राहुल जी : कुछ यादें / भीष्म साहनी
अब तो ज़माना बीत गया। राहुल जी के देहावसान को भी बीस बरस से अधिक का समय बीत चुका है, पर अभी भी उनका सौम्य चेहरा और प्रभावशाली व्यक्तित्त्व कभी कभी आँखों के सामने घूम जाता है। जब भी उन्हें याद करो, उनका निखरा निखरा व्यक्तित्त्व ही सबसे पहले आँखों के सामने आता है।
समय बीत जाने पर भी राहुल जी की कल्पना हम अभी भी एक पौराणिक नायक की भाँति ही करते हैं, क्योंकि अपने जीवनकाल में ही — उन बीते दिनों में जब न साधन हुआ करते थे और न ही कहीं से अनुदान मिला करते थे — राहुल जी ने ऐसे कारनामे कर दिखाए, जो एक साधारण व्यक्ति की सामर्थ्य के बाहर थे।
मैं दसेक साल से कम उम्र का बालक रहा होऊँगा, जब मैंने राहुल जी को पहली बार देखा था। तब वे राहुल सांकृत्यायन नहीं थे, तब वे रामोदार दास थे। ऐसा ही मुझे याद पड़ता है।
वे हमारे शहर रावलपिण्डी आए थे और हमारी पाठशाला में ही, जहाँ आर्यसमाज का सत्संग हुआ करता था, उनका व्याख्यान हुआ था। मैं चकित और मंत्रमुग्ध सा उन्हें देखता रह गया।
उनका व्याख्यान तो मेरे पल्ले क्या पड़ता, दस बरस का बालक गम्भीर विषयों को कितना कुछ जान और समझ सकता है, पर उनका अत्यन्त सुन्दर और प्रभावशाली चेहरा और क़द-बुत मुझे बड़े आकर्षक लगे थे। अगर मैं भूल नहीं करता, तो वे उन दिनों आर्यसमाज से सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे। वे प्रचारक न भी रहे हों, तो भी आर्यसमाज के उद्देश्यों, मान्यताओं आदि से उत्प्रेरित थे, क्योंकि आर्यसमाज मन्दिर में बड़ी श्रद्धा और आदर के साथ उनके व्याख्यान का आयोजन किया गया था। मैं तो उन दिनों, सचमुच, बहुत छोटा था, पर राहुल जी की उम्र भी उन दिनों 25-30 से ज़्यादा नहीं रही होगी।
मैंने देखा तो बहुत से महापुरुषों को है, पर दूर दूर से ही। कभी कभार ही ऐसा सौभाग्य प्राप्त हुआ होगा कि उनके निकट बैठ पाया होऊँ या उनके साथ दो बातें ही की हों। ऐसे मौक़े मिले हैं, पर वे भी क्षणिक ही। ज़्यादातर तो मैं दूर से ही उन्हें देखकर धन्य धन्य होता रहा हूँ।
राहुल जी के साथ मिल-बैठने का मौक़ा मिला था — पर उस समय जब वे अपने जीवन के अन्तिम चरण में पहुँच चुके थे और बीमार होकर मसक्वा के एक अस्पताल में पड़े हुए थे।
ख़ैर, बचपन बीत जाने पर, जब मैं कॉलेज में पढ़ रहा था, तब राहुल जी के फिर दर्शन हुए। यह श्रीनगर (कश्मीर) की बात है। सन पैंतीस (1935) के आस-पास के दिन रहे होंगे। राहुल जी अब रामोदार दास नहीं रहे थे। वे और उनका एक जर्मन साथी श्रीनगर के आर्यसमाज मन्दिर में एक दोपहर अपनी प्रस्तावित तिब्बत-यात्रा के बारे में कुछ कहने आए थे। मन्दिर में गिने-चुने लोग ही रहे होंगे, और शायद ज़्यादा लोग आए भी होते तो वे भी राहुल जी के काम के महत्त्व को समझ पाने में असमर्थ ही होते।
राहुल जी की जिज्ञासा उन्हें बहुत दूर तक ले जा चुकी थी और जोखिम उठाकर वे लगभग अकेले जिस कठिन प्रयास मार्ग पर निकल पड़े थे, वह शायद उनके श्रोताओं की पकड़ में नहीं आता। तभी मैंने जाना कि ज्ञान की भूख भी मनुष्य में उन्माद की सी स्थिति पैदा कर सकती है।
राहुल जी की कभी न शान्त होने वाली जिज्ञासा ही उन्हें तरह तरह के जोखिम उठाने पर बाध्य कर रही थी और उनके व्यक्तित्त्व में नए नए आयाम जोड़ रही थी। उन्होंने उस अवसर पर कोई व्याख्यान नहीं दिया, बस, अपने साथी से परिचित कराया और तिब्बत यात्रा की अपनी योजना का ब्यौरा दिया। अगर मुझे ठीक याद पड़ता है तो उन दोनों में से एक चीवर वेश में था — राहुल जी ने तो शायद सफ़ेद कपड़े पहन रखे थे, पर उनका जर्मन साथी चीवर वेश में था। दोनों को ही देखकर बौद्ध-भिक्षुओं का सा भाव मन में आता था।
बाद में, शायद साल-दो साल बाद सुनने को मिला था — सम्भव है, इससे भी अधिक या कुछ कम समय बीता हो — कि राहुल जी तिब्बत से भारी संख्या में बहुमूल्य पाण्डुलिपियाँ लेकर आए थे।
इसके कुछ ही अरसे बाद राहुल जी की पुस्तकें हाथ में आने लगीं — कुछ उपन्यास और कुछ दार्शनिक ग्रन्थ।
जब मैं सारनाथ की यात्रा पर गया तो एक मित्र ने बताया कि राहुल जी अमुक कमरे में ठहरे हुए हैं। मेरा बड़ा मन हुआ कि उनका दरवाज़ा खटखटाऊँ, उनके दर्शन कर लूँ, पर मैं उनसे कहता क्या — कि मैंने आपको रावलपिण्डी में देखा था, जब मैं दस साल का बच्चा था और श्रीनगर में भी जब आप तिब्बत की यात्रा पर जा रहे थे। यह तो कोई बात नहीं बनती। यह एक चिन्तक के काम में बाधा डालना होगा।
तभी उस मित्र ने यह भी बताया था कि कुछ अरसा पहले नेहरू जी सारनाथ आए थे। राहुल जी की आर्थिक-स्थिति अच्छी नहीं थी और नेहरू जी इस बात को जानते थे, पर अपनी ओर से ’सहायता’ देने की ’धृष्टता’ कैसे करते। नेहरू जी ने अपनी जीवनी की एक प्रति, जो उनके पास थी, राहुल जी को भेंट की और विदा लेकर चले गए। बाद एं राहुल जी उस पुस्तक के पन्ने पलटने लगे तो उन्हें पन्नों के बीच एक जगह पर सौ रुपये का नोट रखा मिला।
वर्षों बाद राहुल जी को मैंने मुम्बई में देखा। वे कम्युनिस्ट पार्टी के दफ़्तर में बैठे थे। तब राहुल जी मार्क्सवाद में आस्था रखने लगे थे और ख़ूब लिख रहे थे। मैं वहाँ पर अपने भाई से मिलने गया था। वह बँटवारे से कुछ दिन पहले की बात रही होगी। भाई ने ही बताया था कि तीसरी मंज़िल पर अमुक कमरे में राहुल जी बैठे हैं — दाएँ बाजू की दीवार के साथ टेक लगाकर वे फ़र्श पर बैठे हुए हैं, जाओ, जाकर मिल आओ।
और सचमुच राहुल जी वहाँ आलथी-पालथी मारकर बैठे थे। वे कोई किताब बाँच रहे थे। उनका बदन पहले से कुछ ढल गया था, पर चेहरा पहले की तरह ही सुन्दर और सौम्य था। मैंने उनकी एक झलक ली और नीचे उतर आया।
आख़िरी बार राहुल जी को मैंने मसक्वा (मास्को) में देखा, और तब मैं उनके पास बैठा भी, और बड़े चाव से उनका हाथ भी अपने हाथ में लिया। पर मेरे लिए यह मुलाक़ात बड़ी दुखद रही, क्योंकि राहुल जी इलाज के लिए मसक्वा आए थे और उनकी हालत अच्छी नहीं थी। वे बहुत दुबले भी हो गए थे, हालाँकि उनकी मुस्कान अभी भी पहले की तरह ही निखरी निखरी और आकर्षक थी। वे बार बार अपनी चेतना खो बैठते थे, कुछ सोच-सोचकर भावुक हो उठते थे और रोने लगते थे।
मैंने उन्हें बताया कि कब मैंने अपने बचपन में पहली बार उन्हें देखा था। मेरी बातें सुनते हुए, वे एकटक मुझे ताक रहे थे। मुझे लगा कि जैसे बीसियों बरस पहले के वे दिन उन्हें भी याद हो आए हों, या उनके मन में उन दिनों की धूमिल सी याद उभरने लगी है। फिर जब मैंने उन्हें उनकी तिब्बत की यात्रा की याद दिलाई, तो वे रो पड़े और उनके गालों पर झर झर आँसू बहने लगे। उनकी पत्नी उनके सिरहाने बैठी थीं और बार-बार उनके आँसू पोंछ रही थीं। न जाने किस याद ने उन्हें इतना ज़्यादा भाव-विह्वल कर दिया था या शायद बीमारी के कारण उनकी मानसिक अवस्था ही कुछ ऐसी हो गई थी।
निश्चय ही, मुझे भी उस समय धक्का सा लगा था कि राहुल जी में कितना बड़ा परिवर्तन आ गया है। पहले वाला राहुल तो अब इस राहुल में ढूँढ़े नहीं मिल रहा था।
पर यह मेरी भूल थी। राहुल जी शीघ्र ही मसक्वा छोड़कर वापिस भारत चले गए। भारत पहुँचने के कुछ ही अरसा बाद उनका देहान्त हो गया। तब तक मैं यह बात समझ चुका था कि मैंने मसक्वा में उन्हें जिस रूप में देखा था, वह उनका असली रूप नहीं था।
उनका असली रूप तो उस जिज्ञासु यात्री वाला ही था, जिस रूप में वे आजीवन एक जगह से दूसरी जगह पर भटकते रहे थे, एक के बाद दूसरा ग्रन्थ लिखते रहे थे, निर्भीक, धुन के पक्के, अपनी मान्यताओं पर सदा विचार करते रहने वाले और उनमें ज़रूरी बदलाव करने का साहस रखने वाले, ख़ुद ग़रीबी में जीकर देश भर का ज्ञानकोष समृद्ध करने वाले। वे उस विरल व्यक्तित्त्व के धनी थे, जो हमारे देश में सदियों में कभी-कभी ही उभरता है।
काश, कि ज़माना दूसरा होता। काश, कि उनके रहते सरकार ने और उनकी प्रतिभा को पहचानने वाली अन्य संस्थाओं ने उनके खोज-कार्य को सहज बनाने के लिए उनके प्रति सहायता का हाथ बढ़ाया होता। तब मन के अन्दर तो वे फिर भी वैसे के वैसे बेचैन बने रहते, उनकी जिज्ञासा उन्हें चैन से नहीं बैठने देती, पर वे शायद अधिक धर्य से, ज़्यादा जम-बैठकर काम कर पाते।
उन्होंने कई ऐसे काम भी अपने हाथों में ले लिए थे, जो किसी भी अकेले आदमी के बस के नहीं थे। यदि उन्हें सहायता मिली होती तो ये काम अधिक सुव्यवस्थित ढंग से हो पाते।
अब हम उनकी देन का मूल्य ऊँचा आँकते हैं, पर सबसे बड़ी बात यह है कि उनका जीवन और व्यक्तित्त्व सतत प्रेरणा के स्रोत हैं। जिन्हें हम मानवीय क्षमताओं की सीमा मानते हैं, राहुल जी बार-बार उन्हें तोड़कर आगे बढ़ते रहे।