राष्ट्रीय त्रासदी : 'दामिनी' और दर्शक प्रतिक्रिया / जयप्रकाश चौकसे

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राष्ट्रीय त्रासदी : 'दामिनी' और दर्शक प्रतिक्रिया
प्रकाशन तिथि : 31 दिसम्बर 2012


राजकुमार संतोषी की 'दामिनी' नामक फिल्म में एक धनाढ्य परिवार का युवा अपने मित्रों सहित होली के दिन अपने घर में काम करने वाली लड़की के साथ दुष्कर्म करता है और परिवार की बहू सारी जांच-पड़ताल करके अपने ही परिवार के खिलाफ अदालत में मुकदमा कायम करती है और अपराधियों को दंडित कराती है। मीनाक्षी शेषाद्रि, ऋषि कपूर और अमरीश पुरी अभिनीत इस फिल्म में सनी देओल भी एक वकील की भूमिका में नजर आए थे। लोकप्रिय कलाकार और कुशल निर्देशन तथा आलोचकों की भरपूर प्रशंसा के बावजूद यह फिल्म बमुश्किल अपनी लागत निकाल पाई। सिनेमाघर से बाहर निकलते दर्शक की प्रतिक्रिया थी कि यह कैसी बहू है, जो परिवार के सम्मान की रक्षा करने के बदले उसे अदालत में बेइज्जत करती है।

इस फिल्म में ही भ्रष्टाचार और दुराचार दोनों ही मुद्दों में परिवार की जागरूकता की बात की गई है। परिवार से ही परिवर्तन शुरू होते हैं और कानून भी सजग परिवारों के कारण ही कारगर होते हैं। परिवार के भ्रष्ट सदस्य द्वारा जुटाई सुविधाओं के उपभोग का परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा बहिष्कार भी पर्याप्त हो सकता है। हर मामले में अदालत जाने की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह परिवार में प्रेम का पाठ और महिला का सम्मान करना सिखाया जा सकता है। सच तो यह है कि अनेक विवाहित स्त्रियों का भी उनके अपने पति के द्वारा कभी-कभी बलात्कार इस मायने में होता है कि उसकी इच्छा का आदर करना नहीं सिखाया जाता। हमने अपने परिवार में ही स्त्री को वस्तु या चाकर बना दिया है।

'दामिनी' पर दर्शक की प्रतिक्रिया भी उन्हीं दकियानूसी बातों की ओर इशारा है, जिनसे परिवार शासित है और यह प्रतिक्रिया हमारी मानसिकता का प्रतीक भी है। हजारों वर्षों से कुछ रुग्ण परंपराएं धर्म का मुखौटा धारण किए सत्य की तरह समाज में स्थापित कर दी गई हैं। कानून और अदालतों को अक्षम बना देती है यह विकलांग मानसिकता। आज सारे देश में व्याप्त असंतोष क्या इस मानसिकता में कोई परिवर्तन ला पाएगा? सख्त कानून की गुहार और अदालतों के अंधे होने के विलाप के साथ स्वयं को बदलने की बात नहीं की जा रही है। हमारे यही दोहरे मानदंड समाज में दीमक का काम कर रहे हैं। एक ओर 'दामिनी' प्रतीक है भारत की सृजन शक्ति का, तो दूसरी ओर इस फिल्म को व्यापक जनसमर्थन नहीं मिलना प्रतीक है सामूहिक अवचेतन की कमजोरियों का।

राजकुमार संतोषी ने ही 'लज्जा' नामक फिल्म बनाई, जिसके सारे प्रमुख पात्रों के नाम थे वैदेही, मिथिला, सिया- इन सभी से सीता को संबोधित किया जाता है। गर्भवती सीता को वनवास का दंड राम देते हैं, क्योंकि जनमानस में सीता की पवित्रता को लेकर संदेह है और आम राय के प्रति सम्मान दिखाते हुए राम सीता को निष्कासित करते हैं। वह आम राय मिथ्या थी, निष्पाप सीता दंडित हुई है। इस महान गाथा में राजा के कर्तव्य के साथ आम आदमियों के मन में जागे अनावश्यक व अनुचित संदेह की बात भी अनेक वर्तमान प्रवृत्तियों का प्रतीक बन जाती है। दरअसल मुद्दा है कि लोकप्रिय बातें जरूरी नहीं कि सही भी हों, अर्थात यह लोकप्रियता बनाम सत्य के संघर्ष की बात भी है। गणतंत्र व्यवस्था में लोकप्रियता को चुनाव जीतने का मार्ग माना जाता है, अत: सरकारें लोकप्रिय निर्णय लेने के फेर में सत्य से दूर चली जाती है और अंततोगत्वा इसी से जनता का अहित भी होता है। सारी बातें घूमकर उसी मूलभूत बात पर आती है कि आम आदमी स्वयं के विवेक से निर्णय ले और अपनी सहमति को सस्ती लोकप्रियता का आधार नहीं बनने दे। अर्थात भीड़ बनने के पहले विचार करें कि क्या हांका जाना उचित है? इस व्यक्तिगत जागरूकता से प्रतिनिधि चुने जाएंगे तो आंदोलन की आवश्यकता समाप्त होगी और हमारे प्रतिनिधि संसद में सार्थकता लाएंगे, ताकि हमें सड़क पर बार-बार नहीं आना पड़े।

इस आंदोलन में टेलीविजन पर युवा चेहरों पर सच्चा दर्द देखने को मिला, सच्चा आक्रोश जाहिर हुआ। यह राजनीति प्रेरित तमाशा नहीं था। वर्षों से संचित आक्रोशथा और राजनीति से मुक्त इस आंदोलन में भारत की आत्मा बोल रही थी। आहत भारत का उजागर होना देश की ऊर्जा के प्रति विश्वास जगाता है। इस आंदोलन की जड़ में वह भय है, जो आम लोग वर्षों से महसूस कर रहे हैं। भय की यह विशेषता है कि वह विराट आकार ग्रहण कर लेता है, जैसे आकाश के बादलों में आप शेर, हाथी, दैत्य देख लेते हैं। गौरतलब यह है कि स्वतंत्र भारत इतना भयभीत क्यों है?

भय के मूल में विगत की गलतियों के साथ भविष्य के शुभ-अशुभ के संकेत भी होते हैं। भय के माध्यम से भी समय को उसके भूत, भविष्य और वर्तमान में देखा जा सकता है। महिलाओं के प्रति हम हर कालखंड में निर्मम रहे हैं। सदियों से संचित निर्ममता और पाखंड ही वर्तमान भय का कारण है। इस आंदोलन में जाने कैसे यह मुद्दा नहीं उठाया गया कि संसद में महिला आरक्षण का बिल अनेक वर्षों से अटका हुआ है और इन वर्षों में सभी प्रमुख दल विभिन्न सरकारों में शामिल रहे हैं। आज तमाम नेता 'दामिनी' के निधन पर टेसुए बहा रहे हैं, परंतु इन्हीं लोगों ने तैंतीस प्रतिशत महिला सांसद नियम को रोक रखा है।

यह हमारे दोहरे मानदंड का एक और उदाहरण है। क्या यह भी संभव है कि आंदोलन में अब यह मांग भी जोड़ दी जाए कि हादसे की शिकार युवती की समाधि को उस विशाल परिसर के किसी हिस्से में जगह दी जाए, जहां महात्मा गांधी या नेहरू या शास्त्रीजी की समाधियां हैं? एक आम हिंदुस्तानी की रूह भी इन पावन स्थानों पर राहत पाए। ...गर मरकर भी चैन न मिला तो कहां जाएंगे।