रामबाबू जी का बसंत / ज्ञान चतुर्वेदी
मास्टर रामबाबू जी जैसा निबन्ध बसंत पर कोई लिखवाता तो कोई लिखवा भी नहीं सकता, ऐसा सारे छात्र कहते हैं। 'दीपावली', 'विज्ञान के चमत्कार', 'चांदनी रात में नौका-विहार' आदि लिखे पर बसंत वाले निबन्ध के क्या कहने सही-सही रटा भर हो, फिर बोर्ड की परीक्षा में काहे का डर। बसंत का नाम परचे में पढ़ते ही छात्र एक-दूसरे को आंख मारते हैं कि 'प्यारे आ गया अपना बसंत'। परीक्षा हॉल में जैसे कोयल कूकने लगती है फिर मास्टर रामबाबूजी चौड़ी छाती उठाये, बुलबुल-से सारे कमरों में घूम आते हैं और एक ही बात कहते हैं कि मैंने पहले ही कहा न कि इम्पोर्टेंट है। शेष अध्यापक प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि रामबाबूजी आपका फिर आ गया। उत्तर क्या दे सकते हैं रामबाबूजी सिवाय इसके कि हम जानते ही थे कि आयेगा क्योंकि इम्पोर्टेंट है। वैसे कुछ अध्यापक उनसे ईर्ष्या भी करते हैं तथा बसंत और उनके बीच के इस अलौकिक संबंध का ठट्ठा भी करते है पर उसकी रामबाबूजी को परवाह नहीं वे बसंत के होकर रह गये है।
रामबाबूजी कस्बे के प्राइमरी स्कूल में हिंदी के अध्यापक हैं। पिछले पच्चीस वर्ष से से पैंतीस रूपयों पर लगे थे, अब डेढ़ सौ पाते हैं। उनके देखते-देखते शहर कितना आगे निकल गया पर वे स्कूल की ढहती दीवारों के बीच डटे बसंत पर निबन्ध लिखाते रहे। दांत गिर गये, स्कूल की छत गिर गयी, उन पर कर्ज बढ़ता गया, एक पुत्र मर गया, पत्नी को तपेदिक हो गया, हेड मास्टर ने उनके दो इन्क्रीमेन्ट रूकवा दिये, घुटनों में गठिया हो गया; पर वे बसंत पर अपने निबन्ध के सहारे चलते रहे। आठवीं कक्षा की परीक्षा बोर्ड की होती है। हंसी-ठट्ठा नहीं है बोर्ड की परीक्षा, छात्र घबराते हैं क़हते फिरते हैं कि बोर्ड की है। क्या होगा, मास्साब! बोर्ड की परीक्षा में कैसे निकलेंगे? सभी लोग एक सलाह अवश्य देते हैं हिन्दी में पास होना है तो रामबाबूजी से बसंत पर निबन्ध लिखवा लो। लिखवा लिया? बस, तो बेड़ा पार! रामबाबूजी सुनते रहते हैं। यह बात उनके कान सुनना चाहते हैं यह बात। वे कान खड़ा किये स्कूल में घूमते हैं मार्च के महीने में तो जैसे चारों तरफ कोलाहल-सा उठता है बसंत, बसंत,बसंत रामबाबूजी, रामबाबूजी यही सुनना भी चाहते हैं रामबाबूजी बसंत पर फिर लिखवाते हैं। फ़िर-फिर पढ़ते हैं हर वर्ष फ़िर परीक्षा आती है फ़िर बसंत पर निबन्ध पूछा जाता है। फ़िर रामबाबूजी की तारीफ होती है। हेड मास्साब कहते हैं कि रामबाबूजी ने बढ़िया लिखवा दिया था, स्साले सब निकल जायेंगे।
रामबाबूजी हस्बेमामूल शरमा जाते हैं।
संक्षेप में कहें तो रामबाबूजी के जीवन में बसंत ही बसंत है, बस!
परंतु, क्या सचमुच रामबाबूजी के जीवन में बसंत है?
कई बार तो रामबाबूजी को स्वयं भी आश्चर्य होता है कि बसंत पर इतना बढ़िया कैसे लिखवा लेते है? उन्होंने बसंत कभी नहीं देखा। वे लिखवाते रहे कि 'गलियन में बगरो बसंत है' पर उनकी गली तक बसंत को आते उन्होंने कभी नहीं देखा। उनकी गली में जमादार वर्षों से नहीं आया नालियां बजबजाती हैं। लोग घरों के सामने कचरा फेंकते हैं। मकान मालिक के बच्चे सामने बैठकर पाखाना करते हैं बसंत कभी आए भी तो नाक दबाकर भाग ले! ऐसी गली में रहकर भी बसंत पर इतना सुंदर कैसे लिखवा लेते हैं वे? कैसे खिल उठते हैं चारो तरफ फूल? कैसे मंडराने लगते हैं गुनगुनाते भंवरे? कैसे इस बीमार घर में बैठकर वे स्वस्थ, सुडौल, पुष्ट स्तनों वाली सुंदर नायिकाओं की कल्पना कर लेते हैं? वे स्वयं चकित है ये बसंत वाली गलियां नहीं शहर की वे सड़कें अलग ही हैं जहां साल भर बसंत रहता है। शहर के आला अफ़सर, व्यापारी, उनके स्कूल का मैनेजर उन सड़कों पर रहते हैं। वे प्राय: सोचते हैं कि उनकी गलियों तक बसंत न पहुंच सके। वे हमेशा यही सोचते हैं कि काश, वे इन सड़कों के किनारे रहते! उन गलियों में रहने वाले सभी यही सपना देखते हैं न जाने उन्होंने यह कभी नहीं सोचा कि बसंत को छीनकर वहां से अपनी गलियों तक ले आयें। बस के प्रति वर्ष बसंत पर निबन्ध पर निबन्ध लिखवाते रहें। उसी में अपना बसंत तलाशते रहे रामबाबूजी।
पर पिछले कुछ वर्षो से वह बात नहीं रही।
स्वयं रामबाबूजी ने यह बात नोटिस की कि बसंत पर निबन्ध लिखवाने का जो उत्साह उनमें रहता था, वह अब नहीं रहा। नहीं रही वह ललक कि हर छात्र को बसंत रटा दूं और न रटे तो चीरकर रख दे। बसंत के पीछे कितने छात्रों को नहीं पीट। उन्होंने क़ितनों का कचूमर नहीं बनाया, पर पिछले वर्ष तो एक-आध को छोड़कर किसी को भी नहीं सूता उन्होंने। ज़िन्हें पीटा भी तो किसी और कारण से। बसंत को लेकर वह मारकाट बंद हो गई। मारने-पीटने के एक अच्छे खासे बहाने के प्रति वे न जाने क्यों ढीले होते जा रहे थे। लड़के 'वीरों का कैसा हो बसंत' जैसी मारू पंक्ति भूल जाते और वे उनका सिर नहीं फाड़ते। उन्हें लगने लगा था कि काहे का बसंत और काहे का निबन्ध। पढ़ाई, शिक्षा की यह चोंचलेबाजी क्या देगी? पहले वे पढ़ाते सोचने लगते- क्यो पढ़ रहे हैं ये मूर्ख? क्या करेंगे पढ़कर? सिफ़ारिश, जोड़-तोड़ की इस बगिया में इनके बसंत की क्या दुर्गति होगी? उन्हें सपने आते, बुरे-बुरे सपनों में पुराने छात्रों की टोलियां आतीं और उन्हें घेरकर गाली-गलौज करतीं। छात्र चिल्लाते कि बताओ बाबू रामबाबू तुम्हारे इस बसंत वाले निबन्ध का हम क्या करें? किस एप्लीकेशन में नत्थी कर दे इसे? कितने में बेच दें इसे कि नौकरी के लिए एक पोस्टल आर्डर ही खरीद सकें? क्या करें इस बसंत का? क्यों रटाया था यह निबन्ध! पढ़ाकर क्या बनाने की सोच रहे थे हमें, बच्चु? बेकार तो हम जंगल में भी रहकर बन सकते थे! वे घबराकर उठ जाते और रात-रात भर जागते रहते। शिक्षा जगत एक जंगल है और वे एक अतृप्त प्रेतात्मा, ऐसा लगता उन्हें। रामबाबूजी जागते और सोचते रहते।
पच्चीस वर्ष पूर्व कितने गौरव से बने थे वे अध्यापक। देश नया-नया स्वाधीन हुआ था। उन्हें लगा कि वे अध्यापक बनकर नयी पीढ़ी का निर्माण करेंगे। वे बच्चों को पढ़ाते हुए प्रसन्न होते कि इनमें ही कोई होगा गांधी! वे गांधी, गौतम तैयार करने के भ्रम में पच्चीस वर्ष तक खटते रहे और इधर देश ही बदल गया। आज उन्हें यह जानकर अजीब लगता है कि देश को गांधी की आवश्यकता ही नहीं रही। उनके उत्पादित गांधी मांग के अभाव में मंडी तक नहीं पहुंच पाए। वे रोजगार दफ्तरों में सड़ रहे थे और किसी मायावी झांसे से निकल गए। क़ितने बसंत खपा दिये रामबाबूजी ने उस डेढ सौ रुपल्ली की मास्टरी में। उनके दोस्तों ने चुंगी की बाबूगिरी में ही बिल्डिंगें तान डालीं और वे देश निर्माण के भ्रम में बसंत पर निबन्ध रटाते रहे। वे उस कमबख्त बसंत के बच्चे के चक्कर में पड़कर स्वयं के परिवार को पतझड़ में झोंकते रहे। अब लगता है कि काहे का सुसरा बसंत सब बेकार है। बोर्ड, बसंत, परीक्षा, अंधकार, भूख, पुण्य, धांधली, सिफ़ारिश, भंवरा, बहार, धक्के, बेकारी, बयार -सारे शब्द उन्हें पर्यायवाची लगने लगे थे और आपस में गऔमऔ हो रहे थे। 'स्साला बसंत' रामबाबूजी सोचने लगे थे।
स्टाफ़ रूम में बैठे थे रामबाबूजी। उनके सामने अखबार था अखबार में दो करोड़ की लॉटरी का रिज़ल्ट था। उनके हाथ में लॉटरी का टिकिट था वे नम्बर मिलाते जाते और सोचते जाते पहले जब वे मूर्ख थे और मात्र अध्यापकी में ही कस्तूरी मृग होने पर उतारू थे, तब वे बोर्ड की परीक्षा के रिज़ल्ट को ही मानते थे। हर छात्र का पास होना ही उनके लिए करोड़ की लॉटरी जैसा था। पास होने वाला छात्र आकर जब चरण-स्पर्श करके कहता कि साब, आपके बसंत वाले निबन्ध ने पास करा दिया तो वे शिक्षा जगत के जंगल में मोर से नाचने लगते। बसंत पर और भी दिलकश माल तैयार करते रामबाबू। पत्नी पैसे की किल्लत की बात करती तो वे उस वज्रमूर्खा को डपटाकर कहते कि मास्टर का धन उसके छात्र है। आज जब हिसाब करते हैं तो उत्तर आता है कि वज्र गधे तो वे थे। पैसा ही इस देश में सब कुछ होने को था और वे समझ नहीं सके पैसा ही इस देश में बसंत हो गया था। और वे बडे बसंत-स्पेशलिस्ट बने फिरते थे! असली रिजल्ट लॉटरी का होता है, अब जाकर समझे थे वे। अध्यापकी से जैसे उन्हें वितृष्णा-सी हो गई थी। बसंत के निबन्ध पर तो जूते मारने की तबीयत होती थी उनकी।
इस वर्ष उन्होंने बसंत पर निबन्ध नहीं लिखवाया। परीक्षायें सिर पर थीं और बसंत पर निबन्ध रामबाबूजी ने लिखवाया नहीं था। स्पष्ट ही छात्र परेशान थे रोज़ रामबाबूजी से कहते कि सर, बोर्ड में ज़रूर बसंत पर पूछा जायेगा, लिखवा दीजिये। पर वे मुस्कराकर बात कल पर टाल जाते रोज़ कह देते कि कल अवश्य पढ़ा दूंगा, पर दिल ही नहीं करता उनका। प्रतीक्षा करते वे एक किराने की दुकान में देर रात तक लिखा-पढ़ी का काम देखते और माह के अंत में दुकानदार से चालीस रूपये पाने की तमन्ना में जीते। छात्र उनके आगे पीछे रिरियाते घूमते। बसंत-बंसत करते उनके पीछे लगे रहते। बसंत नाम सुनते ही उनकी हार्दिक इच्छा होती कि दो-दो तगड़े झापड़ समस्त छात्रों को रसीद करें पर जितना वे बसंत से भागने का प्रयत्न कर रहे थे, वह उनके पीछे आ रहा था।
उन्होंने लॉटरी का रिज़ल्ट देखना शुरू किया। करोड़ से लेकर पचास रूपये तक इनामों में उनका नम्बर कहीं नहीं था। वे बैचेन हो गये। उन्हें लगा कि जीवन की हर दोड़ में उनका नम्बर फिसड्डी ही रहा। इस सबके पीछे उन्हें बसंत षडयंत्र लगता। बसंत के भ्रम में उन्होंने कितने वर्ष गवां दिये। वे वितृष्णा, क्रोध तथा लाचारी से बैचेन होकर कमरें में घूमने लगे। इस देश में बसंत की बातें करने वालों का यही अंत होना था क्या? उन्हें चिढ़ आने लगी लगा कि कुछ और न कर सकें तो यह अखबार ही फाड़कर फेंक दें।
इतने में कमरें में छात्रों की एक टोली घुस आयी।
रामबाबूजी समझ गए।
ये सब पागल हो गये हैं और मुझे भी पागल करना चाहते हैं। वे क्रोध से फुंफकार उठे “क्या बात है”
“सर, वह बसंत पर निबन्ध”
वे फट पड़े, बरस पड़े, बिफर उठे, लगा कि अभी तांडव प्रस्तुत कर देंगे। क़पड़े फाड़ देंगे, आग लगा देंगे, आसमान गिरा देंगे, रामबाबूजी चीख पड़े “भागो स्सालो! भागो यहां से, बसंत, बसंत, बसंत, बसंत न हो गया, तमाशा हो गया। आगे मेरे सामने बसंत का नाम भी लिया ते एक-एक को चीरकर धर दूंगा”
बच्चे पहले तो समझ नहीं पाये पर रामबाबूजी को बेंत उठाते देखकर कुछ समझने को शेष न रहा। बच्चे भागे रामबाबूजी उनके पीछे भागे उन्हें लग रहा था। कि हर बच्चा बसंत है और उधेड़ा जाना चाहिए। बच्चे बस्ते फेंककर भागे रामबाबूजी ने दूर तक उन्हें खदेड़ा।
पर बच्चे निकल भागे।
रामबाबूजी थके-थके से हांफते हुए वापस लौटे और स्टाफ रूम की कुर्सी पर आकर निढाल होकर बैठ गए। क़ुछ देर यहीं बैठे रहे, बिना हिले-डुले। फ़िर वे उठे घिसटते कदमों से स्टाफ रूम के दरवाजे तक पहुंचे। दरवाज़ा बंद करके वापस आए ज़ेब से टिकिट निकाला और अखबार के सामने बैठ गये।
वे अब दस रूपये वाली इनाम की पंक्ति में अपना नम्बर तलाश रहे थे।