राष्ट्रीय गाली / प्रतिभा सक्सेना

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'इत्ते दिन कहाँ रहीं भानमती? हमें लगा तुमने यह देश छोड़ दिया।'

'देश कहाँ छोड़ा, हम तो देस गये रहे। '

'ओह, अपने गाँव... खूब मौज कर आई हो! क्या हाल-चाल हैं?'

'मौज? ससुराल में मौज करे को कौन जाता है। क्या नहीं किया- कुट्टी काटने से ले कर उपले पाथना तक।'

'क्या हाल-चाल हैं उधर के?'

'वही पुराने राग। इधर, सुने रहे बड़े-बड़े तूफ़ान आये। दिल्ली की बात से गाँवन के लोग भी दहला गए '।

'अख़बार हैं, टीवी है। खबरें कहीं रुकती हैं। इस मुँह से उस मुँह, फैलती चली जाती हैं। पर अब महिलाओं को न्याय मिलने की आशा है।'

उसने मुँह बिचका दिया,' लिख लेओ तुम,जब तक मरदन का नजरिया न बदले तब तक कुछ नहीं होने का।'

शुरू से का देखते हैं बच्चे? मेहरुआ सबके लै ठिठोली की चीज, उसके रिश्तेदारन की कदर ही क्या। और तो और ऊ रिस्ते गाली बनाय के जिबान पे चढ़ा लिये। साला-साली सुसरा-सुसरी! औरत की इहै कदर तो ऊ जनम से देखित हैं, घुट्टी में इहै तो पिया है। '

'हाँ, सही कह रही हो। बच्चे सब समझते हैं, अरे माँ तक के भाई का सिर झुका रहता है।'

'सोई तो, साले ससुरेन के रिस्ते सो गाली बना के धर दिये। और ई साले-सुसरे तो गाँव की- सहर की मुँह-लगी गाली है। एक बेर हमने अपने देउर को जरा-सा टोक दिया, 'काहे मेहरारू के रिस्ते हैं सो गारी बन गए?'

उसने का जवाब दिया हमें,' जिनके बाप-भाइन के लै कही, तिन्हें कोई परेसानी नहीं। ऊ देख लेओ, बैठी मुस्काय रही है।और तुम्हार पेटे में दुखन पड़ रही है।'

'वो तो है, उन लोंगों कुछ नया नहीं लगता, आदत जो पड़ी है।'।

'लड़कियन-मेहरुअन के लिये सब अलग नियम। देवर जेठ, ससुर,।। सासु- ननद, सब पूजा-सेवा के हकदार। और तो और झगड़ा होय मरदन का, गारी दै-दै घसीटी जायँ मेहरुआँ! ऐसी-ऐसी गारी कि सुन लेओ तो कान के कीरे झर जायँ.... सच्ची में। '

'जानती हूँ भानमती, और ये बेकदरी अपने देश में ही देखी। विदेशों में नहीं सुनी।'

'सो सब दिखाई दे रहा है। तभी तो हमारे यहाँ के टाप किलास आदमी विदेश की औरत के पाँव तले बिछे जाते हैं। '

वह धीरे-से मुनमनाई -

'देसी औरत की कौन कदर!'

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भानमती आती है तो कोई-न-कोई सुरसुरी छोड़ जाती है।

अपने भारत की गालियाँ! ठीक कहा था उस ने- सुनो तो कान के कीड़े झड़ जायँ!

अलग-अलग लोगों की, वर्गों की, अंचलों की गालियाँ,। हे भगवान! पर जाने दो! मुझे कोई गाली-पुराण थोड़े ही न लिखना है।

हाँ, ये संतुलनहीन संबंधों की दबंग मानसिकतावाला 'साला और ससुरा' सर्वत्र-व्याप्त है, सारे हिन्दुस्तान का यही नजरिया!

बोलने में ध्वनि थोड़ी बदल जाती है ज़रूर- बिहार साइड में सारा-सरऊ, बंगाली लोगों के मुँह से 'शाला' निकलता है। पर बाज़ार में, व्यवहार में, प्यार में, तकरार में, हर जगह भरमार!

जनता चाहे तो इसे 'राष्ट्रीय गाली' का पद दिया जा सकता है।