रामभरोस हाली का मरना / पंकज सुबीर
रामभरोस हाली का मर जाना वैसे कोई इतनी बड़ी घटना भी नहीं है कि उस पर इतनी हायतौबा मचाई जाए। जैसे बाक़ी के मरते हैं वैसे ही रामभरोस हाली भी मर गया (वैसे भी कौन-सा ज़िंदा था) बाक़ी के लाखों करोड़ों की तरह रामभरोस हाली भी एक ही मुख्य लक्ष्य लेकर जी रहा था और वह लक्ष्य था, अंततः मर जाने का लक्ष्य। ऐसे में उसके मरने पर चर्चा कि जाए, ऐसी कोई गुंजाइश नहीं है, मगर फिर भी अगर की जा रही है, तो इसका मतलब साफ़ है कि आम तरीके से जीने वाला प्राणी, ख़ास तरीके से मरा है। ग़रीब नाम के आदमी के पास चर्चा में आने का एक मात्र तरीक़ा यही होता है कि वह ख़ास तरीके से मर जाए। अब इस ख़ास तरीके का मतलब ये भी नहीं है कि वह रेल के सामने कूद पड़े या कुंए में छलांग लगा ले। इन तरीकों से भी काफ़ी लोग मरते हैं। ग़रीब यदि चाहता है कि उसका फ़ोटो भी अख़बार में छपे तो उसे कुछ न कुछ तो ऐसा करना ही होगा कि उसे मार डाला जाए। हत्या जितनी ज़्यादा जघन्य और नृशंस होगी, पब्लिसिटी उतनी ही अच्छी मिलेगी। यहीं पर एक और प्रश्न उठता है कि केवल रोटी के चार हर्फ़ जानने वाले इस ग़रीब की हत्या क्यों कर की जाए? लाखों की सुपारी लेने वाला किसी रामभरोस हाली की तो हत्या करेगा नहीं। अब रहा सवाल झगड़े का, तो झगड़े के पीछे तीन प्रमुख कारण होते हैं जर, जोरू और ज़मीन। जर और ज़मीन तो वैसे भी इसके पास होती नहीं, अब बची जोरू तो उसको लेकर झगड़ा इसलिये नहीं हो सकता क्योंकि वह तो वैसे भी ग़रीब की जोरू होती है। मगर फिर भी रामभरोस हाली ना सिर्फ़ मरा, बल्कि इस तरह मरा कि चर्चाओं में आ गया। रामभरोस हाली ना सिर्फ़ ग़रीब बल्कि बाक़ायदा ग़रीब था। इसका प्रमाण उसके नाम के साथ लगा हुआ हाली शब्द था। दूसरों के खेतों पर हरवाहे के रूप में काम करने वाले रामभरोसे मालवीय के रामभरोसे नाम में लगी आख़ीर की बड़े 'ए' से ऐनक वाली मात्रा, एनक पहनने वाले लोगों को जंची नहीं सो उन्होंने रामभरोसे का रामभरोस कर दिया। अब बचा मालवीय तो हरवाहे का काम करने वाला रामभरोस, सरनेम रखने जैसे ऊँचे शौक़ कब तक पालता? तो समय के साथ ज़ात को काम ने विस्थापित कर दिया। हाली का काम करने वाला रामभरोस हाली। यही रामभरोस हाली मार डाला गया (हालांकि उसके मरने के बाद ही लोगों को पता लगा कि अच्छा वह ज़िंदा था अब तक...?) । रामभरोस हाली को न सिर्फ़ मार डाला गया बल्कि अत्यंत नृशंसतापूर्ण तरीके से मारा गया और इसी कारण यह हुआ कि उसकी मौत चर्चा का विषय बन गई।
घटना एक एसे छोटे से क़स्बे में हुई जो इतना उनींदा और सुस्त क़स्बा है कि जो सुबह उठता है अलसाया-सा दिन काटता है और रात हो जाती है। अपराधों की स्थिति ऐसी कि जब भी ज़िला मुख्यालय पर कोई पुलिस वाला लंबी छुट्टी पर जाने की मांग करता है तो उसे यहाँ भेज दिया गया है कि जाओ, वहाँ रहोगे तो छुट्टी पर ही रहोगे। लोग सुबह उठते हैं और रात को सो जाते हैं, यही दो प्रमुख कार्य वे करते हैं। इस बीच कुछ मर जाते हैं तो बाक़ी के अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए सुबह उठने और रात को सोने की दिनचर्या का पालन करते रहते हैं। इसी बीच कुछ बच्चे भी इस क़स्बे में पैदा होते हैं, जो कुछ दिनों तक बच्चे रहकर बड़े हो जाते हैं और मृत्यू की प्रतीक्षा का कार्य करने में जुट जाते हैं।
इसी क़स्बे में रामभरोस हाली को मार डाला गया। घटना ऐसी थी कि क़स्बा उस दिन जब सुबह उठा तो सचमुच में उठा था। क़स्बे में चहल-पहल, भाग-दौड़ सब कुछ नज़र आ रही थी। रामभरोस रात को रोज़ की तरह अपने मालिक के खेत पर बने टप्पर में सोया था। रोज़ की तरह उसने महुआ के स्वेदशी आसव का सेवन भी किया था और कभी कभार की तरह ही देर रात को टप्पर पर आई अपनी प्रेमिका के साथ मिलकर खजुराहो को साकार भी किया था (इंट्रेस्टिंग थोड़ा खुलकर बताओ न...) । किंतु एक बात जो रोज़ की तरह की नहीं हो पाई, वह ये थी कि रामभरोस रोज़ की तरह से सुबह उठा नहीं। बाईस साल के गबरू जवान रामभरोस को इस तरह से मारा गया था, मानो मारने वाले ने इस बात का ठेका लिया था कि अगर एक भी हड्डी सलामत बच गई तो ठेके का पैसा नहीं लेगा। देशी पीकर, प्रेमिका कि लाई रोटियाँ खाकर और फिर कुंवारा होने के बाद भी वैवाहिक सुख उठा कर, अच्छी तरह से संतृप्त और खा पीकर मरा था रामभरोस। उसकी मौत शायद वैसी ही थी, जैसी की सुहागनें कहती हैं कि जब मैं मरूँ, तो ऐसी ही मरूँ।
बाईस साल का रामभरोस, क़स्बे में बिजली की मोटरें और पंपसेट की दुकान चलाने वाले यशोदानंदन खत्री के खेत पर हरवाहे का काम करता था। खत्री का काफ़ी फ़ैला हुआ क़ारोबार था, आसपास के गांवों के काफ़ी सारे किसान उसके पास किसी न किसी रूप में रेहन रखे हुए थे। इसके पीछे एक कारण ये भी था कि खत्री का एक क़ारोबार और भी था मगर ये क़ारोबार रात के अंधेरे में चलता था। खत्री के फलने-फूलने के पीछे मुख्य वज़ह यही क़ारोबार था। ये क़ारोबार था रात के अंधेरे में किसानों के खेतों से मोटर और पंप चोरी करवाना और फिर रातों-रात उनको अपनी वर्कशाप पर लाकर रंग-रोगन करके नई प्लेट लगा कर नया बना देना। यही पंप सुबह दुकान पर नए पंपो के साथ सजा हुआ मिलता था। इस काम के चक्कर में ही खत्री रात तीन चार बजे तक वर्कशाप में रहता था। उसके द्वारा भेजे गए चोर इधर माल लाते और उधर काम शुरू हो जाता। हालंकि ऐसा भी नहीं था कि ऐसा रोज़ ही होता था, माल उसी रात आता था जिस रात चोरों का कहीं दाँव लग जाता था और ऐसा महीने में सात आठ बार ही होता था। मगर फिर भी जब तक खत्री की टीम फील्ड से वापस नहीं आती थी, तब तक उसे रुकना पड़ता था।
खत्री के इस दूसरे व्यापार के बारे में लोग दबी ज़ुबान से चर्चा भी करते थे, मगर खत्री क़स्बे में होने वाले धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आयोजनों में चंदे की सबसे बड़ी रसीद कटाने वाला व्यक्ति था इसलिए ये दबी ज़ुबान, कभी खुली ज़ुबान नहीं हो पाती थी। जानते सब थे, जनता भी, पुलिस भी, मगर चंदा लेना सबकी मजबूरी थी, इसलिए शांत रहते थे। माथे पर लंबा-सा टीका लगाने वाला खत्री, कस्बे में होने वाले धार्मिक आयोजनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता था, जिससे लोग अनुमान लगाया करते थे कि वह कभी न कभी इस क्षेत्र से चुनाव अवश्य लड़ेगा। एक दो धार्मिक संस्थाओं का वह संरक्षक भी था। कुल मिलाकर एक रहस्यमय शख़्सियत का मालिक था खत्री, जिसके बारे में लोग तरह-तरह की बातें करते थे मगर सारी बातें उसकी पीठ के पीछे ही की जाती थीं।
दबी ज़ुबानों की एक सबसे बड़ी विशेषता ये होती है कि इन बातों को अक्सर अपनी प्रमाणिकता सिद्घ करने की आवश्यकता नहीं होती है। खत्री के बारे में जो दबी ज़ुबानें चलती थीं उनमें एक चर्चा ये भी होती थी कि आख़िर खत्री रात भर वर्कशाप पर क्यों रुकता है? जो काम वह करता है वह तो उसका कोई भी गुरगा कर सकता है, फिर क्यों वह लगभग महीने के तीसों दिन यहाँ वर्कशाप पर रात गुज़ारता है और उसकी पत्नी घर पर। ये बात अक्सर ही चर्चाओं में रहती थी। अक्सर इसलिये क्योंकि इसमें दबी ज़ुबान के साथ-साथ नसों में सनसनी फैलाने वाले सभी अवश्यक तत्व थे। कानाफूसी में यदि कुछ यौन प्रकरण भी शामिल हो जाएँ तब वह कानाफूसी वास्तव में परम आनंददायक कानाफूसी हो जाती है (कुछ-कुछ होता हेगा) ।
तो कहने वाले ये कहते थे कि खत्री को स्त्री की देह सुहाती ही नहीं है। वह दरअसल में कुछ दूसरे टाइप का है। दूसरे टाइप का कहें तो मतलब ये कि उसे कम उम्र के लड़कों के साथ रात ग़ुज़ारना अच्छा लगता है (बैक डोर इंट्री...?) और इस तरह के कई लड़के उसके वर्कशाप में काम करते हैं जो खत्री के साथ। लोग तो यहाँ तक भी कहते हैं कि वास्तव में खत्री अगर रात को वर्कशाप पर ना भी रुके तो भी उसका काम तो उसके लोग संभाल ही लेंगें लेकिन वह फिर भी रुकता है तो केवल इसलिये कि ... और इन बातों के प्रमाण में कानाफूसी करने वाले बाक़ायदा कुछ तर्क और कुछ तथ्य प्रस्तुत करते थे। सबसे बड़ा तर्क और प्रमाण तो ये ही था कि अगर ऐसा नहीं है तो फिर क्यों एक जवान आदमी, घर-बार, पत्नी को छोड़कर कहीं और रात ग़ुज़ारता है और ऐसा क्यों है कि खत्री के वर्कशाप में अठारह साल से ज़्यादा कि उम्र वाले लड़के काम पर नहीं रखे जाते? (रख ही नहीं सकते अठारह से ज़्यादा वाला तो ...) ।
रामभरोस भी पहले खत्री के वर्कशाप में ही काम करता था। गाँव से ग़रीबी का निदान ढूँढने आया लड़का था रामभरोस। जब वह वहाँ आया था तब तेरह चौदह साल का लड़का था तब से सत्रह अठारह का हो जाने तक वह वर्कशाप में ही रहा। फिर उसके बाद खत्री ने उसे वर्कशाप से हटा कर अपने ख्ेात पर रख दिया यहीं पर उसका नाम रामभरोस हाली हो गया। हालांकि रामभरोस खेतों की पूरी ज़िम्मेदारी संभाले हुए था, मज़दूरों से काम लेना, फ़सल कटवाना, बेचना, सब कुछ वही करता था, मगर नाम तो हाली ही था।
जब कभी कहीं खत्री की रातों का ज़िक्र होता और वहाँ रामभरोस हाली भी मौज़ूद होता तो वह टेंशन में आ जाता था। उसकी कनपटी की नसें उभार खाने लगतीं थीं। उसे ऐसा लगता था जैसे बातों की उंगलियाँ निकल आईं हैं और हरेक उंगली उसकी ओर तनी हुई है। जब रामभरोस वर्कशाप पर आया था तब लगभग बच्चा ही था और जब वहाँ से निकला तो गबरू जवान बनकर निकला था। बच्चे से जवान हो जाने के बीच में काफ़ी कुछ ऐसा था जो भले ही रामभरोस के सामने कोई नहीं कहता था, पर सच्चाई यही थी कि रामभरोस की पीठ के पीछे खत्री की जो कहानियाँ चलतीं थीं उनका एक पात्र रामभरोस भी हुआ करता था। घर पर करवटें बदल रही पत्नी का रिप्लेसमेंट रह चुका रामभरोस। (हाय हाय ये मजबूरी) ।
जिस छोटे से क़स्बे की ये घटना है वह चूंकि हिन्दुस्तान का क़स्बा था इसलिए वहाँ की कुल आबादी में हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों का ही हिस्सा था। (काश्मीर से कन्याकुमारी तक ...) चूंकि हिन्दू और मुसलमान दोनों ही थे, अतः ज़ाहिर-सी बात है, दोनों तरफ़ के लोग दंगा करने के बहाने की तलाश में रहते थे। हालांकि ये दंगा, अक़्सर होते-होते टल जाया करता था, फिर भी क़स्बे के बुज़ुर्ग अपने क़िस्सों में यह क़िस्सा भी शामिल कर लेते थे कि क़स्बे में आख़री बार भयानक दंगा कब हुआ था, कितने घर जले थे, कितने लोग मरे थे और कितनी बार ये दंगा, होते-होते टला है। इन सारे क़िस्सों में सुनाने वाला अपनी बहादुरी के क़िस्से भी शामिल रखता था कि उसने इस आयोजन में अपना कितना योगदान दिया था, मसलन उसने कितनी अस्मतें लूटीं थीं और कितनी दुकानें? सुनाने वाले के लिये दोनों ही चीज़ें एक ही होतीं हैं। बच्चे आपस के खेलों में चोर-पुलिस, आइस-पाइस के साथ-साथ दंगा-दंगा खेल भी शामिल रखते थे। दंगा-दंगा खेलते हुए ही ये बच्चे बड़े होते थे और जिस तरह से घरघूला खेलने वाले बच्चे बड़े होकर सचमुच का घर-घर खेलने के लिये बेताब हो जाते हैं वैसे ही ये भी हो जाते थे। जैसे ही एक नई पीढ़ी जवान होती वह इन क़िस्सों को सुनकर तुरंत ही दंगारूपी सांस्कृतिक आयोजन करने को उतारू हो जाती थी। मगर क़स्बे की नई पीढ़ी के होनहार बिरवानों को आयोजन को परवान चढ़ा अपने चीकने पात दिखाने में हमेशा सफलता नहीं मिलती थी, फिर भी दंगा नई पीढ़ी के अंदर हमेशा उबाल मारता रहता था। नई पीढ़ी का मतलब वह जवान जिन्होंने अभी स्त्री शरीर को भोगा नहीं है और जिनके लिये दंगा इसका सबसे आसान तरीक़ा होता है (गो गेट इट) । कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है कि ये वास्तव में हिंदू और मुसलमान के बीच दंगा होता है या फिर औरत और आदमी के बीच? क्योंकि लूटा तो औरत को ही जाता है फिर चाहे वह हिंदू की हो चाहे मुसलमान की। लुटना औरत को ही है क्योंकि वह कभी दंगा नहीं करती, दंगे की परिभाषा ही यही है कि अगर आप इस में शामिल हो गए तो आप बड़े 'ऊ' की मात्रा हो जाते हैं, अर्थात आप 'लूटते' हैं और अगर आप शामिल नहीं हुए तो आप छोटे 'उ' की मात्रा हो जाते हैं अर्थात आप 'लुटते' हैं।
ख़ैर फिलहाल वापस लौटते हैं । खत्री के घर के ठीक पीछे ही था उसका खेत, करीब बीस बीघा ज़मीन थी और सिंचित होने तथा कस्बे से लगी होने के कारण बहुमूल्य थी। खत्री की योजना थी कि अगर कभी क़स्बे का विस्तार हुआ तो वह इस पूरे खेत में प्लाट काट कर बेचेगा। मगर क़स्बा इतना बेशरम था कि पिछले पच्चीस तीस सालों से जस का तस ही था। इसी ज़मीन से लगी हुई क़मर ख़ां मंसूरी की ज़मीन थी। मंसूरी की क़स्बे में वेल्डिंग की दुकान थी और घर में सात जवान लड़के थे। जवान लड़कों की अकड़ मंसूरी की रीढ़ की हड्डी को एक ख़ास तरीके से तानकर रखती थी, जिसे कमान की तरह से ताना जाना भी कह सकते हैं। सातों लड़के वेल्डिंग और खेती से लेकर मारपीट तक सब कुछ करने में माहिर थे।
कहानी जहाँ से शुरू होती है उसकी जड़ में वास्तव में ये खेत ही है। जिन खेतों की मेड़ें आपस में मिली हुईं हों उनके मालिकों में झगड़ा ना हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। खत्री और मंसूरी में भी रास्ते को लेकर झगड़ा था, मंसूरी के खेतों तक पहुँचने के लिए खत्री के खेत में से होकर ही रास्ता था और ये रास्ता सरकारी रिकार्ड में भी उल्लेखित था, खत्री इस रास्ते को बंद करना चाहता था, मगर मंसूरी के सात-सात जवान लड़कों को देखकर उसकी ज़ुबान पर ताला लग जाता था। अक्सर दोनों पक्षों में खुलकर वाद विवाद तकरार होता था, एसा लगता था कि आज कुछ ना कुछ हो ही जाएगा, मगर बात थी कि हर बार टल जाती थी। टलने के पीछे हर बार मंसूरी पक्ष की ओर से छोड़ा गया एक ब्रह्मास्त्र होता था, 'हमें सब पता है तुम्हारे वर्कशाप पर और खेत पर क्या होता है'। यह एक वाक्य खत्री के सारे कसबल ढीले कर देता था। (दुखती पर मार रहें हैं हरामी रोन्टाई कर रहे हैं ...) ।
वर्कशाप की बात तो लगभग पूरा क़स्बा जानता था, मगर खेत पर? दरअसल उसकी भी एक कहानी है और इसी में वह राज छुपा है जो खत्री को चुप कर देता था। जैसा कि पूर्व में उल्लेख आया है कि मरने से पहले रामभरोस से मिलने एक प्रेमिका आई थी। यह प्रेमिका रोज़-रोज़ तो नहीं आती थी, पर अक्सर ही आती थी। यह प्रेमिका असल में खत्री की जवान और सुंदर पत्नी थी, जो एक बार रात को ज़रूरत पड़ने पर खेत पर लगे पेड़ से नींबू लेने आई थी और उसके बाद अक्सर ही आने लगी (रामभरोस का इंतकाम..., माँ क़सम बदला लूँगा, तूने मेरे साथ...मैं तेरी बीबी के साथ...) । खत्री रात तीन चार बजे घर लौटता था और आते ही थका मांदा बिस्तर पर लुढ़क जाता था। अधिकतर वह बाहर से खाना खाकर और पीकर भी आता था, कभी ज़्यादा माल वर्कशाप पर आ जाता तो वह रात भर वहीं भी रुक जाता और अल सुबह ही घर लौटता था। खत्री की पत्नी ने खेत पर लगे नींबू के पेड़ के रूप में अपना विकल्प ढूँढ लिया था। पिछले कुछ दिनों से खत्री को इस बारे में शक़ हो गया एक दो बार उसने इस बात को जांचने का प्रयास भी किया था मगर कभी उसकी व्यस्तता और कभी उसकी पत्नी की क़िस्मत के चलते कोई परिणाम सामने नहीं आया था। (परिणाम आता कहाँ से ...?)
यह घटना भी उसी खेत की है जहाँ खत्री की पत्नी नींबू तोड़ने जाया करती थी। बात फरवरी महीने की है जब खेत में गेहूँ की फ़सल लहलहा कर पकने को होती है, उधर चारों तरफ़ बसंत गहगहा कर चटक रहा होता है, कहीं महुआ फूल रहा होता है तो कहीं आम बौरा रहा होता है, ऐसे ही बसंत के बसंती-बसंती से मौसम में रामभरोस मार डाला गया। दो दिन पहले ही खत्री और मंसूरी में एक बार फिर झगड़ा हुआ था, इस बार का झगड़ा कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया था। नौबत दोनों तरफ़ से हथियार वगैरह निकाल लिये जाने तक आ गई थी, एसा लग रहा था कि आज गेंहू की गदराती फ़सल को ख़ून से सींच ही दिया जाएगा, इधर मंसूरी के जवान पट्ठे थे, तो उधर खत्री लिये रात में सेवाएँ देने वाले उसके लोग थे। दोनों तरफ़ की गरमागरमी बढ़ी ज़मीन पर लाठियाँ भी बजीं मगर बीच बचाव करने वालों ने समझा बुझा कर एक बार फिर बात को टाल दिया। हुज्जत के दौरान जब खत्री मंसूरी के मंझले बेटे पर हाथ उठा कर लपका था, तो उसने खत्री का कालर पकड़ कर धीमी आवाज़ में बस इतना ही कहा था 'पहले अपनी घरवाली को तो संभाल ले फिर खेत संभालने की बात करना' खत्री एक बार फिर पिटे हुए मोहरे की तरह वापस लौट आया था। (भोसड़ी का छक्का) । मगर इस बार वह किसी निर्णय के साथ वापस आया था। रामभरोस को हटाना मतलब घर की बात को बाहर भी फैलाना, अभी तक तो वह नौकर है इसलिए उसकी ज़ुबान पर ताला लगा है, एक बार हटा दिया तो क्या बाहर जाकर बताएगा नहीं कि किसलिए हटाया गया उसे? रामभरोस के साथ मारपीट भी नहीं कर सकता क्योंकि जिस मालवीय समाज का रामभरोस है उसकी अच्छी ख़ासी तादाद क़स्बे में है ज़रा-सी बात पर ये समाज एक जुट होकर मरने मारने पर उतारू हो जाता है।
इन सब परेशानियों का एक ही हल खत्री को सूझा, जिसको उसने अमली जामा भी पहना दिया। घटना वाली रात खत्री अपने पूरे गिरोह के साथ खेत पर तब पहुँचा जब उसकी पत्नी खेत से वापस जा चुकी थी। रामभरोस के पेट में खाना था, दिमाग़ पर देशी मदिरा का सुरूर और शरीर में कुछ देर पहले का आनंद था, इन सबके कारण वह घोड़े-गधे सब कुछ बेच-बांच कर ख़र्राटे मार कर सो रहा था। बात की बात में उसके ख़र्राटे शांत हो गए और रामभरोस हाली अब स्वर्गीय रामभरोस हो चुका था। (संभोग से समाधी तक ...)
सुबह के ठीक-ठाक तरीके से होने तक छोटे से क़स्बे में बाक़ायदा हंगामा हो चुका था, अलसुबह घटना कि जानकारी पा चुकी पुलिस घटना स्थल पर सारी कार्यवाही पूरी करने के बाद रामभरोस की लाश को लेकर अस्पताल आ चुकी थी। छोटे से क़स्बे का छोटा-सा अस्पताल लोगों से पटा हुआ था, पूरा का पूरा क़स्बा चौंक कर जाग गया था और अस्पताल में आकर खड़ा हो गया था। बात चौंकने की थी भी सही, क्योंकि जिस क़स्बे में कुत्ते तक स्वाभाविक मौत मरते हों वहाँ न केवल एक आदमी को मार डाला गया, बल्कि बेदर्दी के साथ मार डाला गया था। इधर अस्पताल के डाक्टर प्राथमिक परीक्षण के बाद पोस्टमार्टम के लिये लाश को भेजे जाने की औपचरिकताओं में जुटे थे तो बाहर मुंह थे और बातें थीं। खत्री अपनी योजना का पहला हिस्सा पूरा करके दूसरे में जुट गया था। उसके लोगों ने बाक़ायदा भीड़ में खड़े रामभरोस के समाज के लोगों के मन में यह बात बैठाना शुरू कर दिया था कि रामभरोस की मौत कोई ऐसी-वैसी बात नहीं है यह मुसलमानों द्वारा एक हिंदू की हत्या कि गई है, (हरी चिंदी से भगवे का गला घोंटा गया है...) दो दिन पहले के झगड़े का हवाला दे देकर ये लोग मालवीय समाज को समझाने में लगे थे कि मंसूरी के बेटों ने मालिक के साथ हुए झगड़े का बदला रामभरोस के साथ निकाला है, क्योंकि उस झगड़े में रामभरोस ने मालिक की तरफ़ से कंधे से कंधा मिलाकर झगड़ा किया था और मंसूरी के बेटों ने उसे धमकाया भी था कि बेटा तुझे तो यहीं सोना है कभी भी मार कर फैंक देंगे। हालांकि झगड़े के कुछ चश्मदीद इस बात को याद करने की कोशिश कर रहे थे कि मंसूरी के बेटों ने ऐसा कब कहा था? फिर भी खत्री के लोगों द्वारा दी जा रही समझाइश लोगों के गले उतरती जा रही थी।
इधर रामभरोस की लाश को पोस्ट मार्टम के लिये रवाना किया गया और उधर मुट्ठियाँ भिंचने लगीं। बात की बात में जवान लड़के घरों की तरफ़ दौड़े और घर में जो भी हथियार मिले उन्हे निकाल कर एकजुट होकर चल पड़े। मंसूरी का घर क़स्बे के उस हिस्से में था जो मुस्लिम बहुल इलाक़ा था, जब वहाँ के लड़कों को पता चला कि लोग इस तरफ़ हथियार लेकर आ रहे हैं, तो उन्होंने भी हथियार लेकर मोर्चा संभाल लिया। लहू से होने वाले सांस्कृतिक सांप्रदायिक आयोजन की पूरी तैयारियाँ हो चुकीं थीं। ऐसा लग रहा था कि अब कुछ हुआ के तब कुछ हुआ, मगर क़स्बे की क़िस्मत में शायद आज इस आयोजन का देखना नहीं था, घटना कि जानकारी पाकर महज़ अठारह किलोमीटर दूर स्थित ज़िला मुख्यालय से रवाना हुआ भारी पुलिस बल एन मौक़े पर पहुँच गया और दोनों पक्षों के बीच खड़ा हो गया आंसू गैस, लाठी चार्ज ने बना बनाया दंगे का माहौल बिगाड़ दिया (भोसड़ी की पुलिस... सारा खेल बिगाड़ दिया) । भगदड़ के बाद दंगे का मनसूबा बनाए दोनों तरफ़ के लोग अपने-अपने घरों में समा गए। क़स्बे में धारा एक सौ चवालीस लगा दी गई। कर्फ़्यू लगाने के लिए ज़रूरी था दंगा हो गया हो, जो हो नहीं पाया था, इस लिए एक सौ चवालीस से काम चलाया गया (शिट यार...) ।
संवेदनशील ज़िला प्रशासन की ओर से कलेक्टर, एस पी और दूसरे छोटे अधिकारियों ने थाने में आकर डेरा डाल लिया। छोटा-सा थाना और वहाँ की पुलिस बड़े-बड़े अफसरों के इंतेज़ाम की दौड़ धूप में जुट गयी। बड़े अधिकारी घटना के मुआयने और उसकी पड़ताल में व्यस्त हो गए, एक-एक करके लोगों को बुलाने और उनकी बात सुनने का दौर प्रारंभ हुआ अधिकारियों को रात होने से पहले क़स्बे में अमन क़ायम कर वापस भी लौटना था, तकि राजधानी को फ़ोन पर बताया जा सके कि कोई ख़ास बात नहीं है, आपस का झगड़ा था अब सब ठीक है। राजधानी को जब तक फ़ोन नहीं आएगा, तब तक राजधानी को नींद नहीं आएगी। राजधानी को केवल एक ही जवाब सुनने की आदत होती है, भले ही घटना में डेढ़-दो सौ लोग मर गए हों पर फिलहाल शांति है।
हाँ तो अधिकारी बातचीत में जुट गए थे। हत्या हुई थी सो तफ़्तीश भी चल रही थी, अफसर चाह रहे थे कि रात को लौटने से पहले एक दो गिरफ़्तारियाँ भी हों जाएँ, ताकि मामला कुछ शांत हो, लोगों को महसूस हो कि कार्यवाही तेज़ी से चल रही है। खत्री के लोगों द्वारा मालवीय समाज के लोगों के दिमाग़ में यह बात अच्छी तरह से बिठाई जा चुकी थी कि हत्या मंसूरी के बेटों ने की है। सो जब कलेक्टर ने मालवीय समाज के लोगों को बातचीत के लिए बुलाया तो उन्होंने एक ही मांग रखी, मंसूरी के बेटों की गिरफ़्तारी की मांग अब ये बात अफसरों को भी मालूम थी कि मंसूरी के बेटों की गिरफ़्तारी का मतलब मामले को ठंडा करने के बजाय और भड़काना है। ऊपर तक मैसेज चला जाएगा कि प्रशासन ने सांप्रदायिक सोच के चलते यह सारी कार्यवाही की है। बीच का रास्ता निकालने के लिए जब अधिकरियों ने मुस्लिम समाज को बातचीत के लिये बुलवाया तो मंसूरी ख़ुद भी उन लोगों के साथ थाने में पहुँचा। बातचीत के बाद मंसूरी ने विनम्रता के साथ कलेक्टर और एस पी से कुछ देर अकेले में बातचीत की इजाज़त मांगी। मंसूरी ने कलेक्टर और एस पी से अकेले में क्या बात की ये तो किसी को पता नहीं चला, मगर हुआ ये कि मंसूरी के जाने के बाद थाने में खत्री को तलब किया गया, इस बार कलेक्टर और एस पी ने ख़ुद ही खत्री के साथ अकेले में बात की इस बातचीत में भी क्या हुआ कोई नहीं जानता, मगर उसके बाद वापस आ रहे खत्री की हालत बता रही थी कि उसे हाई पावर पुलिसिया डोज दिया गया है। घबराहट की हालत में वह अपनी जीप में बैठा और घर रवाना हो गया। उसका दिमाग़ कलेक्टर द्वारा कही गई एक ही बात से भन्नाया हुआ था, -मिस्टर खत्री प्रशासन जब अपनी वाली पर आ जाए तो फिर उससे बड़ा गुंडा कोई नहीं होता। (सच आख़िर सच है) ।
जितनी आसानी से वह सोच रहा था कि मंसूरी और उसके बेटों को गिरफ़्तार करवा देगा और रामभरोस से भी छुटकारा पा लेगा वैसा कुछ नहीं हो पाया, उस पर ये और हो गया कि शक की सुई उसकी तरफ़ भी घूमने लगी थी। उधर मामले को शांत जान कर अधिकारी भी ज़िला मुख्यालय लौट गए और इधर कस्बा भी सचमुच शांत हो गया (ऐसे ही मरोगे तुम साले कुछ भी नहीं कर सकते) ।
क़स्बा तो हफ़्ता बीतते न बीते शांत हो ही गया पर रामभरोस हत्याकाँड को लेकर पुलिस की गतिविधियाँ तेज़ हो गईं थीं। वैसे भी जब मोटी मछली जाल में फंसती दिख रही हो तो पुलिस अति सक्रिय हो ही जाती है, सारी दुनिया कि पुलिस उस समय तफ़्तीश के मामले में हमारी पुलिस से पीछे हो जाती है। ये अति सिक्रयता खत्री के लिये परेशानी का सबब बन चुकी थी। क़स्बे की धारा एक सौ चवांलीस तो हट चुकी थी पर खत्री को धारा तीन सौ दो आजकल सपने में भी दिखाई दे रही थी।
रात बारह बजे जब खत्री वर्कशाप में पहुँचा तो वहाँ उसके लोग आज रात के काम पर निकलने के लिए आ चुके थे। यह रोज़ का ही नियम था कि रात को बारह बजे खत्री आकर बताता था कि आज किन गांवों पर धावा बोलना है और पंप तथा मोटर चुरा कर लाने वाले इन लोगों को खत्री का ड्रायवर जीप लेकर कहाँ पर खड़ा मिलेगा पूरे योजनाबद्घ तरीके से सारा काम होता था। दिन भर के टेंशन के बाद भी खत्री के कर्मचारी ड्यूटी पर आ चुके थे। खत्री से इनको इतना पैसा मिलता था कि ये उसके लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे। खत्री ने कर्मचारियों को वर्कशाप में बने शौचालय के पीछे बने सेप्टिक टैंक का ढक्कन उठा कर उसमें से गंदगी को प्लास्टिक की मज़बूत थैलियों में भरने के निर्देश दिये। हैरान कर्मचारी जब खत्री के आदेश को पूरा करके लौटे तो खत्री ने उनको कुछ समझाइश देकर रवाना कर दिया और ख़ुद वर्कशाप में बने अपने रेस्ट रूम में जाकर सो गया। सुबह जब क़स्बा जागा तो फिर एक बवंडर इंतेज़ार कर रहा था। क़स्बे की प्रमुख मस्ज़िद के अंदर चारों तरफ़ गंदगी बिखरी हुई थी। किसी ने ये गंदगी प्लास्टिक की थैलियों में भर-भर कर फैंकी थी जो छितराई हुई बिखरी पड़ी थी और मस्ज़िद के गेट पर एक मरा हुआ सूअर भी पड़ा हुआ था। बात की बात में तनाव बढ़ा जिसने भी देखा वही मुट्ठियाँ भींच कर घर की तरफ़ हथियार उठाने दौड़ पड़ा, सुबह जब तक खिली तब तक तो दंगे के आयोजन की पूरी तैयारियाँ हो चुकीं थीं। जाने कहाँ से जवान मुस्लिम लड़कों तक यह संदेश भी पहुँच गया था कि यह सब कुछ राम भरोस के समाज के लोगों ने रामभरोस की हत्या का बदला लेने के लिए किया है।
कुछ इधर से लपके, कुछ उधर से दौड़े और इस बार कुछ भी नहीं रुका, सब कुछ होता ही चला गया, कही दुकानें जलीं, कहीं सर फूटे तो कहीं अस्मतें लुटीं (वॉव) । वह सब कुछ जो दंगा नाम के आयोजन में होता है वह सब कुछ हुआ। बाद में पुलिस भी आई, कर्फ़्यू भी लगा, गोली भी चली मगर तब तक दंगे का सफलतापूर्वक आयोजन संपन्न हो चुका था। (तालियाँ...) एक पूरी पीढ़ी जिसने दंगे को केवल कहानियों और क़िस्सों में ही सुना था वह अपनी आने वाली पीढ़ी को सुनाने के लिए अपने क़िस्से तैयार कर चुकी थी। इसी बीच खत्री इस तरफ़ के पक्ष का अघोषित संरक्षक हो चुका था वह अस्पताल में घूम-घूम कर रामभरोस के समाज के घायल लोगों को ना केवल हाल-चाल पूछ रहा था बल्कि खुल कर पैसे भी बांट रहा था, वह हरेक को भरोसा दिला रहा था कि दंगे को लेकर समाज के जिन-जिन लोगों पर भी मुकदमे दर्ज होंगे उनकी अदालती कार्यवाही का पूरा ख़र्च वह उठाएगा। दोपहर को जब थाने में कलेक्टर और एस पी ने शांति के लिए दोनों पक्षों की बैठक बुलाई तो इस तरफ़ से कमान संभालते हुए खत्री ही वहाँ पहुँचा और पूरे ज़ोर-शोर से अपने पक्ष की बात भी रखी, काफ़ी गरमागरमी के बाद तय हुआ कि रामभरोस हत्या वाले मामले में पुलिस पूरी जांच के बाद ही कोई कार्यवाही करेगी, क़स्बे में आज हुए दंगे में शामिल दोनों ही पक्षों पर सख्ती से कार्यवाही की जाएगी और क़स्बे में अमन क़ायम करने के लिये खत्री और मंसूरी दोनों ही मिल कर कोशिश करेंगे।
चलते समय कलेक्टर ने खत्री से हाथ मिलाते हुए कहा 'वेल मिस्टर खत्री अब आपकी जवाबदारी है कि शांति बनी रहे।' खत्री ने मुस्कुरा कर केवल उनके हाथ पर हाथ रख दिया, लोग धीरे-धीरे अपने घरों को लौट रहे थे। खत्री भी अपनी जीप में बैठ कर वापस चल पड़ा। हर कोई वापस लौट रहा था, (मगर रामभरोस हाली? उसका क्या हुआ?) बताया तो वह तो मारा जा चुका है। (और खत्री की घरवाली उसका क्या हुआ?) जाने भी दो, क्यों किसी के घरेलू मामले में उलझते हो, कहानी रामभरोस हाली की थी जो अब ख़त्म हो चुकी है।