रास्ते पर / निर्मल वर्मा

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अभी उपन्यास लिखते हुए - आधे वाक्य के बीच - मेरी नजर डायरी पर पड़ गई। एक अजीब-सा सुख और कृतज्ञता का भाव उमग आया। यह डायरी मेरी कितनी यात्राओं और यातनाओं में साथ रही है; पिछले कई दिनों से मैंने इसे छुआ भी नहीं, फिर भी आँखों के सामने पड़ते ही एक आत्मीय, अवसाद-भरा रिश्ता जग जाता है; कौन कहता है, अचर चीजें अजीवंत होती हैं। हमारी पुरानी कॉपियाँ, टाइमपीस, फाउंटेनपेन, ग्रामोफोन - हमारी ऐश-ट्रे और पुराना स्वेटर - इन सबके भीतर उनकी वफादारी एक स्नेह-सिक्त दीये-सी जलती रहती है। वे अपने अकेलेपन को हम पर शहीद कर देती हैं ताकि उनके साथ रह कर हम सुरक्षित महसूस कर सकें।

जब मैं गांधी जी के बारे में सोचता हूँ, तो कौन-सी चीज सबसे पहले ध्यान में आती है? लौ-जैसी कोई चीज-अँधेरे में सफेद, न्यूनतम जगह घेरती हुई, पतली, निष्कंप और पूरी तरह से स्थिर प्रतिज्ञ; फिर भी जलती हुई, इतनी स्थिर, कि वह जल रही है, इसका पता नहीं चलता। मोमबत्ती जलती है - लेकिन लौ? मैं जब कभी उनका चित्र देखता हूँ तो मुझे अपनी हर चीज भारी और बोझ लदी जान पड़ती है - अपने कपड़े, अपने देह की मांस-मज्जा, अपनी आत्मा भी और सबसे ज्यादा - अपना अब तक का सब लिखा हुआ।

इसके साथ याद आता है गोएटे का कथन, जो उन्होंने आइकरमान से कहा था, 'हर स्थिति - नहीं, हर क्षण - अनमोल है; वह समूचे शाश्वत का परिचय देता है।'

गांधी जी इससे जरूर सहमत होते - दरअसल यह उनके जीवन की परिभाषा थी।

एक लंबे अर्से से अवाँगार्द कला के प्रति मेरे भीतर एक गहरी विरक्ति-सी जम गई है; हमेशा आगे चलना ही महत्वपूर्ण दिशा में चलना नहीं होता; और कला में 'आगे' क्या होता है यह उससे कहीं ज्यादा संदिग्ध है, जिसे हम इतिहास में 'विकासमान' कहते हैं। किंतु अवाँगार्द की आलोचना करते समय मैं अक्सर उस जोखिम के बारे में भूल जाता था, जिसे-आज नहीं - चालीस वर्ष पूर्व अमेरिकी कलाकारों ने उठाया था। उन दिनों के बारे में आज एक बहुत सुंदर चीज डिसेंट में पढ़ी। जॉन एगबरी लिखते हैं :

उन दिनों (1950) की अवाँगार्द कला मुझे सचमुच बहुत उत्तेजित करती थी। कलाकार को प्रयोग करते समय यह महसूस होता था कि वह किसी अथाह अँधेरे गढ़हे के धुर किनारे पर खड़ा है। दूसरे शब्दों में - यदि वह लगी - बँधी लीक से थोड़ा भी अलग होना चाहता था, तो उसे अपने जीवन को-कलाकार की हैसियत से अपने जीवन को - मुट्ठी में भींच कर चलना होगा। पोलोक-जैसे चित्रकार को अपना सर्वस्व इस दाँव पर लगाना पड़ा होगा कि वह अमेरिका का सबसे महान चित्रकार है, क्योंकि अगर वह यह नहीं है, तो वह कुछ भी नहीं है - तब उसके चित्र पर पड़े छींटे महज घर पर सफेदी करनेवाले एक अदक्ष राजगीर के छींटों से ज्यादा मतलब नहीं रखेंगे। पोलोक को कभी-कभी यह आशंका जरूर कचोटती होगी कि शायद वह कलाकार है ही नहीं, कि उसने अपनी सारी जिंदगी, (जैसा एक बार फ्लॉबे ने जशेला के बारे में कहा था) 'कला के गलत रास्ते पर घिसटते हुए गुजार दी', किंतु विरोधाभास यह है कि यह आशंका ही पोलोक के चित्रों में इतनी जबरदस्त जीवंतता ले आती है। वह जैसे हारने की अंतहीन संभावनाओं के खिलाफ जुआ खेल रहे हों। अधिकांश दुस्साहसी कर्म किसी-न-किसी अर्थ में काफी सुंदर होते हैं और यह दु:साहस ही है जो प्रयोगधर्मा कला को सुंदर बनाते हैं इसी अर्थ में धर्म भी सुंदर होते हैं क्योंकि उनमें भी यह संभावना रहती है कि उनका आधार भी शायद-कुछ नहीं है।

आकाश पर छितरे हुए बादल हैं, काफी सफेद, कुम्हलाया हुआ दिन, एक मैले-से संताप में लिपटा हुआ... या यह महज मेरे मन की ही छाया है - सुबह की देह को भोंकता, चींथता अवसन्न और लुटा-पिटा अवसाद? जिन लोगों का कोई बहुत प्रिय संबंधी मर जाता है या छोड़ कर चला जाता है, वे दूसरे दिन सुबह इसी तरह जागते होंगे, पहाड़-सी पीड़ा और पूरा दिन और बाकी जिंदगी...

'अमीर लोगों के लिए आकाश सिर्फ एक अतिरिक्त चीज है, प्रकृति का वरदान। किंतु गरीब लोग आकाश को ऐसे देखते हैं, जैसा वह सचमुच में है - एक अंतहीन और असीम कृपा का विस्तार।' (अल्बेर काम्यू)

कल रात उसने एक स्वप्न देखा। उसने एक ऐसा अपराध किया है, जिसके लिए उसे मृत्यु-दंड मिला है। मृत्यु फाँसी से नहीं - गला घोंट कर दी जाएगी। उसके भाई कहीं आसपास हैं। वह उसकी 'यात्रा' के लिए टिफन-कागज में लिपटी रोटियाँ-ले कर आए हैं। वह अपने भाई से अलग-थलग बहुत घबराया हुआ खड़ा है। घबराने की कोई बात नहीं, कोई अज्ञात व्यक्ति उससे कहता है, मरने के बाद तुम्हारी आत्मा को एक दूसरी देह में भर दिया जाएगा, जैसे किसी चीज को एक बर्तन से निकाल कर दूसरे बर्तन में रख दिया जाता है और वहाँ तुम जीवित रहोगे। फिर अचानक वह अपने को एक लंबे गलियारे में पाता है; वह उसमें चलता जाता है और उसके अंतिम छोर पर जा कर देखता है कि सामने एक हरा, समतल घास का लॉन फैला है, पेड़ों की छायाओं से ढका हुआ, हालाँकि पेड़ कहीं दिखाई नहीं देते। उसे देख कर न जाने क्यों उसे वर्जीनिया वुल्फ की याद आती है और उसी याद के साथ एक असह्य, गहरी पीड़ा का अहसास होता है कि अब वह उस लॉन को कभी अपनी उस देह से नहीं देख सकेगा - जिसमें वह अब है - और यह खयाल उसे इतना आंतकपूर्ण, और कष्टदायी जान पड़ता है कि - उसकी आँख खुल जाती है।

आह - यह सिर्फ स्वप्न था! वह राहत की साँस लेता है किंतु जागने के बाद भी बहुत देर तक उसे यह बात अजीब लगती रहती है कि - स्वप्न में उसे एक क्षण भी अपनी आसन्न मृत्यु की अनिवार्यता पर शंका नहीं हुई थी।

जीवन में अकेलेपन की पीड़ा भोगने का क्या लाभ यदि हम अकेले में मरने का अधिकार अर्जित न कर सकें? किंतु ऐसे भी लोग हैं जो जीवन-भर दूसरों के साथ रहने का कष्ट भोगते हैं ताकि अंत में अकेले न मरना पड़े।

गर्मी की दुपहर : रेस्तराँ के टेरेस से पूरे दिन का सैलाब सिर-सिर करता हुआ बह रहा है। सड़क के पार पेड़ों की हिलती फुनगियाँ, मकानों की छतें, एरियल पोल! मैं धूप के फैलाव में हूँ, दो आँखें देखती हुईं। यह असाधारण अनुभव है - जब चीजों के बीच की दीवार ढह जाती है और समूची सृष्टि दुपहर की धूप में खुलती जाती है - सबके सामने अपने को खोलती हुई, एक अखंडित, सर्वव्यापी प्रवाह, धूप में, फुनगियों पर हवा में; योगी इसी तरह देखते होंगे; लेकिन इस तरह दुनिया को देखने के लिए पत्थर की तरह निस्संग होना चाहिए - जैसे इस क्षण मैं हूँ - खाली, रिक्त, सूना और हल्का - समूची पीड़ा को धूप में बदलता हुआ, धूप को अंतहीन दुपहर में, लू में, धूल में, हिलते हुए पेड़ों में...

सृष्टि को ऐसे क्षणों में देखना एक गोपनीय चमत्कार है, कुछ वैसे ही जैसे जंगल में किसी जानवर को माँद में सोते हुए देखना...

जब हम प्यार करते हैं, तो स्त्री को धीरे-धीरे उस दीवार के सहारे खड़ा कर देते हैं, जिसके पीछे मृत्यु है; हम दीवार के सहारे उसका सिर टिका कर उसे सहलाते हैं, चूमते हैं, बातों में उसे बहलाते हैं, बराबर यह आशा लगाए रहते हैं - कि वह कहीं मुड़ कर दीवार के पीछे न झाँक ले। जब हम कहानी लिखते हैं - या उपन्यास - तो एक फिल्म चलने लगती है - इस फिल्म में छूटे हुए मकान हैं और मरे हुए मित्र, बदलते हुए मौसम हैं और लड़कियाँ, खिड़कियाँ, मकड़ियाँ हैं और वे सब अपमान हैं जो हमने अकेले में सहे थे और बचपन के डर हैं और क्रूरताएँ हैं जो हमने माँ-बाप को दी थीं और माँ-बाप के चेहरे हैं, छत पर सोते हुए और छतें हैं, जुलाई की रातें हैं, रेलों की आवाजें हैं और हम यह एक अदृश्य स्क्रीन पर देखते रहते हैं मानो यह सब किसी दूसरे के साथ हुआ है, हमारे साथ नहीं - हम अपनी नहीं, किसी दूसरे की 'फिल्म' देख रहे हैं; यह 'दूसरा' ही असल में लेखक है, मैं सिर्फ स्क्रीन हूँ, परदा, दीवार,... लेकिन अँधेरे में हम साथ-साथ बैठे हैं; कभी-कभी हम दोनों एक हो जाते हैं, तब पन्ना खाली पड़ा रहता है और दीवार पर कुछ भी दिखाई नहीं देता!

मारिना स्वेतायोवा का गद्य। एक फड़फड़ाती, सजीव, पारदर्शी प्राणवत्ता, जहाँ वेदना अपना नीला जाल बुनती है; अपनी सहेली की मृत्यु पर उनका शोक एक ऐसी मर्मभेदी विलाप-कथा है, जिसका हर शब्द एक बीते हुए जमाने के लहू-कीचड़ में सना, बिलखता हुआ बाहर निकलता है। क्या इस गद्य की तुलना किसी और से हो सकती है? हम 'काव्यात्मक गद्य' की बात कहते हैं किंतु मारिना अकेली कवि थीं जिन्होंने कविता के जोखिम-भरे हाशिए पर अपने गद्य को गढ़ा था, कुछ इस तरह उसका कायाकल्प किया था, कि जिस सत्य को आज तक हम कविता में देखते आए थे, वह अचानक गद्य के भीतर सुलगता हुआ दिखाई देता है; वह गद्य की सुरक्षित देह को घसीटते हुए कविता की अँधेरी खाई तक ले आती हैं, एक चमकती, काँपती हुई शिला पर, जो धुर रसातल (abyss) के छोर पर टिकी है; जरा-सा एक कदम लेते ही वह नीचे अँधेरे में गिर सकती है, एक कदम पीछे जाते ही वह सीधी-सपाट बन जाती है, किंतु मारिना स्वेतायोवा इन दो कदमों के बीच एक असह्य और असाध्य उठान पर खड़ी रहती हैं, न अपना सधापन खोती हैं, न नीचे फिसलती हैं; उनका गद्य नीचे खाई की अतल 'कविता' को खींच कर ऊपर ले आता है जैसे कुछ देर पहले उनकी कविता गद्य को खींच कर खाई तक ले आई थी - वहीं दोनों मिलते हैं, धुर ऊपर, जहाँ चोटी पर, पहुँचते ही मेरा सिर चकराने लगता है - और मैं हताश हो कर किताब पर अपना सिर टिका लेता हूँ...

ऐसा गद्य जीवन की समग्र, संचित पीड़ा, ईमानदारी और हमदर्दी - प्रेम - ऐसा प्रेम जो असहनीय और अकथनीय है - उन सबको समेट कर कलम की नोक पर ले आता है जिस पर हर शब्द छलनी होता हुआ टपाटप खून की तरह बहता - जिसे मैं सुनता हूँ -किताब पर सिर टिकाए।

और वह किताब से सिर उठाता है - क्या कोई ऊपर आ रहा है? किसी ने घंटी बजाई है? कोई सीढ़ियाँ चढ़ रहा है, तभी तो रोशनदान से उठ कर कबूतर उड़ता है, क्योंकि वह तभी उड़ता है जब किसी की आहट सुनता है... कोई मित्र, कोई पत्र? हल्की-सी फुसफुसाहट, दरवाजे पर झिझके-से पैर - नहीं, यह पड़ोस का लड़का है, जो इस छत पर अपनी गिरी हुई गेंद उठाने आया है। नहीं, कोई नहीं है। आज कोई नहीं आएगा...

और फिर वह अपनी डेस्क पर रखी किताब पढ़ने लगता है, वहीं से, जहाँ से कबूतर की फड़फड़ाहट ने उसकी शाम को तोड़ा था।

ईसाई धर्म के एकेश्वरवाद ने अंतत: कम्युनिज्म के सर्वसत्तावाद को जन्म दिया है -तानाशाही के बीज इस अंधविश्वास में निहित हैं कि एक सर्वोपरि है और वह 'एक' सिर्फ 'अनेक' को नष्ट करके ही स्थापित हो सकता है। यह संयोग नहीं है कि जिस धर्म में अनेक देवता पूजे जाते हैं, वहाँ लोक-जीवन में भी अनेक विश्वासों को फलने-फूलने का परिवेश सुलभ होता है... यदि हम इस सत्य को पहचान पाते, तो लोकतंत्र को एक औसत वोट में अवमूल्यित न करते... क्योंकि इस सामान्य आदमी की तानाशाही उतनी ही घातक हो सकती है, जितनी एक ईश्वर की आराधाना।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अतीत में जिन 'सामान्य' आदमियों ने एक ईश्वर के नाम पर जिहाद किया था, उन्हीं सामान्य आदमियों ने - हमारे समय में - हिटलर और लेनिन के नाम पर लाखों का नर-संहार किया है।

कीट्स के पत्र। कितनी ताजा, कितनी खुशी, हरी-भरी कल्पनाशीलता की दूब और चरागाह और ओस में नहाई, धूप में चमकती विचारों की रासलीला है इन पत्रों में। उन्नीस वर्ष की आयु में - जब ये पत्र लिखे गए - उनमें कितनी गहरी सूझ-बूझ और समझ-समझ जो बौद्धिकता के बोझ से मुक्त है - किंतु प्रखर बोध से संपन्न है, कितनी व्यापक सहानुभूति और उत्सुकता, विट और विनोदशीलता... कीट्स के पत्रों को पढ़ते हुए लगता है कि हम किसी ठंडे, साफ पहाड़ी झरने में अपनी देह का ताप और थकान धो रहे हैं। कीट्स और शेक्सपियर में यह अद्भुत समानता है : दोनों सोचते हैं, लेकिन चिंतक नहीं हैं, दार्शनिक नहीं हैं, लेकिन हर पल साक्षात्कार करते हैं...

वह घर आए; कहने लगे, कहानी-संकलन में एक खाली पन्ना बचा रहता है; क्या मैं पुस्तक किसी को समर्पित करना चाहूँगा?

मैं सोचने लगा; कुछ समझ में नहीं आया। पुरानी कहानियों की यह किताब किसके लिए क्या मानी रखेगी? फिर पुराने घर की याद आई - जहाँ वह रहती थीं - जहाँ ये कहानियाँ लिखी गई थीं और वह दूसरे कमरे में बैठी रहती थीं और हालाँकि घर वही है, जहाँ मैं रहता हूँ, वह चली गई, जब मैं यहाँ नहीं था...

मैंने अपनी पीली कवरवाली कापी निकाली और पूरे कोरे पन्ने पर लिख दिया 'माँ की स्मृति में' और तब खाली, शून्य सफेदी पर यह वाक्य इतना ही छोटा जान पड़ा, जितना वह खुद थीं। दुनिया में उनकी जगह वही थी जैसे किताब के खाली पन्ने पर उनका नाम...

वह हर किताब का पन्ना मोड़ देता है ताकि अगली बार जब वह पढ़ना शुरू करे तो याद रहे, पिछली बार कहाँ छोड़ा था। एक दिन जब वह नहीं रहेगा, तो इन किताबों में मुड़े हुए पन्ने अपने-आप सीधे हो जाएँगे - पाठक की मुकम्मिल जिंदगी को अपने अधूरेपन से ढकते हुए...

वर्जीनिया वुल्फ की डायरी पढ़ते हुए जो बात एकदम आँखों को छूती है - वह है हर दिन का बदलता मौसम। डायरी के अधिकांश पन्ने मौसम से शुरू होते हैं - हवा, आकाश का रंग, पेड़ों के तेवर। लंदन में चार अप्रैल 1929 के दिन क्या मौसम रहा होगा, यह हम उनकी डायरी खोल कर पता चला सकते हैं।

किंतु हम? हम कितनी बार खिड़की से बाहर झाँक कर उत्सुकता से देखते हैं - आज का दिन कैसा होगा? यह शायद हमारा दोष नहीं है - गर्मियों के दिन लगभग एक-जैसे रहते हैं - धूल से भरा अवसन्न आकाश, दुपहर की लू, शाम का उदास पीलापन... सिर्फ अक्टूबर के बाद दिनों के चेहरे पर थिरकन आती है। यूरोप की जलवायु में हर परिवर्तन एक साफ और तीखे संकेत को ले कर आता है और प्रकृति का स्वभाव कुछ इतना नाजुक है कि रोशनी, कम रोशनी, बादल की छाँह और पत्तों का रंग वह तुरंत रजिस्टर कर लेता है। बरसों पहले जब मैं प्राग में था, तो पतझर में पहली बार इसका अहसास हुआ था कि हर दिन दूसरे-दिन से कितना अलग हो सकता है...

क्या यह कारण नहीं है कि हमारी कहानियों, उपन्यासों में मौसम का उल्लेख इतने उदासीन, उखड़े भाव से मिलता है, जैसे वह सिर्फ पृष्ठभूमि हो... एक जीता-जागता परिवेश नहीं, जिसके बीच घटनाएँ घट रही हों? पाठक को सूचना-भर मिलती है, कि 'वह गर्मियों की दुपहर थी', किंतु हिंदुस्तानी गर्मी महज शब्द से उठ कर कहानी के वायुमंडल में नहीं आती - अपने ताप, पसीने, प्यास और क्रूर, निर्मम तितीरेपन के साथ। अज्ञेय का 'शेखर' शायद पहला उपन्यास था जिसमें घटनाओं के सूत्र के साथ-साथ आसपास का परिवेश भी अपनी छाप छोड़ता जाता था। 'मानसबल का वक्ष, रात' बरसों पहले पढ़ा हुआ यह वाक्य आज भी मेरी नसों को झनझना जाता है।

हर रोज कोई मेरे भीतर कहता है, तुम मृत हो। यही एक आवाज है, जो मुझे विश्वास दिलाती है, कि मैं अब भी जीवित हूँ। जिस दिन मैं यह सोच कर भी लिखता रहूँगा, कि इसे पढ़ कर सब लोग - मेरे मित्र और हितैषी अफसोस करेंगे - और आलोचक हँसी उड़ाएँगे - तभी मैं सफलता के चक्कर से मुक्त हो कर कुछ ऐसा लिख पाऊँगा - जिसका कोई अर्थ है।

मैं हमेशा अकेलेपन पर शोक करता रहा हूँ - लेकिन अकेलेपन का सौंदर्य और सात्विक ऋजुता? इसका छोटा-सा किंतु संपूर्ण अनुभव आज शाम हुआ... सर्दियों का अँधेरा और तीन तरफ से बंद मेरा कमरा - सिर्फ दरवाजे के परे कुछ तारे दिखाई दे जाते हैं, बाहर बिलकुल शांति है और मैं प्रूस्त पढ़ रहा हूँ। न बच्चे, न गृहस्थी, न कोई मित्र - कोई नहीं। मैं और मेरी किताब; प्रूस्त के हर लंबे वाक्य में मेरी टूटती साँसों के पैराग्राफ और उनके इर्द-गिर्द मँडराती भावनाओं का बवंडर जमा होता जाता है - और उसके परे कुछ नहीं, सिर्फ... मेरी सिगरेटें; मेरी छत और किताबें...

मैं बाहर ठहरे और सर्द अँधेरे को देखता हूँ और मुझे लगता है, कि जापानी भिक्षुक ऐसे ही शांत और ध्यानवस्थित क्षणों में अपनी कुटिया में बैठे हायकू लिखा करते होंगे...

कितनी दुख की बात है कि जब हम अकेले रहते हैं, तो हम उस मौके को खो देते हैं, जब हम तटस्थ हो कर अपने छोटे-से-छोटे अनुभवों, और सेंसेशन को दर्ज कर सकते थे - आखिर यही एक 'मुआवजा' है जो अकेलापन हमें दे सकता है, किंतु हम उसकी अवहेलना करके एक अजीब-सी धुंध में चलते रहते हैं; जीन की उदासी पर यह धुंध वैसे ही जमा होती रहती है जैसे सर्दियों में नदी के ऊपर कुहरा... और तब मुझे लगता है कि प्रूस्त ही एकमात्र ऐसे अकेले लेखक थे जो अपनी निगाहों की नुकीली नोक से इस धुंध को क्षण-प्रतिक्षण छीलते रहते थे और उसके पीछे बिलकुल जीवंत और जीवित अवस्थाओं को पकड़ लेते थे, उन्हें अपनी कापी पर चिपकाते थे - जैसे वे जीवित और फड़फड़ाती तितलियाँ हों - लेकिन उसका स्पर्श इतना पैना और निर्मम होने के बावजूद इतना हल्का था कि वे हू-ब-हू अपनी उड़ान के साथ उनके पन्ने पर आ कर बैठ जाती थीं, अपने सजीव और विविध रंगों के साथ; कहीं भी उनके पँखों पर कलम की खरोंच नहीं दिखाई देती, जिनकी नोक पर प्रूस्त ने उन्हें पकड़ा था!

जब हम अपने अतीत के बारे में सोचते हैं, तो अविश्वसनीय किस्म की हैरानी होती है कि हम ऐसी मूर्खतापूर्ण गलतियाँ कैसे कर सकते थे, जिन्हें हम आज इतनी सफाई से देख सकते हैं - हम अपनी आज की नियति को कितनी आसानी से टाल सकते थे - एक चिट्ठी भेज कर, फोन पर कुछ शब्द कह कर, दूसरे शहर जा कर - लेकिन हमने ऐसा कुछ नहीं किया - मानो इन दिनों हम किसी स्वप्न-सरीखी धुंध में चल रहे थे - किसी तर्कपूर्ण निर्णय के परे - जहाँ हमारा कोई बस नहीं था...

विडंबना यह है कि आज जो मैं तर्क और चेतना की रोशनी में रहा हूँ - वर्षों बाद यह भी एक धुँधला स्वप्न जान पड़ेगा, और आज जो मैं निर्णय ले रहा हूँ - वे तब-भविष्य में - उतने ही मूर्खतापूर्ण जान पड़ेंगे, जितना अतीत में किए हुए बाकी सब फैसले...

मैंने अर्सा पहले दिल्ली के चिड़ियाघर के एक पिंजरे में चीते को देखा था। लगभग सौ गज लंबा पिंजरा था, जिसमें वह घूम रहा था, एक तरफ से दूसरी तरफ और फिर वापिस - वहीं - जहाँ से उसने दौड़ शुरू की थी। वह न चल रहा था, न भाग रहा था - सिर्फ एक बिजली थी, जो पिंजरे के एक छोर से दूसरे छोर तक लपलपाती हुई कौंध जाती थी। वह पिंजरे को नहीं समझ पा रहा था, न आसपास की दुनिया को, न मुझे जो उसे देख रहा था उसकी बेचैनी अंतहीन थी, एक अंधी हताश, बेकाबू विक्षिप्त आँधी में वह जैसे अपनी खोई हुई प्रकृति के खजाने को ढूँढ़ रहा हो...

धीरे-धीरे वह मेरी आँखों से ओझल हो गया और उसकी जगह मुझे अपना कमरा दिखाई दिया, जहाँ पिछले बीस वर्षों से मैं वैसे ही घूम रहा था, जैसे उस दिन मैंने चिड़ियाघर में चीते को देखा था...

जब रात को नींद नहीं आती और जीने की पीड़ा असह्य हो जाती है, तो मैं आशवित्स (कांस्ट्रेशन-कैंप) के बारे में सोचने लगता हूँ - यहूदी बच्चियों की चप्पलें और लड़कियों के कटे हुए बालों का ढेर... बंगाल के अकाल के बारे में, जब मैं बहुत छोटा था, किंतु अखबार की तस्वीर में एक मरी हुई माँ के स्तनों को चूसती हुई बच्ची को देखा था, सोवियत लेबर कैंप में मैंडलश्टाम की हड्डियों का ढाँचा और भोपाल में मरी हुई एक मुसलमान बच्ची, जो गाय की लोथ के साथ लेटी है - कितना अजीब है, इन सब दृश्यों को देख कर मेरा इंसोमनिया दूर होने लगता है और मैं दूसरे की व्यथा के सिरहाने सिर टिका कर सोने लगता हूँ...

जब पहली बार मनुष्य बाहरी अंतरिक्ष में गया था, तो उसने कैमरा से हमारी धरती की तस्वीर ली थी। समूचे स्पेस के अंतहीन फैलाव में - एक छोटी-सी दुनिया-लाखों वर्षों से पागल की तरह चक्कर लगाती हुई; विश्वास नहीं होता था, कि सौरमंडल के लाखों-करोड़ों ग्रहों में यह एक बूँद-सरीखा बिंदु है जिसमें मैं रहता हूँ...

अपनी धरती को बाहर से देखना - उसे देख कर हमें अपने दुख, शिकायतें, पीड़ाएँ-कितने क्षुद्र जान पड़ते हैं। पहली बार महसूस होता है, कि हमारा अकेलापन - अंतरिक्ष में घूमती इस धरती के अथाह अकेलेपन से छिटक कर हममें आ टपका है, जिसके कारण वह अंतरिक्ष में उतनी ही अकेली है, जितना हम-इस दुनिया में।

मैंने बहुत अर्से तक धरती की इस गोल बिंदी का फोटो अपनी दीवार से चिपकाए रखा था - जब मुझे किसी बात पर गहरा क्लेश होता था - तो उसे देख कर वह अपने-आप लुप्त हो जाता था। खाली स्पेस में घूमती हुई वह धरती मुझे उतनी ही शांति देती थी, जितनी एक संत की निर्वैयक्तिक ध्यानावस्थित अवस्था...

मेरे लिए - कौन महान लेखक है? वह लेखक, जो हमें तर्क और चेतना के अंतिम बॉर्डर पर ले जाता है, जिसके परे पागलपन शुरू होता है। एक महान कलाकृति वह पासपोर्ट है, जो हमें उस बार्डर को लाँघने की सुविधा देता है - किंतु एक बार उस प्रदेश में आ कर जब हम पीछे मुड़ कर देखते हैं - तो हमें पता चलता है - कि पागलपन का प्रदेश वह नहीं है जहाँ कलाकृति के दरवाजे से प्रवेश किया है बल्कि वह था, जिसे हम अभी-अभी लाँघ कर आए हैं...

जब हमारा कोई आत्मीय-संबंध टूट जाता है तो असह्य पीड़ा के क्षणों में हम अपने को यह दिलासा देते हैं - कि एक स्वप्न था और अब हम पहली बार जाग्रतावस्था में अपने को देख रहे हैं... किंतु जब हम दुबारा प्रेम करने लगते हैं... तो पता चलता है, कि जब हम जागे थे, तो इसलिए कि दूसरा व्यक्ति हमारा स्वप्न छोड़ कर अपने यथार्थ में चला गया है - और हम बत्ती बुझा कर नए सिरे से दूसरा स्वप्न देखने लगते हैं...

जिसे हम जाग्रतावस्था कहते हैं - वे सिर्फ पीड़ा के क्षण हैं - दो प्रेम-स्वप्नों के बीच।

जिन्हें हम अपने जीवन के 'सृजनात्मक क्षण' कहते हैं वे घोर कृतघ्नता के क्षण हैं। वे चाहे प्रेम के हों या लेखन के...

जब हम किसी ऐसे व्यक्ति के साथ होते हैं, जिससे हम प्रेम करते हैं, तो सहसा एक अद्भुत और असाधारण इमोशन की प्रतीति होती है, जिसके रहते वह संबंध और भी अधिक गाढ़ा, और भी अधिक संपूर्ण जान पड़ने लगता है... किंतु तब हम यह भूल जाते हैं कि यह इमोशन उस अनुभव की मात्र छाया है, जिससे पहली बार हमार साक्षात्कार एक अन्य व्यक्ति के प्रेम से उपजा था, जो अब नहीं है...

यह कुछ वैसी ही कृतघ्नता है जैसे किसी शाम किसी संगीतकार का रिकॉर्ड सुनते हुए हम इतने डूब जाते हैं, अभिभूत हो जाते हैं कि मन के भीतर एक असंभव और पागल-सी आकांक्षा होती है - कि जो हम रिकार्ड को सुनते हुए महसूस कर रहे हैं, क्या कभी अपने लेखन में ला सकते हैं? फिर बहुत-से बरस बीत जाते हैं, और किसी शाम, अनजाने शहर में कोई कहानी लिखते समय एक ऐसा चमत्कारिक संयोग होता है - कि वही अनुभव जो उस शाम हमें हुआ था - खुद-ब-खुद अपने अँधेरे, विस्मृत कोने से सरक कर हमारे शब्दों में आ जाता है, किंतु तब लिखते समय, न हमें वह शाम याद आती है, न अपना अकेला कमरा, न उस रिकार्ड का दर्द...

असली संत और संपूर्ण क्रांतिकारी सिर्फ वही लोग हो सकते हैं, जो माँ के पेट से निकलते ही चारों तरफ दुनिया को देखते होंगे, और घोर निराशा में चीख मार कर रोते होंगे...

क्योंकि हर बच्चा पैदा होते ही चीखता है - संत और क्रांतिकारी बनने की संभावनाएँ हर व्यक्ति में मौजूद रहती हैं...

परसों शाम हम पुराना किला के सामने छोटी, संकरी झील के आगे बैठे रहे; पीछे मोटर-गाड़ियों को शोर यहाँ तक आते-आते बिलकुल धीमा पड़ जाता था-और ऐसा भ्रम होता था - कि हम दिल्ली में नहीं, किसी और समय और शहर में बैठे हैं। थोड़ी दूर पर पुरुष-स्त्री के जोड़े बैठे दिखाई दे जाते थे। पुराने किले की भग्न और टूटी दीवारों के भीतर मेरे अतीत की कितनी परतें जमा हैं, एक के ऊपर टिकी हुई - आदिम युग के फॉसिल इसी तरह अलग-अलग युगों के कंकालों से बनते होंगे - ऊपर से देखने पर एक चट्टान, भीतर लाखों वर्ष की हड्डियाँ, एक समय को दूसरे समय से जोड़ती हुई...

अब उसकी दीवारों पर सर्दियों की धूप चमक रही थी। शायद यही दिन थे जब बरसों पहले इन टूटी प्राचीरों के बीच घूमते हुए पहली बार 'पत्थर और बहता पानी' का खयाल आया था। हम जब कोई अपना पुराना निबंध या कहानी पढ़ते हैं, तो वह जगह, वह 'साइट' याद आ जाती है, जहाँ पहली बार उसका बीज उगा था; किंतु कभी-कभी किसी 'जगह' को देख कर भी अपना पुराना लिखा हुआ याद आता है - जैसे किसी खोए हुए व्यक्ति को देख कर अपना पुराना दुख - और तब पता चलता है कि मरने से पहले हमने अपनी जिंदगी का कितना हिस्सा-जीते जी-किन-किन अजीब जगहों और व्यक्तियों में दफना दिया है - उन यहूदी बंदियों की तरह - जो नात्सी अफसरों के आदेश पर - मरने से पहले अपनी कब्र खुद तैयार किया करते थे...

आज सुबह ही एकरमान की 'गोएटे से बातचीत' पढ़ कर समाप्त की; यह किताब मैं धीरे-धीरे पिछले वर्षों से पढ़ता रहा हूँ, किंतु आज अंतिम पन्ने को पढ़ते ही बरबस मेरी आँखें गीली हो आईं, जैसे कोई बहुत आत्मीय व्यक्ति हर शाम मुझसे बातें करने आता था और अब कभी नहीं आएगा। अंतिम पृष्ठ गोएटे का अंतिम दिन भी है; जब एकरमान उनकी मृत्यु की खबर सुन कर उस कक्ष में गए, जहाँ उनका शव रखा था, तो लिखते हैं, 'मेरे सामने उनकी पूरी देह लेटी थी - अपने पूरे सौंदर्य के साथ। उसे देख कर मेरे भीतर इतना गहरा उल्लास उमड़ आया, कि एक क्षण के लिए मैं भूल गया कि उनकी अमर आत्मा हमेशा के लिए उसे छोड़ कर चली गई है। मैंने उनके दिल पर हाथ रखा - वहाँ गहरी खामोशी थी - मैंने अपना सिर मोड़ लिया ताकि अपने दबे हुए आँसुओं को बेरोक-टोक बहने दूँ।

यह अजीब है, हमारे सपनों में वही चेहरे दिखाई देते हैं, जो कभी बहुत पास थे, किंतु जो अपने को दिन के उजाले में छिपाए रखते हैं। वे सिर्फ नींद की ओट में ही हमारी पीड़ा को लाँघ कर सामने आते हैं।

किंतु जिन लोगों की पीड़ा हम दिन में भोगते हैं, वे सपनों में कहीं नहीं दिखाई देते - जैसे ताजे घावों से उन्हें कोई वास्ता नहीं... अगर रात और दिन इतनी सहानुभूति से हमारे दुखों को आपस में न बाँट लेते, तो हमारा जीना असंभव हो जाता।

हर लेखक पर अपने पूर्ववर्ती लेखकों का प्रभाव पड़ता है - कोई शब्द, किसी कविता की पंक्ति, कोई पुरानी पढ़ी हुई कहानी - अलग-अलग दिशाओं से आती अनुगूँजें एक अनूठे रचना-अनुभव में दूसरा जन्म ले लेती हैं... उस बच्चे की तरह, जिसकी चाल पिता की याद दिलाती है, हँसी बूढ़ी दादी की, गुस्सा उन बुआ का, जो बरसों पहले मर गई और दंभ किसी परदादे का जो आधी शताब्दी पहले किसी शहर के थानेदार थे और कभी-कभी एक अजीब तरह की उदासी जो सिर्फ विधवा मौसी में ही पाई जाती थी - बच्चे ने उन सबको नहीं देखा - किंतु वे सब उसमें मौजूद हैं और चमत्कार यह है कि उसका जीवन अपना है और उसमें वह बिलकुल अकेला है - एक कलाकृति की तरह!

सतपुड़ा के पहाड़ उदास दिखाई देते हैं - जैसे छोड़े हुए घर! हजारों वर्ष पहले उनकी कंदराओं में लोग रहते थे, जो पता नहीं कहाँ चले गए?

हिमालय अपनी विराटता में अछूते और अलंघ्य जान पड़ते हैं, किंतु आज हजारों पर्वतारोही उनकी पवित्रता को रौंद कर विजय-मुद्रा में लौट आते हैं...

मनुष्य आज जैसा है, उसे देख कर सतपुड़ा की पहाड़ियाँ जरूर अपने भाग्य पर ईर्ष्या करती होंगी।

फ्लॉबे कहा करते थे कि वह एक ऐसा उपन्यास लिखना चाहते हैं, जिसमें कुछ न हो रहा हो, कुछ न घट रहा हो...

यह भी आकांक्षा हो सकती है कि कोई कुछ ऐसा उपन्यास लिखे, जिसमें सब कुछ घट रहा है, सब कुछ हो रहा है - लेकिन जिसका अर्थ शून्य में निहित है, ज्ञान के परे है...

बौद्ध धर्म शून्य के इर्द-गिर्द दुनिया रचता है - उपनिषद-दर्शन आत्म के इर्द-गिर्द माया-संसार।

एक लेखक आत्म से शुरू करके शून्य की ओर जा सकता है, किंतु जो अपने को शून्य-से-शून्य करता है, उसे 'आत्म' तक पहुँचने के लिए अपनी समूची संस्कृति को बदलना होगा - वरना वह सिर्फ प्रयोगशील लेखक बन कर रह जाएगा...

यह अकारण नहीं कि बौद्ध धर्म 'सुधारवादी' था, हिंदू दर्शन नहीं... सुधार की बात अलग रही, वह धर्म भी नहीं बन सका... यह भी अकारण नहीं कि पश्चिम के बुद्धिजीवी हिंदू दर्शन की अपेक्षा बौद्ध धर्म की ओर अधिक आकर्षित होते हैं - अपने को शून्य में समाहित करना उतना कठिन नहीं, जितना माया के बीच अपने 'आत्म' से साक्षात्कार करना।

उपन्यास लिखना एक तरह से आँख-मिचौनी का खेल है - किंतु उसके नियम उस खेल से बिलकुल उल्टे हैं, जो हम बचपन में खेलते थे; लिखते हुए हम घंटों इधर-उधर भटकते रहते हैं, जो ढूँढ़ रहे हैं, वह कहीं दिखाई नहीं देता; फिर अचानक वह किसी झाड़ी की ओट में, किसी चट्टान के पीछे बैठा दिखाई दे जाता है, किंतु यह वह नहीं है जिसे हम ढूँढ़ रहे थे, यह वह है, जो हमारी तलाश में बैठा था...

पुराने शहर पुराने घरों की तरह होते हैं, पुराने किले में वह जीना दिखाई देता है, जहाँ हुमायूँ सीढ़ी से फिसल कर गिरे थे; यह वह जीना है, जिसके नीचे सर्दियों की धूप में बाबू बैठा करते थे... यह वह सड़क है, जिस पर दारा शिकोह को अंतिम दिन इतनी भीड़ के बीच बेइज्जत करके घुमाया गया था - और उनके मित्र रो रहे थे - यह गली का वह लैंपपोस्ट है, जहाँ मैं अपने मित्रों के साथ घंटों बातें किया करता था और यह वह खिड़की है, जहाँ से मेरी बहिन बाहर झाँका करती थी, और यह वह झरोके हैं, जहाँ से जहानआरा जमना को देखती थीं - जो हमेशा बहती रहती थी... हम उसी जमना में नहा कर - वापिस लौटते हुए सारा परिवार - दरीबा जाता था, सुबह की ताजा बेड़वियाँ खाने...

वही घर, वही किले, वही पुरानी धूप, वही जमना... दुनिया कितनी पुरानी है - लाखों लोग जो कभी जीवित थे, हँसते-बोलते थे, छिप कर प्रेम करते थे, जंगल में चले जाते थे - आज कहीं नहीं हैं। लेकिन जब मैं लोगों को देखता हूँ, तो उनमें कोई थकान नजर नहीं आती - जैसे वे पहली बार जी रहे हों... सिर्फ गर्मी की किसी दुपहर - जब मैं बाहर देखता हूँ, सूनी गली और पीले आकाश को - तो दुनिया सचमुच बहुत बूढ़ी और थकी जान पड़ती है!

मैं जब अकेले में सोचता हूँ - यह मैं हूँ, यह क्षण मेरा है, यह मेरी जगह है; कोई मुझे इससे नहीं छीन सकता... तो एक गहरी राहत और खुशी होती है - मैं स्वतंत्र हूँ और पूरी तरह अपनी स्वतंत्रता चख सकता हूँ।

किंतु जिस दिन कोई ऐसा क्षण आएगा, जब मैं यह सोच सकूँगा - कि न यह मैं हूँ, न यह क्षण मेरा है, न मेरी अपनी कोई जगह है, न मैं जीवित हूँ, न मनुष्य हूँ... इसलिए जो नहीं हूँ, उसे कौन मुझसे छीन कर ले जा सकता है? जिस दिन मैं यह सोचूँगा, उस दिन मैं मुक्त हो जाऊँगा, अपनी स्वतंत्रता से मुक्त, जो अंतिम गुलामी है...

मुक्ति और स्वतंत्रता में कितना महान अंतर है!

हम एक ऐसी सभ्यता में रहते हैं, जिसने सत्य को खोजने के लिए सब रास्तों को खोल दिया है, किंतु उस पाने की समस्त संभावनाओं को नष्ट कर दिया है।

जब हम अपनी आस्थाओं की धरती से मृत्यु को देखते हैं - तो वह कितनी सह्य और सहज जान पड़ती है : जब हम मृत्यु - अपनी मृत्यु की जमीन से - अपनी आस्थाओं को देखते हैं, तो वे कितनी गरीब और संदिग्ध दिखाई पड़ती हैं...

मैं चूँकि हमेशा अपनी आस्था और मृत्यु के बीच भटकता रहता हूँ, न मुझमें आस्थावान का सुख उपलब्ध है, न आस्थाहीन व्यक्ति की साहसपूर्ण पीड़ा - मैं केवल सुन्न हो सकता हूँ, जब हर चीज अर्थहीन जान पड़ती है अथवा दुर्लभ क्षणों में एक्स्टेसी का अनुभव - जब सब चीजें सहसा एक अलौकिक आलोक में सही और सच्ची दिखाई देने लगती हैं... इन दो चरम क्षणों के बीच संदेह ही ऐसा है, जो शाश्वत रहता है - और मुझे नहीं छोड़ता...।

सड़क पर चलते हुए दूसरी ओर से भीड़ का एक रेला आता है - चीखता हुआ, फब्तियाँ कसता हुआ, गालियाँ देता हुआ - और हम सहसा आतंकित हो जाते हैं, किंतु यदि हम थोड़ा-सा साहस बटोर कर सिर उठाएँ - और भीड़ में हर व्यक्ति का चेहरा देखें - तो वह इतना मानवीय, इतना निरीह, इतना दयनीय दिखाई देता है - कि हमारा आतंक एक क्षण में बह जाता है... वैसे ही जब कोई बड़ा दुख आता है, तो पहले क्षण वह हमें सराबोर कर देता है और हम सोचते हैं कि हम उसे नहीं सह पाएँगे - किंतु यदि हम उस दुख को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट कर अलग-अलग देखें, तो वह इतना भयानक नहीं जान पड़ता - हर दुख का छोटा अंश भीड़ का वह चेहरा है, जिससे हम आँखें मिला पाए थे और वह हमें छोड़ कर आगे बढ़ गया था...

दुख की तानाशाही यह है कि वह अपने को बँटने नहीं देना चाहता, तानाशाही का आतंक यह है कि वह सब चेहरों को एक में नफी कर देता है...

जब मैं अपने विगत जीवन के बारे में सोचता हूँ - तो वे सब घर याद आते हैं, जहाँ मैं रहा था, नए शहर और लंबी यात्राएँ और पुराने मित्र, लोगों के चेहरे, जो बरसों पहले इस दुनिया को छोड़ कर चले गए और वे लोग, जो अब भी इस दुनिया में हैं, लेकिन जो हमारी जिंदगी में कभी नहीं आएँगे - पढ़ी हुई किताबें, छोड़े हुए घर, छूटे हुए रिश्ते... कोई अंत है? उनके बारे में सोचता हूँ, तो अपनी जिंदगी कितनी लंबी जान पड़ती है...

लेकिन जब मैं अपने से पूछता हूँ, कि इतनी लंबी जिंदगी ने मुझे क्या सिखाया -तो लगता है, कि मैंने अपना जीवन अभी शुरू ही नहीं किया... मैं उन लोगों में हूँ, जो मृत्यु के क्षण तक अपने जन्म की प्रतीक्षा करते रहते हैं।

कहते हैं, कि वे लोग जो इस जीवन में अपनी अधूरी आकांक्षाओं के बीच मर जाते हैं - वे अतृप्त आत्माएँ ही प्रेत बन जाती हैं - इस जीवन और दूसरी योनि के बीच भटकती रहती हैं...

लेखक वह है, जो अपने जीवन-काल प्रेतात्माओं के बीच भटकता रहता है और अपने उपन्यासों-कहानियों में - उन्हें दूसरा जीवन देकर - अपनी अधूरी और अभिशप्त आकांक्षाओं से मुक्ति पा लेता है। यह वह तभी कर सकता है, कि वह जीते-जी स्वयं मर सके; दूसरों को पुनर्जीवन देने के लिए - चाहे वे उपन्यास के काल्पनिक पात्र क्यों न हों - अपना मृत होना अनिवार्य है।

जी कर भी मृत होना - यह मेरी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा रही है - और चूँकि मैं इसे कभी पूरी नहीं कर सका - इस अधूरी आकांक्षा का प्रेत मेरे और मेरे लेखन के बीच दिन-रात भटकता रहता है।...

हर छोटा लेखक मौलिक होने की चेष्टा करता है, जहाँ वह अपने पूर्ववर्ती लेखकों से अलग कुछ लिख सके... किंतु जो सही अर्थों में 'मौलिक' होता है, वह हमेशा अपने प्रिय, महान लेखकों की नकल करना चाहता है - किंतु लिखने की घड़ी में - वे महान लेखक विनयशील, शालीन मित्रों की तरह उससे विदा ले लेते हैं और उसे अकेले कमरे में छोड़ देते हैं - जो उसका नरक है - और मौलिकता का उद्गम स्रोत भी।

कौन कहता है कि दुनिया एक रहस्य है? वह एक किताब की तरह खुली है, हर चीज एक-एक अक्षर की तरह अंकित है; आश्चर्य की बात यह है, कि हम हर अक्षर के पीछे कोई अर्थ ढूँढ़ना चाहते हैं, जो नहीं है, यदि कोई अर्थ है - तो वह अक्षर नहीं, क्षर है। यह चिंता कितनी निरर्थक है, कि इस किताब का रचयिता कौन है - और यह जिज्ञासा कितनी अश्लील कि इसकी नियति क्या है और वह कहाँ खत्म होती है? यह कुछ उतना ही हास्यास्पद है जितना वह व्यक्ति जो उपन्यास के प्रथम और अंतिम पृष्ठों को पढ़ कर उसके भीतर की 'कहानी' समझने का उपक्रम करता है...

पश्चिम के धर्मावलंबियों और मार्क्सवादियों के बीच यह एक अद्भुत समानता है - दोनों ही इस सृष्टि के अहंकारी और अधैर्यशील पाठक हैं - एक उसका अर्थ आदि में खोजता है, दूसरा उसके अंतिम पन्ने पर - बीच का टेक्स्ट सिर्फ माध्यम है - एक माया-संसार - जिसे लाँघ कर वे अंतिम सत्य तक पहुँचना चाहते हैं।

कितना बड़ा व्यंग्य है कि संत और संन्यासी - जो सृष्टि के हर अक्षर को सत्य और पवित्र मानता है - उसे मिस्टिक या रहस्यवादी माना जाता है - किंतु जो व्यक्ति समूची सृष्टि के सत्य को धर्म या इतिहास के कुहरे में रहस्यावृत्त करता है, उन्हें आस्तिक और वैज्ञानिक बनने का गौरव मिलता है...

यदि समूची सृष्टि सत्य है, तो हम अपनी यातना का अर्थ भी कहीं बाहर नहीं खोजते और उससे छुटकारा पाने के झूठे प्रलोभनों से भी छुटकारा पा लेते हैं। सुख को अपने से बाहर कहीं ढूँढ़ा जा सकता है - यह उतना ही बड़ा भ्रम है, जितना यह कि कोई बाहरी शक्ति हमें इस सृष्टि के सत्य को उपलब्ध करा सकती है। हम जिसे 'ईविल' कहते हैं, वह इसी प्रलोभन से उत्पन्न होता है, कि हमसे बाहर कोई सुख है और इस सृष्टि के बाहर कोई सत्य है -

जब फाऊस्ट ने अपनी खिड़की के बाहर किसी अदृश्य अँधेरे में सत्य को पाने की आकांक्षा की थी, तभी उस क्षण मेफिस्टोफेल्स प्रगट हुआ होगा। उसी तरह - जब मनुष्य ने अपने से बाहर अपनी यातना से मुक्ति पाने का लालच किया होगा, तब इस दुनिया में पहली बार 'ईविल' की छाया पड़ी होगी।...

पाप और ईविल कुछ नहीं - सिर्फ मुक्ति के झूठे प्रलोभन हैं। हमारे समय में क्रांति चूँकि सबसे बड़ा प्रलोभन प्रस्तुत करती है, हर क्रांतिकारी को सफल होने के लिए कभी-न-कभी डेविल की शरण में जाना पड़ता है...

मनुष्य के भीतर जो 'पशु' है, उसकी तुलना बाहर के किसी भी पशु से नहीं की जा सकती। जंगल के पशु अपनी हिंस्र्ता में भी सहज रूप से पशुवत रहते हैं, अपनी प्रकृति की मर्यादा में आबद्ध; मनुष्य पशु से ऊपर उठने का बहाना करता है - और जब गिरता है - तो उसकी क्रूरता प्रकृति की सब मर्यादाओं को तोड़ती जाती है - इसलिए वह अपने स्वभाव में पाशविक है - पशुवत नहीं।

किंतु जब वह दुर्लभ क्षणों में सचमुच ऊपर उठ जाता है, तो देवता भी उससे ईर्ष्या करते होंगे - क्योंकि उसके भीतर का 'ईश्वर' भी स्वर्ग के सब देवताओं से अलग है; देवता कभी नीचे गिरने का जोखिम नहीं उठाते, जिस तरह पशु कभी ऊपर उठने की चेष्टा नहीं करते।

इसलिए मनुष्य अपने में कुछ नहीं - वह देवता से बड़ा हो सकता है, या पशु से नीचा - सहज रूप से मनुष्य नहीं - मानववाद मनुष्य का सबसे बड़ा इल्यूजन है!

जहाँ मनुष्य का 'मनुष्यत्व' ही इतना अनिश्चित है, वहाँ उसके भीतर का 'अहम' कितना संदिग्ध होगा, इसकी कल्पना मुश्किल नहीं है; किंतु यही सबसे दु:साध्य है; अपने 'मैं' से मुक्ति पाने का सिर्फ एक ही रास्ता है - अपने मनुष्यत्व से मुक्ति पा सकना... मनुष्य वह फल है, जिसमें उसका 'मैं' एक कीड़े की तरह बैठा रहता है...

क्या आज भी हम हवा में उसके सड़ने की सड़ांध नहीं सूँघ सकते? शायद नहीं -क्योंकि हम स्वयं उस दुर्गंध का अंश हैं।

एक लेखक - अपने सर्वोत्तम और सौभाग्यशाली क्षणों में - संन्यासी और शिकारी दोनों ही होता है। संन्यासी प्रेम करता है - सृष्टि के जीवों, प्राणियों, वस्तुओं से - हर गंध उसे लुभाती है, हर दृश्य उसके लिए प्राणवान है, हर स्वर कोई रहस्यमय अर्थ लिए आता है। वह सबके लिए आसक्त है - क्योंकि किसी एक से नहीं बँधा है - इसलिए उसकी आसक्ति से इतनी गहरी तटस्थता उपजती है।

संन्यासी के लिए जो सृष्टि है - शिकारी के लिए वही जंगल है - असंख्य आवाजों, पदचापों, छिपी हुई साँसों और उड़ती हुई गंधों से घिरा हुआ... वह एक-एक को पहचानता, देखता, सुनता और सूँघता हुआ आगे बढ़ता जाता है-और फिर अचानक अपना ध्यान एक गंध, एक आवाज, एक 'ट्रेल' पर केंद्रित कर देता है; फिर वह सब भूल जाता है, सब भटकनों और भटकावों को छोड़ सिर्फ एक का पीछा करता है... जब तक उसे पा नहीं लेता।

संन्यासी की निस्संगता से ही शिकारी की एकाग्रता उत्पन्न होती है - एक महान कलाकृति में सर्वस्व के प्रति लगाव और एक के प्रति एकाग्रता दोनों ही देखे जा सकते हैं।

एक अकेले व्यक्ति और संन्यासी के अकेलेपन में भारी अंतर है - एक अकेला व्यक्ति दूसरों से अलग हो कर अपने में रहता है; एक संन्यासी अपनेपन से मुक्त हो कर दुनिया में जीता है।

मैं अभी तक इस दूसरे अकेलेपन में जाने की सामर्थ्य नहीं जोड़ पाया हूँ...

अगर मैं दुख के बगैर रह सकूँ, तो यह सुख नहीं होगा; यह दूसरे दुख की तलाश होगी; और इस तलाश के लिए मुझे बहुत दूर नहीं जाना होगा; वह स्वयं मेरे कमरे की देहरी पर खड़ा होगा, कमरे की खाली जगह को भरने...

कला एक शोक है, एक वियोग, अपने भीतर खिंची रक्तिम भूमध्य रेखा - एक फाँक। जब हम उसके भीतर झाँकते हैं, तो हमें उसकी छाया में अपने छुटे और बिछुड़े हुए अंग दिखाई देते हैं - वे पँख, जिन पर पक्षी उड़ता है, वह आँख, जिसमें दोनों आँखों की नजर मिलती है, वह आत्मा, जो कभी देह में वास करती थी... हम नीचे झाँकते हैं और उसकी छाया में एक क्षण के लिए सब छुटे-बिछुड़े अंग हमसे दुबारा जुड़ जाते हैं... उन पहाड़ों की तरह जो लाखों वर्ष पहले किसी भौगोलिक दुर्घटना के कारण बीच में कट गए थे - लेकिन दोनों तरफ की कटी हुई चट्टानें नीचे बहते पानी की छाया में - एक-दूसरे से जुड़ी दिखाई देती हैं।

हमें किसी कलाकृति में कौन-से स्थल सबसे अधिक अभिभूत करते हैं? वह नहीं, जिनमें कलाकार ने अपनी अनोखी और अद्भुत अंतर्दृष्टियों को दर्ज किया है, वे संस्कृति के अंश हैं, जिन्हें उसने अर्जित किया है; कला में अर्जित अंतर्दृष्टि से परे एक दूसरा सत्य है, जिसे अंकित नहीं किया जाता है जैसे जंगल में दौड़ता हुआ हिरण, गाता हुआ वनवासी, माँद में स्वप्न देखता हुआ सिंह - किसी कॉपी में अपना अनुभव नहीं दर्ज करता... ऐसे अनुभव प्रकट होते हैं, ओझल हो जाते हैं - वे केवल उस कलाकार के पास आते हैं जो अपने अहम से मुक्त प्रकृति का ही हिस्सा जान पड़ता है - तब वे उससे डरते नहीं; उसे सूँघते हैं, चाटते हैं - और जब आश्वस्त हो जाते हैं, कि यह कवि और लेखक मनुष्य न हो कर समूची सृष्टि का ही अंग है, तो उसके भीतर अपने को सुरक्षित महसूस करते हैं, उसके खून में समा जाते हैं, उसकी धमनियों में धड़कते हैं...

और हम-पाठक, श्रोता, दर्शक-जब कभी किसी कविता, पेंटिंग या संगीत रचना में - उनकी झलक पा लेते हैं, तो वह प्रकृति का अप्रत्याशित चमत्कार जान पड़ता है - जिसे कलाकार ने जन्म नहीं दिया - सिर्फ अपने भीतर से गुजर जाने का 'सेफ कंडक्ट' प्रदान किया है...

हमें समय से गुजरने के साथ-साथ अपने लगावों और वासनाओं को उसी तरह छोड़ते चलना चाहिए जैसे साँप अपनी केंचुल छोड़ता है और पेड़ अपने पत्तों और फलों का बोझ... जहाँ पहले प्रेम की पीड़ा वास करती थी, वहाँ सिर्फ खाली गुफा होनी चाहिए, जिसे समय आने पर संन्यासी और जानवर छोड़ कर चले जाते हैं...

बूढ़ा होना - क्या यह धीरे-धीरे अपने को खाली करने की प्रक्रिया नहीं है? अगर नहीं, तो होनी चाहिए - ताकि मृत्यु के बाद जो लोग तुम्हारी देह को लकड़ियों पर रखें, उन्हें कोई भार महसूस न हो और अग्नि को भी तुम पर ज्यादा समय न गँवाना पड़े, क्योंकि तुमने जीवनकाल में ही अपने भीतर वह सबकुछ जला दिया है, जो लकड़ियों पर बोझ बन सकता था...

फेलिस के नाम काफ्का का पत्र :

'मुझे अपने लेखन के लिए जो चीज चाहिए - वह है एकांत। किंतु एक संन्यासी का एकांत नहीं, वह काफी नहीं होगा; मुझे चाहिए - एक मृतक का एकांत। इस अर्थ में लेखन मेरे लिए एक ऐसी नींद है, जो मृत्यु से भी ज्यादा गहरी है और जिस तरह हम मृतक को उसकी कब्र से खींच कर बाहर नहीं ला सकते, उसी तरह रात की घड़ी में मुझे अपनी डेस्क से खींच कर कोई नहीं ले जा सकता।'