुन रहे थे, चेयरमैन के गले से हापुस हापुस की आवाज आ रही थी। उसका बहुत बड़ा पेट धड़धड़ाते हुए हिल रहा था। पूरा कमरा मेज, दीवार, दीवार पर लगी गांधी जी की तस्वीर सब नाच रहे थे। रामबहोरन ने देखा कि चेयरमैन साहब खड़े हुए और अपने कोट के भीतर से बहुत सारे तार निकालकर सदस्यों के सिर पर फिट कर दिया। ऐसा करते ही चेयरमैन की छाती 'सर्वर' में और सदस्यों के चेहरे 'लैपटाप' में बदल गए. टेंडर शुरू हो गया। कुल रिक्तियों की संख्या, अनुमानित लागत, जमानत राशि, उच्चाधिकारियों एवं मंत्रियों के मद में खर्च होने वाली राशि आदि भरी जाने लगी। रामबहोरन चौंक गए. उनके मुँह से आवाज आई 'टे...टे...टेंडर'। सभी लैपटापों का स्क्रीन पल भर के लिए धुँधला हुआ और उस पर संकेत उभरा 'वायरस एलर्ट'। चेयरमैन साहब ने रामबहोरन को घूरा और फिर अर्दली को संकेत किया। संकेत पाते ही अर्दली ने अपने हाथ में लिया हुआ भाला रामबहोरन के ऊपर चला दिया। रामबहोरन की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा। अर्दली का भाला रामबहोरन के ब्रह्मरंध्र में प्रवेश करता है। अनाहत चक्र आज्ञा चक्र को भेदते हुए नीचे उतरता जाता है। रामबहोरन अपने बिंधते हुए अंतस्तल को दबाकर दम लगाकर चीखना चाहते हैं... पर खामोश... साक्षात्कार चालू है।

हॉस्टल के बाहर कबीर चबूतरे पर लेटे हुए रामबहोरन की आँख खुली। अनायास उनका हाथ सिर के उस हिस्से पर चला गया जहाँ अर्दली का भाला लगा था। पूरे शरीर में दर्द की एक भयानक लहर चल रही थी।

रोज की तरह आज फिर सुबह हो गई थी। 'ब्रेख्त' की कविता का वह हॉकर रोज की तरह चिल्ला रहा था कि 'जनता ने सरकार का विश्वास खो दिया है।' रामबहोरन धीरे से उठे और अपने कमरे की तरफ चल दिए. इस यकीन के साथ कि कमरे में वह बिना रेगुलेटर वाला पंखा रोज की तरह चल रहा होगा।