रामी / प्रतिभा सक्सेना

Gadya Kosh से
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जाने कब सूरज डूब गया, दूर के हरे-हरे वृक्ष काले पड़ने लगे, आसमान के एक छोर से शुक्र - तारा झाँक उठा। सड़क के उस पार छप्परों से लहराता हुआ धुआँ आसमान की ओर उठने लगा।

मुझे लगा रामी छप्पर के ऊपर खड़ी है - वैसा ही भूरा सा लँहगा, मटमैली ओढ़नी, वही सफ़ेद बाल झुर्रियों से भरा चेहरा; सब कुछ वैसा ही था! ओढ़नी से दोनो हाथ ढँके काँपती-सी आकृति! वही तो रामी है -हमारी चौका-बर्तनवाली रामी! वह उस छप्पर से उतर कर सड़क पर जा रही है, और बिजली के खम्बे पास कमर झुकाये खड़ी हो गई है। धीरे-धीरे आकृति अँधेरे मे विलीन हो गई। चली गई रामी!

स्मृति की रेखाएँ उभरने लगी हैं। सेठानी ने कहा था, 'ये बुड़िया बड़ी मँगती होगई है। तुम्हीं ने सिर चढ़ा रक्खा है, मुझसे माँगने की हिम्मत नहीं है उसकी'

रामी के मुझसे परिचय का किस्सा बहुत छोटा, बहुत साधारण है। इस कस्बे मे नई-नई आई, तब एक बर्तनवाली की जरूरत पड़ी। किसी से जान-पहचान हुई नहीं थी। एक दिन छत पर सूखते हुए कपड़े नीचे जा गिरे और रामी उन्हे उठाकर देने के लिए ऊपर चली आई। मुझे जैसे मुँह-माँगी मुराद मिल गई-उसके बाद से ही वह हमारे यहाँ चौका-बर्तन करने लगी।

रामी, हाथ की सच्ची थी, सेठानी के शब्दों मे, ’बड़े डरपोक दिल की है, कुछ उठाने की हिम्मत नहीं है उसकी!'

उसके काम करते समय जब मै चाय बनाती तो एक प्याला उसके लिये भी रख देती। वह आभार प्रकट करती जाती और चाय के प्याले से अपने ठण्डे हाथ सेंकती जाती। कभी-कभी वह खुद भी फर्माइश कर देती, ’बहूजी, हाथन की अँगुरियाँ अईस ठिठुराय गई हैं... एक पियाली चाह मिल जाइत तो...'

यह अच्छी ज़बरदस्ती है, मै सोचती, अब उठकर इसके लिये चाय बनाऊँ? मन-ही मन भुनभुनाती पर बुढिया के काँपते हाथ देख कर कुछ कह नहीं पाती और गैस जलाकर चाय का पानी रख देती। वह फिर कहना शुरू करती, ’औरन से तो कबहूँ नाही माँग सकित हैं बहू, मुला तोहार आगे आपुन हिरदै की बात कहि डारित हैं। आज सुबह ते चाय नाहीं पिये रहे, मूड पिराय रहा है। '

कभी-कभी तो मै चिढ़ उठती कि दुनियां भर के खाँसी - ज़ुकाम के लिये मैने ही चाय बनाने का ठेका ले रखा है! रामी बर्तन समेट कर चौके की देहरी पर चाय का कप लेकर बैठ जाती और मुझे इस भारी उपकार के लिये असीसने लगती। बातें करने मे रामी कभी थकती नहीं। मोहल्ले भर की ख़बरे अपनी बातों मे लपेट कर मुझ तक पहुँचाती रहती। वह सेठानी के घर भी चौका-बर्तन करती थी। सेठ का लड़का और चारों लड़कियाँ उसी की गोद मे खेल कर बड़े हुए थे। वहअपना अधिकतर समय सेठानी के घर ही बिताती थी। एक तो सेठानी का बड़ा-सा खुला-खुला घर, धूप मे या छाया मे वह बैठ सकती थी, दूसरे बच्चों का मोह! सेठानी से असंतुष्ट होने पर भी वह बार-बार वहीं खिंची चली जाती थी।

उसने शुरू से थोड़े ही महरी का काम किया था। उसका बाप दर्जी था, आदमी की अपनी दुकान थी। शादी मे चाँदी के जेवरों से लद गई थी, आठ चीज़ें तो उसके चढावे मे आईं थीं। विगत जीवन की कथा कहते-कहते उसकी आँखें चमक उठती थीं वाणी मे वेग आ जाता था। मै उसकी कल्पना करती -नव वधू का वेश, गोरा-गोरा, छोटे कद का तन्दुरुस्त शरीर, घेरदार गोटे-किनारी से सजा लहँगा, सितारों जड़ी ओढ़नी और जेवरों से लदी, रामी! वह कहती जाती, ’हमार घर मां चार गउयाँ रहीं! खूब दुकान चलत रही। '

उसके चेहरे की झुर्रियाँ तन जातीं और उस ढलती बेला में भी बीते हुए रंग अपनी झलक दिखा जाते! फिर वह कहती, 'पर हमार तो करम फूटे रहे बहू न जने का हुइगा हमार मरद का! बिलकुलै चुप्पा हुइ गवा, दुकान -मकान सब गिरवी धर दिहिन, और ऊ जाने कहाँ चला गवा। '

उसे शक था कि किसी ने टोना-टोटका करवा दिया उसके आदमी पर। कुछ रिश्ते के लोग जहुत जलते थे उन्हें देख-देख कर। अपने आदमी की खोज मे वह कहाँ-कहाँ नहीं भटकी, फिर हार कर जिन्दगी से समझौता कर लिया। वह सजी-धजी युवती लुप्त हो गई, रह गई रँग- उड़े घिसे कपड़े पहने लोगों की नजरों मे प्रश्न चिह्न बनी एक लाचार औरत! कहाँ वह वधू और मेरे सामने बैठी, झुर्रियों भरे चेहरेवाली, भूरा-भूरा लहँगा और मटमैली ओढ़नी ओढ़े यह वृद्धा! वास्तविक रामी तो यही है, वह सजी-धजी युवती तो एक छलना थी जो विलीन हो गई।

फिर एक दिन हम लोगों के प्रस्थान की बेला आ गई। जिस तरह एक दिन आ पहुँचे थे उसी तरह बोरिया-बिस्तर बाँध कर चल देना था। परिचितों को छोड़ अपरिचितों के बीच जा बसना, नये-नये परिचय बनाना और फिर आगे बढ़ जाना, सरकारी नौकरी मे यही जीवन का क्रम बन गया था। मिलनेवालों का आवागमन चलता रहा, कितनी बार चाय बनी और समाप्त हुई। उस हलचल -कोलाहल मे मुझे याद ही न रहा कि रामी के लिये भी एक कप चाय चाहिये होगी। सब को बिदाकर जब घर मे शान्ति हुई तो देखा, वह आँगन मे बैठी हुई है - जाने कब से!

'अरे तुम बैठी हो, मुझे पता ही नहीं चला!’

'थोड़ी देर हुई, बहूजी। तुम तो अब हियन से टिकस कटाय लिये, हमार कहूँ मन नाहीं लगा तौन फिन इहाँ आय के बइठ गईँ। ’

'मैने तुम्हे देख नहीं पाया। तुम्हीं कह देतीं। इतनी बार चाय बनी और तुम बैठी ही रह गईं?’

उत्तर मे उसने सिर झुका लिया। अभ्यागतों के स्वागत-सत्कार के बीच उसकी चाय की माँग कितली शोभती इसे रामी भी समझती थी।

दूध का बर्तन खाली पड़ा था। मैने अठन्नी देकर कहा, ' रामी, दूध ले आओ, मै अभी बना देती हूँ। '

उसे गये काफी देर हो गई। मैने छत पर से झाँक कर देखा, गली उस ओर, सड़क पर सेठ के दरवाज़े के पास रामी खड़ी थी। आवाज़ देने पर आई।

'दूध नहीं लाईं तुम?’

उसके चेहरे पर क्या भाव परिवर्तन हुए, उस धुँधलके मे देख नहीं पाई। रोने के से स्वर मे उसने कहा, ’ बहू, पइसा जाने कहाँ गिर गवा। हम बहुत ढूँढत रहे...'

'तो वहाँ क्यों खड़ी थीं?’

'हम सोचित रहे सेठ जी लौटत होंई तौन उनसे माँग लेइत, सेठानी से माँगन मे डरात रहे। '

'अरे, वाह, ’ मेरे मुह से निकला।

उसे लगा मै उस पर विश्वास नहीं कर रही हूँ। कहने लगी, ' हमार जी बहुत दुखी रहे, बहू। हम आँसू पोंछित रहे, हाथन पता नाहीं कहाँ छूट परे... अँधियार मे सूझ नाहीं परत है... टटोल-टटोल के'

उसने मिट्टी भरी उँगलियां सामने कर दीं।

'खो गये तो जाने दो। तुम यहाँ क्यों नहीं लौट आईं? चलो मै और दे रही हूँ। '

वह बहुत लज्जित थी और मुझे विशवास दिलाने का पूरा प्रयत्न कर रही थी। मै समझ रही थी पर उसे समझा पाती ऐसा दिमाग़ कहाँ था मेरा?

'गिर गये तो जाने दो। मेरे हाथ से गिर जाते तो...'

फिर वह कुछ नहीं बोली। चाय लेते समय कहने लगी, ’ अकेल हमारे कारन? तुम बिलकुल न लिहौ?’

'अभी उन लोगों के साथ पी थी, इसलिये नही बनाई। '

अस्फुट स्वर मे उसने कुछ कहा, मै सुन नहीं पाई, थकी हुई थी मैने जानने की कोशिस भी नहीं की।

चलते-टलते वह फिर बोली, ’ आज हमार हाथन से तुम्हार नुसकान हुइ गा, बहू। '

उसे आश्वस्त करने को कहा, ’ चिन्ता मत करो, यह पैसे मै तुम्हारे महीने के पैसों मेसे काट लूंगी। ' कहते-कहते मुझे जरा हँसी आ गई।

कुछ देर बाद खिड़की की ओर आई तो दिखाई दिया, सड़क पर लगे बिजली के खम्बे के दूसरी ओर धुँधली आँखोवाली रामी, अपनी झुकी हुई कमर को और झुकाये सड़क की धूल हाथों मे उठा-उठा कर कुछ ढूँढ रही थी। मुझे जाने कैसा लगा, मै वहाँ से हट गई।

कुछ समय बीत गया। एक बार फिर उसी कस्बे मे लौटी। मकान वहीं सेठ की हवेली के पास मिल गया। पहचाने हुए लोग थे, कोई विशेष परिवर्तन नहीं। सब उसी पुराने ढर्रे पर। नहीं मिली तो एक रामी!

दूसरी बर्तनवाली मिली, वह बुढिया नहीं थी। काम खूब अच्छी तरह करती थी, पर मेरा उसका वह सम्बन्ध नहीं रहा जो रामी से था।

एक दिन यों ही बात निकली तो मैने कहा, ’पहले भी हम यहाँ रहते थे, उधरवाले मकान मे। । । '

'अच्छा, तभी आपकी, सबसे पहचान है। '

'हाँ, पहले एक बर्तनवाली भी थी यहाँ। पता नही कहाँ है अब? तुम क्या यहाँ नई आई हो?’

'नहीं, डेढ़-दो साल हो गये। शादी के बाद यहाँ आए न। '

तुम उसे जानती हो? रामी नाम था उसका। '

'हाँ, हाँ, थी तो एक बुढ़िया। '

'कहाँ है वह?’

'अब यहाँ कहाँ? भगवान के गई’, उसने ऊपर इशारा कर दिया।

'क्या हो गया था उसे?’

'अरे बीबी जी, ऐसे लोग होते हैं पैसे के पीछे जान की परवाह लहीं करते। '

मै सबकुछ जानने को उतावली हो उठी। जो सुना उसका मतलब था -एक दिन शाम को धूल मे गिरे पैसों को उठाने के उपक्रम मे वह सामने से आती हुई बस की चपेट मे आ गई।

मुझे जाने कैसा होने लगा, कुछ हौल सा उठ रहाथा भीतर-ही- भीतर। उसकी मृत्यु के लिये क्या वही स्थान बचा था - बिजली के खम्भे आगे, साँझ के धुँधलके मे, वैसे ही झुक कर पैसे उठाते हुए और वह भी, मेरे जाने के एक सप्ताह के अन्दर!

उस दिन रामी के साथ चाय पी लेती तो उसे इतना अफसोस न होता!आगे नई बर्तनवाली ने क्या कहा मुझे कुछ समझ मे लहीं आया। मैने समझने, समझाने की ज़रूरत भी नहीं समझी। जो कहा गया समझा गया वह झूठ था। असली बात, सही बात सिर्फ़ रामी जानती थी और मै जानती हूँ। और कोई उसे जान भी नहीं सकता!

और शाम को जब लोग गली के उस पार आग तापते हैं या गाँव से आए यात्री उपले जला कर दाल-बाटी बनाते हैं तो धुआँ लहराता हुआ आसमान की ओर उठने लगता है। । मुझे लगता है - भूरा-भूरा लहँगा और मटमैली ओढनी ओढ़े अपनी झुकी हुई कमर को और भी झुकाये, रामी की काँपती हुई आकृति धूल मे कुछ ढूँढ रही है। धीरे-धीरे गहरी कालिमा उसे ढक लेती है। मुझे पता है अठन्नी उसे अभी तक नहीं मिली, क्योंकि मिलनेपर वह उसे अपने पास नहीं रक्खेगी!