रिवाल्वर / चन्दन पाण्डेय
यह नीलू की क़िस्मत का और मेरा मिला-जुला फ़ैसला था कि उसकी दुहरी हत्या होनी चाहिए । नीलू की शारीरिक हत्या का दिन होने का नेक मौक़ा मैने रविवार को दिया था पर उस रविवार की सुबह मेरी नींद ऐसे खुली जैसे किसी फाँसी की सज़ा पाए मुजरिम की खुलती है । एकदम अचानक और डरे हुए इंसान की तरह । नीलू की हत्या का साहस न तो बाक़ी जीवन जीने की उत्कट इच्छा से मिला और न ही उस ईर्ष्या से जिसके बीज नीलू ने मेरे भीतर बड़े सलीके से रोपा था ; उसे मारने का साहस मुझे नीलू के अटूट प्रेम से मिला । वैसे भी अब मैं वह इंसान नहीं रह गया था जो इस जले प्रेम को निभाने से पहले था ।
अब जब प्रेम और जीवन नष्ट हो चुका है तब लगता है, नीलू नर्क की छत से फिसल कर मेरे जीवन में आ गिरी थी । नीलू, जिसने मेरा टूटना और टूटकर बिखरना नहीं देखा । फूल के बिखरने को लोग अक्सर कम देखते हैं पर नीलू ‘लोग’ नहीं थी । वही नीलू, जिसके मन मस्तिष्क में अब मैं, समय बीतने के साथ लगातार क्षरित होते हुए, याद और धुन्ध की तरह बचा था । नीलू का दर्ज़ा इतना ऊँचा था कि मैं चाह कर भी उसकी हत्या कर नहीं पाता । जिस लड़की के रक्त के बहाव तक को मैने सुना था उसकी हत्या तभी सम्भव थी जब मैं उसके वजूद को मार सकूँ ।
उसकी चारित्रिक हत्या में कुल सात दिन लगे थे । इस कर्म में मुझे कल्पना की मदद लेनी पड़ी । वो भी कोरी कल्पना नहीं । बस दो विपरीत धाराओं या दो अलग-अलग महसूसियत को अपनी नायिका की चोटी की तरह पर गूँथ दिया । इसी कल्पना-तत्त्व ने मुझे वह तर्क और साहस दिया जिससे मैं उसकी हत्या का फैसला कर सका ।