राम / प्रताप नारायण मिश्र
आहा ! यह दोनों अक्षर भी हमारे साथ कैसा सार्वभौमिक संबंध रखते हैं कि जिसका वर्णन करने की सामर्थ्य ही किसी को नहीं है। जो रमण करता हो अथवा जिसमें रमण किया जाए उसे राम कहते हैं। यह दोनों अर्थ राम नाम में पाए जाते हैं। हमारे भारत मे सदा सर्वदा राम जी रमण करते हैं और भारत राम में रमण करता है। इस बात का प्रमाण कहीं ढूँढने नहीं जाना है। आकाश में रामधनुष (इंद्रधनुष), धरती पर रामगढ़, रामपुर, रामनगर, रामगंज, रामरज, रामगंगा, रामगिरि (दक्षिण में); खाद्य-पदार्थों में रामदाना, रामकेला, (सीताफल), रामतरोई, चि़ड़ियों में रामपाखी (बंगाली में मुरगी), छोटे जीवों में रामबरी (मेंढ़की); व्यंजनों में रामरंगी (एम प्रकार के मुंगौड़े) तथा जहाँगीर ने मदिरा का नाम रामरंगी रक्खा था कि, 'राम रंगिए मा नश्शए दिगर दारद'; कपड़ों में रामनामी इत्यादि नाम सुनके कौन न मान लेगा कि जल, स्थल, भूमि, आकाश, पेड, पत्ता, कपड़ा लत्ता, खान-पान, सब में राम ही रम रहे हैं। मनुष्यों में भी रामलाल, रामचरण, रामदयाल, रामदत्त, रामसेवक, रामनाथ, रामनारायण, रामदास, रामप्रसाद, रामदीन, रामगुलाब, रामबक्श, रामनवाज, स्त्रियों में भी रामदेई, रामकिशोरी, रामपियारी, रामकुमारी इत्यादि कहाँ तक कहिए, जिधर देखों उधर राम ही राम दिखाई देते हैं, जिधर सुनिए राम ही नाम सुन पड़ता है। व्यवहारों में देखिए, लड़का पैदा होने पर रामजन्म के गीत, जनेऊ, ब्याह, मुंडन, छेदन, में राम ही का चरित्र, आपस के शिष्टाचार में 'राम राम', दु:ख में 'हाय राम', आश्चर्य अथवा दया में 'अरे राम', महाप्रयोजनीय पदार्थों में भी इसी नाम का मेल, लक्ष्मी (रुपया पैसा) का नाम रमा, स्त्री का विशेषण रामा (रामयति), मदिरा का नाम रम (पीते ही पीते नस-नस में रम जाने वाली)। यही नहीं, मरने पर भी 'राम-राम सत्य है'। उसके पीछे भी गया जी में राम शिला पर श्राद्ध। इस सर्वव्यापकता का कारण यही है कि हमारे पूर्वज अपने देश को ब्रह्ममय समझते थे। कोई बात, कोई काम ऐसा न करते थे जिसमें सर्वव्यापी, सर्वस्थान में रमण करने वाले को भूल जाएँ। अथच राजभक्त भी इतने थे कि श्रीमान् कौशल्यानंदबर्द्धन जानकीजीवन अखिलार्यनरेंद्रनिसेवित पादपदम् महाराजाधिराज माया मानुष भगवान रामचंद्र जी को साक्षात् परब्रह्म मानते थे। इस बात का वर्णन तो फिर कभी करेंगे कि हमारे दशरथराजकुमार को परब्रह्म नहीं मानते वे निश्चय धोखा खाते हैं, अवश्य प्रेम राज्य में बैठने लायक नहीं है। पर यहाँ पर इतना कहे बिना हमारी आत्मा नहीं मानती कि हमारे आर्य वंश को राम इतने प्यारे हैं कि परम प्रेम का आधार राम ही को कह सकते हैं। यहाँ तक कि सहृदय समाज को 'रामपाद नखज्योत्स्ना पब्रह्मोति गीयते' कहते हुए भी किंचित् संकोच नहीं होता। इसका कारण यही है कि राम के रूप, गुण, स्वभाव में कोई बात ऐसी नहीं कि जिसके द्वारा सहृदयों के हृदय में प्रेम, भक्ति, सहृदयता, अनुराग का मासागर उमड़ न उठता हो। आज हमारे यहाँ की सब सुख सामग्री नष्टप्राय हो रही है, सहस्रों वर्षों से हम दिन-दिन दीन होते चले आते हैं, पर तौ भी राम से हमेशा संबंध बना है। उनके पूर्वपुरुषों की राजधानी अयोध्या की दशा देख के हमें रोना आता है। जो एक दिन भारत के नगरों का शिरोमणि था, हाय आज वह फैजाबाद के जिले में एक गाँव मात्र रह गया है। जहाँ एक से एक धीर, धार्मिक महाराज राज करते थे। वहाँ आज बैरागी तथा थोड़े से दीनदशादलित हिंदू रह गए हैं। जो लोग प्रतिमा पूजन के द्वेषी हैं, परमेश्वर न करे, यदि कहीं उनकी चले तो फिर अयोध्या में रही क्या जाएगा। थोड़े से मंदिर ही तो हमारी प्यारी अयोध्या के सूखे पहाड़ हैं। पर हाँ, रामचंद्र की विश्वव्यापिनी कीर्ति जिस समय हमारे कानों में पड़ती है उसी समय हमारा मरा हुआ मन जाग उठता है। हमारे इतिहास को हमारे दुर्दैव ने नाश कर दिया। यदि हम बड़ा भारी परिश्रम करके अपने पूर्वजों का सुयश एकत्र किया चाहें तो बड़ी मुद्दत में थोड़ी-सी कार्यसिद्धि होगी। पर भगवान रामचंद्र का अविकल चरित्र आज भी हमारे पास है जो औरों के चरित्र से सर्वोपरि, श्रेष्ठ, महारसूपर्ण, परम सुहावना है। जिसके द्वारा हम जान सकते हैं कि कभी हम भी कुछ थे अथच यदि कुछ हुआ चाहें तो हो सकते हैं। हममें कुछ भी लक्षण हो तो हमारे राम हमें अपना लेंगे। बानरों तक को तो उन्होंने अपना मित्र बना लिया हम मनुष्यों को क्या भृत्य भी न बनावैंगे! यदि हम अपने को सुधारा चाहें तो अकेली रामायण में सब प्रकार के सुधार का मार्ग पा सकते हैं (इसका वर्णन फिर कभी)। हमारे कविवर बालमीक ने रामचरित्र में कोई उत्तम बात नहीं छोड़ी एवं भाषा भी इतनी सरल रक्खी है कि थोड़ी-सी संस्कृत जानने वाला भी समझ सकता है। यदि इतना श्रम भी न हो सके तो भगवान तुलसीदास की मनोहारिणी कविता थोड़ी-सी हिंदी जानने वाले भी समझ सकते हैं, सुधा के समान काव्यानंद पा सकते हैं और अपना तथा देश का सर्वप्रकार हितसाधन कर सकते हैं। केवल मन लगा के पढ़ना और प्रत्येक चौपाई का आशय समझना तथा उसके अनुकूल चलने का विचार रखना होगा। रामायण में किसी सदुपदेष का अभाव नहीं है। यदि विचारशक्ति से पूछिए कि रामायण की इतनी उत्तमता, उपकारकता, सरसता का कारण क्या है, तो यही उत्तर पाइएगा कि उसके कवि ही आश्चर्यशक्ति से पूर्ण हैं, फिर उनके काव्य का क्या कहना। पर यह भी बात अनुभवशाली पुरुषों की बताई हुई है, फिर इस सिद्ध एवं विदग्धालाप कवीश्वरों का मन कभी साधारण विषयों पर नहीं दौड़ता, वह संसार भर का चुना हुआ परमोत्तम आशय देखते हैं तभी कविता करने की और दत्त चित्त होते हैं। इससे स्वयं सिद्ध है कि रामचरित्र वास्तव में ऐसा ही है कि उस पर बड़े-बड़े कवीश्वरों ने श्रद्धा की है और अपनी पूरी कविताशक्ति उस पर निछावर करके हमारे लिए ऐसे-ऐसे अमूल्य रत्न छोड़ गए हैं कि हम इन गिरे दिनों में भी उनके कारण सच्चा अभिमान कर सकते हैं, इस हीन दशा में भी काव्यानंद के द्वारा परमानंद का स्वाद पा सकते हैं, और यदि चाहें तो संसार परमार्थ दोनों बना सकते हैं। खेद है कि यदि हम भारत संतान कहा कर इन अपने घर के अमूल्य रत्नों का आदर न करें और जिनके द्वारा हमें यह महामणि प्राप्त हुए हैं उन का उपकार न मानें, तथा ऐसे राम को, जिनके नाम पर हमारे पूर्वजों के प्रेम, प्रतिष्ठा, गौरव एवं मनोविदनोद की नींव थी अथच हमारे लिए इस गिरी दशा में भी सच्चे अहंकार का कारण और आगे के लिए सब प्रकार के सुधार की आशा है, भूल जाएँ अथवा किसी के बहकाने से राम नाम की प्रतिष्ठा करना छोड़ दें तौ कैसी कृतघ्नता, मूर्खता एवं आत्महिंसकता है। पाठक, यदि सब भाँति की भलाई और बड़ाई चाहो तो सदा, सब ठौर, सब दशा में, राम का ध्यान रक्खों, राम को भजो, राम के चरित्र पढ़ो सुनो, राम की लीला देखो दिखाओ, राम का अनुकरण करो। बस इसी में तुम्हारे लिए बस कुछ है। इस रकार और मकार का वर्णन तो कोई त्रिकाल में कर नहीं सकता, कोटि जन्म गावैं तौ भी पार न पावैंगे। इससे यह लेख अधिक न बढ़ा के फिर कभी इस विषय पर लिखने की प्रतिज्ञा एवं निम्नलिखित आशीर्वाद के साथ लेखनी को जोड़े काल के लिए विज्ञाम देते हैं। बोलो, राजा रामंद्र की जै!
कल्याणानान्निधानं, कलिमलमयनं पावंनावनानाम्पा थेयं यन्मुमुक्षो: सपदि प्रस्यदप्राप्तये प्रस्थितस्य। विश्रामस्थानमेकं कविवरवचसां जीवनं सज्जनानां बीजन्धर्म्मद्रुमस्य प्रभवतु भवतांभूतये राम नाम:।।1।।
भावार्थ
कुलि कल्याननिधान सकल कलि कलुख नसावन। सज्जन जीवन प्रान महा पावन जन पावन।। अखिल परम प्रद पथिकन हित मारग कर संबल। कुशल कवीशन की बर बानी को बिहार थल।। सदधर्म्म विटप कर बीज यह, राम नाम सांचहु अमृत। तब भवन भरे सुख सम्पदा समति सुयश नित-नित अमित ।1।