राष्ट्रभाषा और उर्दू / शिवपूजन सहाय

Gadya Kosh से
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इस देश में हिन्दू और मुसलमान सदियों से साथ रहते आये हैं। भारत के खण्डित हो जाने पर भी उसके अनेक प्रान्तों में लाखों मुसलमान अब भी हैं। प्रायः सभी जगहों में वे हिन्दुओं के पड़ोसी हैं। राजनीतिक आन्दोलनों के पहले तो वे बहुत ही अच्छे पड़ोसी थे। भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भी उनकी सहृदयता और उदारता सराहनीय थी। पर्व-त्योहारों में भी उनके साथ कोई भेदभाव न था। हिन्दुओं की आदर्श सहिष्णुता से उन्होंने बराबर लाभ उठाया। आज भी, पाकिस्तानी भावना का जहर फैल चुकने पर भी, उनके साथ लेन-देन का रोजगार हर जगह चालू है। उनके धर्मिक उत्सवों में अब भी यथासम्भव सहयोग और भाईचारा कायम है। अब भी दोनों बहुत दूर तक एक-दूसरे के सुख-दुःख में साथी हैं। सैकड़ों वर्ष से दोनों के बोलचाल की भाषा एक रही है। दोनों की भाषा में पहले केवल लिपि का ही भेद था। कई लेखकों और कवियों की उर्दू-रचनाएँ ऐसी हैं, जो अगर नागरी-लिपि में लिख दी जाएँ, तो मुहावरेदार सरल हिन्दी की ही एक शैली प्रतीत होंगी। लिपि की दीवार हटा देने पर बहुत-सी उर्दू की रचनाएँ हिन्दी की हो जाएँगी। अगर कुछ भेद कहीं मालूम भी होगा, तो वह साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के लेखकों के दुराग्रह का परिणाम ही होगा; क्योंकि जब से पारस्परिक सद्भाव विषाक्त होने लगा, तभी से दोनों की भाषा के स्वरूप में पार्थक्य बढ़ने लगा। लिपि की दीवार हटते ही यह पार्थक्य स्पष्ट दृष्टिगोचर होगा। केवल फारसी-लिपि ने हिन्दी को उर्दू के नाम से साम्प्रदायिक भाषा बना दिया है। अरबी, फारसी-लिपि में लिखकर उसे उर्दू के नाम से पुकारना और क्षेत्रीय भाषा कहना एक नया झगड़ा करना है। उर्दू तो बहुत दिनों से हिन्दी की मुसलमानी शैली मानी जाती है, पर पहले कभी इसका विरोध नहीं हुआ। अब जान-बूझकर जोर-जबरदस्ती से भारत की तरह भाषा का रूप भी खण्डित किया जा रहा है। जमीन का पाकिस्तान बनने से तो राष्ट्र में अशान्ति बढ़ ही रही है, जबान का पाकिस्तान बनने पर वह अशान्ति और भी बढ़ती रहेगी। इसलिए दोनों पक्ष के शान्तिप्रिय साहित्य-सेवी समझ-बूझकर राष्ट्रीय एकता को खतरे से बचाने की कोशिश करें।

यदि विचारपूर्वक देखा जाय, तो उर्दू केवल दुर्बोध लिपि और अरबी-फारसी के क्लिष्ट शब्दों के जाल में फँस जाने के कारण ही राष्ट्रभाषा हिन्दी से अलग नजर आती है। यदि अप्रचलित, अपरिचित और दुरूह शब्दों के प्रयोग का दुराग्रह न हो, तो हिन्दू-मुस्लिम जनता की भाषा में विशेष भेद न रहेगा। जब से व्यावहारिक भाषा पर भी साम्प्रदायिकता का भार पड़ने लगा, तब से खींचतान बढ़ती ही जा रही है। जहाँ सिर्फ नाम का ही भेद था, वहाँ रूप और प्रकृति में भी भेद डालने की नीयत से बीच में खाई खोदी जाने लगी, और वह खाई दिन-दिन चौड़ी होती जा रही है। इससे राष्ट्र के साथ-साथ राष्ट्रभाषा का भी अंग-भंग होगा। यह संकट राष्ट्रीय एकता के लिए घातक हो सकता है।

सच पूछिए, तो अरबी और फारसी का आगमन कभी अरब और फारस से हुआ होगा, मगर उर्दू तो सोलहों आने भारत की ही उपज है। उसे कोई फौजी छावनी की भाषा कहे या बेगमों के महल की, मगर यह शुरू में ‘बाबू इंगलिश’ की तरह मुसलमानी हिन्दी के सिवा और कुछ नहीं थी। जनभाषा तो उस समय भी हिन्दी ही थी। खुसरो, कबीर, जायसी, रहीम, आदि इसके प्रमाण हैं। यह कदापि नहीं कहा या माना जा सकता कि लश्कर के बाजार में या शाही दरबार में सिर्फ अरबी-फारसी का व्यवहार होता था, जनभाषा का वहाँ गजर नहीं था। जनभाषा हिन्दी में ही अरबी-फारसी के मेल-जोल से मुसलमानी रंगत आ गई। उसी को मुसलमान भाई उर्दू कहने लगे। हिन्दुओं की ‘खड़ीबोली’ ही मुसलमानों में ‘उर्दू’ कहलाने लगी। ‘खड़ीबोली’ के क्षेत्रा में ही उर्दू पैदा हुई थी। वास्तव में वह ‘खड़ी बोली’ (हिन्दी) का ही मुसलमानी रूप है। इस तरह उर्दू तो हिन्दी की मुसलमानी शैली का ही पुराना नाम है। उसके क्रियापद, अव्यय, मुहावरे, तद्धित, कृदन्त आदि हिन्दी-व्याकरण के अत्यन्त निकट हैं। दुर्गम लिपी और अरबी-फारसी की बाहरी पोशाक उतार देने पर उसकी गठन बस हिन्दी की ही है। उसको ब्रजभाषा और अवधी की तरह श्रेत्रीय भाषा नहीं कह सकते। हिन्दी-क्षेत्र की विभिन्न बोलियों से अलग उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। पुराने समय के हिन्दू और मुसलमान, अपनी-अपनी अलग भाषा नहीं मानते थे, लिपि भले ही भिन्न रही हो। आज भी मलिक मुहम्मद जायसी का ‘पद्मावत’ फारसी-लिपि में लिखा मिलता है पर वह अवधी भाषा का प्रसिद्ध काव्य-ग्रन्थ है। फारसी-लिपि के माध्यम से मुसलमानों ने हिन्दी की खूब सेवा की थी। यों तो मुसलमान कवियों की साहित्य-सेवा से हिन्दी का इतिहास उज्ज्वल है, और हिन्दू-साहित्यकारों की सेवा से उर्दू का इतिहास भी खूब जगमगा रहा है। पंजाब के हिन्दू-घरानों में सभी रामायण-महाभारत की कथाएँ भी फारसी-लिपि में ही पढ़ी जाती थीं। लिपि और भाषा का झगड़ा तो शुद्ध साम्प्रदायिक है। बुगदादी भाषा लिखने-बोलनेवालों की हठधर्मी से उर्दू की अलग हस्ती कायम की जा रही है, नहीं तो भाषाशास्त्रियों के मतानुसार वह राष्ट्रभाषा हिन्दी का ही अभिन्न अंग है।

यह बात भी प्रत्यक्ष ही सिद्ध है कि देवनागरी-लिपि में लिखी जाने पर उर्दू कहीं की क्षेत्रीय भाषा न रहकर राष्ट्रभाषा के कक्ष में चली जायगी। देवनागरी उसे अमृत पिला देगी। भेदभाव की भीति भूमिसात हो जाएगी। दोनों पक्ष के लोग एक-दूसरे की संस्कृति से परिचित हो जायँगे। दिन-दिन बढ़ता हुआ वैमनस्य क्रमशः विलीन हो जायगा। आपस के मनोमालिन्य की खाई पट जायगी। किन्तु वर्तमान काल के वातावरण एवं लक्षण से ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दीवालों की सद्भावना भी शंका-सन्देह की दृष्टि से देखी जा रही है। तब भी हिन्दीवालों को चाहिए कि उर्दू को अपने से अलग न होने दें; क्योंकि वह हिन्दी की ही एक सुहावनी शैली है। और, जिस दिन राष्ट्रभाषा के हितैषियों की ओर से, फारसी-लिपि में छपी उत्तमोत्तम साहित्यिक पुस्तकें देवनागरी-लिपि में छपकर प्रकाशित होने लगेंगी, उसी दिन हमारे मुसलमान भाई यह अनुभव करने लगेंगे कि जिस भाषा पर वे खास अपनी छाप लगाते हैं, वह हिन्दी की एक विशिष्ट शैली के सिवा और कुछ नहीं है। उर्दू की अच्छी-से-अच्छी किताबों को देवनागरी-लिपि में, टीका-टिप्पणी और गवेषणापूर्ण भूमिका के साथ, प्रकाशित कर देने पर राष्ट्रभाषा का वह खजाना आसानी से वापस आ जायगा, जो फारसी-लिपि की चीनी दीवार के पीछे छिपा पड़ा है। अन्त में, देवनागरी के सहारे अपनी भाषा की व्यपकता बढ़ते देखकर, आशा है, मुसलमान भाई भी हमारी बात का तथ्य समझ जायँगे। उनका यह भ्रम भी दूर हो जायगा कि देवनागरी से उनकी सांस्कृति हानि होगी। उनकी फारसी लिपि तो सदा के लिए बनी ही रहेगी। साहित्यिक दृष्टि से फारसी बहुत समृद्ध भाषा है। उसके पढ़नेवाले उसी की लिपि के सहारे उससे लाभ उठावेंगे। इधर देवनागरी के बल पर इस्लामी संस्कृति भी समस्त राष्ट्र में उजागर हो जायगी।

हाँ हिन्दीवालों की ओर से उर्दू के विरोध का भी कोई प्रश्न नहीं है। कोई अंगी अपने ही किसी अंग से विरोध क्यों करेगा? विरोध तो उर्दूवालों की ओर से ही आगे बढ़ाया गया है। हिन्दीवाले तो बराबर उर्दू को अपनाते आये हैं। आज भी हिन्दीवालों में ऐसे बहुतेरे हैं, जो केवल हिन्दी के माध्यम से उर्दू-साहित्य का अच्छा ज्ञान रखते हैं। हिन्तु मुसलमान भाइयों में ऐसे सज्जन बहुत कम ही होंगे, जो केवल फारसी-लिपि के माध्यम से हिन्दी-साहित्य अथवा भारतीय साहित्य का कुछ परिचय पा सके हाँे। हिन्दीवालों के मन में उर्दू के प्रति घृणा नहीं है, पर उर्दूवालों के मन में हिन्दी के प्रति काफी उदासीनता है। इसके लिए प्रमाणों की कमी नहीं है। उर्दू के लेखकों और कवियों को हिन्दीवाले बड़े शौक से पढ़ते हैं और उनमें कितनों को प्यार भी करते हैं, पर उर्दूवालों में वैसे हिन्दी-साहित्यानुरागी शायद ही ढूंढ़े मिलेंगे। इन सब बातों से यह साफ जाहिर है कि राष्ट्रभाषा और उूर्द में कोई मौलिक भिन्नता नहीं है, और किसी प्रकार का साम्प्रदायिक विरोध भी नहीं है। अगर कोई ऐसे सपने देखता है, तो वह कभी भारत की राष्ट्रीय एकता का हिमायती नहीं हो सकता।

त्रैमा. ‘साहित्य’, पटना, अप्रैल, 1954