रिश्ता-ए-सुखन (मीर और ग़ालिब) / सपना मांगलिक
मीर तकी मीर और मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू सुखन की मानी हुई वह हस्तियाँ थीं जिनका दूर-दूर तक कोई सानी नहीं था। न उस दौर में और न ही मौजूदा दौर में, दोनों में हुनर के आलावा भी काफी कुछ समानताएं थीं जैसे कि –दोनों ही शख्सियत आगरा यानी अकबरावाद में जन्मी, दोनों का ही व्यवहार, आत्माभिमान, और शायरी के प्रति समर्पण। ग़ालिब और मीर तकी मीर की उम्र में अत्यधिक फासला था। ग़ालिब ने जब शायरी कहना शुरू किया था उस दौर में मीर खुदा-ए-सुखन कहे जाते थे। ग़ालिब को मीर ने जब सुना तो वह महज ग्याहारह वर्ष के बालक थे और मीर पच्यासीवां बसंत देख रहे थे। ग़ालिब मीर के कद्रदान थे और मीर को उनमें एक बेहतरीन शायर नजर आ गया था। आइये सुखन के इन दो बादशाहों में सुखन ने क्या रिश्ता बनाया ज़रा गौर करते हैं -
अपने हुनर की उस्तादी से यह दोनों ही बखूबी वाकिफ थे इसलिए इन दोनों ही उस्तादों ने अपने-अपने कलाम में ताल ठोककर यह बात कही है –
जाने का नहीं शोर सुख़न का मिरे हरगिज़,
ता-हश्र जहाँ में मिरा दीवान रहेगा।
ये शेर मिर्ज़ा ग़ालिब के गुरु (ग़ालिब ने इनसे ग़ज़लों की शिक्षा नहीं ली, बल्कि इन्हें अपने मन से गुरु माना) मीर का है। मीर के बारे में हर दौर में हर शायर ने कुछ न कुछ कहा है और अपने शेर के मार्फ़त यह ज़रूर दर्शा दिया है कि चाहे कितना भी लिख लो, लेकिन मीर जैसा अंदाज़ हासिल नहीं हो सकता।
'ग़ालिब' अपना ये अक़ीदा है बकौल-ए-'नासिख',
आप बे-बहरा हैं जो मो'तक़िद-ए-मीर नहीं।
इस शेर में ग़ालिब कहते हैं कि जो कोई भी मीर को शायरी का सबसे बड़ा उस्ताद नहीं मानता उसे शायरी का "अलिफ़" भी नहीं मालूम।
एक दूसरे की शायरी के कद्रदान
ग़ालिब मीर की शायरी के कायल थे, या यूँ कहें कि उनकी शायरी और सुखन की प्रेरणा थे मीर, उनका ग़ालिब पर इस कदर असर था कि ग़ालिब ने इस बात की घोषणा कर दी थी कि: ग़ालिब मीर के शेरों की कहानी इस तरह बयां करते हैं:
मीर के शेर का अह्वाल कहूँ क्या 'ग़ालिब'
जिस का दीवान कम अज़-गुलशन-ए कश्मीर नही
ग़ालिब को जब कभी खुद पर और खुद के लिखे शेरों पर गुमां हो जाता था, तो खुद को आईना दिखाने के लिए वह यह शेर गुनगुना लिया करते थे:
रेख्ते के तुम हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था
ग़ालिब कहते हैं कि जो कोई भी मीर को शायरी का सबसे बड़ा उस्ताद नहीं मानता उसे शायरी का "अलिफ़" भी नहीं मालूम। और इसी ग़ालिब के बारे में मीर का भी यह मानना था कि-अगर इस लड़के को कोई कामिल उस्ताद मिल गया और उसने इसे सीधे रास्ते पर डाल दिया, तो लाजवाब शायर बनेगा, वरना मोहमल (अर्थहीन) बकने लगेगा। ग़ालिब और मीर की सोच भी काफी हद तक मिलती जुलती थी इसकी एक बानगी तो देखिये - मीर:
होता है याँ जहाँ मैं हर रोज़ोशब तमाशा,
देखो जो ख़ूब तो है दुनिया अजब तमाशा।
ग़ालिब:
बाज़ीचए इत्फाल है दुनिया मेरे आगे,
होता है शबोरोज़ तमाशा मेरे आगे।
मीर:
बेखुदी ले गयी कहाँ हमको,
देर से इंतज़ार है अपना।
ग़ालिब:
हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी,
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती।
मीर:
इश्क उनको है जो यार को अपने दमे-रफ्तन,
करते नहीं ग़ैरत से ख़ुदा के भी हवाले।
ग़ालिब:
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हमसफ़र 'ग़ालिब',
वह क़ाफिर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाय है मुझसे।
एक बार उनके किसी हितैषी ने इनके कुछ शेर मीर तक़ी 'मीर' को सुनाए। सुनकर 'मीर' ने कहा, 'अगर इस लड़के को कोई काबिल उस्ताद मिल गया और उसने इसको सीधे रास्ते पर डाल दिया तो लाजवाब शायर बन जायेगा। बर्ना 'महमिल'(निरर्थक) बकने लगेगा।' मीर की भविष्यवाणी पूरी हुई। सचमुच यह महमिल बकने लगे थे, पर अन्त: प्रेरणा एवं बुज़ुर्गों की कृपा से उस स्तर से ऊपर उठ गये। 'मीर' की मृत्यु के समय ग़ालिब केवल 13 वर्ष के थे और दो ही तीन साल पहले उन्होंने शेर कहने शुरू किए थे। प्रारम्भ में ही ग्यारह वर्ष के इस छोकरे की (ग़ालिब) कवि की ग़ज़ल इतनी दूर लखनऊ में 'खुदा-ए-सखुन' 'मीर' के सामने पढ़ी गई और 'मीर' ने, जो बड़ों-बड़ों को ख़ातिरों में न लाते थे, इनकी सुप्त प्रतिभा को देखकर इनकी रचनाओं पर सम्मति दी। इससे ही जान पड़ता है कि प्रारम्भ से ही इनमें उच्च कवि के बीज थे।
आत्म अभिमानी सुखनवर
पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग।
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां॥
मीर'ने तो शायद यह शेर कवि सुलभ आत्माभिमान की दृष्टि से कहा हो किन्तु यह बात पूर्णतः सच निकली है। 'मीर'के ज़माने को लगभग 200 वर्ष हो गये। ज़बान बदल गयी, अभिव्यक्ति का ढंग बदल गया, काव्य-रुचि बदल गयी किन्तु'मीर'जैसे अपने ज़माने में लोकप्रिय थे वैसे ही आज भी हैं। कोई ज़माना ऐसा नहीं गुजरा जब कि उस्तादों ने'मीर' का लोहा न माना हो। तभी तो मीर अपनी शोहरत को चान सितारों की मानिंद हमेशा चमकते रहने के लिए आश्वस्त थे –
जाने का नहीं शोर सुख़न का मिरे हरगिज़,
ता-हश्र जहाँ में मिरा दीवान रहेगा।
उन्हें गुरु मानने वाले उनके होनहार प्रशंसक मिर्ज़ा ग़ालिब भी आत्माभिमान में कहाँ मीर से पीछे रहने वाले थे, वह भी अपनी शख्सियत को कुछ यूँ बयां करते हैं कि -
पूछते हैं वह कि "ग़ालिब" कौन है,
कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या
ग़ालिब को पता था कि उनके समकालीन ग़ज़ल कहने में उतने माहिर नहीं हैं या उन्होंने ग़ज़ल की रूह को पहचाना ही नहीं है।यही भांप तो उन्होंने फ़रमाया –
कहने को तो दुनिया में हैं, सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे बयां और
मगर ग़ालिब मियां तो ग़ज़ल की रूह को अपनी उस्तादी से अपने लफ़्ज़ों की बोतल में कैद कर चुके थे इसीलिए तो बाद में जाकर उन्होंने ग़ज़ल के केनवास को अपने सुखन के लिए छोटा करार दिया और कुछ नया और उससे भी ज़्यादा बेहतरीन करने की ख्वाइश उनसे यह कहलवा गयी –
बक़द्रे शौक़ नहीं ज़र्फे तंगना-ए-ग़ज़ल।
कुछ और चाहिए वसुअत मेरे बयां के लिये॥
आलोचनात्मक दृष्टि
इसी तरह सआदत यार खां 'रंगीं' जो रेख़्ती (ज़नानी बोली की लगभग अश्लील कविता) के जन्मदाता कहे जाते हैं, शायरी के शौक़ में 'मीर' साहब के पास गये। 'मीर' साहब का बुढ़ापा था और 'रंगीं' चौदह-पंद्रह बरस के, उस पर अमीरज़ादे। निहायत शानो-शौकत से पहुँचे। 'मीर' साहब उनका रंगढंग देखकर ही समझ गये कि कितने पानी में है। ग़ज़ल सुनकर उन्होंने कहा। साहबज़ादे आप खुद अमीर हैं, अमीरज़ादे हैं। नेज़ाबाजी, तीर-अन्दाज़ी की कसरत कीजिए, शहसवारी की मश्क़ फ़रमाइए. शायरी दिलख़राशी और जिग-सोज़ी का काम है, आप इसके दर पर न हों। सआदत यार ख़ाँ इस पर भी न माने और ग़ज़ल की इस्लाह पर जोर दिया। अब 'मीर' साहब ने कह दिया, आपकी तबीयत इस फ़न के मुनासिब नहीं, यह आपको नहीं आने का। ख़ामख़ाह मेरे और अपने औक़ात ज़ाया करना क्या ज़रुरी हैं।
मीर लखनऊ के पैसों पर ज़िन्दगी बसर करते थे मगर उन्हें कभी भी लखनऊ का सुखन और सुखनबर शायरी के लायक नहीं लगे।लखनऊ के कवियों की इश्क़िया शायरी में वह दर्द न था, जो छटपटाहट पैदा कर सके। लखनऊ के लोकप्रिय शायर "जुर्रत" को मीर चुम्मा-चाटी का शायर कहा करते थे। शेख इमाम बख़्श 'नासिख़' के साथ भी यही क़िस्सा हुआ था, उन्हें भी 'मीर' ने शागिर्द बनाने से इन्कार कर दिया था।
मिर्ज़ा ग़ालिब भी शायरी के नाम पर फूहड़ता और लापरवाही पसंद नहीं किया करते थे, उनकी आलोचनात्मक दृष्टि इतनी बेरहम थी कि उन्होंने न केवल उस काल के २००० शे'रों को बड़ी निर्दयता से काट फेंकने की प्रेरणा दी बल्कि आज जो छोटा-सा'दीवाने-ग़ालिब' हमें मिलता है और जिसे मौलाना मोहम्मद हुसैन'आज़ाद'(प्रसिद्ध आलोचक) के कथनानुसार हम ऐनक की तरह आँखों से लगाए फिरते हैं, उसका संकलन करते समय 'ग़ालिब' ने हृदय-रक्त से लिखे हुए अपने सैकड़ों शे'र नज़र-अंदाज़ कर दिए थे। तो यह था ग़ालिब में मौजूद एक बेहतरीन आलोचक का नमूना। ग़ालिब की नज़रों में बुरे शेरों का कोई स्थान नहीं था, इसीलिए तो उन्होंने कत्ल करते वक्त अपने शेरों को भी नहीं बख्शा, ग़ालिब अपने को बड़ा समझने वाले समकालीन शायरों के लिए कहते हैं कि –
लोगों को है खुर्शीद-ए-जहाँ ताब का धोखा
हर रोज दिखाता हूँ मैं एक दाग –ए- निहां और
संवेदनशील सुखनवर
मीर और ग़ालिब दोनों ही शायरों को मोहब्बत में हार नसीब हुई, दोनों को ही आर्थिक परेशानियों ने अन्दर ही अन्दर तोड़ रखा था मगर दोनों ने ही अपने अपने दर्द को अश्कों में नहीं बहाया मगर उसे रोशनाई बनाकर इस जहाँ को एक से बढ़कर एक ग़ज़ल दीं जिन्हें टूटे और भावुक दिल आज भी बार-बार पढ़ते हैं और अपने दिल को राहत देते हैं। मीर ने अपनी दुख की संवेदना को इतना मुखर कर दिया था कि उनके सीधे-सादे शब्द भी हर ज़माने में बड़े-बड़े काव्य-मर्मज्ञों को प्रभावित करते रहे हैं।
मुझको शायर न कहो 'मीर' कि साहब मैंने।
दर्दों-ग़म जमा किये कितने तो दीवान किया॥
भाग्य ने उनके व्यक्तिगत जीवन और उनके समय की सामाजिक परिस्थतियों को स्थिरता और आराम-चैन से इतना अलग कर दिया था कि 'मीर' का हृदय एक टूटा हुआ खंडहर बन गया और उसमें से दर्दों-गम की ऐसी तानें निकली जिन्होंने 'मीर' को कविता के क्षेत्र में अमरत्व प्रदान कर दिया। हमारे आगे तेरा जब किसू ने नाम लिया
दिले-सितमज़दा को हमने थाम-थाम लिया
मिरे सलीके से मेरी निभी मुहब्बत में
तमाम उम्र में नाकामियों से काम लिया॥
गम रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत गम रहा
मेरे रोने की हकीकत जिसमें थी
एक मुद्दत तक वह कागज़ नम रहा॥
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग तो सारा जाने है॥।
मिर्ज़ा ग़ालिब अपनी ही जुए की लत, आर्थिक परेशानी, चर्मरोग जेल बंदी से आहत थे कुछ शर्मसार भी उन्होंने अपने दर्द और मायूसी को कुछ यूँ बयां किया –
हम वहाँ हैं जहां से हमको भी।
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती॥
काबा किस मुंह से जाओगे 'ग़ालिब'।
शर्म तुमको मगर नहीं आती॥
मिर्ज़ा अपने रंजो गम को इस तरह बयां करते हैं –
गमे हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज।
शमा हर रंग में जलती हैं सहर होने तक।
मोहब्बत की इन्तहां
मीर और ग़ालिब जितने उम्दा सुखनवर थे उतने ही इश्कजादे दोनों ने ही मुहब्बत की मगर अपनी मोहब्बत को हासिल न कर सके.कहते हैं कि मीर खान आरजू की पुत्री से प्रेम करने लगे थे। यह प्रेम इतना बढ़ा कि उन्होंने सबसे मिलना-ज़ुलना छोड़ दिया और एक कोठरी में पड़े रहते। इसी हालत में उन्हें उन्माद हो गया और चन्द्रमा में अपनी प्रेमिका की सूरत नज़र आने लगी।
इक क़तरा आब मैंने पिया है
निकला है चश्मे-तर से वह खूने-ताब होकर।
शर्मो-हया कहाँ तक, है 'मीर' कोई दम के
अब तो मिला करो तुम टुक बेहिजाब होकर॥
चाहत का इज़हार किया सो अपना काम खराब हुआ
इस परदे के उठ जाने से उसको हम से हिजाब हुआ॥
प्रेम का रोग 'मीर' को ऐसा लगा कि वे मुहब्बत से परे रहने की नसीहतें देने लगे। यही नसीहते उनके अश'आर में भी ढलने लगे।
इस दौर में इलाही! मुहब्बत को क्या हुआ?
छोडा़ वफा को इसने, मुहब्बत को क्या हुआ?
लगा न दिल को कहीं, क्या सुना नहीं तूने?
जो कुछ कि 'मीर' का इस आशिकी में हाल हुआ॥
मीर मोहब्बत में इस कदर उन्मादी हो गए कि उनका महीनो इलाज करवाया गया और जब चंगे हुए तो उन्हें मोहब्बत सारी मुसीबतों की जड़ लगने लगी। तभी तो वह अपने आशिक साथियों के बारे में कहते हैं कि -
जिन-जिन को था ये इश्क का आज़ार मर गए
अकसर हमारे साथ के बीमार मर गए
मजनूं न दश्त में है न फरहाद कोह में
था जिन से लुत्फे-ज़िन्दगी वे यार मर गए॥
उसी तरह ग़ालिब भी एक बार दिलोजान से किसी पर मर मिटे थे मगर जिस पर ग़ालिब मरे उसी ने उनके सामने ख़ुदकुशी कर ली और ग़ालिब के सीने में हमेशा के लिए एक खलिश छोड़ गयी। दीवाने ग़ालिब में अपनी मोहब्बत की शिद्दत कुछ यूँ बयां की –
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़, जीने और मरने का
उसी को देखकर जीते हैं, जिस काफ़िर पर दम निकले
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
और
हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
या
इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई
मेरे दिल की दवा करे कोई
इस तरह बेशक मीर और ग़ालिब की उम्र में काफी अंतर होने के बाबजूद भी दोनों के मध्य जो यह सुखन का रिश्ता बना वह हमेशा कायम रहा। जैसे हीरे की परख जोहरी करता है ग़ालिब को मीर ने अपनी मृत्यु से दो बरस पूर्व जब ग़ालिब मात्र ग्यारह बरस के किशोर थे भांप लिया था कि यह लड़का एक दिन शायरी का बेताज बादशाह कहलायेगा और हुआ भी यही। कहते हैं कि दिल से दिल को राह होती है और ग़ालिब और मीर के दिल तक सुखन की जो राह बनी उससे सुखन के जगत को एक से एक बढ़िया नज्म और ग़ज़ल के ऐसे हीरे जवाहरात और कोहिनूर प्राप्त हुए जिसे न आज तक कोई फिरंगी लूट सका है और न ही लूटने की कभी हिमाकत करेगा।