रायगढ़ा-रायगढ़ा / जगदीश मोहंती / दिनेश कुमार माली
बेटा रायगढ़ा में पढ़ाई कर रहा है, सुनकर समस्त परिचित लोग आश्चर्यचकित होकर पूछने लगे थे "रायगढ़ा? रायगढ़ा में पढ़ाई कर रहा है?" वे इस प्रकार से कह रहे थे मानो रायगढ़ा उड़ीसा में नहीं हो, इस धरती पर नहीं हो, यहाँ तक सृष्टि में कहीं पर भी इसका नामो-निशान नहीं हो।
जैसे ही हम रायगढ़ा के रेलवे -स्टेशन से बाहर निकले, वैसे ही नाकुआ पहाड़ की तरफ देखकर बेटे ने शांत भाव से कहा, "पिताजी, इस पहाड़ को देख रहे हो? ऐसा लग रहा है मानो एक आदमी निश्चितता से सोया हुआ हो।"
मैं भी उस पहाड़ को देखकर विस्मित हो गया और कहने लगा, "सचमुच, सत्य कह रहे हो।"
मिट्स आभियांत्रिकी महाविद्यालय से थोड़ी ही दूरी पर नक्सलवादियों ने बारुदी सुरंगें बिछाकर रखी थी। शाम के समय उन्होंने एक पुलिस-गाड़ी को उड़ा दिया था। उस जगह को बेटे ने मुझे दिखाया था। रायगढ़ा से भुवनेश्वर जाने वाले रास्ते में जे.के. पेपर मिल कॉलोनी से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर आमलपेटा से थोड़ा आगे को घूमता हुआ रास्ता 'पिच' से बना हुआ था। उस दिन मैं बहुत खुश था। रास्ते के बीच में राख से भरा एक गड्ढा मेरे मन में क्रांति के चिन्ह की याद दिला रहा था अर्थात् क्रांति अभी भी जीवित है।
सन् 1969 या 1970 की बात होगी। ठीक से याद नहीं आ रहा है। उड़ीसा की सीमा जामशोला घाट से लगभग आठ-दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित था एक शहर, बहडडागोड़ा। उस शहर में राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या छ तथा छत्तीस आपस में मिलते थे. वहाँ से राँची जाने के लिए बसें मिलती थी। रास्ते में घाटशिला, टाटा, चाँडिल, उसके बाद और दो-तीन बस-स्टॉपेज जिनके नाम मुझे याद नहीं आ रहे हैं, तत्पश्चात आता था राँची। भोर-भोर वहाँ से बसें छूटती थी तथा शाम को चार-पाँच बजे के भीतर राँची पहुँच जाती थी। बिहार राज्य परिवहन निगम के बिहारी बस-कंडक्टर ने मुझे कहा था, "टिकट नहीं खरीदने से भाड़ा दस रुपए और टिकट कटवाने से भाड़ा अठारह रुपए।" उसीने मुझे पहली बार, भ्रष्टाचार का राष्ट्रीयकरणकैसे होता है, उसके बारे में सिखाया। उसी बस में सफर करते समय अखबार के माध्यम से मुझे पता चला था कि पुलिस ने जादुगोड़ा जंगल में कुछ बंगाली नक्सलियों तथा एक महिला को गिरफ्तार किया था। जादूगोड़ा का यह जंगल घाटशिला और टाटा नगर के बीच में पड़ता था। वह दिन मेरे लिए एक उल्लास का दिन था, यही सोचकर क्रांति की ज्वाला को भभकने में और अब समय नहीं लगेगा।
जान-पहचान वाले होटल के काउंटर पर बैठने वाले मोटे काले आदमी को मैं अभी तक उड़िया आदमी समझ रहा था। मगर बाद में पता चला कि वह तेलगू आदमी था। वह आदमी हँसकर मुझसे पूछने लगा, "सर, क्या बेटे को मिलने आए हो?"
"नहीं, इस बार एक दूसरा काम था।"
"कौन-सा काम, सर?"
उसकी बात सुनकर मैं हड़बड़ा गया। कैसे बताता मेरे आगमन के उद्देश्य के बारे में? बता दूँ क्या? मैने कहा "एक पुराने दोस्त को मिलने आया हूँ यहाँ।"
जाना- पहचाना होटल, जाने-पहचाने लोग तथा चिर-परिचित आबोहवा। इसी तरह
जाना-पहचाना कमरा, कमरे की अद्भुत सौधी गंध, बिछौने, गद्दें, चद्दरें। इन सभी से बढ़कर था जाने-पहचाने अद्भुत अश्लील मैल के आवरण का अनुभव।
होटल का बैरा चद्दर बदलकर रिमोट कंट्रोल से टी.वी. चालू करके चला गया। मैने देखा कि खिड़की के पेल्मेट टूटे हुए थे। पर्दों को भी जैसे-तैसे लटकाया गया था। लग रहा था अभी-अभी गिर पड़ेंगे। सभी ठीक-ठाक सजाने के बाद मैने अपना सूटकेस खोलकर उसकी चिट्ठी बाहर निकाली।
उसके हाथ की लिखावट बहुत सुंदर व साफ थी. फिर उसने पढ़ाई क्यों नहीं की? भले ही वह कॉलेज नहीं गया, मगर कविता लिखना उसकी अभिरुचि थी। आरा मशीन में बैठकर आराम से पैसे कमा सकता था.इतना सब कुछ परित्याग कर वह जंगल में निर्वासित होकर क्यों रहने लगा?
मैने चिट्ठी खोलकर पढी। उसमें लिखा हुआ था
"प्रिय बंधु!" उसने मुझे प्रिय क्यों लिखा? क्या वास्तव में, मैं उसका प्रिय हूँ? बहुत पहले सत्तर के दशक में मेरी उससे दो-तीन बार मुलाकातें हुई थी। हाल ही में
उसने मुझे चिट्ठी भेजी थी। यह उसकी दूसरी चिट्ठी थी। दोनों चिट्ठियों के बीच में लगभग बीस साल का अंतर था। इतने थोड़े से संपर्क में, मैं उसका इतना प्रिय कैसे बन गया?
स्टूडेन्ट फेडेरेशन आफ इंडिया के कटक अधिवेशन में मेरी पहली बार उससे मुलाकात हुई थी। उसके बाद वह दो-तीन दिन मेरे साथ मेरे हॉस्टल में रुका था। मेस में हमने साथ-साथ खाना खाया था। दिनभर वह कहीं बाहर रहता था, रात में आकर वह चुपचाप सो जाता था। उसकी दलीलें सुनने में खूब मजा आता था। उसके कथनानुसार वह नक्सल आन्दोलन में रत था। और अभी वह भूमिगत हो गया है। एक बार उसकी अनुपस्थिति में मैने उसका बेग खोलकर देखा था. उसमें गणनाथ पात्रा जी की कुछ किताबें, कविताएँ तथा नक्सल संगठन से संबंधित कुछ पत्रिकाएँ थीं। इसके अलावा, एक छोटा गमछा, टूथपेस्ट तथा क्रीम रखी हुई थी। उसने जो कपड़े पहने हुए थे, उसके अतिरिक्त उसके पास दूसरा पेंट और शर्ट भी नहीं था। वह तो किसी गरीब परिवार का लड़का नहीं था। उसके पिताजी काफी पैसे वाले थे. दो साल के बाद मुझे यह बात पता चली थी। उस समय मैं कटक से बेलपहार अपने बड़े भाई के घर जा रहा था. रात को एक से दो बजे के बीच नीलकमल होटल के पास वह मुझे मिला था। उसने मुझे अपने सीने से जकड़ लिया था। उसमें अभी तक कोई बदलाव नहीं आया था। वही रुखी दाढ़ी थी उसकी। लगातार वह चारमीनार सिगरेटों का कश लगा रहा था। मुझे पकड़कर कहने लगा "आज मैं तुझे जाने नहीं दूंगा, मेरे साथ आज आठमल्लिक चलना पड़ेगा।"
उसने जबरदस्ती बस कंडक्टर से लड़ाई-झगड़ा करके मेरा बचा हुआ पैसा वापिस ले लिया। उसके बाद हम दोनो एक ट्रक में बैठकर 'आठमल्लिक' पहुँचे। वह ट्रक आठमल्लिक से लकड़ी के लट्ठे लादकर वहाँ से तालचर के लिए रवाना हो गया। आठमल्लिक में मैने देखा उसके पिताजी का वहाँ बहुत बड़ा आरा मशीन का कारखाना था। वह लकड़ी व्यवसाय में बहुत पैसा कमाते थे। आठमल्लिक जैसी छोटी-सी जगह में उनका तीन मंजिला मकान था । वह मुझे आरा कारखाना के एक कोने में बने लकड़ी के घर के अंदर लेकर गया। आरा मशीन चलने की आवाज के भीतर उसने मुझे अपनी एक कविता सुनाई। वहाँ मैने दो चीजें पहली बार देखी।
(क) चीन के चेयरमन माओतसेतुंग की लाल किताब।
(ख) लकड़ी के बुरादे से विशेष तकनीकी से जलनेवाला चूल्हा। उस धधकती आग से तेज लाल लपटें निकल रही थी।
'प्रिय बंधु!'
उसने लिखा था "तुम कमसे कम एक बार रायगढ़ा आओ। मैं तुम्हें नाकुआ पहाड़ के उस पार वाले गाँवों में ले जाऊँगा। वहाँ तुम देख पाओगे कि भूख क्या चीज होती है? गरीबी क्या होती है? तुम एक बार आओ तो सही, मैं तुम्हे दिखा देता हूँ शोषण कैसे होता है? तुम देख लोगे कि रायगढ़ा में पाँच रुपए में दस केले मिलने के बाद भी कंध जाति के नडू मांगेजी की वृद्ध माँ अनाहार मृत्यु को कैसे प्राप्त हो गई और सरकार ने किस प्रकार इस बात को बदला कि कुपोषण का शिकार होने की वजह से उसने प्राण त्यागे। तुम आओ, मैं तुम्हें एक दूसरा उड़ीसा दिखाऊँगा।
भुवनेश्वर से अलग-थलग एक उड़ीसा, रायगढ़ा का उड़ीसा। तुम्हें एक बार जरुर आना चाहिए। मैं यह बात शत-प्रतिशत कह सकता हूँ, यहाँ से जाने के बाद तुम्हारे अपने विचार, दृष्टिकोण पूरी तरह से बदल जाएँगे। तुम देख सकोगे, किस तरह रायगढ़ा समस्त उड़ीसा के ऊपर सोते-सोते तेज बुखार के तापमान से काँप रहा है। तुम आओ, रायगढ़ा शहर के हाथी पत्थर रास्ते पर एक सैलून मिलेगा। जिस पर नाम लिखा होगा, 'वाईजाग सैलून'। उस सैलून में तुम्हें इमानुअल माँजी मिलेगा। बस, उसको मेरा नाम बता देना। वह तुम्हें मेरे पास ले आएगा।
दूसरी चिट्ठी की तरह वही संबोधन पहली चिट्ठी में भी लिखा हुआ था 'प्रिय बंधु!'
जब मुझे उसकी पहली चिट्ठी मिली थी, उस समय टेलीफोन का कोई प्रचलन नहीं था। उस समय केवल डाकिये की राह देखी जाती थी। उस जमाने में उसकी पहली चिट्ठी मुझे मिली थी। चिट्ठी के नीचे लिखा हुआ था 'तुम्हारा, विपिन "।कौन था यह विपिन? इस नाम से कोई जान पहचान वाला व्यक्ति था क्या? पता नहीं क्यों उसका नाम याद नहीं आ रहा था? आखिरकर मैं भेजने वाले का पता देखने लगा। उसका पता इस प्रकार लिखा हुआ था " विपिन नायक, माणिकेश्वरी आरा कारखाना, आठमल्लिक।
मेरी सारी पुरानी स्मृतियाँ लौट आई। लकड़ी के बुरादे से जलने वाला चूल्हा, माओसेतुंग की वह लाल किताब, आरा मशीन चलने की आवाज और उसकी कविता के वे शब्द... सारे के सारे याद आने लगे। वह अपने एक अंतरंगी आदमी की तरह लग रहा था।सचमुच में वह एक प्रिय बंधु ही था।
उसकी पहली चिट्ठी में लिखा हुआ था -
प्रिय बंधु,
यद्यपि इस चिट्ठी पर मैने अपना पता माणिकेश्वरी आरा कारखाने का दिया है, परन्तु मैं तुम्हें आठमल्लिक आने पर उस जगह नहीं मिल पाऊँगा। मैं आठमल्लिक से पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर हूँगा। मैने जंगल के भीतर, झरने के पास, बड़ी-बड़ी चट्टानों के बीच अकेले में अपना घर बनाया है। इस जगह का सही-सही पता बताना मेरे लिए मुश्किल है। मैं नहीं जानता कि पृथ्वी के कितनी डिग्री अक्षांश तथा देशांतर पर वह जगह अवस्थित है। कभी -कभी मुझे ऐसा लगता है इस नूतन स्वतंत्र जगह को मेरे लिए बनाया गया हो तथा मैं इस जगह का प्रथम आदि पुरुष मनु हूँ।
यहाँ पर बिजली नहीं है। फोन लाइन तथा डाकिये की साइकिल आने का रास्ता भी नहीं
है. ऐसी जगह पर मैने अपने नए संसार की रचना की है। मेरे इस संसार में साथ दे रही है मेरी पत्नी सुरुबाली। उसके गर्भ में मेरे बीज से एक नया जीवन मूर्तरुप ले रहा है। अगर लड़का पैदा हुआ तो मैं उसका नाम ' स्टालिन ' रखूँगा, और अगर लड़की पैदा हुई तो मैं उसका नाम 'गार्गी' रखूँगा।
मेरा घर बनाने के लिए मैने स्वयं मिट्टी खोदी और सुरुबाली ने मिट्टी का घोल तैयार किया। यद्यपि हमें घर बनाने की तनकीकों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, मगर बनाते-बनाते हम भी घर बनाने के आदिम नियमों और सूत्रों को सीखते गए। तब मुझे ऐसा लगा कि मानव में शक्ति का अपार भंडार है। अगर हमने घर नहीं बनाया होता, तो शायद मानवता की इन महान गारिमापूर्ण बातों को खोज नहीं पाते।
पुआल का छप्पर डालने में सहयोग करने के लिए कारखाने से कुछ लोगों को बुलाया था। उसके अलावा, घर बनाने के सारे काम मैने और सुरुबाली ने मिलकर किए। यहाँ तक कि घर का दरवाजा भी हमने स्वयं ही बनाया। तुम इस बात को समझ नहीं पाओगे कि खुद के हाथों से अपना घर बनाने में कितनी संतुष्टि मिलती है। घर के प्रत्येक धूल के कणों में मेरी यादें, मेरा पसीना तथा मेरा परिश्रम जुड़ा हुआ है। इस घर के अंदर चटाई के ऊपर सोने पर महलों के अंदर की रजाई और गद्दे तुच्छ लगने लगते हैं।
तुम्हे ऐसा लग रहा होगा कि मैं एक कवि की भाँति बढ़ा-चढ़ाकर कविता सुना रहा हूँ। लेकिन यह बात सही है, इस जंगल मैं आकर पहली बार मुझे इस बात का अहसास हुआ कि जिंदगी को यहाँ पर कविता की तरह जिया जा सकता है। पहली बार यहाँ आने पर पता चला कि भूख क्या चीज होती है? और डर क्या? माया किसको कहते हैं? प्यार करना किसे कहते हैं? पहली बार यह चीज भी समझ में आई कि जीवन कितना सुंदर होता है और जीवन जीने की जरुरतें कितनी कम। अभी मैने सुरुबाली के साथ मिलकर खेत बना लिया है। अगले साल बैलों की एक जोड़ी लाकर मैं इस खेत में खेती का काम शुरु कर दूँगा। हम दोनो मिलकर खेती करेंगे। मैं हल चलाऊँगा, और सुरुबाली घास काटेगी। मैं घास का रोप उखाडूँगा, वह उसे रोपेगी। मैं धान काटूँगा, वह उसे ढोएगी। मैं बीड़ा बनाऊँगा, वह उसे झाड़ेगी।
अभी हम प्रकृति पुरुष हो गए हैं। दिनभर खेत में काम करते हैं, मेड़ बनाते हैं, मिट्टी खोदते हैं। शाम को घर लौटकर सुरुबाली चावल पकाती है। चावल पकने के टगबग शब्द सुनाई देने तक सुरुबाली अपने गाल घुटनों के ऊपर रखकर चूल्हें की तरफ ताकती रहती है और मैं दूर बैठकर डीबरी की रोशनी में अपनी कविता लिखता हूँ। फिर मैं उस कविता को सुरुबाली को सुनाता हूँ। बड़े ही आश्चर्य की बात है कि सुरुबाली मेरी कविता समझ लेती है। वह निर्भीक भाव से कविता के अच्छाई और बुराई के बारे में अपने विचार व्यक्त करती है। प्रकृति ने सुरुबाली को भी कविता का रहस्य जानने की विद्या सिखा दी है।
हाथी पत्थर रास्ता, वाईजाग सैलून और इमानुअल माझी। मैं, मौटर साइकिल के पीछे बैठकर सुदूर दिशाओं तक फैले हुए हरे-भरे खेत, पहाड़, दूर कारखानों की चिमनियाँ, तेलगू भाषा में लिखे हुए ट्रकों को पार करते हुए नाकुआ पहाड़ के पीछे वाले एक अलग-थलग,एक सुनसान वीरान गाँव में पहुँचा। क्या नाम है इस गाँव का? गाँव में घुसते ही एस्बेस्टॉस शीट की छत वाला स्कूल, स्कूल के एक तरफ प्रधानाध्यापक का कार्यालय, कार्यालय से सटे प्रथम श्रेणी से पंचम श्रेणी तक की कक्षाएँ, उसके बाद एक और खाली कमरा। उस कमरे के अंदर वह मुझे मिला। उसकी मूँछे आधी पक चुकी थी। दाढ़ी और बालों में पूरी तरह से सफेदी अभी तक नहीं आई थी. उसने एक-एक सेन्डो गंजी तथा लुंगी पहन रखी थी। दूर से वह एक तेलगू मास्टर की तरह नजर आ रहा था।
ब्लैक-बोर्ड के ऊपर कबसे गणित के सवाल हल किए हुए थे। किसी ने भी डस्टर से मिटा देने की जरूरत नहीं समझी। एक रस्सी वाली खाट के ऊपर गुदड़ी और एक चद्दर बिछी हुई थी। कमरे के कोने में बंधी हुई रस्सी के ऊपर कुछ कपड़े झूल रहे थे। ठीक उसके नीचे आधी बोरी बालू के ऊपर रखी हुई थी मिट्टी की एक हांडी। हांडी पानी से भरी हुई थी तथा उसके ऊपर मिट्टी का ढक्कन और गिलास रखा हुआ था। पास में ही एक दीवार से सटाकर एक केरोसीन ड्रम रखा हुआ था, जिस पर पड़ी हुई थी कुछ पुरानी किताबें तथा कापियां। एक तरफ दीवार में लटका हुआ था एक फोटोफ्रेम, जिसमें एक आदिवासी लड़की के साथ उसकी युवावस्था का फोटो था। लड़की के नाक में लगी हुई नथ देखने लायक थी। लड़की की ललाट पर एक फूल गोदा हुआ था। दूसरे कोने में केरोसीन से जलने वाला एक स्टोव पड़ा हुआ था। पास में पड़ी थी एक छोटी सी डेगची, जो नीचे से काली हो चुकी थी। साथ ही साथ, एक कड़ाही, थाली, कटोरी, सब के सब मुँह के बल औंधे पड़े थे।
घर इतना धूल-धुसरित था कि पाँव रखने से कच-कच लग रहा था। मैने घर में चारों तरफ अपनी निगाहें घुमा ली। दरवाजे के कोने में पड़ा हुआ था एक पुराना बिखरा हुआ झाडू। पथरीले फर्श पर बिछी हुई थी एक चटाई। चटाई के ऊपर रखे हुए थे कुछ कागज और एक किताब, दो कलम तथा एक चश्मा। शायद वह वहाँ बैठकर कुछ लिखाई-पढ़ाई कर रहा था। ऐसा लग रहा था वह तुरंत उठकर वहीं से आ रहा हो। मुझे वहाँ देखकर उसके आश्चर्य की सीमा नहीं रही। वह कहने लगा, "तुम आ गए? मुझे विश्वास नहीं हो रहा है। मैने कभी सोचा भी नहीं था कि तुम यहाँ आओगे।"
लगभग तीस साल बीत चुके थे हमें पहली बार मिले हुए। मेरी कहानी पढ़कर उसने मुझे एक चिट्ठी लिखी थी। उसके बाद अचानक एक दिन वह रेवेन्सा कॉलेज पहुँच गया। दो-तीन दिन तक वह वहाँ बिन बुलाए मेहमान की तरह रुककर कहीं चला गया था। फिर हमारी दूसरी मुलाकात हुई थी आंगुल और आठमल्लिक में। उसके बाद इतनी लंबी अवधि के बाद अब हमारी मुलाकात हो रही है। कहाँ गई उसकी सुरुबाली? कहाँ है उसकी औलाद? आठमल्लिक के किसी जंगल में उसके हाथ से बनाया हुआ मिट्टी का घर कहाँ चला गया? कहाँ चला गया उसका खेत? कई प्रश्न मेरे मन में उठ रहे थे। मुझे उसके बारे में बहुत कुछ जानना बाकी था, बहुत कुछ बातें पूछनी बाकी थी।
"सब कुछ खत्म हो गया। ऐसा होता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है।" वह कहने लगा। कहते-कहते उसने अपनी रुखी- सूखी दाढ़ी में दो-तीन बार हाथ घुमाया और आगे कहना जारी रखा। मैने देखा उसके हाथ में काले-काले नाखून बढ़े हुए थे। दोनों आँखे बड़ी-बड़ी दिख रही थी मगर प्रभावशाली आँखे थी।आँखों में उदासी के भाव पता नहीं चल पा रहे थे। होठों पर हँसी नहीं थी। चेहरे पर गांभीर्य झलक रहा था। वह कुछ अन्यमनस्क नजर आ रहा था। वह कहने लगा "जीवन एक झरने के पानी की तरह प्रवाहमान है। वह कभी एक जगह पर रुकता नहीं है। वह अपना रुप बदलता रहता है। किसी एक जगह पर रुकने का मतलब मर जाना। झरने का पानी अगर रुक गया तो क्या झरना कहलाएगा? कभी नहीं। उस पानी में कीड़े लगने लगेंगे, अमीबा पैदा होंगे, काई जमने लगेगी।
उसके इस दार्शनिक उत्तर से मुझे सुरुबाली के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली। अपने मिट्टी के घर को छोडकर उसके रायगढ़ा चले आने के पीछे का रहस्य मुझे स्पष्ट समझ में नहीं आ रहा था। अंत में मैने कहा, " विपिन, भूमिका मत बाँधो, साफ-साफ बताओ, क्या हुआ तुम्हारे साथ?"
"सुरुबाली मुझे छोडकर चली गई।" वह कहने लगा, "इस तरह सुरुबाली के चले जाने के लिए मैं उसको दोषी नहीं ठहराता हूँ। वह तो जंगल की बेटी थी। जंगल में उसके प्राण थे। मैं ठहरा शहरी लडका। जंगल के भीतर अपने मन मुताबिक मैं शहरी जीवन जीना चाहता था। हम दोनों के बीच यह सांस्कृतिक पार्थक्य था। मुझे और सुरुबाली को इसी सांस्कृतिक-पार्थक्य में एडजस्ट होना पड रहा था। एक दिन हम लोगों ने यह निर्णय लिया "नहीं, इस प्रकार की अड़जस्टमेंट की जिंदगी जीने से बेहतर है हम लोग अलग-अलग हो जाए।"
बिल्कुल समझ में नहीं आने वाली उसकी ये सारी बातें मेरे सिर से ऊपर निकल रही थी। मेरी आँखों में आश्चर्य को देखकर वह कहने लगा, "क्या तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है? एक बात और सुनो, वह मैं तुम्हें समझा भी पाऊँगा अथवा नहीं।"
जब तक सुरुबाली आम के गुठली का जाऊ नहीं खा लेती थी, तब तक उसका पेट नहीं भरता था। मुझे खाने को चाहिए थे गरमा-गरम चावल। गरमी के महीनों में आम, महुआ, जामुन की प्रचुरता से गरम चावल की सुवास को सुरुबाली पूरी तरह भूल गई थी। पेड़ों की पोल में रहने वाली बड़ी-बड़ी पीली चीटियाँ, महुआ के सुगंधित फूल, लंबे-लंबे बाँसों की करड़ी, झरने के पानी में मिलने वाली छोटी-छोटी कूचिआ मछलियाँ - इस प्रकार प्रकृति ने हर प्रकार से सुरुबाली के लिए खाद्य-पदार्थों की व्यवस्था कर दी थी। मगर मेरी आवश्यकता थी एक चूल्हे की, उस पर टगबग होते चावलों की। मुझे जरुरत पड़ती थी एक चुटकी भर नमक, दो हरी मिर्चें और एक बूँद सरसों का तेल। हमारे बीच इन्हीं आग, नमक, तेल, मिर्च को लेकर वैचारिक अंतर था।
मैं सुरुबाली को कतई दोषी नहीं ठहराऊँगा। वह तो अपनी तरफ से ठीक थी। मैने उसकी तरह होने की कोशिश तो की थी, मगर मैं नहीं हो पाया था। उसके समान नहीं बनने की अयोग्यता तो मुझमें ही थी। एक दिन मैने सुरुबाली को कहा, "जाओ, उड जाओ। आज मैं तुझे अपने पिंजरे से आजाद करता हूँ।" उस दिन उसकी आँखों में प्रसन्नता के भाव देखने लायक थे। वह ठीक उसी तरह लग रही थी मानो पिंजरे से आजाद एक हिरणी। उसके चले जाने के दृश्य ने मुझे अभिभूत कर दिया। कितनी सुंदर होती है स्वाधीनता! उस दिन मुझे इस बात का अह्सास हुआ। जाते समय वह मेरे स्टालिन को अपनी गोद में ले जाना नहीं भूली थी। मातृत्व कितना कठोर होता है, उसका आँखों देखा प्रमाण देकर वह चली गई। यह एक अकल्पनीय अनुभूति थी। लेकिन रायगढ़ा? कैसे और क्यों रायगढ़ा? मेरे इन प्रश्नों का उत्तर न देकर वह बगल झाँकने लगा. केवल बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी तरफ देखने लगा। कुछ समय बाद उसने कहना आरंभ किया "क्या तुमने गोपीनाथ मोहन्ती जी के लिखे उपन्यास "शिवभाई" को पढ़ा है? आज से पचास साल पहले उन्होंने इस उपन्यास की रचना की थी।"
अभी तक मैने गोपीनाथ मोहन्ती जी को नहीं पढा था। यह मेरे लिए लज्जा का विषय था।
मुनीगुड़ा स्टेशन से कल्याण सिंह स्टेशन पर्यन्त। अभी कल्याण सिंह पुर स्टेशन केसिंहपुर स्टेशन के नाम से जाना जाता है। यहीं पास में है जे.के.पुर पेपर मिल। छोड़िए इन बातों को। इन दोनों स्टेशनों के बीच में अवस्थित है नियमगिरी की पर्व, श्रृंखला, पाँच हजार फुट की ऊँचाई तक तथा छत्तीस मील की दूरी तक फैली हुई। इस पर्वत माला के नीचे बह रही है नागावली नदी। इसी पर्वतमाला में वास कर रहे थे डंगरिया कंध लोग।
डंगरिया कंध, पांच फुट ऊँचा कद, हृष्ट -पुष्ट शरीर। आज से पचास साल पहले अगर तुम यहाँ आते तो तुम देखते डंगरिया कंध अपनी नाक पर दो लंबी नथें, कानों में बड़ी-बडी बालियाँ, बालों के जूडे में फँसाई हुई पीतल या काँसे की अर्धचंद्रकार रिंग में लगी हुई लकड़ी, गले में स्फटिक की माला, हाथों में मोटा कड़ा और कमर में कौपीन के नीचे लटकती हाथ भर लम्बी छुरी.
अभी अगर तुम रायगढ़ा आओगे तो तुम्हें आश्चर्य होगा कि डंगरिया कंध पारंपरिक वेशभूषा को धारण नहीं करते हैं। आजकल वे लोग शर्ट-पैण्ट पहनते हैं। उन्होंने अपने नाक की नथें उतार कर फेंक दी हैं। पहाड़ों से उतर कर नागावली नदी के किनारे समतल भूमि पर अपना बसेरा बसाए हैं। पचास साल पहले बाघ के भय से डंगरिया कंध घर के अंदर पेशाब करते थे, मगर आजकल रायगढ़ा के जंगल में बाघ देखने को नहीं मिल रहे हैं। आजकल उन लोगों के तरह-तरह के पुराने घर लुप्तप्रायः हो गए हैं। आजकल इंदिरा आवास योजना में उनके लिए घरों का नव निर्माण किया जा रहा है। हमारे स्कूल में भी बहुत सारे कंध बच्चे पढाई करने आ रहे हैं।
वह चाय बनाने के लिए उठा। सॉसपेन में तीन कप चाय का पानी रखकर सफाई देने की मुद्रा में वह कहने लगा "नागराजू आया है। वह साँभर-माँस लेने गया है। अच्छा हुआ, तुम आ गए। आज मैं तुम्हें साँभर का माँस खिलाऊँगा। लेकिन यहाँ पर साँभर का ताजा मांस नहीं मिलता है। कंध लोग साँभर के माँस को सूखाकर रखते हैं। एक दम सड़ा हुआ, कीटाणुओं से भरा हुआ तथा आमिष गंध वाला माँस, लेकिन खाने में बहुत स्वादिष्ट। खाने के बाद ही पता चलेगा।"
विपिन माँस के बारे में जिस प्रकार वर्णन कररहा था, उसे सुनकर मुझे उबकाईयाँ आने लगी. सारा शरीर सिहर गया। यह देखकर विपिन कहने लगा, "यही तो है सांस्कृतिक-पार्थक्य। बताओ, सूखी मछली खाते समय तुम्हें उबकाईयाँ क्यों नहीं आती हैं?
तभी नागराजू आ गया। उस समय उसकी चाय ठंडी हो चुकी थी। बड़ी-बड़ी मूँछें, काला-कलूटा चेहरा, थोड़ा उदास था वह। मुझे देखकर वह इतना चौंक गया था कि 'लाल सलाम' करना भी भूल गया था।
विपिन ने मेरा परिचय दिया, "मेरे एक कामरेड़, कहानी लिखने का काम करते हैं।"
मैं क्या कॉमरेड़ हूँ? विपिन का कॉमरेड़? मुझे याद आ गई 1970 के कॉलेज जीवन की वह कहानी, जब स्टूडेंट फेडेरेशन आफ इंडिया का कटक अधिवेशन हो रहा था। रेवेन्सा कॉलेज के सामने शहीद प्रदीप स्मृति मंच पर भाषण देते हुए नवकृष्ण चौधरी रात-रात भर दीवारों पर स्लोगान लिखने का अद्भूत उत्साह। इतना होने के बाद भी, मैं कॉमरेड़ हूँ क्या? कभी कॉमरेड़ हुआ था क्या? विपिन ने क्या मुझे नहीं पढ़ा है? मेरी कहानियों से कैसे उसने खोज लिए क्रांति के चिन्ह?
विपिन उसका परिचय देते हुए कहने लगा, "ये नागराजू है, नक्सलवादी। मेरा सबसे खास कॉमरेड़। आज इसके घर चलेंगे। चलेंगे ना?"
"साँभर का माँस नहीं ला पाया।" नागराजू ने कहा। "जैसे ही मैं गाँव के भीतर जा रहा था, किसी ने मुझे बताया कि पुलिस मुझे ढूँढ रही है।" विपिन ने उसकी बातों की तरफ ध्यान नहीं दिया और कहने लगा, "मैने पेपर में पढ़ा है कि सत्यसाची पंडा पुलिस को चकमा देकर नयागढ जाकर अपने पिताजी की अंत्येष्टि -कर्म में शामिल होकर वापिस आ गया।"
नागराजू का घर विजयनगरम है। कॉलेज के जमाने से ही उसका मार्क्सवाद के प्रति झुकाव था। पहले वह स्टूडेंट फेडरेशन आफ इंडिया का एक कैडर, बाद में नक्सल कर्मी बना। चन्द्रबाबू नायडू की पुलिस ने एक बार उसको पकड़ लिया था। विजय नगर कोर्ट में उसकी पेशी होने वाली थी। मौका देखकर जाते समय वह पुलिस के चुंगल से भाग निकला। अभी तक भटक रहा है, घर भी नहीं गया है।
पुलिस नागराजू की तलाश में है। अगर इस समय पुलिस पहुँच गई तो? मैं डर गया था। मेरा मध्यमवर्गीय परिवार उजड़ जाएगा। सत्तर के दशक में कई लोगों ने मुझे आमंत्रित किया था- “आइए, एक्शन में चलेंगे।"
उस समय मैने इस तरफ कदम नहीं बढ़ाए। जिसकी मुख्य वजह थी, मेरा मध्यमवर्गीय परिवार, मेरी मध्यमवर्गीय आशाएँ और आकांक्षाएँ, मेरी मध्यमवर्गीय प्राप्ति और अप्राप्ति की सोच ने मुझे पीछे से जकड़ लिया था। जो लड़के मुझे एक्शन में जाने के लिए बुलाने आए थे, वे लड़के भी रायगढ़ा के गुणपुर जंगल में नहीं गए। एक अदृश्य भय ने मुझे क्रांति से दूर कर दिया था।
आज ढ़लती उम्र में फिर से नागराजू बुला रहा हो, "आइए, एक्शन में चलेंगे।"
एक घूँट चाय पीने के बाद नागराजू ने कहा, "मैं जा रहा हूँ। पुलिस कभी भी यहाँ पहुँच सकती है। गाँव में उनके सी.आई.डी. की कमी नहीं है।"
विपिन उसकी बातों को अनसुना करके कहने लगा, "थोड़ी देर और बैठ जाओ। दो-चार बातें और करेंगे। बताओ, तुम्हारा घर-संसार कैसे चल रहा है।"
"यह नागराजू बिल्कुल मेरी तरह है क्योंकि इसके वर्तमान और मेरे अतीत में कोई फर्क नहीं है।" नागराजू हँसते-हँसते कहने लगा, "आजकल श्वेतलाना को मैं तेलगू सिखा रहा हूँ। अभी तक उसको लिखना-पढ़ना आ गया है।"
श्वेतलाना कौन है, जानते हो? नागराजू की पत्नी है वह। इसी गाँव के कंध जाती की लडकी। वह नागराजू के साथ जंगल के भीतर अपना घर बनाकर रहती है। इसलिए जब भी मैं नागराजू को देखता हूँ, मुझे मेरा अतीत याद आ जाता है। ना तो मैने सुरुबाली का नाम बदला था और ना ही मैं सुरुबाली को बदल पाया था। परन्तु नागराजू होशियार है पहले से उसने उस कंध लडकी का नाम बदलकर श्वेतलाना रख दिया है।
मुझे याद आ गई विपीन की पहली चिट्ठी की बातें अक्षरशः..... मैने घर के लिए मिट्टी खोदी, सुरुबाली ने मिट्टी का घोल तैयार किया। अभी सुरुबाली के साथ मिलकर मैं खेत तैयार कर रहा हूँ। अगले साल मैं बैलों की एक जोडी लेकर खेती का काम शुरु करुँगा। अभी हम प्रकृति पुरुष बन गए हैं। दिन भर खेतों में मेहनत कहते हैं, मिट्टी खोदकर मेंड बनाते हैं। टगबग-टगबग चावल पकते समय सुरुबाली अपने गाल घुटनों के ऊपर रखकर चूल्हे की तरफ देखती रहती है और दूर बैठकर ढिवरी की रोशनी में, मैं कविता लिखता हूँ।
मुझे आश्वस्त करके नागराजू चला गया। मेरे और विपिन के मुँह से कोई आवाज नहीं निकल रही थी। सामने के ब्लैक बोर्ड पर कई साल पहले से अंकगणित के कुछ अनसुलझे सूत्र
लिखे हुए थे। किसी ने उसको मिटाने की भी आवश्यकता नहीं समझी।
बहुत देर बाद विपिन ने एक दीर्घश्वास छोडी और कहने लगा, "तुम तो एक कहानीकार हो। तुम ही इस बात का उत्तर दे सकते हो। बताओ तो ऐसा क्यों होता है? समय के अजस्र स्रोत के भीतर निरंतर एक ही कहानी की बारम्बार-बारम्बार पुनरावृत्ति क्यों होती है?
मेरे पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। मैने केवल एक लंबी साँस छोड़ी।