राम और बुद्ध के समन्वय की संस्कृति / गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'
मर्यादा पुरुषोतम श्री रामकाचरित्र भारतीय सामाजिक संरचना का एक आदर्श चरित्र है, जिसे स्वयं राम ने कम बल्कि भारतीय समाज ने अधिक रचा है। इसी से प्रेरणा लेकर एशियाई समाज ने भी इसे बहुत कुछ सिरजा और सँवारा है।
हमारा समाज एक ऐसा आदर्श चरित्र चाहता रहा है, जिसमें चराचर के प्रति सहज प्रेम, करुणा, संवेदना तथा समग्र समाज के लिए तप, त्याग, शील, समता की भावना और सहिष्णुता हो। यह हमारी सांस्कृतिक माँग रही है, जिसके लिए अनुकूलतम चरित्र राम का ही रहा है यही कारण है कि संस्कृत के शास्त्रीय साहित्य से लेकर प्राकृत और अवधी के लोक साहित्य तक में राम ही अपराजेय नायक रहे हैं और केशव जैसे अकवि भी सुकवि बन गए हैं। इस परिप्रेक्ष्य में यदि राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त का सहारा लेकर कहें तो निस्संकोच भाव से कह सकते हैं-
राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है
कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है।
त्याग की संस्कृति भारतीय समाज की सबसे बड़ी धरोहर रही है, जो सामाजिक मूल्यों के क्षरण से धीरे-धीरे लुप्त हो रही है। प्रेम तो हमारी संस्कृति का आदर्श रूप में काम्य रहा है, पर 'काम' हमारी संस्कृति का काम्य कभी नहीं रहा। काम हमारी संस्कृति का काम्य रहा होता, तो इन्द्र की पूजा होती। कामदेव की होती। कामदेव को भस्म करने और गले में साँप लपेटे, कुरूप और डरावने रूप धारे, भस्म रमाने वाले भगवान शंकर की कभी नहीं होती। घर-घर, द्वार-द्वार पर शिवालय और देश-देशांतर में एकनिष्ठ प्रेम के शील के प्रतिष्ठापक श्री राम-सीता व प्रेम की पराकाष्ठा के प्रतिरूप श्रीकृष्ण-राधा तथा त्याग की मूर्ति भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी के मंदिर न होते।
भारतीय संस्कृति शील और तप, त्याग से परिपूर्ण समन्वयवादी और सामासिक संस्कृति रही है तभी तो बाबा तुलसीदास राम कथा को शिव के मुख से कहलवाते हैं। पार्वती के साथ-साथ चराचर जगत उस कथा को सुनता है। कागभुशुंडि और गरुड़ कथा के श्रोता ही नहीं संवाहक भी बनते हैं।
तप, त्याग और साधना के मूल्यों के बल पर अपने को बहुत ऊपर उठाकर दुनिया में सबसे पहले हमीं सभ्य और सुसंस्कृत कहलाए हैं और आज हमीं पर दुनिया भर की उँगलियाँ उठ रही हैं। अपनी उस सामासिक संस्कृति की सरिता को बचाना है, जिसे हम अनजाने में सुखा रहे हैं। किसी भी समाज के लिए संस्कृति काम्य है। एक ऐसी संस्कृति जिसमें करुणा का अजस्र प्रवाह हो। यह आदर्श अवस्था है। यह उसके भीतर की आग है, जो उसे तपाकर कुन्दन बनाती है। यह उसके भीतर की आँच है, जो दूसरों को शीत से मुक्त करती है और उन्हें चैतन्य बनाती है। लगता है कि अपना समाज भूल रहा है कि हम वही समुद्र हैं, जिससे जल लेकर हमारी मेघ रूपी संस्कृति ने सारी दुनिया को सींचा है।
यह सही है कि हर समाज रूपी समुद्र में कमियों का खारापन होता है लेकिन संस्कृति रूपी मेघ में वह स्थान कभी नहीं पाता, पर यदि समाज में खारापन ही भर जाएगा, जल शेष ही नहीं रहेगा, तो संस्कृति की विशुद्धता भी संदिग्ध हो जाएगी। इसलिए आदि विश्वगुरु भारत को अपनी सांस्कृतिक गरिमा बरकरार रखनी ही पड़ेगी। अपने खारेपन को कम करना ही पड़ेगा। मुझे लगता है कि इसमें राम का शील और चरित्र संजीवनी का काम करेगा।
ऊँचे पद-प्रतिष्ठा, सुंदर वेश-भूषाऔर बाह्य आवरण तथा आभरण के कारण कोई अपने को सभ्य तो कह सकता है, पर संस्कृत कदापि नहीं। नौका बनाकर महाप्रलय में भी सृष्टि को बचा लेने का काम हमारे पूर्वजों ने ही किया। सृष्टि बचा लेने की ललक संस्कृति है, तो उसे बचा लेने का साधन नौका सभ्यता की निशानी। इसी लिए सभ्यताओं के नाश की बात की जाती है, संस्कृतियों के नाश की नहीं। मनु की नौका भले नष्ट हो गई, पर सृष्टि को सुन्दर रूप देने तथा उसे बचाए रखने की संस्कृति अभी नष्ट नहीं हुई है। मनु जिस सृष्टि को महाप्रलय से बचाकर लाते हैं, उसे संस्कृत बनाने का काम करते हैं, राम और उसे गले लगाने का काम कर रहा है समाज।
भारतीय संस्कृति समाज की अच्छाइयों की छनी हुई वह विशुद्ध जलधारा है, जो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण और महात्मा बुद्ध जैसे चरित्रों के गिरि शिखरों से पिघल कर बहे प्रेम, शील और करुणा की त्रिवेणी के रूप में आज भी समाज को सींच-सींचकर पवित्र कर रही है। अगर इसे प्रदूषण से बचाना है, तो अपने उन पूर्वजों की राह अपनानी होगी, जिन्होंने जंगलराज को न्याय में बदला।
हमारे यही पूर्वज ऋषि-मुनि जंगलों में रहकर भी जंगली नहीं बने, सभ्य कहलाए। वे जंगल में भले बसे, पर जंगल उनमें कभी नहीं बसा। अपने को तप और त्याग से माँजकर सुसंस्कृत बने। उनमें करुणा की सरिता बराबर प्रवाहित रही। इसका अभिप्राय यह है कि उनके लिए 'जंगल' शब्द सदैव स्थानवाचक और 'जंगली' गुणवाचक रहा है। 'जंगली' में प्रवृत्ति प्रमुख है, वृत्ति नहीं। बर्बर और जंगली जीवन को समरसता से सींचकर 'जंगल में मंगल' मनाने वाले हमारे ऋषियों ने दुनिया में सबसे पहले नक्षत्र गणना की यानी जंगल में रहकर भी सबसे पहले सभ्य और संस्कृत होने की पहचान कायम की। इस तरह उन्होंने न केवल खुद को सभ्य बनाया बल्कि दुनिया भर को सभ्य बनाने की राह सुनिश्चित की और महर्षि वाल्मीकि ने 'रामायण' और वेदव्यास ने 'महाभारत' जैसे ग्रंथों की रचना करके मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण के वे चरित्र दिए जो हज़ारों वर्षों से हमारा आदर्श रहे हैं और आगे भी हज़ारों वर्षों तक अप्रासंगिक होने वाले नहीं हैं।
हमारी संस्कृति में भगवान श्री राम और भगवान बुद्ध का चरित्र एक ऐसा आदर्श चरित्र है, जिसने हज़ारों सालों से भारत ही नहीं, समूची एशिया को प्रभावित किया है।
महर्षि वाल्मीकि और बुद्ध की करुणा इनमें भी विशेष रूप से रामकथा जहाँ भी गई, अपनी संपूर्ण भारतीय गरिमा के साथ गई। वह केवल कहीं गई ही नहीं; बल्कि उसकी नितांत अपनी भी हो गई। यह उन देशों के प्राकृतिक परिवेश, सामाजिक सन्दर्भ और सांस्कृतिक स्वरूप के अनुसार कभी जातक कथाओं, तो कभी इस्लामिक प्रभाव में ढलती और संवरती भी रही। ' हज़ारों सालों से प्रवाहित इस कथारस कभी कोई रस भंग नहीं हुआ। न तो यह कभी मोनोटोनस हुई और न ही कोई रत्ती भर जड़ता इसमें स्थान पा सकी। उलटे राम और बुद्ध के चरित्रों के समन्वय से उत्तर-पूर्व एशिया में भारतीय संस्कति की एक नवीन छवि निर्मित हुई है। तिब्बत, चीन, ताइवान, म्याँमार, भूटान, नेपाल, जापान, मंगोलिया, मलेशया, श्रीलंका, जावा (इंडोनेशिया) , कंपूचिया (कंबोडिया) , पूर्वी तुर्किस्तान और थाइलैण्ड आदि में से कौन-सा ऐसा देश है, जिसकी संस्कृति में कभी जातकों में तो कभी सीधे रामकथा को स्थान न मिला हो।
राम स्वयं दक्षिण में गए, तो उनकी कथा उत्तर और पूरब में। इस तरह इस कथा ने एक व्यापक भूभाग को अपने प्रवाह और प्रभाव में लिया; इसीलिए बाबा तुलसीदास का यह कहना कि 'राम ते अधिक राम कर नाऊ' बहुत समीचीन लगता है। राम के अनन्य सेवक हनुमान तो जैसे राम कथा की करधनी ही हैं। चीन के उतर में स्थित मंगोलिया में भी वानर (हनुमान) -पूजा सम्बंधी अनेक प्रतिमाएँ और उससे सम्बंधित साहित्य की पुस्तकें मिली हैं।
मंगोलिया में चार प्रमुख रामकथाएँ मिली हैं, जिनमें राजा जीवक का 'चरित' सबसे लोकप्रिय है। वहाँ जीवक कोई और नहीं दशरथ हैं, जिनकी तीन रानियाँ हैं। उन तीनों को कोई संतान नहीं थी। यह कोई संयोग नहीं है, बल्कि राम कथा ही कही गई है, जिसमें लंका का दानव मृग रूप में वनवास काल में राम के पास आया था। राम ने उसकी आँख फोड़ दी थी। यहाँ भी उसी दानव राज के यहाँ एक कन्या के जन्म का उल्लेख मिलता है, वह सीता ही हो सकती है। बालि और सुग्रीव का युद्ध तथा सीता के अपहरण जैसे प्रसंग यहाँ की हर राम कथा के अपरिहार्य अंग हैं।
पूर्वी तुर्किस्तान की रामकथा में सीता को संदूक में बंद करके फेंका जाता है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि इनका स्वर्णमृग सौ आँखों वाला है। यहाँ भी 'लक्ष्मण रेखा' है; लेकिन राम के द्वारा रावण का न मारा जाना तथा परशुराम के द्वारा दशरथ और राम के द्वारा परशुराम की ह्त्या के प्रसंग रामकथा को एक रोचक मोड़ देते हैं, जो कवि की अपनी मौलिक कल्पना कहे जा सकते हैं। इतिहास और पुराण में यही मूल अंतर भी है कि जहाँ ऐतिहासिक घटनाएँ रत्तीभर भी कल्पना सह नहीं पातीं, पौराणिक कथाएँ पूरी छूट देती हैं।
चीनी साहित्य रामकथा रहित तो नहीं है, पर मौलिक रूप से सृजित 'रामकथा के प्रमाण नहीं मिलते। बौद्ध साहित्य के' अनामकं जातकम् 'का' लिए-ऊ-तुत्सी-किंग'नाम से मंडारिन में अनूदित रामकथा मिलती है। इसमें राम वन गमन, राम को अपदस्थ कर भरत को राजगद्दी, भरत का सेना के साथ राम से मिलने जाना, उनकी खड़ाऊँ सिंहासन पर रखकर शासन करना, स्त्री (सीता) हरण, वानर मैत्री, और लंका दहन और राम की वापसी पर उन्हें गद्दी सौंप देना तथा खुशहाली वाले रामराज्य का आगमन आदि घटनाएँ यथावत् हैं। दूसरी पुस्तक' दशरथ कथानाकम्'भी है, जिसमें जंबूद्वीप के राजा दशरथ हैं। इसमें राम की ज़गह' लोमो 'और' लक्ष्मण'की ज़गह' लोमन'हैं। नाम में बदलाव पर भाषिक अन्तरवश उच्चारण प्रभाव के अलावा कोई अन्य कारण प्रभावी नहीं दिखता। लोमान यानी लक्ष्मण' लोमो'से कहते हैं कि' आप में सेन 'और' रा'की शक्तियाँ हैं। ये शक्तियाँ दैवीय मानी जाती हैं, जो लौकिक नहीं; केवल अलौकिक रूप को मिलती हैं। अतः' लोमो'अर्थात् राम रन यानी नर नहीं' ना-लो-यिन' यानी नारायण हैं।
मलेशियाई रामकथा की प्राचीनतम पांडुलिपि सन् 1633ई। में बोडालियन पुस्तकालय में जमा कराई गई थी। दूसरा ग्रन्थ 'हिकायत सेरीराम' एक प्रामाणिक प्राप्य प्रबंध काव्य है। तिब्बती राम कथा में रावण के द्वारा भगवान शिव को अपने दसों शीश चढ़ाए जाने के कारण दस ग्रीव कहे जाने का जिक्र है। यहाँ युद्ध में घायल धरत के उपचार के बदले वरदान मिलने का उल्लेख है। यहाँ भी वरदान के फलस्वरूप राम को वनवास मिलता है। यह वाल्मीकि रामायण का ही प्रभाव है कि रावण अपनी माया से सीता को भूखंड सहित उठा ले जाता है। लेकिन शूर्पणखा का मृग बनना मौलिक कल्पना है। राम की अँगूठी से हनुमान की पहचान और उनकी पूँछ में आग लगाए जाने के प्रसंग यहाँ की रामकथा में भी मिलते हैं।
वियतनामी राम कथा में भी इन्हीं चरित्रों का विकास मिलता है, जिसपर भी वाल्मीकीय रामायण का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। इतना ही नहीं वहाँ के शिलालेखों में वाल्मीकि के मंदिर का भी उल्लेख मिलता है।
मलेशियाई रामकथा पर हुसैन इस्माइल ने सराहनीय कार्य किया है। उनकी खोज के अनुसार मलेशियाई रामकथा का 'बिवसनभ' विभीषण है और सीता मंदुदरी (मंदोदरी) की पुत्री हैं, जिसके सके जन्म पर ज्योतिषी के यह कहने पर कि इसका पति इसके पिता का हत्यारा होगा रावण के द्वारा संदूक में बंद करके नदी में फेंक दिया जाता है। महर्षि कलि को वह संदूक मिलता है, जिसे पाते ही महर्षि ने यह संकल्प लिया कि वे सीता का विवाह उसी से करेंगे, जो ताड़ के चालीस पौधों को एक ही तीर से बेध देगा। यहाँ की कथा एक मौलिकता बहुत प्रभावित कराती है कि सीता किसी प्रकार की अग्नि परीक्षा देने की बजाय यह घोषणा करती हैं कि यदि वे सच्ची हैं, तो सभी पशु-पक्षी मौन हो जाएँ। उनके ऐसा कहते ही सभी पशु-पक्षी मूक हो जाते हैं और उनके और राम के पुनर्मिलन पर ही सभी को अपना-अपना स्वर वापस मिल जाता है।
'जवान' भाषा में उपलब्ध इण्डोनेशियाई राम कथा के रूप में 'सेरत राम' , 'सेरत काण्ड' और 'राम केलिंग' जैसे प्रबंध काव्यों में भी कमोवेश इन्हीं प्रकरणों के साथ राम कथा की सरिता अबाध प्रवाहित है, जिसमें राजा जनक के हल चलाने आदि का प्रसंग विस्तार के साथ मिलता है। लेकिन थोड़ा विभेद यह है कि यहाँ सीता ज़मीन से नहीं निकलती बल्कि एक बेड़े पर पड़ी मिलती है। सीता यहाँ भी लव और कुश को राम के साथ भेज देती हैं पर स्वयं स्वाभिमान वश धरती में समा जाती हैं। राम के साथ लक्ष्मण यहाँ भी वन जाते हैं लेकिन वे पूरे चौदह वर्षों तक अन्न-जल ग्रहण न करने का संकल्प लेते हैं। यह राम के शील का ही प्रभाव है जो सारे एशियाई भूमंडल को अभिभूत किए हुए है। यदि ऐसा न होता तो कन्पूचियाई जनमानस अपने भाई के साथ हुए अन्याय के प्रतिरोध में तने खड़े लक्ष्मण की वेदना की अभिव्यक्ति के लिए ऐसे मिथक की सर्जना कैसे कर पाता।
जापानी राम कथा जो उपलब्ध है, वह अनूदित चीनी साहित्य से ही अनूदित है। यहाँ का प्रमुख राम साहित्य सम्बंधी ग्रन्थ 'होबुत्सुशू' है। यहाँ राम के स्थान पर तथागत हैं। वहाँ एक ब्राह्मण तपस्वी ने सीता का अपहरण कर लिया, जिसकी सूचना राजा (तथागत) को एक मरणासन्न पक्षी (जटायु) ने दी। उस पक्षी के दोनों पंख टूटे हुए थे। इसमें राम को मिले वानर दल के सहयोग का भी प्रसंग आता है। उसी दल के द्वारा सेतु-निर्माण और जड़ी-बूटी लाए जाने का उल्लेख भी मिलता है।
श्रीलंकाई राम कथा में वाल्मीकीय परंपरा का निर्वाह मिलता है। यहाँ की राम कथा में भारतीय परंपरा का यह निर्वाह इतना स्वस्थ और प्रगाढ़ है कि 'जानकी हरण' के श्लोक श्रीलंकाई काव्य शास्त्रीय परंपरा में एक आदर्श उद्धरण के रूप में उद्धृत होते हैं। यहाँ भी सीता वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ी जाती हैं; लेकिन इस प्रसंग में थोड़ा बदलाव यह देखने को मिलता है कि यहाँ सीता के द्वारा रावण का चित्र बनाए जाने पर राम इतना क्रुद्ध हो जाते हैं कि वे लक्ष्मण को यह आज्ञा दे देते हैं कि सीता को वन में ले जाकर हत्या कर दो। लक्ष्मण ने दया खाकर सीता को महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ दिया और किसी जंगली जीव की हत्या करके उसके खून से सनी तलवार लाकर राम को दिखा दी। इसी आश्रम में सीता के द्वारा एक बच्चे के जन्म का उल्लेख यहाँ भी है। तदुपरांत इस प्रकरण का विस्तार भी यहाँ है कि जब सीता वन में कंद मूल-फल लेने गईं, तो जब महर्षि ने बच्चे को बिस्तर पर नहीं देखा, तो घबरा गए और अपनी सिद्धि का प्रयोग करते हुए कमल का फूल रख दिया जो क्षण-निमिष के कालान्तर में शिशु में परिवर्तित हो गया। बाद में देखा, तो असली शिशु पर्यंक के नीचे पड़ा था। उन्होंने उसे भी पर्यंक पर लिटा दिया। सीता लौटी, तो वह आश्चर्य में पड़ गई। उसने इसका रहस्य महर्षि से पूछा, तो उन्होंने सारा वृत्तान्त बताया। इसपर सीता को विश्वास न हुआ और उन्होंने वही घटनाक्रम दुहराने को कहा। सीता के अटल आग्रह पर महर्षि को पुनः वही करना, पड़ा जिससे तीसरा शिशु भी अस्तित्त्व में आ गया। इस तरह श्री लंकाई राम कथा में सीता के तीन बेटों का होना कथा को और रोचक रूप दे देता है।
नेपाली रामकथा में कवि भानुभक्त की रामकथा सर्वाधिक लोकप्रिय है। यह कथा बाबा तुलसी के 'रामचरितमानस' और 'अध्यात्म रामायण' से अधिक प्रभावित है। इसमें भी सात काण्ड हैं और सभी रामचरित मानस के नामकरण वाले है। इनकी कथा भी रामचरितमानस की तरह 'शिव-पार्वती संवाद' से ही शुरू होती है। इसके अलावा भारत की अन्य रामकथाएँ भी भारत की तरह ही, यहाँ भी आदर और सम्मान पाती हैं।
संस्कृत साहित्य से लेकर हिन्दी और प्राय: सभी भारतीय भाषाओं में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र का गायन किया गया है। इनके चरित्र जीवन की सम्यक् पाठशाला हैं। गृहस्थ जीवन की इससे सुंदर पाठशाला दुनिया के किसी अन्य महापुरुष के जीवन चरित में नहीं है। तप, त्याग, माया-मोह, सत-असत का द्वंद्व, न्याय, दया, करुणा, परोपकार की भावना के साथ सम-विषम परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करते हुए मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा की गई है। इनकी जीवन लीलाओं को गौर से पढ़ा-पढ़ाया जाना चाहिए। इनका चरित इतना तपा और पका है कि उसे कहीं से भी पकड़ो, उठाओ, ठोंको-बजाओ पर कहीं कोई दरकन और टूट-फूट खोजे नहीं मिलती।
जन्म से मृत्यु के बीच के सारे मानवीय व्यापार अपने आदर्श रूप में इनके यहाँ स्थापित मिलते हैं। कहने का सीधा अभिप्राय यह है कि सबकुछ एक ही जगह पर है यहाँ। इनकी जीवन-लीलाओं में चरित्र निर्माण की अद्भुत सामग्री है। भगवान श्रीराम किशोरावस्था में ही राक्षसों का वध करके जंगल के निवासियों आदिवासियों का जीवन सुकर और सुगम बनाते हैं। जनता को भयमुक्त वातावरण में जीवन जीने का सुअवसर प्रदान करते हैं।
बचपन से ही संघर्ष इनके जीवन को माँजना शुरू कर देता है। इससे कैशोर्य काल से इनके भीतर आत्मा और बाहर देह दोनों बराबर पुष्ट और बलिष्ठ होते जाते हैं। देह और आत्मा दोनों को शुद्ध, पवित्र और पुष्ट बनाए रखने की भावना वाली भारतीय संस्कृति इनके अमृतमयी जीवन मूल्यों से अभिसिंचित होकर अब तक अमूल्य बनी हुई है और आगे भी हज़ारों वर्षों तक इनके चारित्रिक मूल्यों की मह्त्ता को कोई आँच नहीं पहुँचने वाली है। इनके चारित्रिक मूल्यों की सता और महत्ता हर स्त्री-पुरुष, आबाल-वृद्ध यानी हर वर्ग और आयुवर्ग के लिए समान है। अतएव इनके जीवन से शिक्षा लेने वाला न केवल गुणवत्ता को प्राप्त करता है, बल्कि भगवत्ता को भी प्राप्त कर सकता है।
सही अर्थों में भारतीय संस्कृति राम, कृष्ण और बुद्ध के तप, त्याग और शील से नहाई संस्कृति है। लेकिन भारत और नेपाल को छोड़ कर श्रीकृष्ण उत्तर-पूरब में उतना नहीं गए, जितना वे देश में और विदेश में पश्चिम में गए। एशियाई देशों में जो चरित्र अधिक गाए गए, वे राम और बुद्ध के ही हैं। राम और बुद्ध के समन्वय ने तो भारतीय संस्कृति की पावनता और शीतलता को और बढ़ा दिया है। इससे न केवल भारत अपितु समग्र एशियाई समाज हज़ारों साल से अपने को अभिमंत्रित करके धन्य किए हुए है। -0-