रिजक / मैत्रेयी पुष्पा
बेहाल है लल्लन !
अमरौख गाँव का सीपर (स्वीपर), जो मोंठ के अस्पताल में काम करता है, अभी-अभी खबर देकर गया है कि आसाराम...बसोरों ने अस्पताल के सामने खड़े होकर नारे लगाए, गालियाँ बकीं और हिंसाबाद....आसाराम सबसे आगे था, उसका स्वर सबसे ऊँचा था। साथी ईंट पत्थर फेंक रहे थे। खिड़कियों के शीशे टूटे। कम्पोटर जी को बहुत चोट आई है। डाकघर साहब आग बबूला हो उठे। इतनी बात सह सकते हैं डाकधर लोग ? तुरन्त थाना पुलिस का सिपाही बुलवा लिया। दारोगा जी खुद हाजिर हो गए। आसाराम को कैद कर लिया। वह हवालात में...
लल्लन का रोम-रोम काँप गया। इस तरह की वारदात आज वह तीसरी बार सुन रही है। हर बार आसाराम उसे अन्धकूप में धकेल देता है। वह मुँह खोले बावरी सी खड़ी रह गई। सीपर लल्लन के बदहवास चेहरे को देखता रहा। देर तक वह कुछ नहीं बोली तो सीपर बोला, "सीताराम भौजी, अब चलता हूँ। उसे छुड़ाने की जुगत करना। बस इतना ही कहने आया था।
लल्लन को अचानक चेत आया बोली, "भइया, बिरादरी का कोई आदमी...जमानत के लिए सिकदंरा के पल्टू दाऊ जू ?"
"आँ हाँ, कोई नहीं।"
लल्लन के मुख से गालियाँ फूटने लगीं-बिंड़ा रह हवालात में। बड़ा मरता था बिरादरी के लिए। सगे खास अब कहाँ अलोप हो गए ? हत्यारे, सब अपने स्वारथ के हैं। गुड़ देखते के चींटे।
सीपर चला गया। लल्लन खड़ी रह गई अकेली।
पाँवों में सत्त नहीं बचा, उससे खड़ा नहीं जा रहा। माथे में घुमेर उठ रही है, और कान सनन-सनन ! क्या करे, क्या न करे ? सोच में डूबी मड़ैया में घुसकर धम्म से धरती पर बैठ गई। माथे पर हथेली धरे, घुटने पर कोहनी टेके बैठी रही, ज्यों कोई गमी हो गई हो ! सारे नाते-रिश्तेदारों, मिलने-जुलने वालों पर ध्यान आता रहा। पर कुछ हासिल नहीं। कोई जाना ही चाहता तो अब तक छुड़ा न लाता आसाराम को। सीपर कह रहा था तीन दिन...और उसके लिए आसाराम की जमानत कराना ज्यों सरग के तारे तोड़ना...
उदास निगाह से उस खटिया की ओर देखने लगी, जिस पर सास पड़ी हुई हैं। बेटा के आने की बाट में झुर्री भरी आँखें कौड़ी की तरह खुली हैं। पूछती हैं बार-बार, "आसाराम नहीं लौटा लल्लन ? वह तो रहता था, कमली के सगाई के सम्बन्ध में अम्मा, आधा दिन भी नहीं लगना। लो, आज तो पूरा महीना हुआ जाता है, कोई खबर नहीं। किसी से पूछताछ तो कर बेटी !"
अम्मा उठकर बैठ गईं, बूढ़े होंठों से जुगाली-सी करती हुई आसाराम की बावत ही पूछने लगीं, "ऐसा तो नहीं कि तू कुछ छिपा रही हो लल्लन ? तेरा चेहरा कुम्हला गया है।"
लल्लन अधिक दुखी हो उठी। वह अम्मा की अनुभवी आँखों पर कब तक परदा डाले रहेगी ? कब तक छिपा सकेगी सच बात ? नासिया ने माँ की हारी-बीमारी का भी ख्याल नहीं किया। मन में तो आता है कि सड़ने दे हवालात में। भाड़ में गई जमानत !
"अम्मा लेट जाओ, फिकर में हलकान हो रही हो। तुम्हारा तो वैसे ही जी अच्छा नहीं..." लल्लन ने सास की आंखों में आसाराम के बदले की आत्मीयता उड़ेल दी।
घुटनों में मुँह गाड़े बैठी है लल्लन। ऐसे कब तक चलेगा ? कब तक खींचेगी पूरी गृहस्थी का बोझ ? बेआधार, बेरोजगार कैसे बैठा रहे कोई ? भूखे पेट को कब तक मसोसे ? कैसे थे हम ! क्या धजा बन गई ? मुकद्दर की मार कहो सो भी नहीं। अपने रिजक से, अपने पेशे से बेईमानी करी तो भागेंगे नहीं ?
आज ही नहीं है लल्लन। पैंतीस-अड़तीस बरस उमर गुजार चुकी है। बीसियों साल तो इस खिल्ली गाँव में ही हो गए। गौना होकर आई थी तो हद से हद सोलह सत्रह बरस की रही होगी। बीस बाइस की होते-होते सास का आसन ऐसे ले लिया जैसे पिरौना, वाली दाई बहू को गद्दी सँभलवाने तैयार ही बैठी थी। खैनी- मिस्सी खाने में ही नहीं, अम्मा के हाथ का जस त्यों उतार लिया अपने हाथों में अपनी तलहथियों में, ऊँगलियों में। लल्लन उँगलियों की पोरों से अपनी हथेली टटोलती रही। छू-छूकर देखती रही, जैसे पहचान रही हो कि ये वे ही हथेलियाँ हैं जो..
उसे अम्मा की असीस याद आ गई ? "बेटी, मेरा आसीरबाद तेरे संग है हरदम, तेरे ऊपर। बस दो बातें याद रखना लल्लन ! बच्चा जनाते बखत खुरपी हँसिया खौलते पानी से धोकर, पोंछकर फिर नरा (नाल) काटना। और जच्चा के कोठे में हवा का परगास रहे। वैसे तू हौसले हिम्मत वाली जनी है। अदब-कायदा वाली है। तेरे ऊपर मेरी बड़ी उम्मीद है बेटा !"
इस बात को वह आज भी मानती है, उसे सास की असीसें फल गईं। अम्मा के नाम से भी आगे गया उसके हाथ का जस। लल्लन के होते हुए गाँव-आनगाँव वालों को पिरौना वाली दाई की कमी नहीं अखरी।
आज सोचती है तो कलेजा फटता है। ऐसे लगता है, जैसे वे सब बीती बातें हों, सपने हों। वे दिन कहाँ हिरा गए जब अमगाँव से अमरोख तक के माते-मोदी उसके लिए गाढ़ी-गढ़ला जोतकर लाते थे। मड़ोरा कायले के लोधी कुर्मी उसे अपनी साइकिल के कैरियर पर बिठाकर ले जाते थे। उसी मान-सम्मान के चलते दिन-रोज उसका कलेजा पुख्ता होता जाता था। हाथ निपुणता, कुशलता से चलते थे। फँसे, अधफँसे शिशु को अनुभवी ऊँगलियों से बाहर खींचकर जच्चा को निष्कंटक निरबार लेती थी। लल्लन की बाँहें आज भी कसमसाती हैं, उँगलियाँ फड़कती हैं। पर काहे को...ये सब तो पिछती हिलोरें हैं। याद करके दुःख ही पाना है।
गहरी साँस भरी लल्लन ने, जगदीश तिवारी क्या भूल गए होंगे ? उनकी मरती हुई बहू के प्रान वापस लाई थी। जच्चा के संग-संग ऐसे जूझी थी, ज्यों उसने सही हों जानलेवा पीरें। उसने ही जना हो तिवारी का नाती ! घर लौटकर आई तो ये ही अम्मा आँखें फाड़े देखती रह गईं। बोलीं, "आज क्या जयराम से कुश्ती लड़ी थी ? मड़ोरा से खिल्ली तक भी पसीना नहीं सूखा, ठंड के दिनों में ?"
हाँ, अम्मा हाँ ! महामाई का सुमिरन करके और तुम्हारा नाम लै के हमने जमराज से कुश्ती लड़ी थी। बहू बच गई। अम्मा, बस हमारी मेहनत सुकारथ हो गई। जुग-जुग जीवे तिवारी का नाती।"
अम्मा का कलेजा फूलकर दोगुना-चौगुना हो गया। पीठ थपथपाकर बोलीं, बेटी जनी की जात ! एक पाँव नरक में तो एक सुरग में। दाई ही भैमाता का रूप धरकर परगट होती है उस बखत।" भैमाता के नाम का नारियल तोड़ा था उस रात। बच्चों में परसाद बाँटा था लल्लन ने।
वही लल्लन आज घुटनों में मुँह दिए बैठी है।
सिकंदरा और खिल्ली के अहीरों में सिर-फुटव्वल दुश्मनी थी। ऐसा बैर कि ब्याह-काज, पाँत-पंगत तो कहे कौन, मौत-गमी तक में आना-जाना नहीं। रंजिश निभाने के लिए सूत सलाह रखा जाता है, यह बात कोई खिल्ली सिकंदरा के अहीरों से सीखे। मजाल है कि कुत्ता, बिल्ली, माछी, मच्छर तक उड़कर जाए एक दूसरे की सीमा में ! हाट-बाजार भी मिल जाते थे तो मुँह फेर लेते थे, एक-दूसरे को देखते ही।
पर भैमाता की भी अनेक लीलाएँ हैं। उसी का जनमा आदमी उससे बच पाएगा भला !
लो, उन्हीं दिनों हरदयाल अहीर की बहू की जान खतरा खा गई। पहलौटी का बच्चा और बहू थी अनजान, अखेल, अल्हड़। सिर्रिन ने तीन दिन तक तो किसी को इल्म नहीं होने दिया कि पीरें आ रही हैं। उसका भी क्या कसूर ? घर में सास-ननद होतीं, कि देवरानी-जेठानी रहतीं तो पहचानतीं, पढ़ लेतीं पीर भरा चेहरा, दर्द-भरी आँखें ससुर मर्द की जात, क्या जाने, क्या पहचाने ! उस बिचारों ने कभी दर्द-पीर सहे हों तो जानें। ऊपर से बहू का घूँघट परदा। उसका आदमी लाम में। महामाई की किरपा समझो कि पड़ोसिन चूल्हे की आग माँगने आ गई। बहू का बेहाल रूप देखा तो सन्न। तुरन्त बाहर की ओर भागी और हरदयाल को सचेत किया, ओ किरपाल के दादा, बहू तो रेत की मछली सी छटपटा रही है। दइया, साँसें तक नारी-नब्ज दाई को बुलाओ जल्दी-जल्दी से जल्दी।"
मौत का खौफ सब डरों से भारी होता है। फिर कहाँ खिल्ली कहाँ सिकंदरा। कुछ नहीं सोचा हरदयाल अहीर ने। घोड़े की पीठ पर जीन डाली और दौड़ लिए। दौड़ते-दौड़ते आ गिरे लल्लन की चौखट पर। आज भी सजीव है लल्लन की आँखों में वह तसवीर हरदलाय का लुटा, उजड़ा बदहवास मुख देखते ही वह घोड़े पर उनके पीछे बैठे ली थी। मुड़कर न गाँव के लोगों की ओर देखा, न आसाराम की तरफ।
उसके हाथ में जस था, सिर पर अम्मा की असीस। बहू को जिन्दगी मिली। हरदयाल के घर फूल-सी नातिन ने जन्म लिया। हरदयाल की बदौलत ही सिकंदरा खिल्ली के अहीरों में आना-जाना और मेल-मिलाप हुआ।
गहरी साँस लेकर एक नजर सास की ओर देखती रह गई लल्लन। पिरौना वाली बूढ़ी दाई ऐनक की टूटी कमानी में बँधा धागा अपने कान में लपेट रही है। क्या देखना चाहती हैं अम्मा ? अब बचा भी क्या है ? ऐनक लगाएँ न लगाएँ, बहू का रोया हुआ लाचार चेहरा देखकर क्या करेंगी ?
मैंने तो तुम्हारी नसीहत, तुम्हारी कहनावत सिर- आँखों रखी थी अम्मा, आज तक। याद हैं तुम्हारे बोल-बेटी अपने रिजक में भेदभाव, बैर-मित्ताई ऊँच- नीच का ठौर नहीं। अपने पेसा से बेईमानी मत करना। रोजी का ठौर भगवान का ठौर है।"
पर अम्मा तुम्हारा ही बेटा उसी की जिद...
अमरौख का सीपर कह गया है कि आसाराम... लल्लन ने आधी बात पर ही विराम लगा दिया। भला हुआ जो मोंठ के कसाई को बकरी बेच दी। रुपए लेकर आता ही होगा बकरी खोल ले जाने का आज का ही वादा है। पेटों का गुजारा तो किसी तरह हो रहा है, ऊपर से आसाराम की जमानत...?
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