रामेश्वर काम्बोज की अर्थगर्भी लघुकथाएँ / सुकेश साहनी
'पड़ाव और पड़ताल' भाग–2 के प्रकाशन के पश्चात् दूरभाष पर भाई मधुदीप से वार्ता के दौरान निर्देश प्राप्त हुए कि 'पड़ाव और पड़ताल' के आगामी खंड के लिए भाई रामेश्वर काम्बोज 'हिंमाशु' जी की लघुकथाओं पर मुझे लेख लिखना है। बड़े भाई जैसे अभिन्न मित्र की रचनाओं पर टिप्पणी करना जोखिम भरा काम लगा। मित्र होने के नाते उनके रचनाकर्म पर मेरी टिप्पणी कुछ लोगों को पक्षपातपूर्ण लग सकती है, परन्तु मधुदीप जी के आग्रह पर मैंने इस चुनौतीपूर्ण कार्य को स्वीकार कर लिया। मित्र की रचनाओं पर टिप्पणी में जहाँ उसकी कमियों को न देख पाने का खतरा छिपा होता है, वहीं मित्र के व्यक्तिगत जीवन को निकटता से देख पाने के कारण उसके रचनाकर्म को समझ पाना कहीं आसान भी हो जाता है।
सन् 1978 के आस–पास की बात है, मैं आगरा में तैनात था विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में रामेश्वर काम्बोज की रचनाएँ छपती रहती थीं। उनकी सशक्त रचनाओं और सम्पादकों को पत्रिका में छपी रचनाओं पर स्तरीय एवं ईमानदार प्रतिक्रियाएँ देने के कारण मेरा ध्यान उनकी ओर गया था। कविता, व्यंग्य, लघुकथा, कहानी, बालसाहित्य जैसी अनेक विधाओं में वे सक्रिय थे। कहना न होगा कि एक सशक्त रचनाकार के रूप में उनका नाम मेरे मस्तिष्क में अंकित हो गया था।
रामेश्वर काम्बोज 'हिंमाशु' जी की पहली लघुकथा 1972 में जगदीश कश्यप के सम्पादन में मिनीयुग में छपी थी। 1982 के आसपास मैंने लघुकथा विधा में पुन: गम्भीरता से काम शुरू कर दिया था। तभी पहले–पहल मुझे किसी पत्र–पत्रिका में काम्बोज जी 'धर्मनिरपेक्ष' लघुकथा पढ़ने को मिली थी। इस रचना ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। साम्प्रदायिकता जैसे विषय पर जिस लेखकीय दायित्व एवं अनुशासन की ज़रूरत होती है और जिसे बड़े सिद्धहस्त लेखक साधने में चूक कर जाते हैं, उसका सफल निर्वहन इस रचना में हुआ है। वर्षों पहले की बात है, मैं हंस कार्यालय में राजेन्द्र यादव जी के पास बैठा था। हंस के ताजा अंक में किसी कहानीकार की साम्प्रदायिकता पर एक लघुकथा छपी थी जिसमें लेखक रचना में उपस्थित होकर एक सम्प्रदाय विशेष के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। मैंने यादव जी से रचना की इस कमजोरी पर चर्चा की थी, उदाहरण के रूप में काम्बोज की लघुकथा 'धर्मनिरपेक्ष' का समापन कोट किया था; जिसे उन्होंने सराहा था। साथ ही हंस में प्रकाशित उस लघुकथा की कमजोरी को स्वीकार करते हुए कहा था कि कभी–कभी सम्पादक मंडल के द्वारा रचना के चयन में चूक हो जाती है। 'धर्मनिरपेक्ष' में दो दंगाइयों का चित्रण है। लेखक ने 'आज से पहले उन्होंने एक दूसरे को देखा न था' जैसे वाक्य से दंगाइयों की अन्धी साम्प्रदायिक मानसिकता पर चोट की है। लेखक का उद्देश्य पाठकों के मन में इस प्रकार के दंगों और विवेकशून्य दंगाइयों के प्रति नफ़रत पैदा करने का रहा है, जिसे उसने बहुत ही कलात्मक तरीके से पेश किया है–
दोनों छटपटाकर चौराहे के बीच में गिर पड़े। जमीन खून से भीग गई. कुत्ते ने पास आकर दोनों को सूँघा। कान फड़फड़ाए. बारी–बारी से दोनों के ऊपर पेशाब किया और फिर सूखी हड्डी चबाने में लग गया।
काम्बोज जी मेरा परिचय बरेली आने पर हुआ। उनके अनुशासित जीवन को बहुत ही करीब से देखने–जानने का अवसर मिला। विद्यार्थियों के लिए सर्मित अध्यापक! केन्द्रीय विद्यालय के लिए ईमानदार और अनुशासनप्रिय प्राचार्य!। यदि उनको रेगिस्तान में भी तैनाती दी गई, तो अपनी ईमानदारी और निष्ठा के बल पर उसे नखलिस्तान में बदलकर ही दम लिया।
1989 को बरेली में अंतर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन का आयोजन भी उन्हीं के प्रयासों से करवा पाया था। राष्ट्रीय स्तर पर केन्द्रीय विद्यालयों के प्रशिक्षण शिविरों में अपनी संसाधक और निदेशक की भूमिका के माध्यम से लघुकथा को शामिल कराने का श्रेय भी काम्बोज जी को जाता है। काम्बोज की लघुकथाएँ उनके जीवन की तरह अनुशासित है।
'ऊँचाई' लघुकथा को पढ़कर किसी बड़ी कहानी को जैसी तृप्ति मिलती है। आर्थिक तंगी से त्रस्त शहर में रह रहे पति–पत्नी गाँव से एकाएक पिता के आ जाने से आंतकित हो जाते है कि आर्थिक मदद माँगने आए होगें। इस रचना का समापन बिन्दु इस रचना को 'ऊँचाई' प्रदान करता है–
उन्होंने जेब से सौ–सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ बढ़ा दिए–"रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फसल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमजोर लग रहे हो। ढंग से खाया–पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।"
मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा–'ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?'
नही तो'–मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए. बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।
'गंगा स्नान' लघुकथा को सकरात्मक सोच की गिनी–चुनी लघुकथा ओं में रखा जा सकता है। लेखक ने रचना का संदेश सम्प्रेषित करने में बहुत परिश्रम किया है। लघुकथा में जिस बारीक खयाली को लोग किसी पहेली का पर्यायवाची समझ लेते है; उन्हें इस रचना को बार–बार पढ़ना चाहिए. लेखक ने जानबूझकर ऐसी वृद्धा पात्र का सर्जन किया है, जिसके दो जवान बेटे मर गए है, पति भी चल बसा है, 70 वर्षीय बूढ़ी सिलाई मशीन पर कपड़े सिलकर पेट पालती है। प्रधान के कहने पर सरकारी वृद्धा पेंशन भी ठुकरा देती है। लेखक कबीर दास के दोहे की तर्ज पर लघुकथा के माध्यम से बहुत बड़ा जीवन संदेश सम्पे्रषित करने में सफल रहा है। जब प्रधान जी बूढ़ी पारो को कन्या पाठशाला बनवाने की योजना बताते है, तो पारो घुटनों पर हाथ टेककर उठती है। ताक पर रखी जंगखाई संदूकची उठा लाती है। काफी देर तक उलट–पलट करने पर बटुआ निकालती है।
उसमें से तीन सौ रुपये निकालकर प्रधानजी की हथेली पर रख देती है–"बेटे, सोचा था–मरने से पहले गंगा नहाने जाऊँगी। उसी के लिए जोड़कर ये पैसे रखे थे।"
"तब ये रुपये मुझे क्यों देर ही हो? गंगा नहाने नहीं जाओगी?"
"बेटे तुम पाठशाला बनवाओ. इससे बड़ा गंगा–स्नान और क्या होगा।" कहकर पारो फिर कपड़े सीने में जुट जाती है। घुटनों पर हाथ टेककर उठने वाली पारो की मुद्रा आत्मिक शक्ति वाली मुद्रा अभिभूत कर देती है। काम्बोज जी ने शिक्षा जगत् को बहुत करीब से देखा जाना है। विभिन्न पारिवारिक कारणों से अविवाहित रह गई शिक्षिका की संवेदना की मार्मिक प्रस्तुति 'खुशबू' में हुई है। हम देखते है कि रचनाकार मानव उत्थान के पक्ष में खड़ा है। शाहीन जवानी के पड़ाव को पीछे छोड़ने पर मजबूर है। अकेली हो गई है उसकी ज़िन्दगी। किसी बीहड़ में खो गए है मिठास भरे सपने। जब दूसरी कक्षा की एक छात्रा शाहीन को फूल भेट करती है तो कुछ खोने के साथ–साथ कुछ पाने की भावना गुलाब की खुशबू की तरह उसके नथुनों में समाने लगती है। शाहीन का रजिस्टर उठाना और गुनगुनाते हुए कक्षा की ओर बढ़ जाना हमें उस जीवन संगीत से जोड़ता है जिस पर यह दुनिया कायम है।
'पिघलती हुई बर्फ़' में दाम्पत्य जीवन में अकसर आ जाने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों का चित्रण हुआ है। इसमें रचनाकार यह सम्प्रेषित करने में सफल रहा है कि खोखले अहं के कारण कई बार रिश्ते टूट जाते है, जबकि वास्तविकता में पति–पत्नी एक दूसरे को बहुत प्यार करते है। लघुकथा में इस तरह के कथानक उठाकर उसे मुकम्मल लघुकथा के रूप में पेश करना चुनौती बड़ा काम है।
'छोटे–बड़े सपने' काम्बोज जी द्वारा सृजित अत्यंत मार्मिक, हृदयस्पर्शी रचना है। सेठ गणेशी लाल का बेटा, नारायण बाबू का बेटा और जोखू रिक्शे वाले का बेटा के रूप में तीन वर्गो के बच्चों को लेखक ने चुना है, जो अपने–अपने सपनों के बारे में बताते है। सेठ के बेटे का सपना है–घूमना फिरना, बाबू के बेटे का सपना है–बहुत तेज स्कूटर चलाना, जोखूराम रिक्शे वाले का सपना है–नमक और प्याज के साथ डटकर खाना। यहाँ लघुकथा का समापन बिन्दु पूरे कथ्य को सम्प्रेषित ही नहीं करता; बल्कि पाठक को भी सपनों की दुनिया से वास्तविक कंकरीली धरती पर ला पटकता है–
जोखू रिक्शेवाले के बेटे ने अपने पेट पर हाथ फेरते हुए कहा–"तुम दोनों के सपने बिल्कुल बेकार थे।"
"ऐसे ही बेकार कह रहे हो। पहले अपना सपना तो बताओ."–दोनों ने पूछा।
इस बात पर खुश होकर वह बोला–"मैंने रात सपने में खूब डटकर खाना खाया। कई रोटियाँ, नमक और प्याज के साथ, पर।"
"पर......पर क्या?" दोनों ने टोका।
"मुझे भूख लगी है"–कहकर रो पड़ा।
'कालचिड़ी' लेखक की रंगभेद के खिलाफ लिखी गई उत्कृष्ट रचना है। इसमें लेखक ने दो घटनाओं वाला कथानक चुना है। काली चिडि़या को लेखक ने प्रतीक के रूप में प्रयोग किया है। दूसरी घटना में लड़के वाले साँवली लड़की को अस्वीकार कर देते है। लघुकथा का समापन बिन्दु रंगभेद के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरित करता है।
'एजेण्डा' काम्बोज जी की व्यंग्य प्रधान लघुकथा है। इसमें अफसरशाही और उनके द्वारा दिन–रात आयोजित की जाने वाली बैठकों के सच को उजागर किया गया है। लेखक ने लघुकथा का शीर्षक एंजेडा देकर यह सम्प्रेषित करने का प्रयास किया है कि जहाँ मीटिंग का एंजेडा ही धन वसूलना हो; वहाँ विकास क्या खाक होगा।
'नवजन्मा' लिंग भेद पर काम्बोज जी की उत्कृष्ट रचना हैं। इस लघुकथा को लेखक के रचनात्मक विकास के रूप में भी देखा जा सकता है। लघुकथा की सभी शर्तों को पूरा करती हुई एक आदर्श लघुकथा है। घर में लड़की के जन्म पर उदासी पसर जाती है तरह–तरह की बातें होने लगती है, परन्तु यहाँ लड़की का पिता जिलेसिंह इस सोच के विरुद्ध आवाज बुलन्द करता है। अलमारी से अपनी तुर्रेदार पगड़ी निकालता है; जिसे शादी ब्याह या बैसाखी जैसे मौके पर ही बाँधता है। ढोल की गिड़गिड़ी पर पूरे जोश से नाचते हुए आँगन के तीन चार चक्कर काटता है। जेब से सौ का नोट निकालकर नवजात के ऊपर वार–फेर कर उसकी अधमुँदी आँखों को हल्के से छूता है। पति के इस अंदाज़ पर पत्नी की आँखों के सामने जैसे उजाले का सैलाब उमड़ पड़ता है। बाहर आकर जिलेसिंह वह नोट संतू ढोलिया को थमा देता है। संतू और जोर से ढोल बजाने लगता है–तिड़–तिड़–तिड़–तिड़म–धुम्म, तिड़क धुम्म! तिड़क धुम्म्म! तिड़क धुम्म्म! काम्बोज जी की यह रचना लघुकथा जगत की चुनिंदा रचनाओं में गिनी जाएगी।
'कटे हुए पंख' में शासकों द्वारा प्रजा के शोषण के लिए नित अपनाए जा रहे हथकंडो को बेनाका़ब किया गया है। काम्बोज जी के अनुसार यह लघुकथा आपात्काल (1976) में लिखी गई थी। यह लघुकथा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। 'कमीज' बालमनोविज्ञान पर आधारित लघुकथा है। रचना का समापन अति भावुकता में हुआ है, जिससे बचा जा सकता था। मुझे लगता है कि 'कमीज' के स्थान पर काम्बोज जी अनेक उत्कृष्ट रचनाओं–जैसे ।संस्कार, खलनायक, आत्महन्ता, धन्यवाद, खूबसूरत, अथवा परख आदि को लिया जा सकता था। एक लम्बे अर्से तक राष्ट्रीय स्तर पर भाषा–शिक्षण और प्रशिक्षण से
जुड़े होने के कारण काम्बोज जी की भाषा बहुत सधी हुई और कसी हुई है। अनावश्यक शब्दों या पदबन्धों फ़्रेज (पदबन्ध) का कहीं भी प्रयोग नहीं किया गया है। भाषा की यह सजगता इनकी अभिव्यक्ति को और अधिक प्रखर बनाती है। शीर्षक–चयन की सजगता–एजेण्डा, नवजन्मा, खुशबू, गंगा स्नान, धर्म निरपेक्ष, ऊँचाई आदि सभी लघुकथाओं में नज़र आती है। हर लघुकथा में निहित गहन अर्थ और चिन्तन की गहराई पाठक को बाँध लेती है।
काम्बोज जी की 11 लघुकथाओं का यहाँ सन्दर्भ दिया है। 'कटे हुए पंख' को छोडकर सभी रचनाएँ सकरात्मक सोच की लघुकथा एँ हैं। 'गंगा स्नान' की 70 वर्षीय बूढ़ी पारो हो, चाहे 'धर्मनिरपेक्ष' का कुत्ता सभी मानवता के पक्ष में खड़े दिखाई देते है। यही लेखक की सफलता है। भाई काम्बोज जी दूसरी विधाओं के साथ–साथ लघुकथा लेखन, सम्पादन आलोचना में समर्पित भाव से लगे है। लघुकथा के विकास में इनका योगदान महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय है।
–0–पड़ाव और पड़ताल -खण्ड-7( 2014): सम्पादक -मधुदीप