रिक्शेवाला / सुरेश सौरभ
पसीने से तरबतर वह सरदार पायडल मारते हुए सड़क किनारे अपना रिक्शा खड़ा करके, एक झुग्गीनुमा होटल पर रुका और अंगोछे से अपना बदन ओंछते-पोंछते हुए उस होटल वाले से एक चाय की फरमाइश करके टूटी-फूटी कुर्सी पर निढाल हो गया, फिर वहीं बेंच पर रखें एक मग से पानी सोंखते हुए, सुस्ताने लगा, कुछ घड़ी बाद होटल वाले ने उसे चाय थमा दी।
अब वह सिप-सिप करते हुए तसल्ली से चाय पीने लगा। तभी एक लग्जरी गाड़ी उसके सामने आकर रुकी। उसमें से चार-पांच हट्टे-कट्टे सरदार बहुत तेजी से निकले, तड़ाक... एक जोरदार तमाचा रिक्शेवाले सरदार की कनपटी पर पड़ा। चाय भरा कांच का गिलास दूर जाकर गिरा और चिंदी-चिंदी हो गया। अब तड़ा-तड़ तमाचो की बरसात होने लगी। ...साला, सरदार होकर रिक्शा चलाता है और कोई काम नहीं मिला अरे! कोई काम नहीं मिला था, तो हम सब सरदार क्या मर गये थे। फिर मूसलाधार घिनी-घिनी गलियाँ वहाँ बरसने लगीं। रिक्शेवाले सरदार ने सफाई देने की कोशिश की...चोSप! ...अब ज़्यादा सफाई न देना। हम लोगों से कहना चाहिए था, तूने तो पूरे सिख कौम की नाक कटा दी, फिर उसको घसीटते हुए
अपनी लग्जरी गाड़ी में बिठा लिया।
अब गाड़ी चल पड़ी। रिक्शेवाला सरदार गाड़ी में चुपचाप उदास बैठा था, उसके चेहरे पर अनगिनत भाव आ, जा रहे थे और चेहरे की सिलवटें उसकी-उसकी मजबूरियों का लेखा-जोखा करने में जुटीं थीं। अब उसे पीटने वाले सरदार कह रहे थे-तुमको जो रोजगार करना है, हम को बताओ हम करवायेंगे, पर हमारी वीर कौम पर यह कलंक न लगाओ. रिक्शेवाला सरदार अब यह सोच रहा था इन लोगों का प्रतिकार करें या उपकार करने के लिए धन्यवाद ज्ञापित करे। उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। अब वह शर्म गड़ा जा रहा था। सिर पर मानो घड़ों पानी पड़ा हो।