रिवाल्यूशन 2020 / चेतन भगत / समीक्षा

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फैन्टैसी से बढकर नहीं
समीक्षा:अशोक कुमार शुक्ला

2011 में हिन्दुस्तान के बेस्ट सेलर नावलिस्ट चेतन भगत की नयी किताब रिवाल्यूशन 2020 आयी थी इस किताब को मैने एक दिन अपने बेटे की रैक में देखा था जो इन्जीनियरिंग का छात्र है । इसका हिन्दी अनुवाद श्री सुशोभित सक्तावत रिवाल्यूशन 2020 के नाम से रूपा प्रकाशन ने इसी वर्ष 2013 में प्रकाशित किया है ।

इसे पढकर इसमे शामिल उन तत्वों तक पहुंचने का प्रयास किया है जिनकी वजह से चेतन जी ने किताबे की बिक्री के बाजार मे धूम मचा रखी है। आज जब इस पुस्तक को पूर्ण कर सका हूं तो मुझे यह पुस्तक कुछ हद तक भारतीय सिनेमा की किसी परम्परागत प्रेमकथा जैसी लगी जिसमें हीरो अपने दोस्त के प्रेम लिये अपने प्रेम का बलिदान कर देता है । कदाचित हिन्दुस्तान के शहरी छात्र छात्राओं में इसकी लोकप्रियता का कारण माध्यमिक स्तर तक के विद्यालयों में प्रतियोगी परीक्षा में सफलता के बढते दबाव के तथ्य से जूझ रहे एक आम छात्र की अपनी कथा से जुडना जान पडता है। यह भी सच है कि शहरी वि़द्यालयों में पढने वाले बीस प्रतिशत छात्रों के अतिरिक्त विद्यार्थियों एक बडा तबका हिन्दुस्तान के कस्बाई विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करता है जहां अब भी विद्यालय में टिफिल लाने का कन्सेप्ट नहीं है सो असेम्बली प्रेयर के दौरान जिला मजिस्ट्रेट की पुत्री के टिफिन की चोरी से आरंभ हुआ सिलसिला फैन्टैसी से बढकर नहीं हो सकता।

वास्तव मे आज भारत के भीतर एक दूसरा भारत पैदा हो रहा है जो इलीट है जो प्रतिदिन अपने बच्चों को टिफिन बियर कर सकता है और सबसे बढकर इस भारत मे शिक्षा के प्रति हद दरजे की संवेदनशीलता है । पहले यही भारत अपने देश को प्रशासक अभियंता और चिकित्सक मुहैया कराता था जो बदली हुयी परिस्थितियों में सेवा प्रदाता संवर्ग यथा सेल्स एजेन्ट, रिसेप्सनिस्ट और मेडिकल रिप्रेजेन्टिवस उपलब्ध कराता है। यह समूचा संवर्ग शहरी वि़द्यालयों से निकलने वाला वह समूह है जिसने अपने जीवनकाल में कभी न कभी असेम्बली प्रेयर के दौरान टिफिन की चोरी जैसे क्षणों को जिया है लिहाजा इस संवर्ग को यह पुस्तक अपनी गढी हुयी फैन्टेसी सरीखी लग सकती है।

एक प्रशासक की हैसियत से यह भी किसी फैन्टेसी के कम नहीं है कि बनारस जैसे शहर की राजनैतिक प्रष्ठभूमि का कोई उत्तराधिकारी उपन्यास के समूचे काल में उसी शहर में जिला मजिस्ट्रेट की हैसियत से तैनात रह सकता है और वह भी तब जब उत्तर प्रदेश के जनपदों में किसी जिला मजिस्ट्रेट की तैनाती का औसत कार्यकाल कुछ माह का भी न हो।

एक प्रशासक की हैसियत से इस उपन्यास को पढना इस लिये भी निराशाजनक है कि जिस देश की सर्वोच्च सेवा आइ ए एस का अधिकारी लगातार एक महानगर में जिला मजिस्ट्रेट के रूप में कार्यरत रहने के बाद भी अपनी एकमात्र पुत्री के लिये उसकी महत्वकांक्षा के द्वार बंद ही रखना चाहता हो वह भी तब जबकि देश की चुनिंदा मेधा आई आई एम और आई आई टी पहुंचने के बाद आइ ए एस के लिये प्रयास करती है। वास्तव में समूचे उपन्यास में एक इमानदार आइ ए एस के रूप में डी एम प्रधान की उपस्थिति होना और घटनाक्रम पर उसका प्रभाव न होना गले नहीं उतरता । कदाचित चेतन जी ने इसे इमानदार प्रशासनिक अफसरों की विवशता और निराशा को प्रदर्शित करने के लिये उसकी मौन उपस्थिति ही रखना जान पडता हैं।

उपन्यास का अंत वैश्याओं की उपस्थिति में अपनी प्रेमिका को आमंत्रित करने के जिस नाटकीय घटना क्रम के साथ हुआ है वह पूरी तरह किसी फिल्मी दृष्य सरीखा जान पडता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे यहां तक पहुंचते हुये लेखक थक सा गया हो और जैसे उसे उपन्यास को समाप्त करने जल्दी हो।