राष्ट्रगानः कितना राष्ट्रीय / कमलेश पुण्यार्क
आज हम सब स्वतन्त्रता की ६६वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। इस पावन वेला में जरा गम्भीरता से विचारें,पवित्र सम्माननीय तिरंगे तले एकत्र होकर, लम्बे समय से जो गीत हम सब गुनगुनाते चले आ रहे हैं, किसे याद कर रहे हैं? किसे सम्मानित कर रहे हैं? किसका गुणगान कर रहे हैं? कभी सोचा आपने?
इस विचार के लिए बहुत प्रबुद्ध होना जरूरी नहीं है। हिन्दी भाषा का अति सामान्य ज्ञान रखने वाला भी इसके अर्थ पर विचार कर सकता है। क्यों कि यह कोई दुरूह वैदिक मन्त्र नहीं है,जिसे गुरू ने धीरे से कान में फूँक दिया हो,और बुदबुदाते हुए चुपचाप जपते रहने का आदेश देदिया हो। अर्थ पर विचार करने के लिए राष्ट्रवादी अथवा राष्ट्रद्रोही,कांग्रेसी अथवा भाजपेयी,दक्षिण अथवा वाम, कुछ भी होने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यक है,सिर्फ विचारक होना- एक भोला-भाला और ईमानदार विचारक,जो अपने अन्तर की आवाज को(प्रतिध्वनि नहीं) सुनने की क्षमता रखता हो।
जब से थोड़ी समझ आयी,यानी बचपन से ही,स्कूल के बेंत हिलाते,पान चबाते, धोती का एक छोर फहराते सह प्रधानाध्यापक की लाल-लाल घूरती आँखें,याद दिलाती रही इस गीत की महिमा;किन्तु जैसे-जैसे बड़ा होता गया, वैचारिक प्रश्न चिह्न भी आकार लेता गया। फलतः अन्तर मन कभी स्वीकार न कर सका। यही कारण था कि स्कूल में प्रार्थना पूरी हो जाने के बाद पहुंचता,और लगभग नित्यप्रति उनकी बेंत खाता। संयोग से एक दिन,वहीं स्कूल लाईब्रेरी में हीं एक बहुत पुरानी पत्रिका हाथ लग गयी,मानों मुझे ‘कारू का खजाना’ मिल गया। पत्रिका थी- ‘तत्ववोधिनी, जनवरी,1912 जिसके सम्पादक स्वयं गुरूदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर ही थे। उसमें छपी हुयी थी- पांच अन्तराओं वाली विस्तृत कविता। गुरूदेव की पूरी कविता का रसास्वादन किए वगैर,अपने राष्ट्रगान की आत्मा की अनुभूति शायद हमें न हो पाए,अतः पहले उस दिव्य गीत-सरिता में अवगाहन कर ही लिया जाए,फिर अपनी अज्ञानता अथवा मूढ़ता से परिचय कराऊँ। कारण, जिसे राष्ट्र के दिग्गजों ने राष्ट्रगान का दर्जा दिया,उसे मेरा मन अभी भी क्यों नहीं स्वीकार कर रहा है? क्यों पिटता रहा गुरूजी से?और अब भी अन्धश्रद्धा नहीं जुटा पा रहा हूँ! खैर,पहले आप गीत-सरिता में डुबकी लगालें---
‘‘जन गण मन अधिनायक, जय हे भारत भाग्य विधाता!
पंजाब सिंधु गुजरात मराठा, द्राविड़ उत्कल वंग
विंध्य हिमाचल यमुना गंगा, उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे, तव शुभ आशिष मांगे,
गाये तव जय गाथा,जन गण मंगल दायक जय हे भारत भाग्य विधाता!
अहरह तव आह्वान प्रचारित,शुनि तव उदार वाणी,
हिन्दु बौद्ध शिख जैन पारसिक,मुसलमान ख्रिस्तानी,
पूरब पश्चिम आसे,तव सिंहासन पाशे,प्रेम हार हय गाथा!
जन गण ऐक्य विधायक जय हे,भारत भाग्य विधाता!
जय हे,जय हे,जय हे......
पतन अभ्युदय बन्धुर पंथा,युग युग धावित यात्री,
हे चिर सारथी तव रथ चक्रे,मुखरित पथ दिन रात्रि
दारूण विप्लव माझे,तव शंखध्वनि बाजे,संकट दुःख परित्राता,
जन गण मन परिचायक जय हे,भारत भाग्य विधाता!
जय हे जय हे जय हे......
घोर तिमिर घन निविड़ निशीथे,पीड़ित मूर्छित देशे,
जाग्रत छिल तव मंगल अविचल,नत नयने अनिमेषे,
दुःस्वप्ने आतंके,रक्षा करिले अंके स्नेहमयी तूमि माता!
जन गण दुःख परित्रायक, जय हे जय हे जय हे....
रात्रि प्रभातिल उदिल रविच्छवि पूर्व उदयगिरि भाले,
गाहे विहंगम पुष्प समीरण,नव जीवन रस ढाले,
तव करूणारूण रागे,निद्रित भारत जागे,तव चरणे नत माथा!
जय जय जय जय हे राजेश्वर भारत भाग्य विधाता!
जय हे जय हे जय हे जय जय जय जय हे!’’ ‘तत्ववोधिनी’ का पन्ना फहराते तितली की तरह फुर से उड़ चला, मयूर की तरह नाचते हुए। खुशी में इतना मदहोश हो गया कि पीछे से आती, लाईब्रेरियन घोषाल सर की पुकार जरा भी सुनाई न पड़ी। दौड़ते हुए सीधे पहुंचा शर्मा सर के चेम्बर में- ‘सऽऽर!ये देखिए,गुरूदेव का पूरा गीत...अब आप ही बतलाइये...आप हिन्दी-सर हैं,इस गीत में किसकी प्रसस्ति गायी गई है?’
शर्माजी कभी सामने खुली पड़ी पत्रिका को देखते, कभी अपने निरुत्तरित आँखों से मेरे उत्साहित चेहरे को,जिसे तुष्ट करने हेतु समुचित उत्तर शायद उनके पास न था। इसी बीच पीछा करते घोषाल सर आधमके, ‘ऐयी असभ्य छेले पोत्रिका उडि़ये लिये छे। ’ लाइब्रेरियन की शिकायत सुन,शर्माजी आपे से बाहर हो गए। उठाये अपना बेंत और सोंट डाला सिर से पैर तक। आखिर एक निरुत्तर शिक्षक कर भी क्या सकता है? और माध्यमिक कक्षा के विद्यार्थी के लिए मार खा कर चुप रह जाने के सिवा दूसरा चारा भी क्या था? मुंह लटकाये बाहर आ गया,और फिर सप्ताह भर तक स्कूल न गया। सप्ताह भर के ‘निज नजरबन्द’ में इत्मिनान से बैठ कर एक टूटा-फूटा लेख लिखा।
कोई दो माह बाद स्कूल में ‘ऐनुअल फंक्शन’ था। इस कार्यक्रम में सदा से भाग लेता आ रहा था। घिसे-पिटे संस्कृत के पांच-दस श्लोक बोलकर प्रथम पुरष्कार का मैं सदा से इकलौता दावेदार था। क्यों कि ‘संस्कृत रेशीटेशन’ में किसी अन्य सहपाटी की अभिरूचि न थी। किन्तु इस बार मैंने कुछ और ही ठान लिया था। थोपे गये तथाकथित राष्ट्रगान पर पुनर्विचार के लिए मंच की तलाश थी। वह छोटा सा लेख स्कूल के उस मंच पर ही रख दिया। सात मिनट के क्षुद्र भाषण के पश्चात् तालियाँ तो गड़गड़ायीं, मगर साथ ही कई जोड़ी आँखें घोंट कर पी जाने को भी बेताब नजर आयीं। सह प्रधानाध्यापक,शर्माजी के लिए नंगी चुनौती थी, क्यों कि खास कर ‘खादी वर्दी’ राष्ट्रप्रेमियों को ईंगित कर सवाल उठाया गया था।
संस्कृत रेशीटेशन के प्रथम पुरष्कार विजेता को इस बार थोड़ी सी तालियाँ ही मिली,और साथ में मिला ‘भावी देशद्रोही’ का तगमा। किन्तु इस तगमें ने राष्ट्रगान के साथ ‘देशद्रोही’ की भी परिभाषा पर विचार करने पर विवश कर दिया।
उच्चतर माध्यमिक परीक्षा के बाद उस ‘अभद्र’ लेख को लेकर कितने ही पत्र-पत्रिकाओं का द्वार खटखटाया ,किन्तु कहीं शरण न मिला। विगत वर्षों में विज्ञान और तकनीकि में अभूतपूर्व-अप्रत्याशित तरक्की हुयी है। अन्तरराष्ट्रीय महाजाल -इन्टरनेंट ने बहुत ही आसान बना दिया सम्पर्क और संचार को। सोशल नेटवर्क साइटों ने निःशुल्क फेशबुक,ब्लॉग ट्वीटर, जैसी बहुआयामी सुविधा प्रदान कर स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के लिए सुगम मंच सर्वसाधारण को उपलब्ध करा दिया। फलतः मेरे जैसा साधारण व्यक्ति भी इसका उपयोग करने में सक्षम है। इस तकनीकि साधन का उपयोग करते हुए,उस पुराने ‘प्रश्नचिह्न’ को ही ‘अकुलाहट’ के नव मंच पर रख रहा हूँ।
राष्ट्रगानःःकितना राष्ट्रीय
राष्ट्रगान शब्द अपने अन्दर गम्भीर अर्थ संजोये हुए है,जो प्रेम, एकता,भक्ति और न जाने कितने उदात्त भावों का प्रतीक है। इसकी विशिष्ट सीमा है,विशिष्ट नियम हैं,और कई अन्तर-वाह्य विशेषताएँ भी। राष्ट्रगान प्रभुसत्ता और देशप्रेम का प्रतीक भी है। राष्ट्रगान और देशप्रेम में ‘समवाय सम्बन्ध’ है। स्वराष्ट्र के प्रति अनन्यप्रेम और समर्पण ही इसका धर्म है। गर्मी से रहित आग का क्या मतलब? वैसे ही देशप्रेम से रहित राष्ट्रगान का भी कोई औचित्य नहीं,कोई अर्थ नहीं,कोई महत्त्व नहीं।
राष्ट्रीयता की कसौटी पर परखने से पूर्व इसके उद्भव और विकास पर एक नजर डाल लेना उचित होगा। सन्1838 में श्री सतेन्द्रनाथ ठाकुर (श्री रविन्द्र नाथ ठाकुर के अग्रज) ने ‘हिन्दु मेला’ के अवसर पर एक गीत लिखा था,जिसके बोल थे- ‘चल चल रे सब भारत संतान...। ’ यह ‘मार्चगीत’ था। राजनारायण वसु की किताब की आलोचना के क्रम में स्वयं श्री बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने इस गीत की प्रसंसा की है।
‘ वन्दे मातरम्’ और ‘जन गण मन’ के बाद इस गीत के प्रति भी लोगों की आस्था है। इसी गीत से प्रेरित होकर रविबाबू के परिवार की एक महिला, सरला देवी ने एक अन्य राष्ट्रगीत लिखा:-
‘बंग बिहार उत्कल मराठा,गुर्जर पंजाब राजस्थान,
हिन्दु पारसी जैन ईसाइ सिख मुसलमान,
गावो सकल कंठे सकल भावे,नमो हिन्दुस्तान,
जय जय हिन्दुस्तान,नमो हिन्दुस्तान!’
इस गीत का जोरदार असर गुरुदेव पर हुआ,और दिसम्बर 1911 में पंचपदीय एक गीत लिख डाला, ‘ब्राह्म संगीत’,जिसका प्रकाशन जनवरी 1912
ई.में,निज सम्पादकत्व में किए। सम्पूर्ण गीत से हम पहले ही परिचय करा चुके हैं। प्रकाशन के शीघ्र बाद ही,उसी महीने ‘माघोत्सव’ के अवसर पर महर्षि भवन में इस ब्राह्मसंगीत के गायन का अवसर मिला। ध्यातव्य है कि मूल गीत की शब्दावली में थोड़ा सा परिवर्तन किया गया था -‘जय जय जय हे जय राजेश्वर, भारत भाग्य विधाता- की जगह, ‘जय जय जय हे जय विश्वेश्वर,मानव भाग्य विधाता’। (भारत पथिक: रवीन्द्रनाथ) हालांकि इसके पूर्व,गीत रचना के तत्काल बाद ही) दिसम्बर 1911 ई. में कलकत्ता में कांग्रेस के 26वें अधिवेशन के प्रारम्भ में ‘वन्दे मातरम्’ का गायन,और दूसरे दिन ‘जन गण मन’ का गायन तथा तीसरे दिन सरला देवी का गीत ‘नमो हिन्दुस्तान’ का गायन श्री अमल घोष के द्वारा किया गया था। उस समय तक शब्दावली में हेर-फेर नहीं हुआ था।
गीत का उद्भव तो हम जान चुके,अब विकास की गति भी नाप लें। इतिहास आगे बढ़ा। ‘बंग-भंग’ इतिहास के पन्नों में चला गया था। 1905 अतीत बन चुका था।
जमाना 1937 का आया। गोरी चमड़ी ने कांग्रेस को स्वायत्त शासन के लिए आहूत किया। और तब कमी खटकी- अपना कोई स्वतन्त्र गीत होना चाहिए। बंकिम बाबू के ‘वन्दे मातरम्’ में हिन्दु साम्प्रदायिकता और बुत्तपरस्ती की बू आ रही थी,मुस्लिम लीग और कुछ अन्य ‘लीगियों’ को भी। समस्या के समाधान के लिए ‘रविदादा’ की राय ली गयी। पक्ष-विपक्ष हंगामे हुए। रविबाबू ने 2 नवम्बर 1937 ई.को प्रेस वक्तव्य जारी किया,जिसमें बंकिम बाबू के बहुचर्चित उपन्यास ‘आनन्दमठ’ की चर्चा की गयी,जहाँ मूल रूप में ‘वन्देमातरम्’ अपने पूर्ण कलेवर में अंकित है। उनका कहना था कि इस वन्दना से राष्ट्र की एकता और अखण्डता को अक्षुण्ण रखने में अड़चन है।
काश! ऐसा हुआ होता। भारत ही नहीं अखण्ड भूमण्डल जानता है,कि हम कितने अखण्ड रह पाए! और आनन्दमठ के सुधी पाठक भी अच्छी तरह जानते हैं कि बंकिम बाबू ने किन औपन्यासिक परिस्थिति में क्या कहना चाहा है;और साथ ही रविदादा की मनसा भी जाहिर है। महाकवि निराला के शब्दों में कहें तो अधिक स्पष्ट हो- ‘रविबाबू बड़े बाप के बेटे हैं,क्या वैसी प्रतिभा मुझमें नहीं?’ अंग्रेजों के चाटुकारों को बड़े-बड़े खिताबों से नवाज़ा गया, ‘नोबल पुरष्कार’ में भी क्या वही ‘मदमस्त’ गंध नहीं मिला किसी राष्ट्रभक्त को?
1938 ई.बंकिम बाबू की जन्म शताब्दी का वर्ष था। इस अवसर पर राष्ट्रगीत का अंग-भंग बंगाल वासियों को रास न आया। इस विषय को लेकर तरह-तरह के दुस्प्रचार शुरु हो गये। नेताजी सुभाष पहले से ही सशंकित थे। 1937 में ही रविबाबू और रामानन्द चट्टोपाध्याय को पत्र द्वारा निवेदन किए थे,कि पं.नेहरू को स्थिति से अवगत कराकर समुचित सुझाव दिए जाएँ। किन्तु बात किन्तु-परन्तु में ही अटकी रह गई। और इसी तरह सन् 1946 ई. आ गया। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि मंडल को राष्ट्रगान की धुन बजाने का मौका मिला,किन्तु उस समय तक भारत का पूर्णतः घोषित कोई राष्ट्रगान था ही नहीं। आनन-फानन में अस्थायी तौर पर ‘जन गण मन’ को चुन लिया गया। ‘वन्दे मातरम्’ प्रतिद्वन्द्विता में यहाँ भी पीछे खड़ा रह गया। प्रतिस्पर्द्धा का आधारविंदु बना- १.गेयता २.सरलता ३.संक्षिप्तता ४.सारगर्भिता ५.सरसता ६.ग्राह्यता ७.तरलता और ८.राष्ट्रीयता। किन्तु इन आठ जाँच चक्रों से गुजार कर आँख मूद कर वरीयता दी गयी ‘रवीन्द्र संगीत’ को। वैसे सच पूछें तो ‘चाटुकारिता’ सर्वोत्तम गुण होता है,किसी कार्य के लिए,क्यों कि इसमें विजय की सर्वाधिक सम्भावना सदा रहती हैं। बहुत अच्छे-अच्छे लोग,अच्छी-अच्छी चीजें, खास कर अच्छी-अच्छी रचनायें सिर्फ इस एक गुण के अभाव में पिछली पंक्ति में ठेल दी जाती हैं।
खैर,देश की दुर्भाग्य सूची में स्वर्णाक्षरों में एक और शब्द जुड़ गया-‘राष्ट्रगान’। २४ जनवरी १९५० ई.को संविधान सभा अध्यक्ष डॉ.राजेन्द्र बाबू ने सर्वसम्मति जता कर राष्ट्रगीत घोषित कर दिया;और तब से भारत का भोला जन मानस थिरकता आ रहा है, इसके मोहक धुन पर।
हालांकि ऐसी बात नहीं है कि आज पहली बार मैं विचार करने बैठा हूँ,मैं विचारक हूँ भी नहीं,मैं सिर्फ सोच रहा हूँ,अपने भाषायी ज्ञान में कमी तलाश रहा हूँ। हो न हो कोई गूढ़ और ‘दिव्य’ शब्द हों इस गीत में जिन्हें समझने में परेशानी हो रही है। अब से पूर्व अगनित बार बुद्धिजीवियों ने यथा सम्भव शोर मचाया है,किन्तु ‘नक्कारखाने’ में तूती की आवाज की तरह उनका शोर कहीं दब कर रह गया है। जनता जब भी शोर मचाई, ‘राष्ट्र’ के खतरे का साइरन बज उठा। राष्ट्रीय एकता और अखण्डता का ‘क्लोरोफॉर्म’ सुंघा कर बेसुध कर दिया गया। सत्तायी विसंगतियों पर प्रबुद्धजन ने जब भी अंगुली उठायी सत्ताधरियों के देशप्रेम का मुखौटा कांपने लगा। हमारा ‘प्रजातन्त्र’ भी बड़ा विचित्र है,कटु सत्य उद्घाटित होते ही डगमगाने लगता है। राष्ट्र खतरे में पड़ जाता है। और उसे सम्भालने के लिए ‘सत्यवक्ता को राष्ट्रद्रोही’ सिद्ध करना सत्ताधारी की मजबूरी हो जाती है। आखिर करे भी तो क्या? राष्ट्र बचे ना बचे कुर्सी तो बचानी ही है। कानून की बेतरतीब चौआलिस पैंतालिस धाराओं से जनता सचेत नहीं होती,मजबूर होकर सोते में वार करना पड़ता है,भीड़ को ‘अभीड़’ करने के लिए।
राष्ट्रगान के प्रति जनास्था जगाने के लिए शुरू में कई मज़ेदार प्रयोग किए गए- ‘आकाशवाणी’ से लेकर सिनेमा हॉल तक। रेडियो कार्यक्रम का प्रारम्भ वन्देमातरम् से और समापन जन गण मन से करने का नियम बना। अब जरा सोचें सुबह-सुबह वन्देमातरम् का सुमधुर स्वर सारे दिन के लिए ताजगी भर कर हमें खड़ा कर देता है,पवित्र भारत भूमि की शस्य श्यामल हरीतिमा अद्भुत स्फूर्ति जगा देती है रग-रग में,और दूसरी ओर रात की घनेरी,11-12 का वक्त,दिन भर के थकान के बाद जवान हो या किसान,किरानी हों या कमिश्नर,मंत्री हों या संतरी चैन की चादर ओढ़े, रेडियो के मधुर संगीत में डूबा है- हर स्रोता,और तभी अचानक राष्ट्रगान बजने लगे,ऐसे में कौन भला मानस अपनी नींद हराम करने के लिए सम्मान में उठ खड़ा होना चाहेगा? हर कोई यही सोचेगा- बेडरूम में कोई झांकने आरहा है ! उधर सिनेमा हॉल में - शुरू में तो कुछ नहीं,किन्तु फिल्म समाप्ति पर तिरंगा लहराने लगता है,और रविबाबू वाला ‘रामधुन’ बजने लगता है। दर्शक तीन घंटे के बाद जल्दी बाहर भागना चाहता है,किसी को ‘कुछ और’ की तलब है,ऐसी विकट स्थिति में दो मिनट की सावधान मुद्रा किसे भायेगी? और परिणाम? राष्ट्रगान के साथ तिरंगे का भी अपमान। लगभग दर्शक ‘अबाउट टर्न ’ होने लगे- तब दरवाजे बन्द किए जाने लगे। मगर दरवाजे बन्द कर किसी की आत्मा को कैद नहीं किया जा सकता। खैर,बाद में इस बेढंगे ढंग को बन्द कर दिया गया।
अपेक्षाकृत गेयता गुण के कारण इसे वरीयता दी गयी। तो क्या किसी लोकप्रिय फिल्मी गीत को भी इस गरिमामय पद पर प्रतिष्ठित कर दिया जाए, जिसे अन्य भाषा भाषी का बच्चा भी आसानी से गा सके? ग्राह्यता,सरलता, संक्षिप्तता आदि सभी गुण अनेक गीतों में पाए जाते हैं, उन्हें भी राष्ट्रगीत का ताज पहना दें? सर्वाधिक सारगर्भिता तो प्रणवाक्षर ‘ऊँ’ में है,इसे ही ग्रहण कर लें? उक्त आठ आधार गुणों में सबसे महत्त्व पूर्ण है- राष्ट्रीयता। मातृभूमि वन्दना के साथ राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत होना पहली कसौटी होनी चाहिए।
अब जरा सोचें- हम क्या गाये जा रहे हैं? कहाँ है मातृभूमि की वन्दना? कहाँ है राष्ट्र के प्रति कोई उद्गार? वस्तुतः हम भारतमाता को नहीं,तथाकथित उसके भाग्य विधाता को याद कर रहे हैं। राजराजेश्वर पंचम जॉर्ज को याद कर रहे हैं। जगज्जननी जगदम्बा को नहीं- महारानी विक्टोरिया को याद कर रहे हैं। गंगा यमुना की उत्ताल तरंगें,विंध्य-हिमाचल के उच्च शिखर किससे आशीष मांग रहे हैं? युग-युग धावित यात्री,चिर सारथी कौन है? क्या वही नहीं जिसके राज्य में अस्त होने में सूर्य भी संकोच करता है? क्यों कि पूरब-पश्चिम दोनों उसके सिंहासन के आसपास हैं।
कितने शर्म की बात है कि जिसने मेरी माँ के दाएं-बाएं दोनों हाथ काट कर सदा सदा के लिए विलखने को छोड़ दिया,उसकी हम भर्तस्ना करने के वजाय प्रसस्ति गान किए जा रहे हैं,वह भी अपने पवित्र तिरंगे तले! ऐतिहासिक अशोक चक्र को संजोये,शश्य हरीतिमा,केसरिया शौर्य,श्वेत शान्ति सन्देश देते तिरंगे का भी हम अपमान करने में जरा भी लज्जित नहीं हो रहे हैं?
बेशर्म शर्माते भी नहीं हैं। बल्कि कुछ ज्यादा ही बोलते हैं। स्वीकृति और घोषणा से पूर्व जम कर जन विरोध हुआ था। रविबाबू ने सफाई भी दी- ‘‘जो लोग मुझे इतना बड़ा मूर्ख समझते हैं कि मैं जॉर्ज की स्तुति करूंगा, यदि मैं उन लोगों को उत्तर देने की चिन्ता करूँ,तो इसमें मेरा अपमान है। ’’ यह बात मूर्ख समझने की है, या सच में मूर्खतापूर्ण है -- क्या इस पर बारम्बार विचार करना अराष्ट्रीयता है? सत्य को सत्य कहना राष्ट्रद्रोह है?
यदि नहीं तो,निष्पक्ष भाव से,निःस्वार्थ भाव से एक बार फिर पुनर्गठित होकर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है--राष्ट्रगान कितना राष्ट्रीय है?
जय हिन्द==वन्देमातरम्