रिवाज / गोवर्धन यादव
लंबे समय तक सत्ता का स्वाद चख चुके एक नेताजी को मजबूरी में रिक्शा कि सवारी करनी पड़ी, उन्होंने रिक्शा चालक से यूंहि पूछ लिया-"तुम्हारे कितने बेटे हैं" ?
"जी, चार,"
क्या करते हैं? उनको पढ़ाया-लिखाया या बस"
"बेचारे पढ-लिख नहीं आए, रिक्शा चलाते हैं हुजूर" , रिक्शा चालक ने अपनी लाचारी प्रकट करते हुए कहा,
"पढ़ा-लिखा लेना था उनको, कुछ बन जाते,"
"साहब, पढ़ लिख जाते तब भी रिक्शा ही चलाते" ,
"ऎसे कैसे हो सकता है, कुछ न कुछ तो अच्छा काम उन्हें मिल ही जाता"
" अपने देश में ऎसा ही रिवाज़ है साहब कि डाक्टर का बेटा डाक्टर बनता है, नेता का बेटा नेटा बनता है, ठेकेदार का बेटा ठेकेदार बनता है, प्रोफ़ेसर का बेटा प्रोफ़ेसर ही बनता है, मैं ठहरा रिक्शा चालक, तो जाहिर है कि मेरा बेटा भी रिक्शा ही चलाएगा, यदि कोई और कुछ बनना चाहे तो भी लोग उसे बनने कहाँ देते हैं,
"ग़लत कहते हो तुम, यह तुम्हारा कोरा भ्रम है, ऎसा वैसा कुछ नहीं होता" नेताजी ने कहा,
"एक बात कहूँ अगर आप बुरा न माने तो" , रिक्शे का पैडल मारते हुए रिक्शे वाले ने कहा
"कहो, तुम क्या कहना चाहते हो,"
"एक चाय बेचने वाला इस देश का प्रधान मंत्री क्या बन गया, सारे विरोधी दल के नेता एक ही सुर में चिल्ला रहे हैं कि ऎसे कैसे हो गया, जो इस देश का दस्तूर था वह अचानक कैसे बदल गया, जब उसका पिता चाय बेचा करता था तो उसे भी चाय ही बेचते रहना चाहिए था, ये बात लोगों के पेट में हजम नहीं पा रही है, इसी तरह मेरा बेटा कुछ और बनने की भी सोचता भी तो लोग ऎसा होने नहीं देते,"
"रोक, रिक्शा रोक, साला रिक्शा ही तो चलाता है लेकिन बातें बड़ी-बड़ी करता है" , तमतमाते हुए नेताजी ने रिक्शा रुकवाया, उसके हाथ में बीस का एक फ़टा हुआ नोट पकड़ाया और कदमताल करते हुए एक माल में घुस गए.