राष्ट्रीय देवी दिवस / आलोक रंजन
राष्ट्रीय देवी दिवस
लगभग चार दशकों पूर्व २४ जनवरी को भारत को अपनी पहली महिला प्रधानमंत्री स्व .श्रीमती इंदिरा गाँधी के रूप में मिली और २००९ से इस दिन को हम राष्ट्रीय बालिका दिवस के रूप में मना रहे हैं।
कल ही श्रद्धेय निशा मित्तल जी ने मेरे एक लेख पर प्रतिक्रिया दी की अगर भारत की महिलाओं पर कोई अभद्र चित्रण करे तो वह अक्षम्य है, उनकी बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ, भारत तो क्या विश्व के हरेक स्थान पर महिलाओं का सम्मान हो इसपर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है, मातृ –शक्ति का सन्मान होना ही चाहिए।
भारत में नारियों को देवी –तुल्य स्थान दिया गया है, और देवियों को स्वर्ग में होना चाहिए अतः कोख से ही स्वर्ग भेजने की समुचित व्यवस्था का जितना प्रबंध हमने किया है वैसा किसी और संस्कृति ने शायद ही किया हो, चिकित्सा सेवा भले ही और क्षेत्रों में विरल हो पर पर इस सांस्कृतिक योगदान के लिए हर शहर और हर कस्बे में सुलभ और सुगम है, इस आस्थावान देश में जन्मे और पले-बढे चिकित्सक इस पावन कार्य से कैसे अपने को अलग रख सकते हैं ?
जिन देवियों को बचते –बचाते मृत्यु-लोक में आना पड़ गया जीवन पर्यंत उन्हें स्वर्ग पहुचाने की चेष्टा करने में भी हम उद्द्यमशील रहते हैं, और इस भुलावे में मत रहें की यह सिर्फ पुरानी बात है, अतीत है, आधुनिक भारत में हालिया जनसंख्या सर्वेक्षणों पर ध्यान दें, केरल और मेघालय को छोडकर किस राज्य में महिला तथा पुरुष का अनुपात बराबर है ?और बारीकी से देखें इन्ही दो राज्यों में हिंदुओं की जनसंख्या आनुपातिक रूप से पूरे भारत में अन्य धर्मों की अपेक्षा कम है, और उन्ही हिंदुओं ने बचपन से रटा –“यत्र नार्यस्य पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”।
हमने पंडितों की तरह सिर्फ तोता-रटंत सूक्तियों से अपनी संस्कृति को स्वयं ही विश्व की सिरमौर संस्कृति के रूप में स्थापित करने का उपक्रम कर डाला।किसी ने आपत्ति की तो एक और सूत्र, सूत्रों की कमी तो है नहीं, स्वयं ही रचना और स्वयं ही बाचना है।इसी परम्परा और सभ्यता का ढोल पीट हम प्रफुल्लित होते हैं हम ?
आकडे बताते हैं भारत में प्रतिदिन ७००० कन्या भ्रूण हत्याएँ होती हैं, तो इस हिसाब से साल में दो लाख ५० हज़ार की करीब, इतना कत्लेआम तो नाजी सेनाओं ने भी शायद ही किया हो, अगर यह संस्कृति है तो अपसंस्कृति की परिभाषा आप स्वयं बताएँ? पत्थर की प्रतिमाओं में देविओं की स्थापना दिनों –दिन बढ़ती जा रही है और अगर उन्हें थोड़ा भी क्षत –विक्षत किया तो हमारे आस्थावान पहरुए आसमान सर पर उठा लेंगे, मृत देविओं से यश और धन तत्काल प्राप्त होता है और पुरखों का इहलोक और परलोक संवर सकता है, पर जीवित नारियाँ तो नर्क का द्वार है, जो उन्हें क्योंकर स्वीकार हो ?
पत्थर की प्रतिमाएं उन्हें उबार देगी यहाँ तक की मृत सप्त –सतियों का स्मरण भी, पर जीवित नारियों से नौका डूबी, तो उन्हें पहले सती हो कर वह योग्यता प्राप्त करनी होगी।
विडम्बना यह है की नारियों की भागीदारी पुरुषों से कम नहीं, भ्रूण हत्या और भ्रूण परीक्षण के अधिकतर केंद्र नारी –चिकित्सा कर्मियों द्वारा संचालित और उस केंद्र तक जाने को बाध्य करने वाली सासें भी नारियों हैं।कभी –कभी तो पुरुषों से अधिक।
थोड़ा संस्कृति का पूर्वालोकन करें, रामचरित मानस पर एक दृष्टि डालें, महाराज दशरथ के चार पुत्रों के लिए पुत्र्येष्ठी यज्ञ का आयोजन हुआ अतः पुत्री का प्रश्न ही नहीं, चारों भाइयों के भी पुत्र होने की चर्चा है, सीता जी को नारी होने का का कुफल मिला यह तो पूर्वविदित है।द्वापर में आयें, कौरवों के १०० भाइयों में एक मात्र बहन, पांडवों में तो उसका उल्लेख भी नहीं मिलता, ना उनके किसी पुत्री का उल्लेख हुआ है।क्या यह संयोग मात्र है ?
पांचाली का जन्म तो यज्ञ से मना गया है पर यज्ञ वस्तुतः पुत्र प्राप्ति के लिए किया गया, और पांचाली का हाल भी हमसे छुपा नहीं है।
पुराणों के आगे भी अगर इतिहास को देखें तो राज –घरानों ने जन्म लेते ही अपनी बेटियों की हत्या करवा दी, यह भी सर्व –विदित है। और आज भी हम कहाँ बदले हैं, रामायण में भी दहेज का उल्लेख है और अब तो और विकराल रूप में प्रथा जारी है, बेटी की कीमत बाप चुका रहा है, रेट तय है, कानून का इससे बुरा हाल हो ही नहीं सकता है।
अप्सराओं को ना देख पाने की हसरत ने बालिकाओं को बाजार में खड़ा कर दिया, और दिल्ली में हर रोज क्या हो रहा है, बताने की ज़रूरत नहीं है, अखबार पर स्तंभ की भाति हर दिन खबर चपटी ही है, अपनी देविओं को वासना का प्रसाद अर्पित करने तक से शर्म नहीं हमें।जो बच जाती हैं उन्हें भी हर बार बस यही सुकून होता है की बाल –बाल बचे।
अगर अपवादों को छोड़ दें तो महिला –सशक्तिकरण बस नारों की भाषा है, विधायिकाओं में ३३ % आरक्षण मिल भी जाये तो खतरा इस बात का है की कहीं कठपुतलियों को ना बैठा दिया जाये, महिलाओं की सज्जा में, और डोर किसके हाथ में होगी आपको भी पता है। पंचायत –चुनाओं में इसकी झलक मिल चुकी है हमें।
लेकिन इनसब का तोड़ एक है हमारी संस्कृति, गड्ढे में गिरते जाएँ और सभ्यता का गीत गायें।