रास्तों से दोस्ती / सुकेश साहनी

Gadya Kosh से
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वह लंबे-लंबे डग भरते हुए चले जा रहे थे। मुझे दीदार सिंह को पहचानने में देर नहीं लगी।

"सत श्री अकाल, सिंह साहब!" मैंने पुकारा।

पलटकर मेरी ओर देखते ही उनके होठों पर मीठी मुस्कान तैर गई। पास आए और गले लग गए।

"बहुत दिनों बाद दिखे, सब खैरियत तो है?" मैंने पूछ लिया।

"सब वाहे गुरु की कृपा है, भाई!" उन्होंने मेरे हाथ में लट्ठनुमा बेंत को ध्यान से देखते हुए कहा, "आप लोगों ने ही दूसरा रास्ता पकड़ लिया है, मुलाकात हो भी तो कैसे?"

पहले हम सभी जाट रेजीमेंट की ओर जाने वाली सड़क पर सैर को जाते थे। धीरे-धीरे उस सड़क पर आवारा कुत्तों और बंदरों का आतंक बढ़ता गया और हमें उनसे बचाव के लिए हाथ में छड़ी, बेंत या गुलेल लेकर चलना पड़ता था। दीदार सिंह भी हमारे साथ होते थे, पर उन्होंने कभी भी छड़ी या बेंत नहीं पकड़ी। वह निर्भय होकर हमारे आगे-आगे चलते थे और हमें भी छड़ी का इस्तेमाल करने से मना करते रहते थे। बंदरों के राह चलते लोगों को काटने की घटनाएँ बढ़ती जा रही थीं। अंततः हम मार्निंगवाकर्स ने जाट रेजीमेंट वाली सड़क को छोड़कर कम्पनीबाग की ओर जाने का निर्णय ले लिया था। तभी से हमारा और दीदार सिंह का साथ छूट गया था।

"आजकल आप किस तरफ घूमने जाते हैं?" मैंने उनसे पूछा।

"वहीं...अपनी पुरानी जाट रेजीमेंट वाली सड़क पर।"

"क्या!" मैंने हैरानी से पूछा, "उस सड़क पर कटखने कुत्तों और खूंखार बंदरों की वजह से कोई नहीं जाता। वह आपको कुछ नहीं कहते।"

"बीस साल हो गए, अभी तक तो कोई कुत्ता या बंदर मेरे पीछे नहीं पड़ा। आगे रब राखा है।" उन्होंने मुस्कुराकर कहा। मैंने गौर किया, आज भी उनके हाथ में कुत्तों, बंदरों से रक्षार्थ कोई छड़ी या डण्डा नहीं था।

"ताज्जुब है!" मेरे मुँह से निकला -हमें तो अब कम्पनीबाग वाली सड़क पर जाते भी डर लगता है। बंदरों की टोलियाँ की टोलियाँ सड़क घेरे बैठी रहती हैं। उनका बस चले, तो हमें चबा डालें। हम सब तो अब किसी तीसरी शांत सड़क की तलाश में हैं।

सुनकर उनके होठों पर फीकी-सी हँसी दिखाई दी।

"सिंह साहब, एक बात बताइए... ये आवारा कुत्ते और खूँखार बंदर आपको कुछ नहीं कहते जबकि आप छड़ी तक साथ नहीं रखते।"

वे जोर से हँसे ओर बोले, "यह सवाल तो उन बंदरों और कुत्तों से पूछा जाना चाहिए।"

अगले ही क्षण बेहद गंभीर स्वर में बोले, "ये बंदर और कुत्ते तो स्थान बदलते रहते हैं। इस बारे में अगर कुछ जानना है, तो सदियों से हमारी प्रत्येक गतिविधि के मूकदर्शक इन रास्तों से पूछो" , कहकर उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया और अपनी चिरपरिचित जाट रेजीमेंट वाली सड़क पर चल दिए।

मैं देर तक उन्हें देखता रहा। ऐसा लग रहा था मानो कोई छोटा बच्चा बेशकीमती और मुलायम कालीन पर नंगे पाँव चला जा रहा हो। घने वृक्षों से आच्छादित सड़क पर धीरे-धीरे गुम होती उनकी काया प्रकृति का हिस्सा मालूम पड़ रही थी।