रिद्धि नेपाल को / राजकमल चौधरी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रामबहादुर के चेहरे में ऐसी सादगी, ऐसा अपनापन है, जो उम्र के साथ घटता नहीं, फैलता ही जाता है। कोमलता की रेखाएं और घनी होती जाती हैं। उनकी बातें सुनने वालों को लगता है, वह किसी सफेद पहाड़ी झरने के पास बैठता है-मीठे दूध का झरना, जो शोर नहीं करता, पत्थर की चट्टानों पर सहमे-सहमे उतरकर, तराई के धान के खेतों को सींचने वाला सोता बन जाता है। रामबहादुर कहता, “धन्नाजी, आदमी की सबसे बड़ी मुसीबत यही है कि वह जानवर नहीं बन पाता है।”

धन्नाजी सिर हिलाते हैं, उनकी नसों में गुदगुदी लगती है, अफीम का नशा नीले रंग का सांप बनकर उसकी पीठ पर रेंगने लगता है। ‘जानवर‘ एक शब्द है, जिसे सुनते ही उन्हें एक साथ दो औरतों की याद आती है-एक रामबहादुर की पत्नी रिद्धि और दूसरी धन्नाजी की बहन रिद्धि! दोनों औरतें एक ही हैं। रामबहादुर ने ही धन्नाजी की बहन से जाति प्रथा के अनुसार सात बार कसम खाकर ब्याह किया है। लेकिन धन्नाजी को एक साथ दो जानवरों की याद आती है। एक जानवर अंधेरी झाड़ी में छिपकर गुर्राता है और अचानक उछलकर राह चलते मुसाफिर पर आक्रमण कर देता है और दूसरा जानवर पालतू होता है, भूख से तड़पता है लेकिन रस्सी तोड़कर भागना नहीं चाहता।

नीले रंग का सांप पीठ पर, नसों में, दिमाग पर, रेंगने लगता है तो धन्नाजी को एक ही जानवर में दो औरतें नजर आती हैं-पहली औरत रिद्धि और दूसरी औरत रिद्धि। रामबहादुर अधपके बालों और बीच से टूटे हुए धनुष की तरह दोनों ओर लटकी हुई अधपकी मूंछों वाले अपने इस दोस्त और दोस्त से अधिक रिश्तेदार, धन्नाजी की बातें सुनकर मुस्कराता है। फिर कहता है, “धन्ना भाई, मैंने रिद्धि से साफ कह दिया है, मुझसे सब हो सकता है, पाप नहीं हो सकता। पाप वे करें, जो गरीब हैं, भूखों मरते हैं, रात की सर्दी में जिनकी आत्मा सिकुड़ जाती है। पाप वे करें, रीद्धि नहीं करेगी, रामबहादुर और श्रीमंत धन्नाजी नहीं करेंगे। क्यों धन्नाजी, तुम करोगे?”

धन्नाजी जानवर और औरत, दोनों भूल जाते हैं। रामबहादुर ने जो पूछा है, उसका जबाब उन्हें देना ही होगा। सवाल पाप का नहीं है, सिर्फ इस बात का है कि रिद्धि कैथोलिक मिशनरियों के स्कूल में नेपाली पढ़ाने जाए या नहीं। वह काशी विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए.पास कर आई है। दिल्ली के नेपाली दूतावास में तीन साल का काम भी कर चुकी है, जहां उसकी रामबहादुर से भेंट हुई थी। परिचय होने के एक ही सप्ताह बाद रिद्धि ने नौकरी से इस्तीफा दिया था और ‘नेपाल एयर लाइन्स‘ के ‘वाइकाउंट‘ पर उड़कर रामबहादुर के साथ काठमांडू वापस आ गई थी।

हवाई जहाज की ऊंचाई से देखी गई काठमांडू-पहाड़ी रिद्धि को कितनी खूबसूरत, कितनी छोटी, कितनी नजदीक लगी थी-जैसे शीशे के तालाब में सातों रंगों की नन्हीं-नन्हीं मछलियां तैर रही हों। ऊंचे पहाड़ों पर चढ़ने की चौड़ी सीढ़ियों की तरह धान के खेतों की ढलान, बर्फ की परतों से ढंके पेड़-पौधे, लाल खपरैल की छतों वाले छोटे-छोटे मकान के गांव। हवाई जहाज के हल्के और मीठे शोर में अपने अंदर आवाजों का ताना-बाना बुनती हुई रिद्धि ने अचानक रामबहादुर के ओवरकोट के कालर पर अपना तेज नुकीला चेहरा रखकर कह दिया था, “रामबहादुर-रामबहादुर भाई, आपने अब तक शादी क्यों नहीं की?”

‘क्यों नहीं की?‘ -अपने प्रश्न का यह अंतिम खंड रिद्धि ने कहा या नहीं और रामबहादुर ने इसे सुना या नहीं, यह रामबहादुर को अब याद नहीं है, क्योंकि उस वक्त वह काठमांडू के बड़े राणा युद्धमान थापा के बारे में सोच रहा था। उन दिनों बड़े राणा के बारे में सोचना उसे अच्छा लगता था। पूरे शहर में यह बात प्रसिद्ध थी कि थापा-महल की दीवारें अंदर से पोली हैं और उनमें असली सोने की लाखों ईंट पड़ी हैं। एक दर्जन गोरखाली बहादुर खुली खुखड़ी और ‘थ्री-नाट-थ्री‘ की भरी राइफिल लेकर दिन-रात पोली दीवारों की रखवाली किया करते हैं।

बड़े राणा की एकमात्र लड़की को अंग्रेजी, हिसाब, संगीत और विलायती कायदा पढ़ाने वाली आइरिश महिला हमेशा हमेश के लिए छुट्टी लेकर अपने मुल्क वापस लौट गई थी। रामबहादुर मन-ही-मन तय कर रहा था कि रिद्धि रोज सुबह फिटन गाड़ी पर राणा-महल से वापस आ जाएगी। महल की सीढ़ियां संगमर्मर की हैं और संगमर्मर पर रासलीला और रामायण की तस्वीरें बनी हैं। -- सौ गोपियां हैं और कृष्णमुरारी हर गोपी के साथ अलग-अलग लता-कुंज में विहार कर रहे हैं। कोप-भवन में कैकेयी मूर्छित पड़ी है। क्रोध से नीली पड़ गई है और अयोध्या के राजा दशरथ का मुकुट उसके पांवों के पास लुढ़का हुआ है। सीता अशोक वाटिका में है, राक्षसियों से घिरी हुई। श्रीकृष्ण कदंब-वृक्ष की डाल पर बैठे यमुना में नहाती गोपिकाओं की प्रार्थना सुन रहे हैं। रावण का शव गोद में लिए मन्दोदरी विलाप कर रही है। और, मर्यादा पुरुषोत्तम राम अपनी पत्नी की अग्नि परीक्षा ले रहे हैं।

-- अग्नि साक्षी है, मैं पापाचारिणी नहीं हूं। मैंने पर-पुरुष-गमन नहीं किया है। मैं पृथ्वी की तरह पवित्र, आकाश की तरह स्वच्छ, आत्मा की तरह अदग्धा हूं। मुझे स्वीकार करो, मुझे अपनी प्रीति और अपना साहचर्य दो-सीता ने कहा। रामबहादुर की मोह-निद्रा में तैरती राणा-महल की संगमर्मरी सीढ़ियां टूट गईं। निद्रा टूट गई, वह मुस्कराया और खिड़की से नीचे देखने लगा। पशुपतिनाथ-मंदिर के स्वर्णकलश पहाड़ी की सुनहली धूप में चमक रहे हैं। काठमांडू शहर आ गया है।

धन्नाजी रहस्यमय चरित्र के व्यक्ति हैं और राजशाही से आतंकित रहने वाले सभी व्यक्ति इनसे डरते हैं। अफीम, त्रिभुवन चौक के कहवाघर, दो-तीन अखबारों के दफ्तर और पत्थर वाली गली के एक पुराने मकान में रहने वाली विधवा ब्राह्मणी के सिवा धन्नाजी के जीवन में और कुछ प्रकट नहीं, स्पष्ट नहीं है। फिर भी लोग डरते हैं। लोग कहते हैं-राणाओं और गोरखा सरदारों के प्रत्येक महल में, राजनीति में, अंतःपुर में, व्यवसाय में धन्नाजी के पांव हैं-वामन भगवान के पांव। लेकिन इन पांवों से रामबहादुर को उस रात भी डर नहीं लगा था, जब रिद्धि उनके बिस्तर से डरी हुई बिल्ली की तरह उछल पड़ी थी और कमरा खोलकर नंगे पांव पहाड़ी ढलान पर उतर गई थी, दौड़ती-भागती अपने भाई के घर चली गई थी।

धन्नाजी पत्थर वाली गली की विधवा ब्राह्मणी के मकान में रात बिताए थे। यही उनका घर, और यही उनका दरवाजा था। अपना पुश्तैनी मकान ‘धन्वंतरि निवास‘ उन्होंने रिद्धि के विवाह के बाद ही पंचायती बालिका विद्यालय वालों को दान कर दिया था और अपनी राइफिल और ज्योतिष-सामुद्रिक की किताबें पालकी में लादकर पत्थर वाली गली में चले आए थे। सारा दिन बीतता था कहवाघरों में, अंतःपुरों में और अफीम की पिनक में आकर राणाशाही के नाम गालियां निकालने में सारा दिन, सारी रात बीत जाती थी।

रात के ग्यारह-बारह बजे रिद्धि पत्थर वाली गली में आई। धन्नाजी सो गए थे। विधवा जस्सो देवी-जो अपने को बड़े गौरव में स्वर्गीय जंग शमशेर की बेटी, ‘अंग्रेजी के कान्कुबाइन‘ का नेपाली पर्याय कहती थी, उम्र पैंतीस साल, रंग तांबे का, देह पके हुए अमरूद-सी, बातों में तेज-तर्रार। मुफ्त मिलने पर शराब पीती है और बात-बात पर रो देने का जिसे अभ्यास है, अभी हंस रही थी। हंसती जा रही थी, क्योंकि धन्नाजी सो गए थे और खर्राटे ले रहे थे कि सारा मुहल्ला जग जाए। रिद्धि सामने आकर खड़ी हो गई तो धन्नाजी की नींद खुल गई और जस्सो देवी का हंसना रुक गया। धन्नाजी ने कहा, “जस्सो, मेरी बहना को एक साड़ी पहना दो और अपने बिस्तरे पर सुला दो। रात में पानी मांगे तो शराब देना और शराब मांगे तो कहना कल सुबह जहर ला दूंगी।”

इतना कहकर धन्नाजी सोने को ही थे कि रामबहादुर आ गया। रामबहादुर आ गया क्योंकि उसका रक्त नेपाल के सर्वहारा वर्ग का रक्त है। वह नेपाली नहीं है, गोरखाली भी नहीं है, ऊपरी नेपाल के पहाड़ी भोटिया जाति का है। यह तो महज एक संयोग था कि अमरीकी पर्वत-यात्रियों के एक दल के साथ उसने कैलाश की यात्रा की, और उन्हीं के साथ न्यूयार्क चला गया। ‘गाफा-गाफा मिंग, गाफा मिंग... गाफा मिंग‘ के पहाड़ी लोक-संगीत के बाद ही उसे ‘जाज‘ और ‘रॉक-एन-रोल‘ का सभ्य संगीत सुनना पड़ा, किंतु इस परिवर्तन में उसके जीवन या उसके मन में कोई परिवर्तन नहीं आया।

वह पहाड़ का लड़का था। चार साल अमरीका में और चार साल यूरोप में रहकर रामबहादुर दिल्ली आया तब भी वह पहाड़ का लड़का ही था। कपड़े बदल गए थे, जुबान बदल गई थी, मगर मुस्कराहट वही थी, सादगी वही थी, चेहरे पर अपनापन वही था, जो उम्र के साथ घटता नहीं है, फैलता ही जाता है। रामबहादुर मीठे जल का सफेद पहाड़ी झरना था, सो वह अब भी है, इसलिए वह कहता है, “रिद्धि, यह विधवा जस्सो तुम्हें अपने घर में रहने नहीं देगी। चलो, अपने घर वापस लौट चलो।”

धन्नाजी कंबल से सिर ढककर सो गए थे। रिद्धि वापस रामबहादुर के कमरे में चली आई थी। पके हुए शरीर वाली जस्सो हंसकर बोली थी, “नई -नई शादी में ऐसा होता है। पशुपतिनाथ दया रखेंगे तो सब ठीक हो जाएगा। हमारे साथ कभी ऐसा ही होता था। कभी राणा जी का महल छोड़कर पत्थर वाली गली में हम भी भाग आते थे।”

गली के बाहर आते ही रामबहादुर ने हाथ-रिक्शा बुलाया और रिद्धि रिक्शे पर बैठ गई। रामबहादुर भी बैठ गया। कहने लगा, “इसमें मेरा क्या अपराध था? मैंने तो तुम्हें सब तरह से छूट दे रखी है। जैसे रहो, जिस तरह सुख पाना चाहो, मैंने अपनी रिद्धि से कभी इनकार नहीं किया है।”

जानवर ने सिर झुका लिया था। जानवर ने दिल्ली और काठमांडू की रातों की याद करते, रातों की तुलना करके हाथ-रिक्शे का वक्त काट देना चाहा था। उसके पांव नंगे और खुले थे, उंगलियां जमी जा रही थीं। रामबहादुर ने अमरीकी फैशन में अपना हाथ कमर के घेरे में डाल दिया था। जानवर की देह में गर्मी नहीं थी, बर्फीली रात की सर्दी भी नहीं थी। हाथ-रिक्शा रामबहादुर के बताए रास्ते पर चल रहा था। त्रिपुरेश्वर का रास्ता पार करके हाथ-रिक्शा टुड्डीखेल के मैदान के किनारे आ गया। अब ‘युद्ध-सड़क‘ पर पहले नेगड़ी राजा का महल, फिर बागमती नदी। बागमती के पश्चिम किनारे काली माटी में रामबहादुर का अपना मकान है। मकान के पीछे स्वयंभू का विशाल मंदिर और मंदिर के पीछे हिमालय। इस वातावरण में एक नींदियाते जानवर के साथ घर लौटता हुआ रामबहादुर कितना बीमार दिखता है।

घर पहुंचकर फिर वही कमरा, जिसमें पति-पत्नी सोते हैं। खिड़कियां बंद हैं। दरवाजे बंद कर लिए गए हैं।। दीवार पर एक बड़ी-सी तस्वीर है, जिसमें एक ‘पब्लिक स्कूल‘ के बच्चे खेल रहे हैं-ढ़ेर सारे बच्चे। रूई और मलमल और ऊन के गोलों की तरह खूबसूरत बच्चे। और रिद्धि इन बच्चों में शामिल होती हुई बिस्तरे के एक किनारे शाल ओढ़कर बैठी है। रामबहादुर रजाई के नीचे पांव फैलाकर लेट गया है। उसकी आंखें अपनी पत्नी को घूर रही हैं। पत्नी तस्वीर में गुम हो चुकी है।

पैसों की दिक्कत होती है तो रामबहादुर को यह सब तमाशा अच्छा नहीं लगता है। पैसों की दिक्कत हो गई है। नेपाल-तराई के नए क्रांतिकारी नेताओं के भय से बड़े राणा अपनी लड़की के साथ कलकत्ता भाग गए हैं। अभी वहीं रहेंगे। राणाशाही खत्म हो चुकी है। नेपाली कांग्रेस का शासन कायम हो गया है। बी.पी. की दहाड़ से काठमांडू के पुराने महल कांपने लगे हैं। सम्राट चुप हैं। सम्राट चतुर राजनीतिज्ञ की तरह परिस्थितियों को देख-समझ रहे हैं और अपनी ताकत तोल रहे हैं। अखबारों में बी. पी. के मंत्रिमंडल की तस्वीरें छपती हैं। अखबारों में छपता है कि चीन की मदद से, भारत और अमरीका की मदद से, नेपाल को स्वर्ग बना दिया जाएगा रामबहादुर बेहद धीमी आवाज में बुदबुदाता है-जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी!

बड़े राणा और उनकी तेरह-चौदह साल की लड़की ‘एयर इंडिया‘ के जहाज पर चढ़कर कलकत्ता चली गई थी। उनके महल के खिदमतगार चन्द्रबहादुर गुमरौता ने छाती में खुखड़ी भोंककर आत्महत्या कर ली थी। कंचन शमशेर ने अपने अखबार ‘वीर भूमि‘ में एलान किया था कि राणा-महल को नेपाल-बैंक का सदर दफ्तर बना दिया जाएगा। मगर सम्राट ने मना कर दिया था।

रामबहादुर के पास पैसे नहीं रह गए थे। उसके बार-बार कहने पर भी भागते हुए बड़े राणा से, रिद्धि रुपए नहीं मांग सकी थी-अपने बाकी रुपए भी नहीं। वह हवाई अड्डे तक गई भी नहीं, सिर्फ महल में जाकर कमला को अंग्रेजी गुलाब का एक बड़ा गुलदस्ता और एक किताब ‘डिसकवरी ऑफ इंडिया‘ दे आई। कमला चाय लेने आई तो बड़े राणा ने कहा, “रिद्धि मेम साहब, हमारे साथ कलकत्ता चलो, वहीं रहना। वहां अपने पास इससे भी बड़ा मकान है। तुम मेरे साथ चलो, रिद्धि मेम साहब!”

वह चाय पीकर और कमला को पढ़ाने-लिखाने की बातें समझाकर अपने घर चली आई। हवाई अड्डे तक नहीं गई। लौटकर रामबहादुर ने बताया, “बड़े राणा चले गए। कमला चली गई। अब महल में पांच रानियां हैं और बीस-पचीस खिदमतगार और दाइयां। महल के फाटक पर पुलिस-चौकी लगी है। मगर तुमने अपने रुपए क्यों नहीं मांगे, रिद्धि?”


रामबहादुर ने दुबारा कहा, “धन्नाजी, आदमी की सबसे पहली मुसीबत यही है कि वह जानवर नहीं बन पाता है। और आदमी जानवर नहीं है, तो वह पाप क्यों करे?”

धन्नाजी अफीम के नशे में डूबे हुए थे और रामबहादुर के बैठक-खाने में चाय का इंतजार कर रहे थे। रामबहादुर गोद में लिखने की तख्ती डालकर उद्योग मंत्री के नाम दरख्वास्त लिख रहा था कि एक नेपाली फिल्म बनाने के लिए उसे तीन लाख रुपए उधार दिए जाएं। आधा रुपया नेपाल सरकार देगी, आधा रुपया बड़े राणा देंगे और फिल्म में नेपाल का महान इतिहास दिखाया जाएगा। फिल्म की नायिका होगी श्रीमती रिद्धि रामबहादुर।

रिद्धि चाय लेकर आ गई, तिपाई पर केतली और प्याले रखकर चाय बनाने लगी। बोली, “धन्ना भाई, मैं कल से मिशन स्कूल पढ़ाने जा रही हूं। नेपाली और हिन्दी पढ़ाऊंगी।”

“मैंने मना किया था न। जानते नहीं हैं धन्नाजी! ये मिशन स्कूल, ये विदेशी कल-कारखाने, ये सड़कें धोखा हैं। जानते हैं, लार्ड मेकाले ने क्या कहा था-किसी मुल्क को गुलाम बनाना चाहते हो तो पहले उसकी भाषा, उसके धर्म, उसकी राष्ट्रीय संस्कृति को खत्म करो। ये मिशनरी वही करना चाहते हैं। ये विदेशी मददगार वही करना चाहते हैं। यह सब पाप है, अपराध है, रीद्धि!” रामबहादुर ने बड़ी सादगी से कहा, अपने एक-एक शब्द में मिठास भरकर कहा। फिर, चुप होकर अपनी दरख्वास्त लिखने लगा-तीन लाख रुपए उधार दिए जाएं।

रिद्धि ने पहले अपने बड़े भाई की ओर देखा कि वे कुछ बोलते हैं या नहीं। धन्नाजी को चुप देखकर उसने कहा, “पाप क्या है, यह तुम समझते रहो। मुझे बड़े राणा के यहां तुमने भेजा था। मिशन स्कूल में भी तुम्हीं भेजोगे। मैं चली जाऊंगी। धन्ना भाई की बहन होकर भी मैं तुम्हारे कहने से जिस तरह दिल्ली वाली नौकरी छोड़कर चली आई थी, जहां कहोगे, चली जाऊंगी, और जब कहोगे, चली जाऊंगी, लेकिन कब तक? रामबहादुरजी, लेकिन कब तक?”

चाय के अगले प्याले में चीनी की इच्छा रिद्धि को नहीं हुई। चीनी ली जाएगी तो प्याले में चम्मच चलाना पड़ेगा। आवाज होगी। प्याला बजेगा। रिद्धि अभी कोई आवाज सुनना नहीं चाहती थी। वह सिर्फ अपने पतिदेव को सुनना चाहती थी। रामबहादुर की मीठी आवाज दूध के झरने की तरह, बैलों के गले में बंधी पीतल की घंटियों की तरह, पहाड़ी मंदिरों की पुजारिनों के गीतों की तरह, रामबहादुर की मीठी आवाज!

चाय पीकर धन्नाजी ने अपनी छड़ी उठाई, डूबी हुई आंखों की बोझिल पलकें उठाकर एक बार रिद्धि को देखा और चुपचाप उठकर बैठकखाने से बाहर चले गए। रामबहादुर ने बैठकखाना अंदर से बंद कर लिया। सुबह की धूप का अंदर आना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। खिड़कियां पहले से ही बंद थीं। कमरे में लगभग अंधेरा फैल गया। उसने लिखने की तख्ती और अधूरी दरख्वास्त झुककर फर्श पर डाल दी। रिद्धि की नीली आंखें चमकने लगी हैं, नुकीला चेहरा चमकने लगा है। रामबहादुर कहता है, “धन्नाजी के सामने नंगे हो जाने की क्या जरूरत थी? मैंने तुम पर कभी किसी बात के लिए दबाव नहीं डाला है। मिशन स्कूल में जाना या नहीं जाना, बड़ी बात नहीं है। बहुत मामूली बात है।”

“मामूली बात है तो तुम झूठ क्यों बोलते हो? क्यों कहते हो कि तुम्हें मिशन स्कूल में मेरा काम करना पसंद नहीं है?” -रिद्धि का चेहरा भारी हो गया है। वह धीमी आवाज में बोल रही है, लेकिन उसकी आवाज कांप रही है। रामबहादुर फर्श से तख्ती और कागज उठाता है, बनियान में लगा फाउंटेनपेन निकालकर लिखना चाहता है। रिद्धि पास आ जाती है। सीधे सवाल की तरह तनकर खड़ी हो जाती है। फिर कहती है, “मिशन स्कूल के बाद तुम मुझे उद्योग मंत्री के पास ले जाओगे। मैं चली जाऊंगी। लेकिन कब तक? मुझे बताओ, कब तक?”

रिद्धि लंबी औरत है। मगर उसके टखने भारी हैं और उसकी देह भारी है। लाल रंग की मोटी-चौड़ी पट्टियों वाली पोशाक में रिद्धि लंबी नहीं दिखती, भरी हुई और भारी दिखती है। रामबहादुर इस औरत से डरता नहीं, लेकिन उसके सवाल का जवाब देना नहीं चाहता है। तख्ती और कागज-कलम कुर्सी पर रखकर वह खड़ा होता है। कहता है, “बचपन से बनारस और दिल्ली में रहकर तुम नेपाल भूल चुकी हो। तुम मुझे और धन्नाजी भाई को या नेपाल को समझ नहीं पाती, इसलिए सच को झूठ समझती हो। बचपन में जिस नेपाल को तुमने देखा था, अब वह नेपाल नहीं है। बदल चुका है। नेपाल बदला नहीं होता तो धन्नाजी राज-दरबार में सबसे ताकतवर आदमी होते और काठमांडू के सारे राणा-महाराणा मेरे इशारों पर नाचते होते।”

रिद्धि ने एक नेपाल को समझना नहीं चाहा, क्योंकि वह समझ रही थी कि जो आदमी एक झूठ बोल सकता है, वह सौ झूठ भी बोल सकता है। सौ झूठों में सच सिर्फ एक ही बात है कि रामबहादुर को रुपए चाहिए और रुपए सिर्फ रिद्धि ला सकती है, रामबहादुर नहीं ला सकता। रिद्धि को यह सब पसंद नहीं है। यों हर औरत चाहती है कि किसी-न-किसी बात के लिए उसका मर्द उस पर निर्भर करे, उसका आश्रित रहे, सुबह और शाम के भोजन के लिए या प्यार के मीठे दो बोल के लिए, या सिर्फ इस बात के लिए कि देखो मेरे दोस्त, यह मेरी औरत है, मेरी अपनी औरत! इसका शरीर चांदी की सिल की तरह सुडौल और मजबूत है और यह औरत मुझसे अलग नहीं रह सकती, इसे मैं जैसे चाहूं रख सकता हूं।

रिद्धि भी ऐसा चाहती है, मगर जिस तरह रामबहादुर चाहता है, उस तरह नहीं, इसलिए वह इत्मीनान की सांस लेकर, सामने कुर्सी पर बैठ जाती है और नहाने के लिए बालों का जूड़ा खोलने लगती है। जूड़े के फूल, उजले फूल, प्लास्टिक के जापानी फूल फर्श पर गिर पड़ते हैं। रिद्धि उन्हें उठाती नहीं, पड़ा रहने देती है। बालों को दोनों ओर कंधे पर बिछाकर वह झुकती है और अपनी कमीज उतारने लगती है। कमीज के नीचे ऊनी ब्लाउज है। रामबहादुर की उपस्थिति की उसे परवाह नहीं है, वह कमीज उतार रही है। और सामने झुकी हुई है। उसके पीछे रामबहादुर खड़ा है और अपनी बीवी पर अपनी बात का असर देखना चाहता है।

असर नहीं हुआ है। रामबहादुर समझ गया है, असर नहीं हुआ है। असर होता तो रिद्धि कमीज उतारने नहीं लगती, चुपचाप पत्थर बनकर कुर्सी पर बैठी रहती और अपने पतिदेव की ओर देखती रहती। पहले ऐसा ही होता था। रिद्धि चुप रहती थी। बड़े राणा आते थे, अमरीकी दूतावास का जन-संपर्क अधिकारी आता था, कलकत्ते और बंबई के बड़ी पूंजी वाले सेठ आते थे-रिद्धि देखती रहती थी।

लेकिन अब वह सिर्फ अपनी कमीज उतार रही है और अंदर से ऊनी ब्लाउज पर छोटे-छोटे फूल मुस्करा रहे हैं। ऊनी ब्लाउज के फूल जैसे छोटे-छोटे आइने हैं और इन आइनों पर रामबहादुर को अपना चेहरा दिख रहा है-प्यार और सादगी से, शांति और अपनत्व से भरा मीठा चेहरा! लेकिन, रामबहादुर आइनों में देखता है, यह चेहरा धीरे-धीरे काला पड़ता जा रहा है। काला और बदसूरत!

रामबहादुर दोनों हाथों से रिद्धि के कंधे पकड़ता है और उसे उठाकर दूर ढकेल देता है। मगर रिद्धि तेज जानवर है, दीवार से टकराती नहीं, उछलकर घूम जाती है, अपना बचाव कर लेती है, रुक जाती है, हंसने लगती है। रिद्धि कहती है, “तुम जानवर नहीं बन सकते रामबहादुर! तुम आदमी भी नहीं बन सकते। इन दोनों में किसी भी बात की कोशिश मत करो, तकलीफ तुम्हीं को होगी। तुम जैसे हो, वैसे ही बने रहो। मैं वह सब कर दूंगी, करती रहूंगी, जो तुम कहोगे। क्योंकि मैं उसी नेपाल की लड़की हूं, जो अब नहीं है, मगर मैं हूं और मैं रहूंगी। तुम, या कैथोलिक मिशन, या बड़े राणा की बीमार बातें, कुछ भी मुझे बदल नहीं सकेंगी!”

रिद्धि कहती है और चुप हो जाती है। रामबहादुर बैठकखाने से बाहर निकल जाता है। उसका चेहरा बदल गया है। आज वह पहली बार अफीम खाएगा और आज वह पहली बार धन्नाजी की पत्थर वाली गली में रात बिताएगा।