रामराज की बग्घी / हरिओम

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कुछ पेशबंदियाँ और एक माफ़ीनामा

कहानी शुरु करने से पहले कुछ बातें ज़रूरी हैं जिससे आख़िर में आपको मुझसे कोई शिक़वा न हो. पहली बात तो यह कि ये कहानी न नई है, न ही पुरानी. न सच है, न झूठ. आप चाहें तो इसे कहानी भी न मानें. मेरे लिए तो ये आपसे गुफ़्तगू का एक तरीक़ा है. दूसरी बात यह कि कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं. हाँ हालात, हवाले और हादसे ज़रूर सच हैं. तीसरी और आख़िरी बात यह कि इस कहानी को आप सब पहले से जानते हैं फिर भी इसे दोबारा एक सांस में पढ़ जाएंगे. गुस्ताख़ी माफ़ हो लेकिन आपकी इजाज़त से मैं अपनी बात शुरू करता हूँ.

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नए दौर में सियासत के लिए नई लफ़्फ़ाज़ी की ज़रूरत ताड़ जन विकास पार्टी ने जातीय समीकरणों को साधने के बाद विकास को चुनावी मुद्दा बनाया और ‘सबको रोटी, सबको काम ’ का नारा देकर अरसा बाद सूबे में दूसरी बार सरकार बनाई. प्रदेश की दूसरी पार्टियों को अपने तमाम मुद्दों, दावों, वादों और नारों को अगले चुनाव तक के लिये टालना पड़ा था. सियासत की समझ रखने वाले इसे बढ़-चढ़कर प्रदेश की राजनीति में एक नई शुरुआत मान रहे थे. सूबे के सियासी इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा था कि किसी पार्टी ने अपने चुनावी मसौदे में खेत-मज़दूर, किसान-कामगार, वनवासी-आदिवासी, और दिहाड़ी-गुरबा की सुध बढ़-चढ़ के ली थी. सिर्फ़ जात-पांत, मज़हब-ईमान और धरम-करम के सहारे सत्ता हथियाने के फेर में उलझी पार्टियाँ अपनी जन-चिंताओं और योजनाओं का बस्ता किनारे रख चुनावी हार के कारणों की जाँच-परख और लानत-मलानत में लग गई थी.

जन विकास पार्टी के मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री ने पुनः मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही ये एलान कर दिया था कि-“ प्रदेश की धरती उर्वर है और सरकारी गोदाम अनाज से पटे पड़े हैं. इन्द्र देवता की मेहरबानी और हरहराती नदियों की किरपा से सूबे का कोई इलाका ऐसा नहीं है कि हमारी प्यारी जनता को रोटी कमाने के लिये गाँव छोड़कर शहर की तरफ़ आना पड़े. हम चाहते हैं कि मौके के अधिकारी- कलेक्टर, सीडियो, यसडियम, तहसीलदार और बीडियो यह पक्का करें कि बेघर को मकान, बेकार को काम, भूखे को रोटी और बीमार को बूटी (दवाई) मिल सके. इसमें लापरवाही दिखाने वाले अफ़सरों को किसी भी सूरत में बख्शा नहीं जायगा. हमें दिन-रात मेहनत करके परदेस को विकास के रस्ते पर आगे ले जाना है. जन विकास पार्टी के पहले और बाद परदेस में जितनी भी सरकारें आईं उन्होंने दिल खोल कर जनता के पैसे को लूटा और जनता की समस्यायों और तक़लीफों पर घड़ियाली आँसू बहाये... जनता हमारे लिये भगवान है. हम उसकी तकलीफ बर्दाश्त नहीं कर सकते. हम जन विकास पार्टी में दुबारा आस्था दिखाने के लिये परदेस की जनता का कोटि-कोटि आभार परगट करते हैं. सर झुकाकर परनाम करते हैं.”

मा.मुख्यमंत्री जी का यह पहला बयान था सो अखबारों में सुर्ख़ी बना और खबरिया चैनलों पर इसके अर्थ-अनर्थ और भावार्थ पर दूसरे दल के नेताओं, नीति-गुरुओं, प्रबंध-सलाहकारों, समाज-सेवियों, विकास-विशेषज्ञों और मीडिया-महानुभावों ने हफ़्तों चर्चा की. नई सरकार की बदली हुई प्राथमिकताओं के मद्देनज़र ग्राम्य विकास, पंचायतराज, रसद, परिवार और स्वास्थ्य कल्याण महकमॉ ने ताबड़तोड़ कई शासनादेश जारी किए जिनकी भाषा कुछ फेर-बदल के साथ इस तरह की थी- “ मा. मुख्यमंत्री जी द्वारा प्रदेश के सर्वांगीर्ण विकास को गति प्रदान करने के उद्देश्य से दिए गये प्रेरक वक्तव्य के आलोक में एतद्द्वारा मुझे यह कहने का निदेश हुआ है कि तत्काल प्रभाव से प्रदेश के गरीबी-रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले समस्त परिवारों को..फलां-फलां सुविधाओं..योजनाओं..लाभों.. से आच्छादित करने का निर्णय लिया गया है...”

शुरूआती कुछ महीनों में काफी गहमा-गहमी रही और फिर राज-काज सामान्य गति से चल पड़ा. मा. मुख्यमंत्री जी मंत्रिमंडल के गठन आदि झंझटों से फ़ारिग होकर असंतुष्टों की सुराग़रसी, दूसरी पार्टी के जीते हुए नेताओं को लालबत्ती और गाँधी बाबा के चित्रों से भरी हुई अटैचियों के बदले अपनी पार्टी में लाने की तिकड़म, धन्नासेठों-बिचौलियों-दलालों-ठेकेदारों-सेवादाताओं और चुनाव के दौरान पार्टी की मदद करने वाले सहयोगियों के साथ प्रदेश के चहुँमुखी विकास हेतु विचार-विमर्श, जन विकास पार्टी को अगले चुनाव तक राज्य स्तर की पार्टी से राष्ट्र स्तर की पार्टी बनाने के अभियान और इन सबसे ऊपर अपने पद की भव्यता और ताम-झाम का मज़ा लूटने और अपने सुरक्षा घेरे को अभेद्य बनाने में लीन हो गये. सरकार के दूसरे मा. मंत्रीगण अपने नेता अथवा मा. मुख्यमंत्री जी द्वारा समय-समय पर सौपे गये दूसरे कामों के साथ-साथ अपने विभाग से होने वाली आमदनी का हिसाब रखने, उसे ठिकाने लगाने की फ़िक्र और ज़्यादा मालदार महकमे की जुगाड़ में उलझ गये. बचे अफ़सर-नौकरशाह, हाकिम-हुक्काम, इंजीनियर-डाक्टर और बाबू-इंस्पेक्टर- सो उनके लिए कुछ नया नहीं था.उन्होंने इस तरह के कई चुनाव देखे और करवाए थे. विकास का वादा और दावा करने वाली ऐसी तमाम सरकारों में काम किया था. कई मुख्यमंत्रियों के भाषण सुने और अनगिनत शासनादेश लिखे-पढ़े थे. उन्हें अपना काम अपनी तरह से करने का हुनर आता था. इसमें किसी बाहरी दखल, राय-सलाह की न तो उन्हें ज़रूरत थी और न ही वे इसे पसन्द करते थे. रही बात व्यवस्था के तीसरे और चौथे खंभे की तो तीसरा खंभा(न्यायपालिका) अपने ‘चाल-चरित्र और चेहरे’ पर हमेशा की तरह मुग्ध था और चौथा(मीडिया) अपने धंधे के अपरिमित विस्तार की ख़ाम-ख़याली में लिप्त था. उसे बैठे-बिठाये जो खुराक़ मिल जाती थी उसे ही पचा पाना मुश्किल था..और फिर बेज़ार जनता की ज़िन्दगी में ख़बर बनने लायक़ कुछ भी तो आसानी से घटित नहीं होता था. ऐसे में दिन-रात- चौबीसों घंटे ख़बरों की उसकी तलब को पूरा करना आम जनता के बूते की बात कहाँ थी! मजबूरन उसे सिनेमा, क्रिकेट और सियासत के गलियारों में ‘लव-सेक्स और धोखा’ के तड़के की तलाश करनी पड़ती थी. कभी ज़रायम दुनिया की सनसनी का सहारा लेना पड़ता था तो कभी-कभार मुर्ग़ों और सांडों की लड़ाई और सांपों की मुहब्बत या फिर भूत-प्रेत, हवन-कीर्तन, ओझाई-फुंकाई और तंत्र-मंत्र से ही पूरा दिन निकालना पड़ता था.

दरअसल कहानी का यह जो देशकाल है उसे आप जानते ही हैं और जिसे दोहराने की मुझे कतई ज़रूरत नहीं थी बल्कि यह आपका क़ीमती वक़्त बर्बाद करने की क़वायद और आपका अदबी ज़ायक़ा बिगाड़ने की गुस्ताख़ी भी मानी जा सकती है. और इसके लिए बेशक़ मुझे माफ़ी माँगनी चहिये. कहानी में कुछ ताज़ा, चटपटा, मस्त, मूड फ्रेश करने वाला वाक़या होना चाहिये. आख़िर आप अपनी ज़िन्दगी के गंभीर मसलों से फ़ुरसत निकाल कुछ पढ़ते हैं और ऐसे में लफ़्फ़ाज़ी नाक़ाबिले बर्दाश्त है. सो कहानीकार अबतक दुहराई गई तमाम पुरानी और जगज़ाहिर बातों के लिये माफ़ी माँगता है और यह वादा करता है कि आख़िर तक वह आपको वाक़ई ज़ायक़ेदार और चटपटा एक किस्सा ज़रूर सुनायेगा.

ईचक दाना बीचक दाना

इसे सुखद संयोग कहा जा सकता है कि जिस साल जन विकास पार्टी ने प्रदेश में अपनी जीत का परचम फहराया उस साल पूरे देश में गेहूँ की बम्पर पैदावार हुई. अन्न की पैदावार के लिहाज़ से कहानी वाला यह प्रदेश पूरे देश की कुल उपज का एक चौथाई अकेले पैदा करता था. यह अलग बात थी कि खपत के मामले में भी यह सूबा आगे था और देश की कुल पैदावार का एक तिहाई अकेले चट कर जाता था. गेहूँ की बम्पर पैदावार एक तरह से प्रदेश के किसानों की तरफ़ से जन विकास पार्टी के लिए एक और तोहफ़ा था. प्रदेश के अर्थ और गणना विभाग द्वारा अपने अगड़म-बगड़म फ़ार्मूले के आधार पर मा. मुख्यमंत्री जी को यह बताया गया कि इस बरस पिछले बरस की तुलना में गेहूँ की पैदावार बगड़म फ़ीसदी ज़्यादा हुई है. इकाई गणना के मुताबिक कुल अगड़म लाख मीट्रिक टन अनाज अधिक पैदा हुआ है. मा. मुख्यमंत्री ने मुस्कराते हुए इसे किसान-मज़दूरों के सवाल पर जन विकास पार्टी द्वारा किये गये ज़मीनी संघर्ष का सुफल बताया. जबकि विपक्ष इसे किसानों की मेहनत और भगवान की कृपा कह रहा था.

ख़ैर सरकार के मंत्रियों और कृषि महकमे के ज़िम्मेदार अफ़सरों ने इस उपलब्धि का हर मौक़े पर घूम-घूमकर प्रचार किया. महीनों तक रंगीन जश्नों और ‘वेट’ पार्टियों का दौर चला. चुनावी जीत के तुरंत बाद अनाज से अटे पड़े बोरों से लदे हथठेलों, बैलगाड़ियों, जुगाड़, ट्रकों और ट्रैक्टरों की रेलमपेल का मधुर संगीत मौसम में गूँजता रहा. सरकार ने किसानों को उनकी उपज का भरपूर दाम देने का वादा पूरा करते हुए प्रति क्विंटल सरकारी खरीद दर में बगड़म रुपए का इज़ाफ़ा करते हुए पूरे प्रदेश में तत्काल सरकारी खरीद चालू करने का एक और शासनादेश जारी कर दिया. वह यह बात भूल गई कि पिछली सरकार ने जाते-जाते धान ख़रीद के बाद राइस मिलों पर जो लेवी( जिस मात्रा में हॉलिंग(धान से चावल निकालने की क्रिया) के बाद चावल सरकार को निर्धारित कमीशन पर वापस करना पड़ता था) उसका आधा भी मिलों ने वापस नहीं किया था और इस पर भी सभी सरकारी गोदाम ठसे पड़े थे. यहाँ तक कि कृषि, सहकारिता जैसे महकमों द्वारा खाद-बीज, रसायन और उपकरण रखने के लिये बनाए गये भवनों और गोदामों में भी अनाज ठूंसा हुआ था. तहसील और विकास खंड भवनों के स्टोरों और मीटिंग हॉलों में भी कहीं-कहीं अनाज के बोरे रखे हुए थे. उनमें चावल के अलावा पिछले साल का गेहूँ भी कहीं-कहीं एक बरसात झेलकर बदरंग हो रहा था. प्रदेश के रसद विभाग ने जब यह समस्या मा. रसद मंत्री के सामने रखी तो उन्होंने उलटे इसे मा. मुख्यमंत्री के सामने रखा. यह पार्टी का अनुशासन था. मा. मुख्यमंत्री से पूछे बिना पार्टी का कोई नेता न तो दूसरे रंग के कपड़े पहनता था और न ही किसी होटल वग़ैरह में दावत उड़ाने जा सकता था. अपने चुनाव-क्षेत्र के अलावा कहीं और जाने के लिए भी इजाज़त लेनी होती थी.वे विभाग के मंत्री ज़रूर थे पर उनको अपना संतरी बदलने के लिये भी अनुमति लेने का नियम था फिर यह तो यूँ भी एक बड़ा निर्णय था.सो मामला मुख्यमंत्री तक गया.मुख्यमंत्री जी ने अपने क़रीबी अफ़सरों से मशवरा करने के बाद तय किया और फिर मीडिया के सामने घोषणा की-

"सूबे के ग़रीब-गुरबा, मजूर-किसान, बुज़ुर्ग-बेसहारा को राशन कार्ड दिया जायगा जिसपर उन्हें हर महीने गल्ला-गेहूँ-चावल दिया जायगा.बाक़ी कम-ज़्यादा ग़रीब कौन है, अफ़सर देख लें..आठवीं तक के स्कूलों में सब बच्चों को दोपहर का खाना देने की स्कीम भी चलाई जायगी. मजूर-धतूर के लिये ‘काम के बदले अनाज योजना’ भी चालू की जायगी..गाँवों में जो बहू-बेटियाँ उम्मीद से हैं, उनको और फिर पैदा होने वाले बच्चे को स्कूल जाने की उमर तक गेहूँ का दलिया और पंजीरी बाँटी जायगी..हमारे परदेस में रामराज होगा. अनाज की भरमार है तो सबको दो जून की रोटी मिलनी चाहिये. नियम-क़ानून सब अफ़सर लोग देख लें..” मुख्यमंत्री के तेवर कड़े थे लेकिन वे जनता के लिये अपना दिल उड़ेले जा रहे थे. बग़ल बैठे अफ़सर एक-एक शब्द नोट किये जा रहे थे जैसे स्कूली बच्चे इमला नोट करते हैं. हालांकि अफ़सरों को मुख्यमंत्री का बयान पहले से ही रटा हुआ था. उसे तैयार करने में उन्होंने कड़ी मेहनत जो की थी !

मुख्यमंत्री जी ने आगे कहा- “ और सभी अधिकारी यह भी नोट कर लें कि एक हफ़्ते के भीतर परदेस भर में बचे हुए अनाज के लिए गोदाम किराए पर लिया जाय. सरकारी ग़ैर-सरकारी मकानों और खुली जगहों को तलाश कर अनाज की हिफाजत की जाय. जरूरत हो तो बरसाती और तिरपाल खरीदा जाय. मगर कान खोल कर सुन लें अफसर कि किसी भी किसान को न तो अपनी फसल मजबूरी में दलाल को बेचनी पड़े और न ही अनाज का एक भी दाना सड़ने पाए.”

मीडिया ने अगले दिन मा. मुख्यमंत्री जी की ‘जन-संवेदना’ की प्रशंसा करते हुए प्रदेश में अनाज खरीद और उसके रख-रखाव की चुनौतियों का पुरज़ोर हवाला दिया था. इससे प्रदेश की जनता में न सिर्फ़ एक अच्छा संदेश गया था बल्कि ज़रूरतमंद लोगों में खुशी की एक लहर भी दौड़ गई थी.

कुछ रोज़ बाद जब अफ़सरों ने मा. मुख्यमंत्री जी के संज्ञान में पुनः यह तथ्य पहुँचाया कि सारी कोशिशें करने के बावजूद सूबे में अगड़म गेहूँ रखने की जगह का इंतज़ाम नहीं हो पा रहा है तो उन्होंने फिर से अपने क़रीबी अफ़सरों के साथ लंबा विचार-विमर्श किया और फिर मीडिया के सामने सुविचारित ‘गेहूँ खरीद नीति’ का खुलासा किया.

इस नीति के तहत प्रदेश भर में छोटे आढ़तियों, आटा-चक्की वाले मिल-मालिकों और बिस्कुट-ब्रेड बनाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियों को मनचाही जगहों और मनचाही शर्तों पर गेहूँ ख़रीदने का लाइसेंस जारी करने की व्यवस्था थी. सरकार की इच्छा के मुताबिक एक बार फिर संबन्धित महकमों ने ताबड़तोड़ कई शासनादेश जारी कर दिए और राजकाज फिर पुराने ढर्रे पर चल पड़ा.

स्कूली बच्चों को खाना खिलाने वाली योजना से शिक्षा, पुष्टाहार-पंजीरी योजना से महिला और बाल-विकास तथा काम के बदले अनाज योजना से पंचायत और ग्राम्य विकास महकमें के अफ़सरों और उनके रिश्तेदारों के यहाँ रोज़मर्रा के अनाज की कमी तो पूरी हो ही गई साथ ही शादी-विवाह, पर-परोजन, श्राद्ध-संस्कार के लिए भी असानी से राशन उपलब्ध हो चला. रही बात रसद और मार्केटिंग महकमे की तो उनकी पांचों उँगलियाँ पहले से ही घी में थी. इन योजनाओं के बाद बीस की बीसों घी में जा धंसीं और सिर कड़ाही में.

यह तो तय था कि बड़े गोदामों से अनाज का इतना बड़ा उठान और छोटी-छोटी जगहों तक उसका बंटवारा बिना परिवहन विभाग की चुस्ती और ट्रांसपोर्ट ठेकेदारों की मदद के नहीं हो सकता. सो इस भोज में उन्हें भी शामिल कर लिया गया. अब ‘थाना-पुलिस, तहसील-पटवारी हरदम सबपर भारी’ वाली पुरानी कहावत तो सच होनी ही है. इनके बग़ैर न कोई ख़ुद को ज़िन्दा साबित कर सकता है न मरा. सो थाने का डंडा और तहसील की कलम सबपर मंडराती रहती थी और उनका काम भी चलता रहता था.

अब इतनी सारी योजनाओं की ज़मीनी निगरानी और उन्हें जनता के बीच ले जाकर लागू करने की ज़िम्मेदारी तो देश के संविधान ने ही गाँव पंचायतों को दे रखी है फिर भला कोटेदार, सरपंच और उसके सेक्रेटरी का ज़िक्र क्यों न हो. मगर प्रिय पाठकों इस सबमें उनकी हिस्सेदारी नहीं थी बल्कि गाँव तक पहुँचने वाला पूरा का पूरा हिस्सा उनका ही था. वे अपनी गणित के मुताबिक जबर विरोधी को चुप करने से लेकर आए दिन जाँच-पड़ताल वग़ैरह के लिए गाँव आने वाले बेहिसाब छोटे-बड़े हाकिमों के लिये इसी में से चाय-बिस्कुट, बरफी-पेड़े, मुर्ग़ा-खसी, काजू-किशमिश, सौफ-इलाइची के साथ-साथ हल्क़े-भारी लिफ़ाफों का भी इंतज़ाम करते थे.

सरकारें आज़ादी के बाद से ही देश के विकास में सरपंचों की अहमियत समझती आई थीं. फ़र्क़ सिर्फ़ यह आया था कि सरपंच भी धीरे-धीरे अपनी अहमियत समझने लगे थे. उन्हें पता चल गया था कि जन विकास के इस अनुष्ठान में किसका क्या-क्या घी में है. सो जनता की भलाई के नाम पर जो घी उनके पास तक आता था उसमें वे अपना हाथ-पाँव और मूंड़, सब गाड़ देते थे.

बहरहाल किस्सा गेहूँ ख़रीद के लिये किये जाने वाले सरकारी इंतज़ामों का चल रहा था सो आनन-फानन में पुरावा-पाही, गाँव-गिराँव और कस्बा-कछार में छोटी औक़ात के बनियों, बड़ी जात के आढ़तियों और बहुत बड़ी थैली वाली कंपनियों के कांटे टंग गये और उनके दलाल...अरे न..न..सेवा-प्रदाता घूम-घूमकर छोटी काश्त के किसानों के खेत से औने-पौने गेहूँ उठाने लगे. सूबे के नब्बे फ़ीसदी किसानों के लिए खेती यूँ भी जीने मरने का सवाल थी. जुताई-बुआई, खाद-पांस, बीज-बेरन, सिचाई-निराई, रखाई-मड़ाई तक वैसे ही जहन्नुम का दीदार हो जाता था, अब फसल बेचने के लिये भला कौन सरकारी अड्डे तक जाय. और अगर जाय भी तो भला कैसे? फिर दो-चार-दस मन अनाज गाड़ी पर लादें तो उसका किराया-भाड़ा-मजूरी अलग. और फिर इतना कुछ करने पर भी अड्डे का मुंशी ठेंगा दिखाता है नगद-नरायन के नाम पर- “ जब सरकार पैसा देइहै तबै मिलिहै काका !...गोहूँ तउल जात है, ई का कम है.” फिर हुज्जत कितनी ही करो- “अब गहन-गिरवी रख,करजा-पाती काढ़ फसल तैयार की और उधारी बेच दी तो कुनबा कैसे पाले कोई! शादी-गौना, बिमारी-इलाज, पिंड-सराध, कथा-भागवत, मेला-मनौती का खर्चा है सो अलग.” सरकारी कांटे के मुंशी को इससे मतलब नहीं जबकि बनिए और बबुआन खड़ी फसल का दाम लगे हाथ देने को तैयार रहते हैं. सौ-दो सौ कमी रहती है सो हुआ करे. काम तो नहीं रुकता. काश्तकार का मन समझते हैं ये धंधे वाले. और फिर सरकारी मुंशियों को भी बनियों आढ़तियों और ज़मीदारों से अनाज ख़रीदने में आसानी होती है. न ज़्यादा चिकचिक न झिकझिक. दोनों एक दूसरे की मजबूरी समझते हैं और हँसी-खुशी आपसी समझदारी से इस मजबूरी का फ़ायदा भी उठाते हैं. अनाज तो वैसे भी खरीदा ही जाता है.खेत में तो सड़ता नहीं. अब यह बात दीगर है कि मुनाफ़ा मंत्रियों, अफ़सरों, मुंशियों, बनियों और बबुआन की ज़ेब जाता है. यह बात सबको पता भी थी. मा. मुख्यमंत्री जी को भी. लेकिन उनके पास इसका जवाब भी था जिसे वह निजी बातचीत में कह भी डालते थे -

“आज़ादी के इतने साल बाद भी- जबकि इतनी सरकारें आई-गईं, इससे बेहतर व्यवस्था तो किसी ने न निकाली.फिर रातोरात कुछ सुधरता है भला.हर बात पे रोना, हर काम को कोसना भी ससुर पब्लिक की आदत हो गई है. ख़ुद कुछ करना नहीं है. हर बात के लिए बस भकुआये हुए सरकार की तरफ़ देखती रहती है.”

तो सरकार की इच्छा और आदेश के मुताबिक तमाम लोकहितकारी योजनाएँ पूरे प्रदेश में चल निकलीं. अनाज के बोरों के छल्ले गोदामों, बखारों, दफ़्तरों, वरामदों और छज्जों तले शोभायमान हो गए. जनता के लिए बनाये गए कम्युनिटी हॉलों में भी अनाज पाट कर सरकारी ख़रीद-फ़रोख़्त के आंकड़े पूरे किये गए. चारों तरफ़ सरकार की इस तेज़ी की तारीफ़ हुई. सिर्फ़ विपक्षी पार्टियों को ही कुशासन और लूट का राज दिखा. इस काम में दिन-रात एक करने वाले हाकिमों, बाबुओं और ठेकेदारों ने चौतरफ़ा जश्न मनाया और पूरे साल के लिए कुत्ते-बिल्लियों, चूहों-गीदड़ों, छिपकलियों-चमगादड़ों, कठफोरों-कौवों, कीड़ों और दीमकों के मुफ़्त खाने और हगने का इकट्ठा इंतज़ाम खुले में करके पुण्य कमाया सो अलग. प्रिय पाठकों! जो कहानी मैं आपको सुनाना चाहता हूँ वह धन-धान्य से भरे और जनता के भले के लिये काम करने वाली सरकार वाले ऐसे ही एक प्रांत की कहानी है.

ग्राम पंचायत बनपुरवा उर्फ़ सरपंच भौजी की जागीर

जन विकास पार्टी जिस प्रांत में राज कर रही थी उसमें कुल अगड़म गाँव पंचायतें थी. लेकिन यह कहानी उसमें से सिर्फ़ एक गाँव पंचायत बनपुरवा की है. हालांकि यह कहना मुश्किल है कि दूसरी पंचायतों में ऐसी कहानियाँ नहीं थीं. वैसे बनपुरवा में भी कोई यही एक कहानी नहीं थी. तमाम और कहानियाँ भी थीं. मैं आप सबका क़ीमती वक़्त बरबाद करना नहीं चाहता लेकिन अगर आप इजाज़त दें और मेरी ग़ुस्ताख़ी के लिए मुझे एक बार फिर से माफ़ करें तो मैं आपको कुछ मज़ेदार क़िस्से सुना सकता हूँ. अब जैसे एक क़िस्सा ख़ुद बनपुरवा के नाम और उसके एक छोटे मजरे से ग्राम पंचायत बनने का ही है. तो चलिये लगे हाथ ये क़िस्सा मैं आपको सुना ही देता हूँ.

काग़ज़ात सरकार और जिल्द बंदोबस्ती में आज जिसे ग्राम पंचायत बनपुरवा कहते हैं वह जन विकास पार्टी की सरकार बनने से पहले तक ददनपुर के नाम से जाना जाता था. और यह नाम गाँवों और मजरों के नामकरण की सामान्य परंपरा के अनुरूप भी था. अब हम सब जानते हैं कि नाम रखने के पीछे कोई न कोई वजह होती है- जैसे किसी राजा, रानी, रियासत के नाम पर या किसी महात्मा-फ़क़ीर, सैलानी या बलिदानी के नाम पर. कभी बड़ी जातियों के असर को दिखाने के लिये उनके नाम पर तो कभी-कभार जंगल-नदी-पहाड़ के कारण भी किसी जगह का नाम पड़ जाता है. अब बनपुरवा नाम के पीछे ऐसी कोई वजह नहीं समझ आती. इसके आस-पास वन या बन नहीं था. ज़मीन भी ऊसर-बंजर नहीं थी कि उसी तर्क से इसे बनपुरवा कहते. गाँव की आबादी भी आदिवासी-वनवासी प्रजाति की न थी और न ही जंगल पर उसकी रोज़ी-रोटी टिकी थी. बनपुरवा में पासी और कोरी या कोयरी जाति के परिवार आबाद थे. पासी जाति के लोगों का पेशा सुअर पालना और महुए के लहन से शराब, दारू या ठर्रा तैयार करना था जबकि कोयरी परिवार बकरी और भैंस पालने के साथ खेती-बारी के कामों में अधिया-बंटाई करके गुज़र- बसर करते थे. वैसे कहानीकार ने बनपुरवा नाम के पीछे एक तर्क खोजा भी था कि हो न हो ये कोरी या कोयरी लोग कोल जनजाति-जो जंगलों में रहती है, के वंशज हों. हालांकि इसे साबित करना मुश्किल है. ख़ैर बनपुरवा में कुल सौ-डेढ़ सौ परिवार थे जिनके पास न तो अपनी ज़मीन-ज़ायदाद थी न ही कोई दर-दूकान जो उनकी आमदनी का नियमित ज़रिया होती. कुल मिलाकर उनकी ज़िन्दगी ज़रूर जंगलियों की तरह थी और वे पंचायत के दूसरे मजरों से काफ़ी दूर रहते थे और इस लिहाज़ से उन्हें वनवासी कहा जाता रहा होगा.

तो ग्राम पंचायत बनपुरवा में तीन मजरे और थे. एक पंडित पुरवा जिसमें ब्रह्मन रहते थे और एक पुरवा वो जिसमें ठाकुर या क्षत्रिय जाति के परिवार रहते थे. इन मजरों में कुछ परिवार छोटी जातियों के भी थे या शायद इन बड़ी जातियों की सेवा-टहल के लिए बसाये गए थे. इसके अलावा एक पुरवा ऐसा भी था जिसमें कई जाति के परिवार एक साथ बसे हुए थे. तो इस तरह से ग्राम पंचायत बनपुरवा में कुल चार मजरे थे लेकिन आबादी के लिहाज़ से बाक़ी पुरवे बनपुरवा से छोटे थे और यही वह वजह थी कि पंचायत परिसीमन के वक़्त बनपुरवा को ग्राम पंचायत बनने का रंग-रुतबा हासिल हुआ. नई सरकार ने छोटी जातियों के हित में तमाम काम किये थे और बनपुरवा को पंचायत बनाने का फ़ैसला भी उनमें से एक था. इससे पासी और कोयरी परिवार बड़े खुश थे जैसे इतने भर से सरकार में उनकी हिस्सेदारी हो गई हो. उन्हें उम्मीद बंध गई थी कि आने वाले दिनों में सरकार उनके रोटी और मकान की समस्या का समाधान भी करेगी. अब यह अलग बात है कि सरकारी पन्नों पर नाम बदलने भर से न किसी का काम बदलता है न क़िस्मत. ज़ाहिर है कि नाम बदलने का यह सरकारी फ़रमान बड़ी जातियों को पसंन्द नहीं आया होगा. वैसे इससे न तो पंडितों की पूछ कम हुई और न छोटे ददन का रुतबा. छोटे ददन कौन?.. अरे हाँ. मैं ये बताना तो भूल ही गया था. लेकिन मैंने ये ज़रूर बताया था कि बनपुरवा पंचायत को पहले ददनपुर नाम से जाना जाता था. तो छोटे ददन का क़िस्सा भी लगे हाथ सुनाते चलें क्योंकि सरपंच भौजी की दास्तान दरअसल उसके बिना अधूरी रहेगी.

बड़े -छोटे ददन और इम्पाला कार

...तो ददनपुर पहले ज़माने की एक छोटी रियासत थी और छोटे ददन उर्फ़ कुंवर अरिदमन सिंह अतीत की इस वैभवशाली और विलासी रियासत की स्मृति के पालने में बड़े हुए वारिस थे. वे छोटे इसलिए नहीं थे कि उनसे बड़ा कोई और वारिस था बल्कि इसलिए थे कि उनके पिता बड़े ददन ठाकुर जयवीर सिंह प्रदेश में ज़मीदारी विनाश क़ानून लागू होने के काफ़ी बाद तक राजसी अंदाज़ में जिए और उसी तरह मरे भी. ददन उनकी ख़ानदानी पदवी थी. जिसका पहले अर्थ दादा अर्थात बड़ा पिता, बड़ा भाई या कोई ऐसा जो आपकी रक्षा करता हो, था. लेकिन बाद में यह बदलकर ग़ुण्डा, सरहंग, नंगा या अन्यायी हो गया था.

बहरहाल बाक़ी रियासतों की तरह ददनपुर भी एक समृद्ध रियासत थी. क़िलेनुमा एक महल में राजपरिवार रहता था और पंचायात और उसके बाहर भी पूरे इलाक़े की सभी ज़मीनें और बाग़ान इसी परिवार के खाते की बतायी जाती थीं जिसे धीरे-धीरे उन्होंने दान और बख़्शीश के रूप में ब्राह्मनों और दूसरी छोटी जातियों में बाँट दिया था. ज़मीदारी विनाश क़ानून लागू होने के बाद सरकार ने भी इस परिवार की तमाम ज़मींने भूमिहीन निचली जातियों को पट्टे पर दे दी थीं. राजपरिवार के दूसरे कुछ ख़ादिम और फ़रमाबरदार जिन्हें राजा ने ख़ुद आसामी पट्टे बाँटे थे अब नये क़ानून के मुताबिक इन ज़मींनो के मालिक और फ़र्द सरकार पर संक्रमणीय भूमिधर के रूप मे दर्ज़ हो गये थे. रियासतों का सहज सियासी रुतबा तो काफ़ी पहले ही ख़त्म हो चुका था, अब राजसी रंग बनाये रखने का एक मात्र ज़रिया बची-खुची ज़ायदाद ही थी. उसे बेच-बांचकर ही ख़ानदानी भरम को बचाये रखा जा सकता था और यह काम बड़े ददन उर्फ़ ठाकुर जयवीर सिंह ने बखूबी किया. वह अपने महल से कभी-कभार ही बाहर निकलते थे और जब निकलते थे तो बाक़ायदा घोड़ागाड़ी ( जो मय कोचवान उन्हें अपनी ससुराल से छोटे ददन के जन्म के मौक़े पर नेग में मिली थी ) या इम्पाला कार ( जो उनके पिता- बड़े राजा ने उनकी अट्ठारहवीं वर्षगांठ पर उनकी ज़िद के आगे हारकर तोहफ़े में खरीदी थी ) में ही निकलते थे. यह कार साल में दो-चार बार ही महल के मुख्य द्वार से बाहर निकलती थी और जब निकलती तो ड्राईवर और अर्दली कलंगी टोपी और ददनपुर रियासत का ख़ानदानी सोने की पॉलिश वाला बिल्ला पहनकर बड़ी ठसक के साथ खिड़की का शीशा खोलकर बैठते थे. और बड़े ददन पिछली सीट पर वक़्त के साथ पुरानी पड़ चुकी अचकन में तने, एक पाँव दूसरे के ऊपर रखे सोने की मूंठ वाली छड़ी पकड़े बैठते. उनके होठों से वह चुरट भी लगी रहती जिसे महारानी विक्टोरिया ने हिंदुस्तान के दौरे पे कभी उनके पिता अर्थात बड़े राजा को ख़ुश होकर उपहार स्वरूप दिया था. वे अक्सर बिना काम के ही निकलते और अपनी रियासत- जो उनके जीते जी ग्राम पंचायत बनपुरवा बन गई थी, का एक चक्कर लगाने के बाद अपने महल में लौट आते थे. बीच रास्ते गाँव के नंग-धड़ंग बच्चों को देखकर मुस्कराते हुए हाथ हिलाना नहीं भूलते थे. यह निकलना शायद इसलिए था कि वे जीते जी अपनी रियाया- जो अब उनकी नहीं बची थी, के ज़हन में अपने बचे हुए रसूख़ का जायज़ा लेते रहना चाहते थे. यह निकलना उन्हें ख़ुशी देता था. इम्पाला कार उनकी तरह ही अब काफी पुरानी हो गई थी लेकिन कुलीनता का रोगन उसपर उसी तरह था जैसे उनकी मूंछों पर. गाँव की कच्ची और खड़ंजा सड़कों पर चलती हुई कार बेतहाशा काला धुआँ फेकती थी. कई बार गाड़ी गुज़र जाने के बाद गाँव के बच्चे शरारती लहज़े में टेर लगाते- “देखो-देखो! राजा की गाड़ी से धुआँ निकल रहा है.” और इस टेर में ‘गाड़ी’ के ‘गा’ पर चंद बिंदी अनायास ही लग जाती थी.

ख़ैर राजकाज भले न बचा हो लेकिन बड़े ददन ने अपनी ज़िन्दगी राजा की तरह ही बिताई. वह सुबह-सुबह ही नहा धोकर महल की बारादरी में आ बैठते थे. उनका पुराना वफ़ादार- कल्लू बारी झाड़ा-पेशाब छोड़, बाक़ी समय साये की तरह उनके साथ लगा रहता. उसका सबसे बड़ा काम राजघराने के सुनहरे अतीत के किस्से सुनाकर और उनकी दरियादिली का मस्का मार उन्हें ये एहसास दिलाना था कि ज़माना अभी भी उतना नहीं बदला है और वह अब भी राजा हैं. पूरा का पूरा दिन ऐसे ही गुज़र जाता था लेकिन बड़े ददन का अनुशासन ऐसा था कि बारादरी में आने से पहले रानी साहिबा को भी उनकी इजाज़त लेनी होती थी. महल के बाहर वक़्त कितनी तेज़ी से बदल रहा था, उसकी न तो उन्हें भनक थी और न ही परवाह.......

    ..तो छोटे ददन का बचपन बड़े ददन के मासूम कुलीन आग्रहों और तेज़ी से बदलते वक़्त के बेरहम दबावों के बीच गुज़रा था. राजसी रंग-ढंग और शाही फ़रमाइशों के चक्कर में धीरे-धीरे खेत-बाग़ या तो बिक गये थे या सेठ-साहूकारों के यहाँ गिरवी हो गये थे. फिर एक दिन वह आया जब बड़े ददन इस दुनिया से चले गये लेकिन जाते-जाते छोटे ददन उर्फ़ कुंवर अरिदमन सिंह को हमेशा के लिये छोटा ही कर गये. यह ददनपुर बड़े ददन के भाई-भयौह, पर-पट्टीदार और कई पीढ़ियों से राजपरिवार की सेवा-टहल से जुड़े दूसरे घराने के परिजनों से बसा हुआ था. 

बहरहाल छोटे ददन की उम्र बड़े ददन के इंतकाल के समय अट्ठारह-बीस से ज़्यादा न थी और उन्होंने बीड़ी पीने, लड़की देख सीटी बजाने, पेड़ पर चढ़ आम-इमली तोड़ने, ग़ुस्से में सामने वाले को माँ-बहन की चालू गालियाँ निकालने और कबाड़ हो चुकी इम्पाला कार को फर्स्ट गीयर में गैराज के अन्दर-बाहर करने के अलावा कुछ नहीं सीखा था. अब तक की उनकी परवरिश भले ही अभिजनता के बासी तक़ाज़ों के बीच हुई थी लेकिन बड़े ददन के जाने के बाद उन्होंने ख़ुद को इन बंन्धनों से आज़ाद कर लिया और गाँव पंचायत के बाक़ी हमउम्र लडकों के साथ कुश्ती, घुच्चू, झाबर, डंक, छिपा-छिपौव्व्ल, गेंदतड़ी, ताश, कंचा और कौड़ी का मज़ा लूटने में लग गये. ज़मीन-ज़ायदाद पहले ही किनारे लग चुकी थी अब बारी घर के ज़ेवरों और बरतनों की थी. इसी पुरानी पूँजी के दम पर छोटे ददन जवान हुए, मछरी-गोश-दारू का स्वाद जाना और फिर उसके मुरीद हुए. पढ़ाई ख़ानदानी शगल नहीं था इसलिये नहीं की. रानी साहिबा ने बड़ी मुश्किल से पड़ोस की एक बरबाद रियासत की कन्या ढूँढ उनका व्याह कराया और कुछ महीनों के बाद पुरखों का नाम न डुबोने की सलाह और ख़ानदानी परंपरा की दुहाई देकर परलोक सिधार गईं.

छोटे ददन की रगों में शाही ख़ून था. धीरे-धीरे बेचने लायक़ सबकुछ बिक गया और उनके तीन-चार बच्चे हो गये. अब नई रानी, जिन्हें वह पहले चंदा कहते थे, में भी उन्हें कोई दिलचस्पी न रही. महल की बारादरी, रंगशाला, बड़े ददन और रानी साहिबा का शयनकक्ष और घुड़साल आदि मलबे में तब्दील हो चले थे. घोड़ागाड़ी गाँव के सेठ ने ख़रीद ली लेकिन इम्पाला कार ख़रीदने की हिम्मत कबाड़ी भी न कर सका. कार गैराज में पड़े-खड़े ही सड़ गई. छोटे ददन के पास अगर कुछ बचा था तो एक उजड़ी रियासत के नालायक़ वारिस का रुतबा और उसके लिहाज़ से बंधे हुए एकाध नौकरों की जी-हुज़ूरी.

यही वह दौर था जब छोटे ददन जन विकास पार्टी की राजनीति से जुड़े और अपने इलाक़े में पार्टी की ज़मीन तैयार करने में ज़ोर-शोर से लग गये. अबतक सरपंची पंडितान के पास होने और राजसी अकड़ के कारण लोग महल से दूर ही रहते थे लेकिन अब धीरे-धीरे ज़रूरतमंदों की भीड़ महल के बाहर लगने लगी. छोटे ददन भी ऊँच-नीच सबके दरवाज़े उठने-बैठने और खाने-पीने लगे. इसी बीच उनकी नज़र बनपुरवा की फूला पासिन पर पड़ी और फिर ऐसी पड़ी कि कभी न हटी. फूला यानि टपकी जाय जलेबी रस की

फूला की उमर यही कोई पच्चीस-तीस के बीच या ये समझो कि छोटे ददन के बराबर ही थी. उसका आदमी शादी के साल भीतर ही बूढ़े माँ-बाप की ज़िम्मेदारी फूला और छोटे भाई रामराज पासवान पर डालकर परदेस कमाने निकल गया था. फूला को तब घर के कामकाज के अलावा कुछ भी न आता था. उसका देवर रामराज दिनभर पंडितान और बबुआन की मजूरी-धतूरी करके घर चला रहा था. फूला की जवान नमकीन देह रामराज को दिनरात खटने पर मजबूर करती थी. फूला रस्मी तौर पर भले रामराज से हँस बोल लेती लेकिन आगे किसी हरक़त पर आँखें तरेर देती. रामराज ने रात-बिरात कई बार हाथ फेरने की कोशिश की लेकिन फूला फिरंट गई. शायद वह खुद पर क़ाबू कर सकती थी. शायद उसे अपने आदमी की वापसी का इंतज़ार था या फिर शायद वह रामराज से बेहतर विकल्प की तलाश में थी. रामराज पहले मन ही मन कुढ़ता था- बड़ी सत्ती-साबित्तरी बनती है. कमा के न खिलाऊँ तो छाती पचकते देर न लगेगी.छाती छूने से मरकही भैंस की तरह उचकती है ससुरी! अब सब्र की इंतहा होने पर धीरे-धीरे वह धमकी पर उतर आया था- “भउजी!अगर तू हाथ धरै न देहौ तौ खुदै कमाय के खा...हमसे ई बेगारी जनम भर न होई.”और फूला मजबूर होकर पंडितान के खेत पर काम करने गई थी.

जैसा हम अपने पाठकों को बता चुके हैं कि तब तक पंचायत का नाम भले ही ददनपुर था लेकिन परधानी पंडितान के पास ही थी. छोटे ददन सिर्फ़ नाम के राजा थे बाक़ी खेत-बाग़, गोरू-बछरू, जंगल-कछार सब पंडितान के कब्ज़े में ही थे. सरकारी दंद-फंद और तीर-तिकड़म में भी उनका मुक़ाबला करने वाला कोई न था.वे कोयरी,पासी, चमार और मुसलमान-जिनकी आबादी गाँव की कुल आबादी के आधे से अधिक थी, को दो सेर रोज़ना या डेढ़ पसेरी हफ़्ता के हिसाब से मजूरी देकर बड़ी आसानी से परधानी जीत रहे थे. बाक़ी चुनाव से पहले पेंशन, कालोनी, नलका, वज़ीफ़ा, पट्टा और राशन कार्ड का झुनझुना बजा देते थे.

फूला ने एक-दो रोज़ परधान के खेत पर अपने पुरवे की दूसरी औरतों के साथ काम किया लेकिन जल्दी ही परधान की नज़र उसपर पड़ गई.अब परधान अक्सर उसका हाल-चाल लेने के बहाने उसके क़रीब खड़े रहते और मेहनत से सीझे उसके शरीर को आँखों ही आँखों उघारते रहते.फूला परधान की उमर,जो उसके बूढ़े ससुर के बराबर थी,के झांसे में आकर कभी-कभार अपने मरद की बेरुखी और घर की बदहाली का रोना रो देती.परधान ने भी लगातार अपनी बूढ़ी वासना पर क़ाबू पाने की कोशिश की होगी लेकिन कामयाब नहीं हो सके. एक बार भरी दुपहरी में घास का गट्ठर सिर पर लादे आती फूला को लपककर अपनी छाती से कस लिया और अपना झाड़ सा मुँह फूला के मुँह और छाती से रगडने लगे. गट्ठर फूला के सिर से लुढ़क चुका था और वह वासना के आवेग में बेसुध परधान के कांपते शरीर से ख़ुद को अलग करने की कोशिश में थी. आस-पास काम करने वाली औरतें इस वाक़ये को चुपचाप देख रही थीं. एक बूढ़ी औरत ने हिम्मत करके खेत में खड़े-खड़े ही परधान से मिन्नत की- “हे परधान! हे पंडित! ई न करा भाई...न करा. नई दुलहिन है. एकर मरद भी तौ नाहीं बाटै हियाँ.” इस बीच परधान फूला की फड़फड़ाती देह के पोर-पोर को रगड़ चुके थे. फूला ने ज़ोर का धक्का दिया था या शायद परधान की पकड़ आवेग शिथिल पड़ने के कारण ढीली पड़ गई थी-जो भी रहा हो, फूला छूट गई. परधान अपने घुटने पर झुके तेज़ी से हांफ रहे थे. उनका चेहरा और शायद कुरते के भीतर पूरा शरीर पसीने से भीग गया था. बुढ़ापे की गरमी उतरते देर नहीं लगती. थोड़ी देर में ही परधान ज़मीन पर उकड़ू बैठे हो-हो, ही-ही करके हँस रहे थे और बाक़ी मजूरिनों की तरफ़ देखते हुए कह रहे थे-“बिना मरद के औरत कितना ख़तरनाक़ हो जाती है हो! ससुरी कइसा करंट मारती है.” और उधर फूला अपनी बढ़ी हुई धड़कन पर क़ाबू करते हुए धोती-ब्लाउज सहेज रही थी और लगातार गालियाँ निकाल रही थी. बाक़ी औरतें उसे बार-बार वहाँ से जाने को कह रही थीं.

यही वह घटना थी जिसके बाद छोटे ददन की निगाह फूला पर पड़ी थी. छोटे ददन अजकल पंचायत और आसपास की हर छोटी-बड़ी घटना पर बराबर नज़र रखते थे और जन विकास पार्टी के हलक़ा इंचार्ज होने के नाते सबकी-खासकर कमज़ोर, ग़रीब तबक़े के लोगों की हर लिहाज़ से मदद करते थे. थाना-तहसील, ब्लाक-कचेहरी हर जगह उनका आना-जाना था. उन्हें दरअसल पंडितान के ख़िलाफ़ ही अपनी सियासी ज़मीन तैयार करनी थी. रियासतों का राज-पाठ ख़त्म होने के बाद धीरे-धीरे पंडितों ने हर मामले में बड़े ददन को चुनौती देनी शुरू कर दी थी और जब तक छोटे ददन कुछ समझने लायक़ हुए तब तक हनक और ताक़त की धुरी ददनपुर से हटकर पंडितान की तरफ़ जा चुकी थी. छोटे ददन ने पंडितान से उलट जन विकास पार्टी की पॉलिटिक्स इस धुरी को वापस ददनपुर की तरफ़ मोड़ने के लिये भी पकड़ी थी.जन विकास पार्टी के लिये भी इस इलाक़े में छोटे ददन के अलावा पंडितान की कोई काट नहीं सूझ रही थी.

ख़ैर फूला इस घटना के बाद काफी परेशान हो गई थी. उसके देवर के खार खाये दिल को भी जैसे कुछ ठंडक मिली- “अब अइसी जानलेवा जवानी पै सबकै ईमान डोल जाये. अउर फिर पंडित-ठाकुर तौ राच्छस कै दूसर रूप हैं. हम कउन खाये जात रहिन भउजी तुहैं! हम कही कि ई जवानी आखिर बरबाद केहे का फायदा!” उसने फूला की तरफ़ देखकर एक साथ हमदर्दी और नसीहत दोनों दे डाली थी. ऐसे में छोटे ददन ने फूला को बड़ा सहारा दिया और थाना-पुलिस तक फूला को साथ लिये भटके. परधान की थुक्का-फ़जीहत कराई सो अलग. फूला को देखकर वैसे भी छोटे ददन की नीयत डोल गई थी लेकिन वह यह भी जान गये थे कि बिना छोटी जातियों का भरोसा जीते राजनीत नहीं की जा सकती.

अब छोटे ददन आते-जाते बनपुरवा ज़रूर जाते और ज़्यादा समय फूला के पास बैठकर बिताते और दुनिया-जहान की बातें करते. चलते-चलाते कुछ रुपये उसके हाथ पर रख देते. फूला को भी छोटे ददन का आसरा मिल गया था. धीरे-धीरे उसकी शुरुआती झिझक जाती रही. रोज़ी-रोटी की दिक्कत ख़त्म होने से उसका ध्यान अब अपने ऊपर भी जाने लगा था. वह छोटे ददन की निगाह समझने लगी थी और उसका मज़ा भी लूटने लगी थी. इतने दिन की तनहा ज़िन्दगी ने फूला को समझदार बना दिया था और छोटे ददन हर लिहाज से उसे पंसन्द आ रहे थे. वह बस बात आगे बढ़ने का इंतज़ार कर रही थी. फिर एक दिन छोटे ददन ने उसके सिर पर अपना हाथ रख दिया. अगले दिन कन्धे पर और फिर छाती पर. और फूला ने उस हाथ को अपने दोनों हाथों से दबा लिया. जैसे ज़माने से अकड़ी देह एकबारगी नरम पड़ गई थी. फिर खेत-बाग़, सांझ-भिनसार छोटे ददन फूला की मदद करते रहे. थोड़े दिन बाद छोटे ददन ने फूला को दूसरा ही काम पकड़ा दिया था- कोयरी, पासी और चमार को जन विकास पार्टी से जोड़ने काम. फूला अब दुनियादार हो चली थी.और छोटे ददन ने तो एक तीर से कई निशाने मार गिराये थे.

सूबे में जन विकास पार्टी की सरकार बनने से पहले ग्राम पंचायत ददनपुर में परधानी का चुनाव हुआ और आज़ादी के बाद पहली बार पंडितान को हराकर छोटे ददन ने सरपंची हथियाई. फिर क्या था छोटे ददन का ख़ानदानी रुतबा लौटने लगा. इस बीच फूला के बूढ़े सास-ससुर परलोक सिधार गये और रामराज पासवान ने बियाह कर बीवी-बच्चों के साथ गृहस्थी बसाई. छोटे ददन ने फूला को अपने महल के पास ज़मीन देकर एक कालोनी बनवा दी और इलाक़े में अपनी रखैल कहलाने का रुतबा दिया सो अलग. फूला ने भी छोटे ददन पर अपना सबकुछ वार दिया और बेफ़िक्र हो चली. इस तरह वक़्त गुज़रता गया और छोटे ददन अपने इलाक़े में जन विकास पार्टी के मज़बूत नेता बन गये. बाद का क़िस्सा मैं पहले ही सुना चुका हूँ कि अरसा बाद प्रदेश में भारी चुनावी जीत के साथ जन विकास पार्टी की सरकार बनी लेकिन ये बताना बाक़ी रह गया था कि इस जीत में छोटे ददन जैसे कई नेताओं और फूला जैसी कार्यकर्ताओं का बड़ा योगदान था. फिर सरकार ने छोटे ददन की कोई बात नहीं टाली. पंचायत का कोटा, ठेका-पट्टा सबकुछ उनकी मरज़ी से ही चला. सरकार ने उन्हें ज़िला पंचायत भेजने का फ़ैसला भी कर लिया. इस बीच पंचायत की चौहद्दी फिर से तय हुई और ग्राम पंचायत ददनपुर का नाम बदलकर बनपुरवा किये जाने की सिफ़ारिश सरकार से मनवाकर छोटे ददन ने फूला का तन-मन एक बार फिर जीत लिया और निचली जातियों में अपनी जगह पुख़्ता कर ली. फिर पंचायत का आरक्षण बदला. आज़ादी के बाद से अबतक परधानी ‘सवर्ण’ जातियों के पाले में ही रही आई थी. सरकार ने इसे ‘अनुसूचित’ जाति के लिये सुरक्षित कर दिया. इसमें छोटे ददन की कोई भूमिका नहीं थी लेकिन सबने यही माना कि यह उनकी तरफ़ से फूला रानी को एक और तोहफ़ा था. फूला ने भी यही समझा और छोटे राजा पर तन-मन से वारी गई. और फिर जन विकास पार्टी की सरकार में जब पंचायत चुनाव हुए तो फूला रानी ग्राम पंचायत बनपुरवा की नई सरपंच बनीं और छोटे ददन ने ज़िला पंचायत में झंडा गाड़ा. पंचायत का काम अब भी छोटे ददन के इशारों पर चलता था लेकिन ग्राम पंचायत बनपुरवा फूला उर्फ़ सरपंच भौजी की जागीर बन गई थी. प्रिय पाठकों! इधर-उधर के तमाम क़िस्से सुनकर आप सचमुच ऊब गये होंगे लेकिन आप यक़ीन मानिये कि यह भी वो क़िस्सा नहीं था जो मैं आपको सुनाना चाहता था. दरअसल वो क़िस्सा सुनाने से पहले यह सब आपको बताना बेहद ज़रूरी था. अब अगर आप मुझे थोड़ी मोहलत और दें तो मैं आपको वो क़िस्सा सुना सकता हूँ. आप न चाहें तो मैं अपनी कहानी यहीं ख़त्म कर सकता हूँ. वैसे जहाँ तक मैं समझता हूँ आप वो क़िस्सा भी सुनना चाहेंगे. अब जब इतना सब्र रखा है तो थोड़ा और सही. तो चलिये सुनाते हैं.

और रामराज की बग्घी

सरकार के हुकुम पर पूरे प्रदेश में ग़रीबों की गिनती चालू थी. इसके लिये अर्थ और गणना महक़मे द्वारा दिनरात की मेहनत और करोड़ों रूपए फूकने के बाद बगड़म फ़ार्मूला निकाला गया था. फिर सभी बातों का ध्यान रखते हुए एक शासनादेश जारी किया गया था जिसमें यह कहा गया था कि ज़र-ज़मीन से कंगाल, खेत-मजूर, कच्ची छत या झोपड़पट्टी वाले बेसहारा परिवारों, विधवाओं और कड़के अपाहिजों को लाल कार्ड दिया जायगा जबकि छोटे और मझोले किसानों और महीने में अगड़म आमदनी वाले परिवारों को ग़रीब मानते हुए पीला कार्ड दिया जायगा. अब आप पूछेंगे कि आमदनी कौन तय करेगा? तो जवाब है- तहसीलदार. वो भी लेखपाल, क़ानूनगो और नायब की रिपोर्ट के बाद जिससे शक़-शुबहो की कोई गुंजाइश न रह जाय. फिर आप जानना चाहेंगे कि कार्ड कौन बाँटेगा? तो उसका जवाब है- बीडियो यानी ब्लॉक का विकास अधिकारी. वो भी पंचायत सेक्रेटरी और एडियो पंचायत की सिफ़ारिश के बाद. ताकि कोई ग़रीब-गुरबा कार्ड पाने से छूट न जाय. अब आप ये सवाल भी करेंगे ही कि आख़िर कार्ड लेकर होगा भी क्या? तो ये रहा सबसे मौजू सवाल. अरे भाई! सरकार ने पहले ही कह रखा था कि प्रदेश में अनाज की भरमार है और ऐसे में कोई भी अन्न को न तरसे. ग़रीब को दो जून की रोटी का इंतज़ाम हो. सूबे में करोड़ों ग़रीब थे और उन सबको कार्ड बाँटा जाना था सो आदेश जारी होने से पहले ही मा. रसद मंत्री जी ने पत्नी द्वारा नाज़ुक़ मौक़े पर डाले गए भीषण दबाव में कार्ड छापने का ठेका अपने साले को दिलवा दिया था और न चाहते हुए भी पार्टी के एक निष्ठावान कार्यकर्ता की पेशगी लौटा दी थी.

तो इस कार्ड पर हर महीने गरीब परिवारों को सस्ते दाम पर अनाज दिया जायगा. पीले कार्ड पर पाँच रुपए पच्चीस पैसे किलो गेहूँ और सात रुपए सैंतीस पैसे किलो चावल और लाल कार्ड पर दो रुपए बाईस पैसे किलो गेहूँ और तीन रूपये तैतीस पैसे किलो चावल. दामों की गणना भी सूबे की अर्थ-व्यव्स्था और ग़रीबों की माली हालत के दशमलव के शुद्ध पूर्णांक तक जाकर किए गए आकलन के बाद की गई थी जिसपर बहस की कोई गुंजाइश नहीं थी. प्रदेश के हर ग़रीब परिवार को बस एक बार अपनी माली हालत के मुताबिक कार्ड बनवाना था और फिर उसे घर बैठे हर महीने गेहूँ चावल मिलता रहता. पीले कार्ड पर जहाँ महीने में कुल दस किलो राशन मिलने की बात थी वहीं लाल कार्ड पर चालीस किलो और वो भी समझो मुफ़्त.बस इसमें सरपंच और कोटेदार की थोड़ी मेहरबानी चाहिए थी. सरकार वाक़ई ग़रीबों के भले में काम कर रही थी और ये काम प्रदेश की हर पंचायत में पूरे ज़ोर-शोर से जारी था. तहसील और ब्लॉक के अफ़सरों और कारिंदों ने इस काम की ज़िम्मेदारी सरपंचों पर डाल रखी थी और सरपंच भी अपना फ़र्ज़ बखूबी निभा रहे थे समझो.

हर गाँव पंचायत में आमदनी का सर्टिफिकेट और कार्ड बनवाने के लिए कैम्प लग रहे थे. जिनमें भारी भीड़ उमड़ रही थी. गाँव पंचायत बनपुरवा में पिछली सर्दियों में कैम्प लग चुका था. इस साल फिर लगने वाला था. लेखपाल और पंचायत सेक्रेटरी खास तौर से हल्कान थे. पूरे पंडितान और ददनपुर के ज़्यादातर परिवारों ने कार्ड के लिए ज़रूरी आमदनी का सर्टिफिकेट तहसील से जुगाड़ लिया था और अब कार्ड के लिये अर्ज़ी का फारम भरने की तैय्यारी में थे. ज़्यादातर लाल के चक्कर में थे. पिछली बार जिन्होंने फार्म भर दिया था उनमें से कुछ को लाल और कइयों को पीला मिल भी चुका था. जबकि बनपुरवा के पासी-कोयरी में से कुछ को छोड़ बाक़ी अभी अपनी आमदनी का सबूत जुटाने की जुगत में ही झुरा रहे थे. चक्कर ही कुछ ऐसा था. वो महीने भर में किस-किस काम से कितना कमाते थे और उनकी रोटी का जुगाड़ कहाँ से होता था इसका ठीक-ठाक जवाब उनके पास नहीं था. सो वे लाख कोशिश के बाद भी लेखपाल को अपने कंगाल होने का यक़ीन नहीं दिला पा रहे थे. वे ज़िन्दा थे, अपना कुनबा पाल रहे थे और अक्सर बुक्का फाड़ हँस भी देते थे. इससे ये तो साबित होता ही था कि उन्हें खाने के लाले नहीं थे और कार्ड के बिना भी वे मरेंगे नहीं. सरपंच, सेक्रेटरी और लेखपाल इस बात पर एक राय थे कि वे उतने ग़रीब नहीं हैं जितना दुहाई दे-देकर सरकार से मनवाना चाहते हैं.

बहरहाल उधर रामराज पासवान ने भी ‘ललका कारड’ बनवाने का इरादा किया हुआ था. जवानी ढलान पर थी और परिवार बढ़ गया था. फूला के हाथ से निकलने के बाद फूला की याद में हर साल एक के हिसाब से अपनी बीवी से चार बच्चे(तीन लड़की और एक लड़का.शुक्र है भगवान का) पैदा कर दिये थे. काम पहले भी कौन था लेकिन पंडितान से परधानी छिनने के बाद अब बेगारी के भी लाले पड़ गये थे. पंडितान की सरपंची में किसी तरह बैंक से करजा काढ़ ‘सुरोजगार स्कीम’ में चार सुअरें खरीदी थीं. अबतक उनके बच्चे बेच-बेचकर अपने बच्चों का पेट भर रहा था. गये साल मादा सुअर बीमारी से मर गई थी सो इस धन्धे में भी बरक्कत की उम्मीद जाती रही थी. करजे का कोढ़ अलग से बढ़ रहा था. ऊपर से फूला के रंग-रुतबे के आगे रहा-सहा पानी भी उतर गया था. किस मुंह से हाथ फैलाता. जिस भौजाई पर कभी कमाई और जवानी का रौब गांठता था उसी के सामने बार-बार बच्चों की दुहाई..सोचकर ही रामराज का मन खदबदा जाता था. और फिर फूला छोटे ददन से पूछे बिना एक खर भी इधर से उधर न करती थी. इस पर भी फूला के एहसान से पिछली दफ़ा लेखपाल ने उसको कंगाल मानते हुए आमदनी का सर्टीफिकट बनवा दिया था. ये अलग बात है कि इसके एवज़ में उसने तहसीलदार को चिक्कन करने के नाम पर सुअर का एक छौना हलाल करवाया था. रामराज को उसका ग़म न था. आमदनी का सर्टीफिकट हाथ में आने के बाद उसे लगने लगा कि अब गुरबत के दिन जाने वाले हैं. कारड मिलने के बाद अन्न का रोना समझो खतम- यह सोच-सोचकर ही वो खुद को और अपनी औरत को दिलासा देता रहता था. उसने पिछले कैम्प में लाल कार्ड का फार्म भी भर दिया था लेकिन अभी तक उसका कार्ड नहीं बना था. पंचायत सेक्रेटरी जब भी गाँव आता रामराज रुंआसे होकर ‘कारड’ की मिन्नत ज़रूर करते थे. सेक्रेटरी हर बार- ‘अरे पासवान जी! आप तो सरपंच भउजी के देवर हैं. आपका कार्ड नहीं बनेगा तो किसका बनेगा पूरी पंचायत में’ कहकर गोली दे देता था. मन मार के रामराज हर दूसरे-तीसरे फूला की चौखट पर भी गुहार लगा आते थे जो अक्सर अपनी कालोनी में ‘कारड-पिंसिन-कोटा-पट्टा’ माँगने वालों से घिरी रहती थी और- ‘कौन कारड के बिना मरे जा रहे हौ. खाय का जुगाड़ तौ कर ही दिया है हमने तुम जैसे गोजर का’ कहकर कुछ काग़ज़-पत्तर पलटने लगती. रामराज मन ही मन कुढ़ता-‘कोई पूछै बुजार से कि रजिट्टर में है का तौ नखरा भुलाय जाय..जाव रानी! तुहूँ तकदीर लै के पइदा भइउ है..नाहीं तौ हमार छुन्नी चाटत रहतू अबै.’ एकाध बार वह छोटे ददन के आगे भी पेश हो चुके थे लेकिन वह ‘सरपंच भौजी जाने’ कह कर कन्नी काट लेते थे. वैसे भी अब उनका ज़्यादा समय गाँव के बाहर ज़िले की राजनीत में बीतता था.

इसी तरह चकरघिन्नी बने रामराज पासवान की ज़िन्दगी कटने लगी. फूला जब से छोटे ददन की जांघ के नीचे आई थी और तोहफ़े में उसे कालोनी मिली थी तभी से उसने बनपुकरा जाना लगभग छोड़ दिया था. कभी भूले-भटके गई भी तो अपना काम सटका निकल भागी. अब जब से इधर सरपंच बनी है तब से तो वो जाना भी बंद हो गया. उलटे बनपुरवा के ही लोग ‘बिटिया-भउजी-बहुरिया-दुलहिन’ कहकर छेके रहते थे. फूला के सरपंच बनने के बाद बनपुरवा के ज़्यादातर मरदों ने ठर्रा जमाया था और रात में अपनी औरतों को पटाने के ताव में उनकी सारी फ़रमाइशें फूला के दम पर इकट्ठा पूरी करने की क़समें भी खा ली थीं. औरतों ने भी अपने मरदों के बजाय फूला को ‘जुग-जुग जियो’ का आशीष दिया था. चाहते हुए भी वे ‘..पूतो फलो’ वाला आशीर्वाद नहीं दे पाई थीं. छोटी जात के छैला लौंडों ने भी- फूला भौजी रानी है. बड़ों-बड़ों की नानी है-का नारा उछाल रखा था.

जैसे-जैसे वक़्त गुज़रा फूला की सरपंची बनपुरवा के लिए भी एक ठंडी जज़्बाती ख़बर बनके रह गई थी. रामराज न तब खुश हुए थे न अब. भूखों मरने की नौबत अब दूर न थी लेकिन अकड़ अभी भी कभी-कभार ज़ोर मार देती थी. अक्सर तब जब रामराज रात को खाट पर पड़े हुए उन दिनों के बारे में सोचते जब फूला की जवानी उसके रहमोकरम पर थी. रामराज जब फूला के ख़यालों में डूबे होते तो रात के उस पार इंतज़ार मे बैठे, बदले दिनों के दुख-दर्द से बेफ़िक्र होते. बहरहाल ऐसी रूमानियत कभी-कभार ही ज़हन पर चढ़ती थी. बाक़ी ज़िन्दगी ने ऐसी पलटी मारी थी कि रामराज को फूला के पाँव पड़ने में भी गुरेज़ न थी. ऐसा न था कि फूला को दया-मया न थी. रामराज को एक बार टरका भी दे लेकिन उसके बीवी-बच्चों की परवाह थी. तभी कुछ रोज़ ‘काम के बदले अनाज’ योजना की मेठगीरी दिलवा दी थी लेकिन सेक्रेटरी ने कान भरके हटवा दिया था. जब चेहरा देख-देखकर आजिज आ जाती तो कोटेदार से कहकर एकाध पसेरी धान-गेहूँ दिलवा देती. मजूरी-धतूरी का काम तो था लेकिन जगहंसाई के फेर में न फूला रामराज से वह काम कराना चाहती थी और न रामराज ही सड़क-खंती-तलाब में तसला-फावड़ा ले उतरना चाहते थे. बाक़ी पंचायत में कैम्प लगता, कोई हाकिम आता या जाँच-पड़ताल होती रामराज हमेशा बेमतलब, बिनबुलाए हाज़िर रहते. मुख्य इंतज़ामिया बनके.

रामराज की ज़िन्दगी इसी तरह अन्न की तलाश में छछूंदर बने गुज़रती गई. एक-एककर सूअर के सभी बच्चे बिक गए. फूला ने बाक़ी एहसानों के साथ एक एहसान यह भी किया कि पंचायत सेक्रेटरी से कहकर रामराज को सरकारी कर्ज़ अदायगी से साल भर की मोहलत दिला दी थी. बनपुरवा का पुराना कच्चा घर जिसमें कभी फूला भी रहती थी आँधी-पानी,धूप और वक़्त की मार सहते-सहते ढह रहा था. ले-देकर एक कोठरी बची थी जो तेज़ बारिश में चूने के बावजूद रामराज के पूरे कुनबे को संभाले हुए थी. रामराज बीवी-बच्चों की कातर आँखों से मुँह चुराए बेकाम-काज गाँव-पुरवे में भटकते रहते थे और उसके बीवी-बच्चे भी भूख की मार से बेचैन घर-घर काम तलाशते घूमते. अक्सर चौका-बरतन, निराई-मड़ाई या सफाई-पछोर का काम मिल जाता था और कुछ न कुछ खाने का जुगाड़ भी हो जाता था. जिस दिन कुछ न होता तो फूला का आसरा आखिरी होता और फूला दया-मया दिखा ही देती थी. फूला ने अपनी देवरानी की मिन्नत से आजिज आकर अगले साल एक कालोनी दिलाने का भरोसा देकर उसे जीने का एक सपना दे दिया था. ये और बात है कि रामराज को अब फूला की बात पे कोई भरोसा नहीं रह गया था फिर भी वह ज़िन्दगी से हारने वालों में से न थे. उन्हें दिन बहुरने का भरोसा था. कई बार खेत-खलिहान घूमते हुए सोचते कि एक दिन उनके पास भी एक टुकड़ा खेत होगा और वे अपनी फसल की गाँठ सर पर रख चलेंगे. जब कभी पंचायत भवन के क़रीब से गुज़रते- जिसमें एक बारिश झेल चुके गेहूँ से भरे बोरों की अजीब गंध भरी हुई थी- वह किसी बहाने देर तक वहीं बने रहते. कुता-बिल्ली भगाते, दरवाज़े से कान लगा चूहों की उछल-कूद पर बड़बड़ाते और फिर इधर-उधर देख खिड़की-दरवाज़े के पास बिखरा सीला-सड़ा-अधखाया दो-चार मुट्ठी गेहूँ पछोर लाते. इधर वह खुद से न जाने क्या बतियाने भी लगे थे. कई बार जैसे भविष्यवाणी-सा करते बुदबुदाते- ‘फूला रानी अब तुहार दिन लदा समझो. बहुत मजा लूटा तैने. अगली दफा परधानी हमरे हिस्से समझो रानी.’ रामराज को जैसे-जैसे भूख सताती, वह और भटकते और बुदबुदाते जाते. वह जब घूम-घाम कर पस्त हो जाते तो वापस लौटकर परछत्ती के नीचे पड़ी टुटही खाट पर लोट जाते. काया दिनोदिन सूखती जा रही थी. पसलियाँ पारदर्शी हो चलीं थी लेकिन एक इरादा जो रामराज ने पुख्ता कर लिया था वह था फूला से अब न मिलने का. और इसके लिए उन्हें रोज़ दो-चार बार मन को मारना और ज़िन्दगी को गरियाना पड़ता था.


इसी तरह गर्मियों और बरिशों का एक और मौसम बनपुरवा से गुज़रा जिसे रामराज ने भी अपने तन-मन पर महसूस किया. फिर सर्दियाँ आईं और आती ही चली गईं. रामराज की खाट ही उनके लिए पूरा घर थी बाक़ी एक कोठरी जो घर के नाम पर थी वह उन्होंने खुशी-खुशी अपने कुनबे के खाते में डाल रखी थी. तो अपनी उसी खाट पर एक रात रामराज पड़े हुए थे जब उन्हें तेज़ ज्वर ने जकड़ लिया था. रामराज को इधर कई दिनों से भूख न लगने की बीमारी भी हो चली थी. वे दिन-रात मुँह में तंबाकू कूटे रहते थे जो उन्हें गाँव में आसानी से माँगे मिल जाती थी. बदन पर जो फटा कुरता महीनों से था उसको सहारा देने के लिए एक कंबल भी इधर आ गया था जो बेसहारा अपाहिजों और बूढों को ठंड से बचाने के लिये सरपंच ने बंटवाया था और जिसे हासिल करने के लिए रामराज की औरत को फूला के आगे अपने बच्चों की दुहाई देनी पड़ी थी. अन्दर के कमरे में पुआल पड़ा था और रामराज की बीवी और बच्चों को एक-दूसरे से लिपट वहाँ आसानी से नींद भी आ जाती थी. एकाध साल पहले तक बीवी का शरीर रामराज को भी रात-बिरात भीतर खींच ले जाता था लेकिन अब उसके अपने शरीर में ख़ुद जान नहीं बची थी और बीवी के जिस्म से भी गरमी जाती रही थी. रामराज बहुत देर तक ठंड से सिहरते सितारे ताकते रहे और खाट के आसपास पच्च-पच्च थूकते रहे. उन्हें लग रहा था जैसे उनके अपने पेट के भीतर से बर्फीली हवाओं का तूफ़ान उमड़ रहा हो. बार-बार वे कंबल खींचकर अपना बदन समेट रहे थे. फिर न जाने कब उन्हें नींद ने अपनी आगोश में ले लिया.

आज नींद रामराज के लिए एक और ज़िन्दगी लेकर आई थी. उन्होंने देखा कि वे एक बग्घी पर सवार हैं जो बिल्कुल बड़े ददन की बग्घी की तरह थी. बगल में फूला लाल चटख साड़ी पहने, माँग में सेंदुर और पाँव में आलता भरे बैठी थी. रामराज बीच-बीच में जब फूला को देखते तो वह मीठी हंसी हंस देती थी और रामराज का शरीर कुछ और अकड़ जाता था. बग्घी गाँव पंचायत बनपुरवा के सभी मजरों से होकर गुज़र रही थी. गाँव की औरतें और बच्चे उन्हें देखकर रास्ते पर किनारे खड़े होकर हाथ हिला देते थे. उनमें से कईयों को तो रामराज पहचान भी सकते थे. एक जगह काफी भीड़ हाथ जोड़े खड़ी थी. उसमें छोटे ददन और पंडित परधान भी थे जो शायद कालोनी, खेती का पट्टा, बेसहारा पेंशन या शायद लाल कार्ड मांग रहे थे. उन सबके हाथ में ज़रूरी काग़ज़ात और तुड़ी-मुड़ी दरख़ास्तें थीं. रामराज सबको तसल्ली दे रहे थे और ऐसा करते हुए फूला को लगातार देख रहे थे. फिर उनकी बग्घी तेज़ी से आगे बढ़ गई और पीछे से ‘ज़िन्दाबाद-ज़िन्दाबाद, जिया हो- जिया हो ’ की आवाज़ें आती रहीं. फिर शायद बग्घी तेज़ हिचकोले लेने लगी और फूला रामराज के सीने से आ लगी. फूला की सांसें ज़्यादा तेज़ थी या शायद हवा के झोकों में सिहरन ज़्यादा थी- जो भी हो रामराज नींद के आग़ोश से फिसल पड़े. उनका पूरा जिस्म पसीने से तर-बतर बेतरह कांप रहा था. रामराज ने देर तक उखड़ी नींद का सिरा थाम झटके से दूर जा गिरी ज़िन्दगी में वापस जाने की नाकाम कोशिश की. फिर अँधेरे को निशाना बना एक बार पच्च से थूक फूला को प्यार भरी गाली दी और कंबल सिर तक खीच लिया. फिर पूरी रात एक बारगी रामराज की ज़िन्दगी पर रेंग गई.

एक ज़िन्दगी का न होना

रात इतनी नई और ख़ुशगवार थी कि रामराज को सुबह की ज़रूरत नहीं महसूस हुई. पहले बीवी और बच्चों ने जाना फिर पूरे बनपुरवा और फिर पूरी पंचायत ने जाना कि रामराज सिधार गए. धीरे-धीरे लोगों का जमावड़ा लग गया. जितने लोग उतनी बातें. बीमारी, ठंड और भूख तीनों वजहें हवा में थी. फूला आई और थोड़ी देर में छोटे ददन भी आए. अख़बारों ने अगले दिन बनपुरवा में भूख और शीतलहरी से एक मौत की ख़बर छापी. फिर लेखपाल-सेक्रेटरी, नायब-बीडिओ, तहसीलदार-यसडियम सब आए.ज़िले के हाकिम ने भी यसडियम से फोन पर जानकारी ली और शाम तक रिपोर्ट तलब की.

रिपोर्ट में कुछ खास नहीं था. लिखा था- महोदय अवगत कराना है कि सूचना मिलने पर तत्काल ग्राम पंचायत बनपुरवा में मौक़ा जाँच की गई. रामराज पासवान पुत्र गनेशी पासवान, उम्र लगभग 45 बरस की मृत्यु बीमारी-बुखार से हो गई. उसके परिवार में बीवी और चार बच्चे-तीन लड़कियाँ और एक लड़का है. तलाशी के दौरान घर से लाल कार्ड और एक टिन गेहूँ बरामद हुआ. मृतक सरपंच का भाई था जिसे खाने-पीने की कोई दिक्कत नहीं थी. भुखमरी की ख़बर असत्य और निराधार है क्योंकि पोस्टमार्टम में मृतक के पेट से अनाज निकला था. सर्दी या शीतलहरी से मौत की बात भी बेबुनियाद है क्योंकि मृतक को एक कंबल भी दिया गया था. फिर भी एहतियात के तौर पर सरपंच से कहकर मृतक के घर पर पचास किलो गेहूँ-चावल रखवा दिया गया है. रिपोर्ट महोदय की सेवा में अवलोकनार्थ सादर प्रेषित है....

+ + + + + + + + + + + + कुछ रोज़ बाद मा. मुख्यमंत्री जी ने जन विकास पार्टी द्वारा कराए गए विकास कार्यों पर एक प्रेस कांफ्रेंस की और ‘प्रिय पत्रकार साथियों’ को भोजन के लिए आमंत्रित करने से पहले एक वाक्य जोड़ना नहीं भूले कि उनकी सरकार में पिछले चार साल में अब तक भूख से एक भी इंसान की मौत नहीं हुई है जो अपने-आप में एक रेकार्ड है.मा. मुख्यमंत्री जी की बात पर पूरे हाल में गूँजे ठहाके ने हामी की मुहर मार दी थी.