राम बाबू / पद्मजा शर्मा
बगीचे की देखभाल राम बाबू करता है। मेरे कहने पर उसने जूही लगाई. बेल को दीवार पर चढ़ाया। अब जूही की बेल बड़ी होकर फैल गयी है। पूरी बालकनी को ऊपर तक ढँक लिया है। सुबह-सुबह जब मंद-मंद हवा बहती है तो जूही के फूल धीरे-धीरे नीचे दूब पर गिरते रहते हैं। दूब पर जैसे बेल बूटेदार सफेद हरी चादर बिछ जाती है। वह रोज ही उन फूलों को इक्ठा करता है। भीतर लाता है। खाने की मेज पर सजा देता है। घर महकने लगता है।
वो आज अपनी दस वर्षीय बेटी के साथ आया है। उसे स्कूल छोडऩा है। बेटी चिडिय़ा-सी चहक रही है। बगीचे में घूम-घूम अपने पिता से कभी किसी फूल का नाम तो कभी किसी पौधे की प्रकृति पूछ रही है। कभी किसी पौधे के बारे में बता रही है।
राम बाबू अपनी बिटिया को चुप रहने का इशारा कर मुझे कहता है-'दीदी, आपने जूही लगवाई. अब वह फूलों से लद रही है। कभी उसके पास बैठो। उसकी खूबसूरती निहारो। चारों तरफ जूही की सुगंध और सुन्दरता बिखरी है। आप रात को जल्दी सोओ. सुबह जल्दी उठो। सुबह यहाँ आओ. फिर देखो, सुनो। कितने पक्षी, कितनी मधुर आवाजें और कितनी खुशबुएँ। इन पेड़ों में बहुत सारे घोंसले हैं। कभी उस दुनिया को भी तो देखो।'
तभी अचानक उसकी बेटी पूछती है-'पापा, छोटे-छोटे पक्षी अपने रहने के लिए घोंसले बना लेते हैं। हम इतने बड़े होकर अपने रहने के लिए कमरा तक क्यों नहीं बना पाते हैं?'
राम बाबू खिसियाई-सी हंसी के साथ कहता है 'दीदी, मेरी बिटिया सोचती बहुत है। सवाल बहुत करती है।'
मै कहती हूँ, 'राम बाबू, इसे खूब पढ़ाना। पढ़ लेगी तो सवालों के जवाब खुद ही खोज लेगी।'
'चलो बिटिया स्कूल। कहीं देर न हो जाए' कहते हुए राम बाबू बिटिया के साथ स्कूल के लिए रवाना हो जाता है।
उसकी आवाज का उत्साह आस बंधाता है।