रियो खेल भावना जीयो! / जयप्रकाश चौकसे

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रियो खेल भावना जीयो!
प्रकाशन तिथि :19 अगस्त 2016


रियो मेंओलिंपिक खेलकूद प्रतियोगिताएं जारी हैं। इसका एक आर्थिक पक्ष यह है कि प्रतियोगिता में भाग लेने और उसे देखने दुनियाभर से इतने लोग आते हैं कि उस देश की आर्थिक दशा सुधर जाती है। इस तरह की खेलकूद प्रतियोगिताओं को देशप्रेम और देश की अस्मिता से जोड़कर जुनून पैदा किया जाता है। वर्तमान में अमेरिका और चीन के खिलाड़ी इस जोश से खेलते हैं मानो यह कोई युद्ध हो। पहले यह खेल अमेरिका बनाम रूस होता था। रूस के राजनीतिक विघटन के बाद खेलकूद नक्शे मंे वह हाशिये पर चला गया। हिंदुस्तान और पाकिस्तान इसी जुनून से क्रिकेट खेलते हैं परंतु अोलिंपिक में पाकिस्तान बहुत पीछे है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने अपनी मिल्खा सिंह बॉयोपिक में जानबूझकर मिल्खा के रोम अनुभव को भारत बनाम पाकिस्तान का रंग दिया। उस अत्यंत ईमानदार बायोपिक में यही एकमात्र समझौता किया गया था। सिनेमा को भी संकीर्णता उपजाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। राजनीतिक खेमों में बंटी हुई दुनिया ने खेलकूद से खेल भावना का अपहरण कर लिया है और खेलने के निर्मल आनंद को ही नष्ट कर दिया है। कम्यूनिस्ट रूस में कम उम्र के बालकों का चुनाव कर उन्हें वर्षों कष्टप्रद प्रशिक्षण देकर प्रतियोगिता जीतने योग्य बनाया जाता था गोयाकि आप रोबो तैयार कर रहे हैं। भारत में पहली खेलकूद प्रतियोगिता के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था कि खेल भावना ही सबसे महत्वपूर्ण है। उनके शब्द थे, 'प्ले गेम इन स्पिरिट ऑफ गेम।' नेहरू ने यह रेखांकित किया था कि खेल भावना महत्वपूर्ण है और खेल-कूद में भाग लेने से शरीर तंदुरुस्त रहता है और तंदुरुस्ती ही सौंदर्य भी है। खेलकूद परोक्ष रूप से चरित्र निर्माण का साधन बन जाता है। युवा वर्ग को घातक नशे से बचाने में भी खेल मदद करता है। हर विषय पर नेहरू मौलिक विचार प्रस्तुत करते थे और अत्यंत प्रेरक नेतृत्व देते थे। अगर नेहरू राजनीति में नहीं होते तो 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' की तरह अनेक किताबें लिखते जिनकी रॉयल्टी उन्हें विश्व का सबसे अमीर लेखक बनाती और उन्हें साहित्य का नोबल पुरस्कार भी प्राप्त होता। यह संभव है कि उनकी एक किताब का नाम 'गंगा की कहानी' होता कि किस तरह 2550 किलोमीटर की यात्रा करने वाली गंगा जिन शहरों के किनारों को नहीं छूती, वे भी उसके प्रभाव से मुक्त नहीं और गंगा भारत की अविरल बहती जीवंत संस्कृति का प्रतीक बन जाती। किस तरह गंगाजल हर घर में रहता है और मृत्यु पूर्व उसकी बूंदें पिलाई जाती हैं। जो गंगा किनारे जन्मे नहीं, जिये नहीं, उनकी अस्थियां भी गंगा में बहाई जाती हैं। यह सच है कि गंगा उत्तर भारत में प्रवाहित है परंतु दक्षिण में पत्थरों पर गंगावतरण चित्रित है, अत: गंगा केवल आर्यो की नहीं वरन् द्रविड़ संस्कृति का भी हिस्सा है।

गंगा से अधिक दूरी का सफर करने वाली विश्व में और नदियां भी हैं, जिनके पाट भी गंगा से अधिक चौड़े हैं परंतु गंगा की तरह कोई और नदी एक महान संस्कृति की प्रतीक नहीं बनी है। रूस में बहने वाली वोल्गा और अमेजन भव्य नदिया हैं। उन देशों ने अपनी नदियों की पवित्रता कायम रखी है और हमने कूड़ा-कचरा, केमिकल्स और शव बहाकर अपनी गंगा को ही प्रदूषित कर दिया, जिसे स्वच्छ निर्मल करने के दावे और वादे करने वाले अपने झूठ से घबराते भी नहीं। उनके 'स्मार्ट सिटीज' सभी नदियों को प्रदूषित कर देंगे। नेता चुनावी दंगल में 'हर हर गंगे' कहते रहे और राज कपूर ने फिल्म भी बना दी 'राम तेरी गंगा मैली है।' सभी सृजक सतहों के परे देख लेते हैं। काश! नेताओं के पास कलाकारों वाली संवेदनाएं होतीं। वे अपने अवचेतन के बीहड़ के अनुरूप दुनिया बनाना चाहते हैं।

भारत में खेलकूद का पिछड़ापन उसकी प्रदूषित शिक्षा व्यवस्था से जुड़ा है। पहले शिक्षा संस्थान को अनुमति अपनी प्रशिक्षण इमारत से लगे खेलकूद प्रांगण होने पर दी जाती थी। अब तो बहुमंजिला में स्कूल खुलने लगे हैं। स्कूलों में खेलकूद प्रशिक्षक होते थे और खेलकूद प्रवीणता के लिए मार्कशीट में कॉलम होता था। शिक्षा का उद्‌देश्य व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होता था। अब संस्थाओं में केवल वाद-विवाद प्रतियोगिता होती है, क्योंकि इसीसे बड़बोले तैयार होते हैं। पहले शिक्षा संस्थाओं में मॉक पार्लिामेंट का आयोजन होता था, अब राष्ट्रीय संसद ही मॉक संसद नज़र आती है, जहां जहालत का अोलिंपिक खेला जाता है। अब तक कि खबरों से आभास हो रहा है कि रियो अोलिंपिक में आर्थिक घाटा हो सकता है, क्योंकि देखने वालों की भीड़ एकत्रित नहीं हो रही है। रियो एक विकसित जगह नहीं है और इतने भव्य आयोजन का इन्फ्रास्ट्रक्चर वहां नहीं है। सबसे अहम बात है कि शहरों में मुख्य सुरक्षा का यकीन हो। स्मरण आता है कि दीपा मेहता को बनारस में फिल्म की शूटिंग नहीं करने दी गई और उन्होंने श्रीलंका में सेट लगाकर अपनी 'वाटर' नामक फिल्म बना ली। हुड़दंगियों ने कई सार्थक काम रोक रखे हैं। उन्हें सरकारी प्रश्रय प्राप्त है। पहले कहा जाता था, 'पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब।' हमारी त्रासदी यह है कि तो हम पढ़े-लिखे और ही खेले। हां, बदतर जरूर हो गए।