रिश्ता / वीरेन्द्र जैन
अगर डाक्टर ने डायबिटीज के आतंक से डराया न होता तो सुबह सुबह उठ कर घूमने जाने जैसा काम मैं कभी भी नहीं करता। पर जब एक बार शुरू कर दिया तो ज़िद की तरह किया और करता गया जिसके परिणाम स्वरूप यह एक सामान्य दैनिक क्रिया में बदल गया।
मेरा फ़्लैट एक हाउसिंग काम्पलैक्स में है जिसमें लगभग डेढ़ सौ फ़्लैट हैं। जब सुबह झींकते हुये उठना और घूमने जाना प्रारम्भ किया था तब मैंने पाया कि काम्पलैक्स के ढेर सारे लोग सुबह सुबह घूमने ही नहीं जाते अपितु कुछ तो उस समय तक लौट कर भी आ चुके होते हैं जब मैं अपना शिथिल शरीर घसीट कर अपने को और डाक्टर को कोस रहा होता था। कुछ लोग, ख़ास तौर पर महिलायें तो काम्पलैक्स के अन्दर ही घूम कर अपना दायित्व निर्वहन कर लेते हैं। प्रारम्भ में मैंने आसपास के उन क्षेत्रों का सर्वेक्षण किया जहाँ लोग घूमने जाते हैं, तो पाया कि आसपास कुल तीन ही क्षेत्र इस लायक हैं। एक तो छोटा सा पार्क है जिसके आसपास एक कारीडोर बना है जिसपर पचासों लोग यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ होते रहते हैं। दूसरा एक हाट बाज़ार का स्थान है जहाँ सप्ताह में दो दिन शाम के समय हाट लगती है पर सुबह के समय औेर सप्ताह के बाकी दिन वह खाली रहता है। तीसरा सार्वजनिक क्षेत्र के एक संस्थान को दी गयी विशाल जगह थी जहाँ पर सड़कें तो बनी हुयी थीं पर शेष स्थान पर गाजर घास उगी रहती है। इन उद्योगों को पचास साल आगे की सम्भावनाओं को दृष्टिगत रखते हुये जमीन आवंटित की जाती है। दो स्थानों पर तो मेरे कुछ परिचित घूमने जाते थे और मैं यह नहीं चाहता था कि शारीरिक व्यायाम के लिये उठने पर भी घूमने की जगह वही फालतू की बातें होती रहें जिसमें पर-निन्दा या नेता-निन्दा होती रहे। कुछ दूर होते हुये भी मैंने तीसरी जगह पर घूमने जाना प्रारम्भ किया। घूमने जाने के लिये मैंने हाट बाज़ार का सुबह सूना रहने वाला क्षेत्र चुना वह दूसरों से भिन्न था।
पर कुछ ही दिन हुये थे अखबार में पढ़ा कि वहाँ रात में एक हत्या हो गयी थी। अगर न पढ़ा होता तो कोई बात नहीं थी, पर पढ़ने के बाद जब दूसरे दिन वहाँ से गुज़रा तो अजीब सी सिहरन हुयी कल्पना में वह अमूर्त अनाम व्यक्ति चिल्लाते, तड़फते व दम तोड़ते हुये कौंधने लगा। एक दिन, दो दिन, चार दिन पर ये तो रोज़ की ही बात हो गयी। मैं भूतप्रेत आत्मा परमात्मा में विश्वास नहीं करता पर मनुष्यता में तो करना पड़ता है। एक आदमी मार दिया गया और मैं रोज़ वहीं से स्वास्थ बनाने को गुज़रता हूँ। वैसे तो पुरातत्वशास्त्री और इतिहासकार कहते हैं कि दुनिया में एक इंच ज़मीन भी ऐसी नहीं है जहाँ कभी किसी की मृत्यु न हुयी हो पर उनके बारे में ऐसे दृश्य तो कल्पना में नहीं आते। कुछ दिन तो चलता रहा पर उसी रास्ते पर सुबह घूमने जाने वालों को लूट लिए जाने का समाचार भी अखबार में ही आया। कुतर्क पैदा हुआ कि साले घूमने जाते हैं तो मेरी तरह खाली जेब क्यों नहीं जाते फिर लगा कि हो सकता है कि पिछले आदमी की हत्या भी इसी चक्कर में हो गयी हो। अपने लुटने और लुटेरे से संभावित संघर्ष का दृश्य कल्पना में उभरा तो उसने डरा दिया। मैं अपने को ऐसे तो लुटने देने से रहा। भले ही जेब में कुछ भी न हो पर एक सम्मान तो है, मैं क्या कोई ऐसा वैसा आदमी हूँ जो अपने को इन टुच्चों लोंडों लपाड़ों के सामने कहूँगा कि मेरी जेब में कुछ नहीं है और फिर भी वे मेरी तलाशी लेते हुये निराशा में एक झापड़ ही मार कर चलते बनें। मैं तो टकराऊँगा। पर उस टकराने से होगा क्या? वे नौजवान हो सकते हैं और एक से ज्यादा तो होते ही होंगे! अंततः पिटुंगा मैं ही! हो सकता है वे चाकू ही मार कर चले जायें! ना भी मारें तो भी जिससे कहूँगा कि लुट गया पिट गया तो वही मन ही मन हँसेगा। पुलिस और सरकार को दस बीस गालियाँ देगा सरकारी पार्टी की निंदा करेगा और ढेर सारी सलाहें देगा कि कहाँ घूमने जाना चाहिये, कब जाना चाहिये, कैसे जाना चाहिये उसके बाद घूमने के विकल्प की जगह कसरतें आदि बताने लगेगा, साइकिलिंग की सलाहें देगा पर जब कहूँगा कि चलो रिपोर्ट लिखा कर आते हैं तो पुलिस स्टेशन जाने के नाम पर उसकी फूँक सरक जायेगी। पुलिस रिपोर्ट की निरर्थकता के साथ ही साथ उसे दस-बीस और काम याद आ जायेंगे जिनके लिए उसे जल्दी जाना है। मेरे पास से खिसक कर वह किसी को मेरे पिटने का किस्सा मज़े ले लेकर सुना रहा होगा। हो सकता है ऐसा नहीं भी हो पर अब दोस्त तो रहे नहीं और ये मिलने-जुलने वाले तो एक से एक माशाअल्ला हैं। सोचा ऐसी हास्यास्पद स्थिति से गुज़रने से तो अच्छा है कि जगह ही बदल ली जाये।
जिस सार्वजनिक संस्थान की खाली पड़ी ज़मीन पर घूमने जाना शुरू किया वहाँ अच्छी खासी हलचल रहती थी। पुरुष महिलाएँ बच्चे नौजवान जागिंग करने वाले ड्राइविंग सीखने वाले सब वहीं आते थे। एक जगह तो लोग हँसने के लिए भी इकट्ठा होते थे जिनका अट्टहास सुन कर और उन्हें बिना बात हँसते देख कर हँसी आती थी। महिलाएँ भी समुचित संख्या में घुमंतू थीं और कमसे कम उतना प्रतिशत तो थीं ही जितने का विधेयक सदन में आरक्षण देने के लिए वर्षों से लम्बित है। मन में एक सुखद वाक्य कौंधा जिसे मित्रों को सुना कर वाह-वाही लूटी जा सकती है कि ’वहाँ घूमने जाने पर आँें भी घूमती रहती हैं‘।
नियमित रूप से आने वाले एक जोड़े ने विशेष ध्यान आकर्षित किया। वह एक सरदार और एक युवती का जोड़ा था। वे न केवल नियमित थे अपितु समय के इतने पाबंद थे कि उन को देख कर घड़ी मिलायी जा सकती थी। इस नियमितता और समय की पाबंदी के साथ सबसे बड़ी बात जो थी वो उनकी ताज़गी थी। ऐसा नहीं लगता था कि वे रात में सोते भी होंगे। उनकी गति और फुर्ती तरह तरह के शिथिल बासे चेहरों और विवशता में घिसटते लोगों में उत्साह का संचार करने वाली थी।
युवती अत्यंत सुंदर थी। लगभग वीनस की मूर्ति जैसी। इतनी स्लिम और सुडौल कि जैसे साँचे में ढाली गयी हो। वह ट्रैक सूट जैसा पृष्ठ भाग पर कसा पेंट और टाप पहिन कर आती थी जिससे उसकी पूरी देह का नाप स्पष्ट होता था। चेहरा इतना चिकना और बेदाग कि फिल्मों की नायिकाओं को पीछे छोड़ देता था। उन्हीं दिनों भोपाल में फिल्म नायिका मोनिका वेदी भोपाल की जेल में बन्द थी और हर पेशी पर उसके सुन्दर से चित्र स्थानीय अखबारों में प्रकाशित होते रहते थे। यह युवती उससे इक्कीस ही कही जा सकती थी क्योंकि एक तो वह लम्बी थी कम से कम पौने छह फीट लम्बी थी दूसरे वह एकदम ऐसी छरहरी थी जिसे दुबली नहीं कहा जा सकता। उसका दूसरा प्रतिबिंब उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में प्रचार के लिए बाहर निकली प्रियंका गांधी के अखबारों में छपे चित्रों से मिलता था पर प्रियंका भी मातृत्व के कारण अब उतनी छरहरी नहीं रह गयीं हैं जितनी यह युवती थी।
उसकी उम्र इतनी तो थी कि उसे लड़की नहीं कहा जा सकता। कम से कम पच्चीस से तीस के बीच होनी चाहिये थी पर उसकी देहयाष्टि देख कर ऐसा नहीं लगता था कि वह विवाहित है। उसके पंजाबी उजले सुचिक्किन बेदाग चेहरे पर कौमार्य की चमक भी थी। उसकी चाल की गति व स्मार्टनैस उसे विवाहित मानने से रोकती थी। दूर जाने की ज़रूरत नहीं थी तुलना करने के लिए उसी स्थान पर अन्य पचासों उसकी हम उम्र महिलाएँ वहाँ मिलती थीं पर किसी में भी वह बात नहीं थी। फिर उसका निरंतर पैंट और टाप व स्पोर्ट शू पहिन कर घूमने आना भी यह बताता था कि उसकी देह कुछ भी ढकने की माँग नहीं करती है। असल में इस बात पर विशेष ध्यान जाने का कारण ये था कि उसके साथ जो सरदार आता था वह कम से कम पैंतालीस से पचास के बीच का लगता था। हो सकता है कि वह चालीस से पैंतालीस के बीच का ही रहा हो पर ढीले से चेहरे वाला वह लम्बी काली दाढ़ी खुली रखता था जिससे उसकी स्मार्टनैस कुछ कम सी लगती थी। कभी वह पाजामे कुर्ते में होता तो कभी बरमूडा बनियान में पर उसकी देहयाष्टि से इससे कम उम्र आँकने नहीं देती थी। उसकी दाढ़ी खुली तो रहती थी पर चोंचदार नहीं थी वरना तो मैं उसे कहीं का ग्रन्थी ही मान लेता।
यह जोड़ा रोज़ मिलता और मेरी विचार शृंखला में व्यवधान पैदा कर देता। मेरे मन में तेज़ी से यह सवाल कौंधता कि इन लोगों के बीच रिश्ता क्या है! यदि ये पति पत्नी हैं तो उम्र में इतना फर्क क्यों है या मुझे ही लगता है! फर्क हो भी सकता है क्योंकि ये तो मन या रिश्ता मिलने की बात है पर युवती विवाहित सी क्यों नहीं लगती? हो सकता मेरा ही भ्रम हो, पर ऐसा भ्रम पहले तो कभी पैदा नहीं हुआ। कई बार तो अविवाहित लड़कियों के बारे में भी उनके रूप आकार को देख कर उनके विवाह पूर्व सम्बन्धों का आभास हुआ व जहाँ भी पृष्ठभूमि में जाने का अवसर मिला वह भ्रम सच साबित हुआ। आखिर मैंने इतनी साहित्य, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान व सामान्य ज्ञान की पुस्तकें पढ़ी हैं और समाज के तमाम व्यवहारिक अनुभव भी हैं इसलिए गलत नहीं हो सकता। शायद यही दंभ मुझे चुनौती दे रहा था कि मैं उनके रिश्ते की पड़ताल करूँ। हो सकता है कि वे भाई-बहिन हों, पर भाई-बहिन में कुछ तो कहीं-कहीं एक जैसा होता है, दूसरे वे जिस तरह से एकसाथ निरंतर आते थे वैसे आज हिंदुस्तान में इस उम्र के भाई-बहिन नहीं आ सकते। भाई की अपनी पत्नी नहीं है क्या? और फिर बहिन की अब तक शादी क्यों नहीं हुयी? नहीं भाई-बहिन नहीं हो सकते। हैं तो वे पति-पत्नी ही।
वे दोनों एक साथ तेज़ चाल से आते जाते थे। ना तो वे किसी से बात करने की कोशिश करते थे और ना ही मैंने उन्हें आपस में भी बात करते देखा था। ये भी पता नहीं था कि वे किस ओर से आते हैं और पचासों कालोनियों से घिरे इस इलाके में कहाँ विलीन हो जाते हैं। घूमने आने जाने वाले लोगों के बीच आपस में भी दुआ सलाम होती रहती है तथा कई लोग तो बिना जान पहचान के भी नमस्कार चमत्कार कर लेते हैं क्योंकि उनका विश्वास होता है कि इसी बहाने से भगवान का नाम मुँह से निकलता है और उसका पुण्यलाभ उन्हें ऊपर मिलेगा, पर इन दोनों की किसी से भी दुआ सलाम नहीं होती थी। इनके अलावा कुछ और भी सरदार लोग घूमने निकलते थे पर उन में से भी किसी के साथ इनकी ’सतश्री अकाल‘ होते नहीं देखी। इस रहस्यवाद ने मुझे इनके प्रति और भी जिज्ञासु बना दिया था। पहले तो जब वे मिलते थे तब से उनके बारे में विचार आने शुरू होते थे पर अब तो सुबह घूमने के लिए निकलते ही घड़ी देख कर अंदाज़ लगाने की कोशिश करता कि आज वे लोग कहाँ मिलेंगे। अपने अंदाज़ को सही साबित करने के लिए मैं भी अपनी गति को एक समान करने की कोशिश करने लगा था जबकि पहले वह बहुत लापरवाही भरी होती थी।
वे लोग प्रतिदिन कपड़े बदल कर आते थे तथा उनके कपड़ों में वैराइटी होती थी। जो किसी स्टैंडर्ड कम्पनी के शो रूम से खरीदे कपड़ों में होती है। रंगों डिज़ाइनों में सोबर और क्वालिटी में उत्तम। उन पर ध्यान देने के दौर में मेरा अपने कपड़ों पर ध्यान गया तो बहुत हीनता बोध हुआ। कपड़े महँगे हों न हों पर रोज़ बदले तो जाने ही चाहियें। मेरे घूमने के कपड़े अलग थे तथा गन्दे होने तक वही पहने जाते थे। एक जोड़ा कम से कम एक सप्ताह तक तो चलाये ही जाते थे । मैंने अब तीन चार जोड़े नये पुराने सैट तैयार कर लिए थे जिन्हें बदल-बदल कर पहिनना शुरू कर दिया था। एक जोड़ा घूमने वाले स्पोर्ट शू खरीद लिए थे। वैसे भी बरसात मैं कई बार चमड़े के जूते खराब हो जाने के डर से मैं घूमने जाना स्थगित कर चुका था।
कभी वो लोग मेरे आगे आगे जा रहे होते तो मुझे लगता कि युवती मैं एक आत्मविश्वास है। उसकी लम्बाई सुन्दरता और शरीर सौष्ठव पर भरपूर नज़र डाल ेना प्रत्येक घूमने जाने वाले के लिए अनिवार्य जैसा था। पर इससे उसमें देशी महिलाओं जैसा संकोच व निहारे जाने के कारण कोई विशिष्ट भाव पैदा नहीं होता था। इससे लगता था कि उसका विकास किसी पश्चिमी देश में हुआ होगा। कनाडा अमेरिका आदि देशों में लाखों सिख आते जाते रहते हैं और वहाँ से पैसा कमा कर लौटते हैं और देशी लोगों को हीन समझते हैं। ये लोग भी वहीं से लौट कर आये हुये हैं तभी तो उस उम्र की इतनी सुन्दर महिला टाप में इतनी सहजता से घूम लेती है ।
मेरे मन में उन लोगों के प्रति जिज्ञासा बढ़ती ही जाती थी। अक्सर खीझ होने लगती कि आखिर मुझे क्या वे कोई भी हों और उनका रिश्ता कुछ भी क्यों न हों। पति पत्नी हों, दोस्त हों, भाई बहिन हों, बाप बेटी हों। रिश्ता पता चलने से मेरा क्या बदल जायेगा? मैं क्यों रोज़ सुबह उठने दाढ़ी बनाने और घूमने जाने में समय का पाबन्द हो गया हूँ। मेरे घूमने का एक मात्र लक्ष्य उन लोगों को देखना और उनके बारे मैं सोचना क्यों हो गया है।
लगभग साल भर ऐसा ही चला। फिर पता चल गया। हुआ ये कि दोनों ही वहाँ घूमने आना बन्द हो गये। दो दिन, चार दिन, आठ दिन फिर महीना गुज़र गया। वे लोग नहीं दिखे। वे जिस ओर को जाते थे मैं उस ओर से जाने में रूचि लेने लगा कि शायद वे कहीं दिख जायें तो पूछ ही लेंगे कि वे अब घूमने क्यों नहीं आते हैं, पर वे कहीं नहीं दिखे। मुझे रिश्ते का पता चल गया । हाँ ये तो पता नहीं चला कि उन दोनों के बीच में क्या रिश्ता था पर ये ज़रूर पता चल गया कि मेरा उनके साथ ज़रूर कोई रिश्ता जुड़ गया था पर उस रिश्ते का भी नाम अब भी पता नहीं चल सका।