राष्ट्रमाता कस्तूरबा गांधी / महात्मा गांधी
जिन दिनों मेरा विवाह हुआ, छोटे-छोटे निबन्ध—पैसे-पैसे या पाई-पाई के, सो याद नही पड़ता—छपा करते। इनमें दांपत्य प्रेम, कमखर्ची बाल-विवाह इत्यादि विषयों की चर्चा रहा करती। इनमें से कोई-कोई निबन्ध मेरे हाथ पड़ता ओर उसे मैं पढ़ जाता। शुरू से यह मेरी आदत रही कि जो बात पढ़ने मे अच्छी न लगती उसे भूल जाता और जो अच्छी लगती, उसके अनुसार आचरण करता। यह पढ़ा कि एक-पत्नी व्रत का पालन करना पति का धर्म है। बस, यह मेरे हृदय मे अंकित हो गया। सत्य की लगन तो थी ही। इसलिए पत्नी को धोखा या भुलावा देने का तो अवसर ही न था और यह भी समझ चुका था कि दूसरी स्त्री से सम्बन्ध जोड़ना पाप है। फिर कोमल उम्र मे एक पत्नी व्रत के भंग होने सम्भावना भी कम रहती है।
कस्तूरबाई निरक्षर थी। स्वभाव उनका सरल ओर स्वतन्त्र था। वह परिश्रमी भी थी, पर मेरे साथ कम बोला करती। अपने अज्ञान पर उन्हे असंतोष न था।
१८ साल की अवस्था मे मैं विलायत गया। लम्बे ओर सुन्दर वियोग का अवसर आया। विलायत लौटने पर भी हम एक साथ तो छ: महीने मुश्किल से रहे होगे, क्योकि मुझे राजकोट-बम्बई बार-बार आना-जाना पडता था। फिर इतने मे ही दक्षिण अफ्रीका का निमन्त्रण आ पहुंचा।
१८९६ मे जब मैं देश आया था तब भेंटें मिली थी, पर इस बार की भेंटों और सभाओं के दृश्यों से मैं घबराया। भेंट मे सोने-चांदी की चीजे तो थीं हो, पर हीरे की चीजे भी थी।
इन सब चीजों को स्वीकार करने का मुझे क्या अधिकार हो सकता है? यदि मैं इन्हें मंजूर कर लूं तो फिर अपने मन को यह कहकर कैसे मना सकता हूं कि मैं पैसा लेकर लोगों की सेवा नही करता था?
मैं इस निर्णय पर पहुंचा कि वे चीजें मैं हरगिज नही रख सकता। पारसी रूस्तम जी इत्यादी को इन गहनों का ट्रस्टी बनकर उनके नाम एक चिट्ठी तैयार की ओर सुबह पुत्री-पुत्रादि से सलाह करके अपना बोझ हलका करने का निश्चय किया।
१८९६ ओर १९०१ मे मिली भेटें लौटाई उनका ट्रस्ट बनाया गया और लोक-सेवा के लिए उसका उपयोग मेर अथवा ट्रस्टियो की इच्छा के अनुसार होने की शर्त पर वह रकम बैक मे रखी गई।
इस बात के लिए मुझे कभी पश्चाताप नही हुआं। आगे चलकर कस्तूरबाई को भी उसका औचित्य जंचने लगा। इस तरह हम अपने जीवन में बहुतेरे लालचों से बच गये।
जिस समय डरबन में मैं वकालत करता था, उस समय बहुत बार मेरे कारकुन मेरे साथ ही रहते थे। वे हिन्दू और ईसाई होते थे अथवा प्रांतो के हिसाब से कहे तो गुजराती ओर मद्रासी। मुझे याद नही आता कि कभी उनके विषय मे मेरे मन मे भेद-भाव पैदा हुआ हो। मैं उन्हे बिल्कुल घर के ही जैसा समझता और उसमें मेरी धर्मपत्नी की ओर से यदि कोई विघ्न उपस्थित होता तो मैं उससे लड़ता था। मेरा एक कारकुन ईसाई था। उसके मां-बाप पंचम जाति के थे। हमारे घर की बनावट पश्चिमी ढंग की थी। इस कारण कमरे मे मोरी नही होती थी। इस
कारण कमरों मे मोरियो की जगह पेशाब के लिए एक अलग बर्तन होता था। उसे उठाकर रखने का काम हम दोनो—दंपंती का था, नौकरो का नहीं। हां, जो कारकुन लोग अपने को हमारा कुटुम्बी सा मानने लगते थे, वे तो खुद ही से साफ कर डालते थे, लेकिन पंचम जाति मे जन्मा यह कारकुन नया था। उसका बर्तन हमे ही उठाकर साफ करना चहिए था, दूसरे बर्तन तो कस्तूरबाई उठाकर साफ कर देती, लेकिन इन भाई का बर्तन उठाना उन्हे असह्य मालूम हुआ। इससे हम दोनो मे झगड़ा हुआ। यदि मै उठाता हूं तो उन्हे अच्छा नही मालूम होता था ओर खुद उनके लिए उठाना कठिन थ्रा। फिर भी आंखो से मोती की बूंदे टपक रही है, एक हाथ मे बर्तन लिये अपनी लाल-लाल आंखों से उलाहना देती हुई कस्तूरबाई सीढियों से उतर रही है, वह चित्र मैं आज भी ज्यों का त्यों खींच सकता हूं।
कस्तूरबाई पर तीन घातें हुई और तीनों मे वह महज घरेलू इलाज से बच गई। पहली घटना तब की है जब सत्याग्रह-संग्राम चल रहा था। उनकों बार-बार रक्त-स्राव हुआ करता था। एक डाक्टर मित्र ने नश्तर लगाने की सलाह दी थी। बड़ी आनाकानी के बाद वह नश्तर के लिए राजी हुई। शरीर बहुत क्षीण हो गया था। डाक्टर ने बिना बेहोश किये ही नश्तर लगाया। उस समय उन्हे दर्द तो बहुत हो रहा था, पर जिस धीरज से कस्तूरबाई ने उसे सहन किया, उसे देखकर दांतो तले अंगुली देने लगा।
नश्तर अच्छी तरह लग गया। डाक्टर और उसकी धर्मपत्नी ने कस्तूबा की बहुत अच्छी तरह सुश्रूषा की।
यह घटना डरबन की है। दो या तीन दिन बाद डाक्टर ने मुझे निश्चित होकर जोहांसबर्ग जाने की छुट्टी दे दी। मैं चला भी गया। पर थोड़े ही दिन मे समाचार मिला कि कस्तूरबाई का शरीर बिल्कुल सिमटता नही है ओर वह बिछौने से उठ-बैठ भी नही सकती। एक बार बेहोश भी हो गई थी। डाक्टर जानते थे कि मुझसे पूछे बिना कस्तूरबाई को शराब या मांस दवा अथवा भोजन मे नही दिया जा सकता था। सो उन्होने मुझे जोहांसबर्ग टेलीफोन किया, आपकी पत्नी को मैं मांस का शोरबा ओर बीफ टी देने की जरूरत समझता हूं। मुझे इजाजत दीजिये।
मैने जवाब दिया, "मैं तो इजाजत नही दे सकता, परन्तु कस्तूरबाई आजाद है। उनकी हालत पूछने लायक हो तो पूछकर देखिये और वह लेना चाहे तो जरूर दीजिये।
"बीमार से मैं ऐसी बातें नही पूछना चाहता। आप खुद यहां आ जाइये। जो चीजें मैं बताता हूं उनके खाने की इजाजत यदि आप न दे तो मैं आपकी पत्नी की जिदंगी के लिए जिम्मेदार नही।
यह सुनकर मैं उसी दिन डरबन रवाना हुआ। मैं कस्तूरबाई के पास गया। वह बहुत कमजोर हो गई थी। उससे कुछ भी पूछना मेरे लिए दुखदाई था। पर अपना धर्म समझकर मैने ऊपर की बातचीत उसे थोड़े मे समझा दी। उसने दृढ़ता पूर्वक जवाब दिया, "मैं मांस का शोरबा नही लूंगी। यह मनुष्य देह बार बार नही मिला करती। आपकी गोदी मे मैं मर जाऊं तो परवाह नहीं, पर अपनी देह को मैं भ्रष्ट नही होने दूंगी।"
मैने उसे बहुतेरा समझाया।
नश्तर लगाने के बाद यद्यपि कस्तूरबाई का रक्त-स्राव कुछ समय के लिए बन्द हो गया था। तथापि बाद को वह फिर जारी हो गया। अबकी वह किसी तरह मिटाये न मिटां। पानी के इलाज बेकार साबित हुए। मेरे उन उपचारों पर पत्नी की बहुत श्रद्धा न थी, पर साथ ही तिरस्कार भी न था। दूसरा इलाज करने का भी उसे आग्रह न था।
इसलिए जब मेरे दूसरे उपचारों मे सफलता न मिली तब मैने उसको समझाया कि दाल और नमक छोड़ दो। मैने उसे समझाने की हद कर दी।
अपनी बात के समर्थन में कुछ साहित्य भी पढ़कर सुनाया, पर वह नही मानती थी। अन्त मे उसे झुंझला के कहा, "दाल ओर नमक छोड़ने के लिए आपसे कोई कहे तो आप भी न छोडेंगे।"
इस जवाब को सुनकर एक ओर जहां मुझे दुख हुआ वहां दूसरी ओर हर्ष भी हुआ, क्योकि इससे मुझे अपने प्रेम का परिचय देने का अवसर मिला। उस हर्ष से मैंने तुरंत कहा, "तुम्हारा ख्याल गलत है। मैं यदि बीमार होऊं ओर मुझे यदि वैद्य इन चीजों को छोड़ने के लिए कहे तो जरूर छोड़ दूं।