रिश्ते खो गए / गुरदीप सिंह सोहल

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नई दिल्ली

बुधवार

बेटा श्रवण!

तेरा नाम श्रवण रखने से पहले मैं चाहता था, सोचा करता था कि बड़ा होकर तू भी ‘श्रवण पुत्तर’ बनेगा और अपने नाम के साथ-साथ मेरा नाम भी रोशन करेगा जिस प्रकार कि हर व्यक्ति अपनी सन्तान से आशा करता है, उसके अच्छे भविष्य को बनाने की कोशिश करता है। भविष्य जैसा भी बने वो सब तो किस्मत की बात है लेकिन अपनी तरफ से तो हर आदमी अच्छी-से-अच्छी कोशिश करता ही है। कोशिश कामयाब हो तो भविष्य बन जाता है अन्यथा सब किस्मत को दोष देकर अपना पिण्ड छुड़ा लेते हैं। मैं किसे दोष दूं, अपने आपको, तुझे या तेरे परिवार को, अपनी किस्मत को या भगवान को जिसे मैं रोज बार-बार याद करता हूं तेरे नाम के साथ-साथ। मगर आज 25 बरस के बाद मैं समझ पाया श्रवण बेटे कि व्यक्ति अपने अच्छे-अच्छे कर्मों की बदौलत ही ऊपर उठता है, समाज में अपना नाम बनता है, स्थान बनाता है, नाम के साथ-साथ पैसा कमाता है, हर आदमी द्वारा हमेशा याद किया जाता है। अमर हो जाता है या फिर चाहने वालों द्वारा अमर कर दिया जाता है इसके विपरीत बुरे कामों के कारण पतन के गर्त में जा गिरता है, बदनाम होता है, लोगों के द्वारा सताया जाता है, पीटा जाता है, लोग उसे गधे पर बिठाकर, काला मुंह करके जूतों की माला पहनाकर शहरों में घुमाते हैं, पत्थर मारते हैं ताकि लोग उसके बुरे-बुरे कामों का अन्जाम देख सकें, उससे सबक ले सकें और यह भी देख सकें कि अपने द्वारा किये गये कर्मों की सजा स्वर्ग या नरक में नहीं मिलती बल्कि यहीं पर, इसी जमीन पर ही दी जाती है और शायद तू यह बात भूल चुका है। मैं अपने किस जन्म की, किस काम की सजा पा रहा हूं भगवान ही जानता है बेटे। नाम की-सी सार्थकता, लाखों-अरबों में से कोई एकाध, बिरला ही ला पाता है। अपनी प्रसिद्वि की चकाचौंध, चमकाहट के कारण तू कितना घमण्डी, स्वार्थी, खुदगर्ज हो गया है इस बात का अनुमान लगाना भी बहुत ही मुश्किल है। मैं यह अनुमान कुछ हद तक तो लगा सकता हूं लेकिन तेरे तो बिल्कुल ही बससे बाहर की बात है। अगर तेरे वश में भी हो तो मुझे क्या भला।

गर्व की चकाचौंध, प्रतिष्ठा की चमक ने तेरी आंखो पर मान-मर्यादा, स्टेटस आदि की इतनी मोटी पट्टी चढ़ा डाली कि आज तू मेरा, अपने बाप का नाम लेना भी अपराध समझता है। अपने उस बाप को ही भुला बैठा, उस सरंक्षक को ही बिसार चुका, जिसकी छत्रछाया में खेल-कुद कर तू इतना बड़ा हुआ, दीर्घायु हुआ। जिसकी गोद में तूने अपना बचपन बिताया, जिसकी अंगूली पकड़कर तूने चलना सीखा, स्कूल जाना सीखा, पढ़ना सीखा, खेलना-कूदना सीखा। उसकी बदौलत ही तू समाज की उस मंजिल तक पंहुच पाया जिसकी प्रत्येक व्यक्ति को हर पल, हर घड़ी चाह होती है, जिसे प्राप्त करने के लिये इन्सान हर प्रकार से भ्रष्टाचार करता है। हर कानून, हर नियम को ताक में रख देता है। जो स्थान तुझे अब हासिल हुआ उसका सेहरा मेरे सिर पर बंधना चाहिए। सारा प्रतिफल, सारा क्रेडिट मुझे ही मिलना चाहिए न कि तेरी उस दुष्ट बीवी को, तेरे उन दुष्ट ससुराल वालों को जिन्होंने साजिश करके तुझे घर जंवाई बना डाला और मुझझे तुझ जैसा श्रवण पुत्र छीन लिया। उन लोगों ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा, हमारे हरे-भरे परिवार को सुखा डाला, घर को तोड़ दिया, पता नहीं उन्होनें तुझ पर क्या जादू किया कि हमारी खुशियां ही मिट्टी में मिल गई, दिलों का चैन चला गया। जब तूने ही मेरी परवाह नहीं की तो मैं उन्हें क्या दोष दूं। उन्हें तो किसी-न-किसी का श्रवण पुत्र छीनना ही था। शायद वो तू ही था और मेरी किस्मत में भी यही लिखा था और तुझे विदेश जाना था यह तेरी किस्मत है। तू भगवान को याद कर अपने खुशी के ढंग से और मैं अपनी गमी के ढंग से तो याद करता ही हूं। याद तो हम दोनों ही करते हैं लेकिन अपने-अपने ढंग से।

तू यह भी भूल गया कि यदि मैं चाहता तो तू बिल्कुल भी पढ़ नहीं पाता, सारी उम्र के लिये अनपढ़ रह जाता, किसी मजदूर की तरह जीवन-बसर कर रहा होता या किसी कम्पनी में साधारण-सी बाबूगिरी कर रहा होता। लेकिन नहीं, मैने तेरे प्रति, अपनी सन्तान के प्रति उत्तरदायित्व को जीवन भर, सेवानिवृत्ति तक बाजुओं में खून के अंतिम गर्म कतरे तक, अंतिम सांस तक निभाने की भरसक कोशिश की। जहां तक भी सम्भव हो सका निभाया ही था, अपना पेट काट-काट कर तुझे खिलाता रहा, खुद तुझे संतुष्ट, खुश देखकर खुश होकर जीता रहा इस उम्मीद के सहारे कि बाद में, बुढ़ापे में आराम से, जी भर के खा लेंगे मगर हाय रे वक्त। तू कभी-कभी इतनी बेदर्दी से क्यों पेश आता है ? क्यों इतना निष्ठुर हो जाता है। क्यों दगा देता है बार-बार ? कभी तू तीव्र गति से भागता हुआ नजर आता है किसी भी द्रुतगामी वाहन की तरह जिसमें खुशियों के दिन भरे होते हैं, सुखी मुसाफिर यात्रा कर रहें होते है। परन्तु कभी खराब वाहन की तरह टस-से-मस नहीं होता, अंगद की तरह पांव जमा देता है। दुख बनकर प्रेतात्मा की तरह सामने खड़ा हो जाता है, रास्ता रोक लेता है। दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जिसे तूने ज्यादा सुख दिया हो, सुखी रखा हो, हर आदमी तुझसे दुखी ही नजर आता है, किसी को चिन्ता में डाल देता है, किसी को चिता में। हर आदमी तेरा ही गुलाम क्यों बन जाता है ? तुझसे आज तक कोई भी जीत नहीं पाया। आदमी पर तूने हमेशा जीत ही कायम की है।

अब, आज तू एक प्रतिष्ठित अफसर बनकर अपने, सन्तान के, मां-बाप के प्रति निभाये जाने वाले उत्तरदायित्व को भूल, कृत्रिम रिवाजों कें जाल में मकड़ी की तरह उलझ गया है। आडम्बरों, औपचारिकताओं के अंधेरों में भटक गया है। तुझे इन सबके अतिरिक्त कुछ भी सोचने का वक्त ही नहीं, कुछ सूझता ही नहीं कि तेरे परिवार के बाहर तेरा कोई अपना और भी है जो तुझे बार-बार याद करता रहता है। तुझे इतनी सुध ही कहां कि तू यह सब याद कर सके। 25 बरस पूर्व तू मेरा बेटा था, भारत देश का नागरिक था। लेकिन अब परायों, बेगानों, विदेशी नागरिकों की भीड़ में खो चुका है। अन्तर केवल इतना भर है कि मैं यहां पर भारत में हूं और तू विदेश में, पश्चिमी सभ्यता में, अंग्रेजों में, नशे में भटका हुआ भारत मां का बेटा। तू मुझे इस तरह भूलकर चला गया जैसे कि मैं कोई अनजान मुसाफिर था और तू कोई बस चालक। चालक को हर आदमी याद रख सकता है, लेकिन चालक किसी भी मुसाफिर को याद नहीं रख सकते, क्योंकि मुसाफिर बहती हुई धारा की तरह आते हैं और चालक किसी चट्टान या पुल की तरह अडिग खड़े रहते है। वह दिन मैं अंतिम सांस तक नहीं भुला सकूंगा और यह मेरा भी अटल दावा है कि तुझे भी याद ही रहेगा जब तूने मुझे बेकार बैल की संज्ञा देकर कुत्ते की तरह दुत्कार दिया था। जितना इन्सान गिर सकता है, गद्दारी कर सकता है। मैं समझता हूं कि जानवर भी इतना नहीं गिर सकता। इस दौड़ में तूने जानवर को भी पीछे छोड़ दिया। बैल अपनी जवानी, पूरी उम्र हल जोतते-जोतते कुर्बान कर देता है, कुत्ता कभी भी अपने मालिक से गद्दारी नहीं करता। स्वामिभक्त में वह जान लुटा देता है और इन्सान पल-पल गद्दारी करता है, अपनों के ही लात मारता है। पहले दोस्ती करता है और फिर बाद में दोस्त की पीठ में खंजर घोंपता है। भगवान ने इन्सान को दिमाग देकर शायद बहुत भारी भूल की है क्योंकि यदि इन्सान के पास दिमाग न होता तो वह किसी को भी दगा नहीं देता और न ही सोचता कि क्या अच्छा है या क्या बुरा। उसके पास अगर दिमाग न होता तो शायद वह भी किसी जानवर को अपना गुलाम नहीं बनाता, काम नहीं लेता। सब बराबर होते। जानवर और इन्सान का भेदभाव कभी न पनपता। शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते। दिमाग ने ही सबको चौपट करके रख छोड़ा है। दिमाग ने ही पैसा बनाया और पैसे ने इन्सान खरीदा, तुझसे देश छुड़ाया। विदेशों में भटकने को मजबूर किया। तू भी इसी का ही खरीदा और बिका हुआ इन्सान है, इसी की गुलामी कर रहा है।

बेटा श्रवण ! ये उम्र राम-नाम की माला फेरने की होती है। आराम से बैठ कर भक्ति करने की होती है। सारी उम्र किये हुए काम के बदले आराम की होती है। पोते-पोतियों, नाती-नातियों को आसपास, गोद में बिठाकर परियों, राजकुमारों, राजा-महाराजा, जादूगरों की चटपटी, मजेदार कहानियां सुनाने-सुनने की होती है। बालकों की तरह रूठने-मनाने की होती है। तीर्थ-यात्रा करने की होती है, घूमने-फिरने की होती है, टहलने की होती है। बेटे-बहुओं से सेवा-सुश्रुषा करवाने की उम्र में मैं इस तरह जी रहा हूं मजदूरी करते हुए। कितनी शर्म की बात है बेटे। मेरा कुछ तो ख्याल किया होता। मेरे लिये नहीं तो कम-से-कम अपनी इज्जत की ही सोचता। जब तक बाप कमा कर देता है इज्जत-सम्मान के साथ खाना मिलता रहता है। बेकार होते ही, रिटायर होते ही, भिखारी नजर आने लगता है। सबकी नजरें बदल जाती है बाप के लिये। कमजोर होते ही बैल को भी बूचड़ खाने में धकेल दिया जाता है या फिर उसे भी आवारा डंगरों के साथ घर से बाहर भेज दिया जाता है। उसका दाना-पानी घर में समाप्त हो जाता है या तेरे जैसे पुत्रों द्वारा समाप्त करवा दिया जाता हैं। कोई भी इज्जतदार व्यक्ति यह पसन्द नहीं करता कि जानवर जानकर उसके सामने बची-खुशी सूखी रोटियां नाक-भौंह सिकोड़ कर, गालियों के साथ डाल दी जावे। नहीं न बेटे। वह भूखा मर जाना पसन्द करता है लेकिन ऐसी नफरत की रोटियों को कभी हाथ भी लगाना नहीं चाहता जो उसकी इज्जत के साथ खिलवाड़ करे, उसकी बेइज्जती करे। किसी के सामने बेशर्मी से हाथ पसारने के बजाय इज्जत से भूखा मर जाना सौ गुना अच्छा है। इज्जत से भूखे मरे हुए को देखकर लोग सलाम करते हैं। उसकी इज्जत में चार चांद लगने जैसा होता है। भिखारी और बेशर्म आदमी समान होते है, उनमें कोई अन्तर नहीं होता। कोई भी आदमी परिस्थितिवश भिखारी हो सकता है, लेकिन बेशर्म आदतन हो जाता है। अन्धे और बूढ़े की लाठी जब टूट जाती है, छीन ली जाती है या बदकिस्मती से मुड़-तुड़ कर काम की न रहकर इस कदर बेकार हो जाती है कि उसके पास कोई भी सहारा नहीं रहता, जीवन बोझ बनकर रह जाता है, वक्त बेरहम हो जाता है, हर आदमी सहारा देने से कतराने लगता है, भूख-प्यास सताने लगती है, जीने की इच्छा कायम रहती है लेकिन शरीर साथ नहीं देता तो तब वह क्या करता है ? किसके सहारे मार्ग तलाश करता है ? किस प्रकार जीवनयापन करता है ? उसके जीवन की थकी गाड़ी में कौन उर्जा का पैट्रोल डाल देता है ? कोई सोचता है ऐसा ? नहीं । किसके पास है इतना वक्त भला इस प्रकार की घटिया औंर बेकार बातें सोचने का। जिसके तन में लगती है वो ही जानता है कि घाव क्या होता है ? जिसके पैर न फटी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई। मेरे विचार से कोई अन्य विकल्प तलाश करता है जिसे अन्धे की लाठी, बूढ़े के रीढ़ की हड्डी का रूप दिया जा सके। अपने पेट की आग को ठंड करने का मार्ग तलाश किया, अपने दर्द की दवा, अपने वक्त को काटने का उपाय, अपने जख्मों पर मरहम लगाने का सूत्र खोज निकाला। उपाय न खोजता तो फिर क्या करता भला ? मरता क्या न करता। कुछ-न-कुछ तो करना ही था जीने के लिये वरना तो मैं कब का बुदजिलों की तरह आत्म हत्या कर चुका होता। इधर मेरी चिता जल रही होती और उधर तू किसी जश्न में पीकर मौज कर रहा होता। तेरे जाते ही मैने भी दूसरी लाठी, दूसरा सहारा तलाशने का काम किया। प्याऊ पर काम करने लगा। आते-जाते, थके-हारे मुसाफिरों को पानी पिलाकर संतुष्ट करने लगा। संतुष्ट हुई आत्माओं की आशिष से मैं आज तक जीवित हूं। जीवित रहने के लिये कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ता है न बेटे।

इस अवस्था में आकर इन्सान दूसरे इन्सान को पहचानने से इन्कार कर देता है, किसी भी प्रकार की मदद से मुंह मोड़ लेता है। किसी के पास इतना वक्त ही नहीं होता कि सड़क के बीच में गिरे हुए किसी बूढ़े आदमी को उठने के योग्य ही बना दें, सहारा ही दे दें, उठकर चलने लायक ही बना दें लेकिन ऐसा करने को किसी का दिल नहीं मानता या फिर उनकी शान के खिलाफ होता है और फिर किसी को यह सब सोचकर लेना भी क्या होता है। बूढ़ा अस्थिपंजर, टेढ़ीकमर, पीली सूखी धंसी आंखे, हिलते-डुलते कांपते हाथ-पांव, बेकार चारपाई पर पड़ा हुआ बिना रूके लगातार खां-खां खांसकर पिटकी-सी आवाज से भिनभिनाती हुई मक्खियों के लिये बलगम थूकता हुआ लाचार, बेबस, पोपला चेहरा देखकर कौन नहीं सोचने पर मजबूर हो जाता होगा कि जो सहारा इन्सान जवानी से ही बुढ़ापे की खातिर, असाधारण कमजोरी की उम्र की खातिर तैयार करता रहता है, बनाना प्रारम्भ करता है। बाद में बुढ़ापे में वही सहारा अगर कोई दूसरा छीन कर ले जाये, बूढ़े को बेसहारा कर दे तो सोचा है कि किसी ने कभी बेटा कि क्या गुजरती है उस बूढ़े के दिल पर, वृद्व आदमी पर जिसका सहारा छीन जाता है। केवल वही सोचता है जिसके साथ वक्त दगा करता है सहारा छीनकर। कौन देखता है ? कौन सोचता है ? शायद कोई भी नही, वक्त भी नही। इसी बेसहारा बूढ़े को देखकर, बूढ़ापे को समझकर, बढ़ती हुई खांसी को देखकर लोग अनुमान लगा लेते है कि इन्सान पर बुढ़ापा आ चुका है। उम्र ढ़लने लगी है, शरीर की ताकत जाने लगी है, आंखो की रोशनी दीपक में समाप्त हो रहे तेल से मंद पड़ी बत्ती लौ की तरह कमजोर होने लगी है, शरीर की ताकत जाने लगी है, सोचने-समझने की ताकत कमजोर पड़ने लगी है, याददाश्त धुधली पड़ने लगी है और आवाज की पहचान ही बाकी रह जाती है याददाश्त वापस लाने के लिये। शक्ल के साथ-साथ अक्ल भी बदल जाती है। लेकिन आवाज ही वह एक पहचान है जो भीड़ में से पहचानी जा सकती है और जो कभी भी नहीं बदल सकती। पुत्रों की निगरानी, बहुओं की मेहरबानी, पोते-पोतियों की परेशानी और नौकरों की शैतानी तथा नादानी ही उसकी जिंदगानी होती है और वह बूढ़ा कैदी, बेबस, बेकार, बेसहारा, निराश्रित-सा-इन्सान एक गिलास पानी को तरस जाता है। पानी के बुलबुले की तरह क्षणभंगुर का अस्तित्ववान बार-बार मांग-मांगकर खाने-पीने वाला इन्सान दो कौड़ी का भी नहीं रहता। भिखारी हो जाता है निर्लज्ज, बेशर्म, पेटू कहलवाने लगता है। इन्सान की कीमत प्रायः तभी गिर जाती है जब वह पुत्रों पर आश्रित, पराधीन हो जाता है, पशुओं की जिदंगी जीने लगता है, बिना जमीर की। कठपुतली की तरह नाचने लगता है अपने उन सब मदारियों के हाथों जो उसे पल-पल, घड़ी-घड़ी नचाना न जानते हुए भी नचाने की कोशिश करते है। न घर का रहता है न घाट का। धोबी या कुत्ता हो जाना पड़ता है। बाड़ लगाकर नये पौधों की देखभाल माली क्या इसीलिए करता हैं कि उन्हें जानवर खा जायें, आंधी-तूफान गिरा दें, सूखा सुखा दें। पौधों के चारों तरफ बाड़ वह इसलिए लगाता है कि नन्हें पौधे बड़े होकर छायादार वृक्षों को, किसी की आशाओं को अगर तेज हवा हिलाकर जड़ कमजोर कर दे, आंधी कमजोर हुई जड़ों को गिराने की कोशिश करे या जड़ से ही उखाड़ दें। लोग काट-काटकर मिलों में ले जायें, फर्नीचर बना लें ईंधन के रूप में जलाकर उर्जा प्राप्त कर लें, आशाओं पर कोई पानी फिरा दे तो क्या गुजरती है, पौधे लगाने वाले उस माली के दिल पर, आशा पालने वाले के दिलो-दिमाग पर ? जान सकता है कोई ? शायद कोई भी नहीं ? उसके दुख केवल माली या मेरे जैसे बाप को, लूटने वाले व्यापारी को, पिटने वाले को ही भुगतना होता है।

बाप-बेटा दोनों एक-दूसरे के बिना अपूर्ण है, अधूरे हैं, निराश्रित है एक -दूसरे पर निर्भर है, कोई भी स्वतन्त्र नहीं, पूर्ण नहीं। बचपन से यौवन तक पुत्र पिता का हाथ थामकर, बुढ़ापे में पुत्र पिता को कन्धे का सहारा देकर या बनकर चलता है। पिता के बिना पुत्र अनाथ, पुत्र के बिना पिता भी बेसहारा हो जाया करता है और पुत्र के बिना पिता का वंश भी नहीं चल पाता है। पुत्र बाप की चिता को अग्नि दे तो यह परम्परा है लेकिन इसके विपरीत पिता को पुत्र की अर्थी उठाने पड़े तो यह अन्याय है, वक्त का बेरहम कोड़ा है जो बाप की पीठ पर पड़ता है लेकिन निशान दिल पर पड़ते है, जिगर लहू बहाता है। उसकी लाचारी है। आदर्श पिता के रूप में असंख्या दशरथ इस दुनिया में मिल सकते हैं जिन्होनें पुत्रों की खातिर हमेशा ही अपने सुखों की बलि दी हैं, जवानी की कुर्बानी ही दे दी। अगर नहीं मिल सकते तो श्रवण पुत्र। हर बाप दशरथ की तरह, बनवास जाते हुए राम की तरह पुत्र वियोग में दिन-रात तड़प-तड़पकर प्राण त्याग देता है। पूरी उम्र उसे याद करता रहता है। अंतिम सांस तक विदेश गये हुए पुत्र की राह निहारता रहता है। उसके पत्रों की प्रतीक्षा करता रहता है। पुत्र के आने की उम्मीद में, बाट जोहते-जोहते आंखे पथरा जाती हैं, फड़फड़ाते होंठ थर्रा-थर्रा कर बन्द हो जाते है, आंसू बह-बहकर सूख जाते है और तब मरे बाप की अर्थी को कन्धा देने भी नहीं आना चाहता बल्कि बाद में रस्म क्रिया में शामिल होने, औपचारिकता पूरी करने सिर्फ इसीलिए आता है कि वह बेटा जो कहलाता है। दिखावे से, लोक-लाज से वरना बूढ़े की लावारिस लाश का अंतिम संस्कार नगरपालिका को ही करना पड़ता है। उसका अस्थि विसर्जन कौन करता है यह तो भगवान ही जानताहै। बाद में वह पुत्र होने के धर्म पूरा करता है। यहां पर आकर ये बात मिथ्या सिद्व हो जाता है पुत्र के बिना मोक्ष नहीं मिलता। जब जमीन पर ही सुख नहीं मिलता, जीते जी ही नर्क जैसा जीवन गुजारता है तो मरने के बाद मिला मोक्ष किस काम का। मरने के बाद मिले हुए मोक्ष को किसने देखा है भला। ऐसे हालत में पुत्र की कामना करना ही बेकार है जो अंतिम समयमें कंधा न दे सके।

विदेश गये हुए तुझे कितना समय हो गया ठीक-ठीक याद नहीं पड़ता और जब तो यह लगता है बेटे कि मैं जब ज्यादा दिन जीवित रहने के काबिल भी नहीं बचा हूं। सांस चलने का नाम ही नहीं ले रही और धड़कन पर भी मुझे विश्वास नहीं रहा और अब तो तू ही मेरे दिल की धड़कन है। अब तो शक होने लगा है अपनी बूढ़ी काया पर जो अब कुछ ही दिन की मेहमान है, तेरे आने तक तो शायद यह सांस रूपी मेहमान इस दुनिया से ही कूच कर चुका होगा, अलविदा कर चुका होगा और अपने स्वर्गीय सम्बन्धियों के बीच जा मिला होगा जो तेरे सामने या तेरी अनुपस्थिति में चले गये, जिनकी याद मेरे दिल में अभी भी बाकी है और बाद में जिनकी मौत पर तूने दुख प्रकट किया था। जिन्दा बाप को तो कोई भी नहीं संभालता लेकिन मरने के बाद कितनी धूमधाम से बारात की तरह शवयात्रा निकाली जाती है, शादी के जश्न की तरह मृत्यु भोज दिया जाता है, ब्राहाम्णों में दान-दक्षिणा दी जाती है, वैभवशाली रस्मकिरिया की जाती है, पिण्डदान किया जाता है, तीर्थ-यात्राएं की जाती हैं, जीवन-भर बरसी मना-मनाकर श्राद्व किए जातें है मृतात्मा की शान्ति केलिये। जिन्दा बूढ़े को ही शान्ति नहीं मिलती तो मरने के बाद कैसे मिल सकती है। पितरों तक सामान पहुंचाने के लिये किया जाना वाला तामझाम बेकार है।

यदि पहले से ही अच्छी देखभाल की जाये तो क्या मजाल कि बूढ़ा उम्र में पहले अकाल ही, लापरवाही से मृत्यु को प्राप्त हो जाये। कहने को तो तू मेरा सहारा है परन्तु न होने के सामान। तेरी हैसियत टूटी हूई लाठी के समान है केवल नाम की बेकार लाठी। दुनिया की निगाहों में, सगे-सम्बन्धियों के लिये चाहे मैं जीवित हूं, भौतिक रूप से, दिखावे से। लेकिन नहीं मेरी आत्मा तो उसी दिन ही मर गई थी जिस दिन तू विदेश चला गया था। मेरी लाचार आत्मा उस दिन का बड़ी बेसबरी, बेताबी से प्रतीक्षा करेगी कि जब तू भी अपने पत्र को खत लिख-लिखकर जतायेगा कि तू भी उसका जन्मदाता है, पिता है, पालक है और वह तेरा परदेसी, पराया बेटा।

अपने पोते-पोतियों को देखे बिना मैं मरना नहीं चाहता। आशा करता हूं कि तू मेरी अंतिम इच्छा ठुकरायेगा नहीं, पूरी अवश्य ही करेगा। उन्हें भी बतायेगा कि उनका दादा अभी तक जिन्दा है, भारत में है। दिन-रात उन्हें याद करता है। उन छोटे-छोटे खिलौनों से कहना, मैं उन्हें कितना प्यार करता हूं।

तेरा बदनसीब बाप

-रामलाल

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साउथाल (लंदन)

रविवार

पूज्य पिताजी,

चरण स्पर्श

हम यहाँ पर कुशलतापूर्वक हैं और आपकी कुशलता के लिये हमेशा आलमाइटी गौड (सर्वशक्तिमान परमपिता परमात्मा) से प्रार्थना करते हैं और साथ ही यह भी दुआ करते हैं कि गौड आपकी हैल्थ ठीक रखे, आपकी आई साइट जोरदार हो, आंखो की रोशनी कभी भी कम न हो और उम्र लम्बी हो। आप बराबर अच्छी और पौष्टिक खुराक लेते रहें ताकि आपकी हैल्थ कभी वीक न हो, आप कभी बीमार न पड़ें क्योंकि यदि शरीर में जान है तो जहान है, आंखों में रोशनी है तो ये दुनिया भी एक इन्द्रधनुष है, जीवन के सात रंगो की रंगीनियां नसीबों वालों को ही उपलब्ध होती है, सेहती शरीर के बलवान मुंह में, दमदार जबड़ों में पक्के दांत भी हों इस दुनिया का हर प्रकार का कड़वा-मीठा स्वाद चखा जा सकता है।

करीब एक वीक पहले आपका एक्सपलोसिव लैटर मिला। पढ़कर हाल मालूम हुआ और लगा कि जैसे आप सहनशीलता, धैर्य की सारी-की-सारी सीमायें पार कर गये। आपने मेरी दुखती हुई किसी नस को दबा दिया। वक्त से भरे हुए मेरे जख्मों पर नमक छिड़क दिया, दबे हुए बारूद को चिंगारी दिखा दी। जख्मों को फिर से हरा करके बरसों से सोया हुआ दर्द जगा दिया। आप मेरा पत्र पढ़कर खून के आंसू भी बहाने पर मजबूर हो जायेंगे, आपके शरीर की ठण्डी पड़ चुकी नसों में फिर से खून दौड़ने लगेगा, खौलने लगेगा इस बात पर कि जिस वण्डरफुल होप के साथ आपने मुझे यहां नौकरी करने भेजा था वह तो मेरे यहां आने से पूर्व ही मर गई थी। आपके दिल में वह पुरानी होप चाहे अभी तक भी जिंदा रही हो सकती है लेकिन मैं उस होप के बिना रह रहा हूं और अपनी लाइफ किसी दूसरी होप के साथ उसके सहारे बसर कर रहा हूं कि जाने वो दिन कब आयेगा या फिर आयेगा भी नहीं कि जब मैं आपसे पुनः मिल सकूंगा। आपको देख सकूंगा। हम दोनों की आशाओं में उतना ही डिफरैंस है जितना आप और मुझमें, भारत और विदेश में, डे और नाइट में। मेरी आशा पूरी होते ही आपकी आशा भी पूरी होने का मैं भी इन्तजार कर रहा हूं और पल-पल सोचता हूं कि मेरे लिये आपके द्वारा देखे गये सपनों को मैं कहां तक साकार कर पाया हूं, आपकी कितनी हद तक आशा पूरी हुई है, यह तो मैं नहीं जानता और फिर जानकर करूं भी तो क्या ’’’ ? यहां मैं कुछ भी करने की स्थिति में नहीं हूं और न ही आप। अगर आप कुछ करने की स्थिति में हैं भी तो आपने पत्र में मुझे कोस-कोसकर अपना दिल तो हल्का कर ही लिया। मैं किसके आगे जाकर रोऊं, दिल का बोझ उतारूं, किस भैंस के आगे बीन बजाऊं जाकर। आप ही बताइये और अपने कुछ भी सुनने को बजाय केवल मुझे ही दोष दिया है और जैसे कि आप बिल्कुल ही निर्दोष है, दूध की तरह धुले हुए। लैटर मे भरे गये व्यंग्य, आक्रोश, उलाहनों आदि को मैं दुबारा बताना तो नहीं चाहूंगा फिर भी आपकी तरह मैं भी आपको अपनी समस्यायें ही बताऊगां। जब आप तुलना करेंगें तो पायेंगें कि मेरे मुकाबले में आपकी समस्याओं का समाधान तो हो सकता है लेकिन मेरी समस्याएं इतनी गम्भीर है कि जितना आप हल करने की बात सोचेंगें उतना ही उलझनें लगेंगें। हम दोनों ही अपने-अपने स्थान पर सही है बस इसे समझ पाना मुश्किल है। जब समझ जायेंगें तो हमारी समस्यायें बिल्कुल भी तंग नहीं करेंगी। अच्छे बच्चों की तरह शान्त हो जायेंगी।

एट फर्स्ट, आई वाण्ड टू नो डेट लैट मी नो डेट कि आप दादाजी के साथ, दादाजी परदादाजी के साथ और परदादाजी अपने पिताजी के साथ-साथ कितनी उम्र तक या कितने वर्ष तक साथ-साथ रहे ? यह न जब तक छोटे बच्चे थे, अविवाहित थे, सिर्फ काम-धन्धें की ट्रैनिंग लेते रहते थे, कोई भी रोजगार नहीं कर सकते थे। केवल पढ़ते थे या फिर वे अपने बड़े-बूढ़ों के साथ चौपाल लगाते थे, काम में हाथ बंटाते थे, खेतों में हल चलाते थे, काम करते थे क्योंकि तब तक वे अनुभवहीन थे लेकिन ज्यों ही उनकी उम्र बढ़ी, नौकरी लगी, विवाह किये, जमीन-जायदाद का बंटवारा हुआ। जो भी हिस्से में आया, सम्भाला या बेच दिया, कारोबार किया, नौकर हुए, जहां कंही भी नौकरी मिली और वे लोग माता-पिता की आज्ञा लेकर उन्हें रोता-बिलखता हुआ छोड़कर राम की तरह सीता को लेकर वन में चले गये या प्रवासी हो गये, वहीं के होकर रह गये। इसे प्राकृतिक नियम समझिये पिताश्री या फिर कि पूर्वजों की बनाई हुई परम्परा कि बेटी हमेशा पराया धन होती है जिसे बचपन से ही पराया धन होने का अहसास दिलाया जाता है, बात-बात पर उसे सास ससुर के नाम से चिढ़ाया जाता है, उसके लिये दहेज आदि की व्यवस्था के साथ-साथ सामान और धन का संग्रह किया जाता है, उसका हिस्सा भी बराबर ही रखा जाता है। बेटी को सुहागन बनकर, किसी शरीफ खानदान की बहु बनकर, ससुराल जाकर किसी का घर आबाद कर, सन्तानोत्पन कर वंश-परम्परा जारी रखनी होती है। किसी सास-ससुर की सेवा करनी होती है, किसी का कुल दीपक जनना होता है। ठीक इसके विपरीत बेटा पराये शहर का नौकर होता है और उसे स्वयं का, अपना घर बनाने और बसाने, ठिकाने की तलाश में दर-दर भटकना होता है। बच्चे माता-पिता के साथ हमेशा कभी भी नहीं रहे। बच्चे नवजात परिन्दों की तरह आकाश में उड़ना सीखते हुए, उड़ाने भरते हुए, दूर तक उड़ते हुए तब तक नजर आते हैं जब तक कि उन्हें क्षितिज दिखाई नहीं देने लगता। मां-बाप उनके वापस घोंसलों में आने का इंतजार करते रहते है और वो फिर कभी भी वापस नहीं लौटते, लौटते हैं तो बहुत देर हो चुकी होती है। मां-बाप उनको जाते हुए देखते रहते हैं, आशिष देते रहते हैं, उनकी आंखे खुली रहती हैं। बेटी-बेटे चले जाते हैं और बूढ़े माता-पिता उनके मंगलमय जीवन की कामना करते हैं और उनकी खुशी के लिये प्रार्थना करते हैं या वे भी वृद्वावस्था में कमजोरी की हालत में बेटे-बहुओं, बेटी-दामादों के पास बाकी जिंदगी का हिस्सा बसर करते हैं। तूफान में सफर की तरह।

आज मैं जिस मंजिल तक भी पहंुच चुका हूं उसका सारा प्रतिफल मुझे ही मिल जाना चाहिए यह मैं नहीं कहता बल्कि आपके साथ-साथ उस परिवार को भी मिलना चाहिये जिसके पालन-पोषण का उत्तरदायित्व अब मेरे कंधों पर है, जिसे आपने मेरे जीवन की डोर -संग बांध दिया। मेरी बीवी, मेरी बेटी-बेटे। आपकी बहू, आपके पोती-पोते। आपने मुझे एक अच्छा रास्ता दिखाया, गन्तव्य बताया और आपका कर्तव्य पूर्ण हुआ। आपके बताए हुए रास्ते पर चलना या न चलना मेरा काम था। न चलता तो ठोकरों में रहता, धक्के खाता, दर-दर भटकता। चला तो एक मंजिल पा सका। उस मंजिल को पाने में मुझे क्या-क्या खोना पड़ा यह आपको बताना मैं उचित नहीं समझता क्योंकि मैं जो भी बनना चाहता था वो आज तक नहीं बन पाया और जो नहीं बनना चाहता था वो बना। तकदीर ने मेरे साथ कितना बुरा और घटिया सुलूक किया और मुझे यह मानकर संतोष करना पड़ता है कि बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख और जो भी बिन मांगे मिले वही समय की सबसे बड़ी सीख होती है। मुझे अपने जीवन का मनपसन्द काम आज तक नहीं मिल पाया और मैनें सदा इस अनचाहे काम को ही पूजा मानकर करना स्वीकार किया। काम किया तो अब तक जीवित हूं और अगर छोड़ देता तो पता नहीं क्या करता। भीख मांगकर गुजारा करता या मजदूरी करता। जिस दशा में भारत से मैं आया था उसका यहां केवल मात्र चाह में हूं या मेरे हजारों वे हिन्दुस्तानी भाई जो विदेशों में नौकरी करने के, धन कमाने के, धन कमाकर अमीर आदमी बनकर वापस लौटने के सुनहरे सपने संजोकर अपनी भली-चंगी जमीन-जायदाद बेचकर, गिरवी रखकर भी गलत हाथों में चले जाते हैं और वे गलत हाथ कोई और नहीं बल्कि हमारे द्वारा ही बनाये गये एजेण्टों के होते हैं जो नौकरी के लालच में आये हमारे भाइयों को अच्छा काम दिलवाने का झांसा देकर, उन्हें अच्छे-अच्छे होटलों के बदमाशों के हवाले कर खुद फरार हो जाते है और वे सुनहरे सपने पालने वाले बरबाद हो जाते है। पुलिस द्वारा पकड़ लिये जाते हैं, न्यायालयों में पेश किये जाते है, सजा होती है, जेलों की काल कोठरी में सजा काटते हैं, सड़ी हुई दाल-रोटी खाकर सड़ते रहते हैं, जेल तोड़कर भाग जाने की कोशिश करते हैं फिर से पकड़ कर जेल में उम्र भर के लिये डाल दिये जातेहैं या सीमाओं पर गैर कानूनी रूप से सीमा पार करते हुए सेना या सीमा सुरक्षा बल द्वारा गोलियों से भून दिये जाते हैं, मौत के घाट उतार दिये जाते है। फलस्वरूप लावारिस करार देकर दफना दिये जाते हैं और मां-बाप उनके वापस आने का इंतजार करते-करते स्वर्ग सिधार जाते है और फिर उनकी मुलाकात स्वर्ग में ही हो पाती है। इस जमीन पर उनका नाम लेने वाला भी कोई नहीं बचता।

विदेश में नौकरी करने की इच्छा मेरी अपनी नहीं बल्कि आपके साथ-साथ पूरे परिवार की भी थी। आप सब एक तरफ थे और मैं अकेला दूसरी तरफ। आपका लाख विरोध करने के बावजूद मेरी एक भी नहीं चल पाई थी। आप सब अपनी जिद पर अटल थे और मैं आप सबके साथ महारथियों के बीच में फंसा नादान अभिमन्यु सा। आखिर मुझे अपनी इच्छाओं को, आपके सबके तर्कों के ब्रहास्त्रों को अपनी दलील की ढ़ाल पर सहना ही पड़ा था। अकेले फंसे हुए अभिमन्यु की तरह मुझे मरना ही पड़ा था। मेरी इच्छायें मर रही थीं और आप सब दुर्योधन, द्रोणाचार्य, कर्ण आदि की तरह अपनी जीत पर खुश हो रहे थे। मुझे आप सबके सामने कैसे झुकना पड़ा था यह केवल मैं ही जानता हूं। इच्छा होते हुए भी मैं आपकी बात टाल नहीं सका था। आप सब तो कितने खुश थे। आपकी इच्छा मुझे हवाई जहाज में सवार होते हुए देखकर किस तरह से फल-फूल रही थी उसका अनुमान मुझे है और मेरी इच्छा मरती जा रही थी। लेकिन मैं तो हमेशा ही अकेला था। अभिमन्यु की तरह ही मर चुका था। पूरा परिवार ही मुझे लंदन भेजना चाहता था। अपना जीवन स्तर उठाना चाहता था। पूरे मोहल्ले में अपनी अमीरी, शानौ-शोकत का ढिंढोरा पीटना चाहता था। अपनी शान बढ़ाना चाहता था। मुझे विदेश भेजकर उस दिन आप कितने खुश हुए थे, इस बात का अनुमान आप लोग ही लगा सकते है। इसके विपरीत मुझे आपसे कहीं अधिक दुख हुआ था: आप सबसे, आप से, मां से, बड़े भाई से, छोटे भाई से, बहन से, अपने परिवार से, मोहल्ले से, अपनी मिट्टी से और अपने देश से बिछुड़ते हुए। भारत में रोजगार की कमी है ऐसी कोई बात नहीं है बल्कि मेहनत-मजदूरी करते हुए हमें लज्जा, संकोच होती है। लोगों की निगाहों हमारा चरित्र गिरता है। हर काम को हम छोटा समझते है और शेखचिल्ली की तरह एक दिन में ही अमीर होने का सपना देखते हैं। पढ़-लिखकर मजदूरी करते हुए हमें शर्म जो आ जाती है। विदेशों की तरफ हम केवल इसीलिये भागते हैं कि वहां छोटे-मोटे काम करते हुए हमें कोई देख न सकें, हमे लज्जा महसूस न हो, किसी से हम नजरें न चुरा सकें, नजर बचाकर हम हर वो काम कर सकें जो किसी के भी द्वारा न किया गया हो या जिसको करने से सब इन्कार करते रहे हों। जो भी हमें ऐसे काम करते हुए देखेगा, हमसे पहले ही वह भी उनसे दो-दो हाथ हो चुका होता है। यहां पर इन लोगों के द्वारा हमें इज्जत की निगाह से नहीं देखा जाता बल्कि काले भारतीय के नाम से ही सम्बोधित किया जाता है। कदम-कदम पर हमसे गुलामों जैसा व्यवहार किया जाता है। घटिया-से-घटिया काम करवाये जाते हैं और बेइज्जती भी की जाती है सिर्फ काले भारतीय होने के नाते। जो लोग इन्हीं से घबराकर विदेशों की तरफ भाग लेते हैं वो वही सब करने को मजबूर हो जाते हैं और ‘मूसा डर के भागा मौत से, मौत आगे आ खड़ी’ वाली कहावत चरितार्थ होते हुए दिखाई देती है। ऐसे कामों की बिल्ली के आगे मूसे खींचे चले आते हैं। ये नादान मूसे यह नहीं जानते कि बिल्ली से भला कब तक बचा जा सकता है, या तो ये कभी-न-कभी पकड़ ही लेगी, मार कर खा लेगी वरना इसके गले में घंटी बांधने की कोशिश करनी चाहिए। घण्टी लेकर बिल्ली का इन्तजार करना चाहिए। दे विल हैव टू ट्राई टू बेल द कैट। उनके पास कोई अन्य चारा भी नहीं रहता।

आपने मुझे विदेश इसलिये भेजा ताकि आप लोगो को अपना उच्च जीवन स्तर दिखा सकें। रंगीन टेलीविजन, वी.सी.आर. वीडियो कैमरा और न जाने क्या ऐसी कितनी ही विदेशी वस्तुओं की प्रदर्शनी लगाकर मेरा गुणगान कर सको, सीना फुला कर, नाक चढ़ाकर, भौंह सिकोड़कर, गर्व मिश्रित घमण्ड से कहने के हकदार हो सको कि (मैं) आपका बेटा भी विदेश में है, अफसर है, अच्छी तनख्वाह पाता है और इस पर मजे की बात यह है डैड कि आप किसी भी प्रकार का आयकर भी नहीं देते क्योंकि विदेशी आय पर, विदेश से लाये जा रहे धन पर कोई टैक्स नहीं लगता। दुनियाभर की सुविधाओं का लाभ लेता है। भौतिक रूप से, शारीरिक रूप से चाहे कोई विदेश से वापिस आ जाये लेकिन मानसिक रूप से, आत्मिक रूप से वह वहीं उसी दुनिया में खोया रहता है, उसका जी भारत में नहीं लगता। हमेशा वहां के ही गुण गाता रहता है। वहां की दुनिया के सपने देखता रहता है। वापस जाने की तमन्ना लेकर पल-पल जीता रहता है और व्यवहार इस प्रकार का करता है जैसे कि उसे वापस बुलाया जा रहा है, कोई अदृश्य ताकत उसे अपनी तरफ खींच रही हो और अंत में धन का ताकतवर चुम्बक उसे खींचने मे कामयाब हो जाता है, वह हार जाता है धन के सामने। यहीं पर आकर सब रिश्ते गौण हो जाते है। बार-बार विदेश जाता है। धन का धन कमा-कमाकर ढ़ेर लगा देता है। उस धन पर बैठकर बाकी सब सदस्य अपने सम्बन्धियों के आगे धन की दीवार खड़ी करते रहतें हैं, बात-बात पर धन इन लोगों से बोलता है। बेटा विदेश का होकर रह जाता है और उसका परिवार धन का। धन के आगे रिश्तों की गर्माहट ठण्डी पड़ जाती है। रिश्ते रिसने लगते हैं। सम्बन्ध की भावना खत्म हो जाती है।

अपने परिवार से कई हजारों किलोमीटर दूर, सात समुन्दर पार केवल पत्रों के माध्यम से मैं आप सबके साथ-साथ रिश्तेदारों की खैरियत, कुशलता जान पाता हूं। आपके सुख-दुख में शरीक होने केलिये जल्दी-जल्दी आ भी नहीं पाता। रिश्ते में दूर या पास के किसी भाई-बहन की सगाई, परीक्षा की सफलता, नौकरी की खुशी, पुत्र-रत्न की प्राप्ति या खुशी के अन्य सभी अवसरों पर प्रसन्नता महसूस कर सकता हूं, उनकी खुशी की प्रसन्नता को बढ़ाकर एक पैग भी लगा सकता हूं, उन्हें बधाई संदेश भिजवाकर उपहार भेज सकता हंू, मिठाई बंटवा सकता हूं, जश्न मना सकता हूं और उन सब खुशी के अवसरों पर लिये गये फोटो भी देखने की बलवती इच्छा रखता हूं। ताकि मुझे समय-समय पर पता चलता रहे कि हमारा वो नया मेहमान कैसा है, जिसने हमें खुश होने का अवसर प्रदान किया या वे नये जीवन-साथी कैसे हैं जिन्हें आपस में रहना है। इसके विपरीत किसी सगे-सम्बन्धी की गमी, दुख की घड़ियों में केवल शोक संदेश भिजवाकर, श्रद्वांजलि देकर आपसे कई हजारों किलोमीटर दूर बैठा आपका यह बेटा केवल खून के आंसू ही बहा सकता है, महसूस ही कर सकता है। मेरी मजबूरी यह है कि डैड कि मैं आपसे जल्दी-जल्दी मिलने-देखने आ भी नहीं सकता। मेरी दशा ससुराल गई हुई उस विवश बेटी-की-सी होकर रह गई है जो अपनी इच्छानुसार मुस्कुरा भी नहीं सकती। सास की कठोर इच्छा के बिना मिलने नहीं आ सकती यहां तक कि उसकी आज्ञा के बिना पत्र भी नहीं भेज सकती। हंस नहीं सकती, रो नहीं सकती। केवल देख-सुन ही सकती है, कोई भी प्रतिक्रिया प्रकट नहीं कर सकती। सास की निरंकुशता के आगे वह किस कदर लाचार हो जाती है शायद यह आपकी कल्पना से ही बाहर की बात है। माता-पिता, छोटे-छोटे मासूम भाई-बहनों के प्यारे-प्यारे पत्र ही जैसे उस बेजान शरीर में जान डाल देते है, उसकी उदास-सी जिंदगी में खुशी बनकर बिखर जाते हैं, उसकी उदासी के साथी होते हैं, हमेशा घिरी रहने वाली उदासियों में आशा की किरणें होती हैं, संगी होते हैं, साथी होते हैं जिन्हें वह हमेशा बच्चों की तरह सीने से लगाये रहती है, उन्हीं के साथ उसके रात-दिन उदय और अस्त होते हैं, पत्रों के आखर ही उसकी सांस के साथ-साथ चलते हैं। चिड़िया ही उसका संसार हो जाती हैं रंग-बिरंगे गुब्बारों की तरह।

मेरे जीवन की डोर वक्त के बेरहम हाथों में नहीं बल्कि उन कम्पनियों के निर्दयी नियमों में जकड़ी हुई है जिनमें मुझ जैसे असंख्य हिन्दुस्तानी मजदूरी करते हैं। वक्त ने हमें उनके हाथों की कठपुतली बनाकर रख दिया है। हम यदि यहां से छूटना भी चाहें तो आसानी से छूट भी नहीं सकते। चाहकर भी हम यहां से निकल नहीं सकते क्योंकि इन कम्पनियों के नियम कुछ इस प्रकार से बनाये गये हैं कि हम जैसे मजदूर जिंदगी भर के लिये इनके गुलाम बनकर रह गये है। हमारी तनख्वाह का एक बड़ा भाग हमेशा उनके यहां जमा रहता है ताकि हम कभी भी काम छोड़कर उनके यहां से हमेशा के लिये जा ना सकें और उनके पास वापस आना ही हमारी त्रासदी है, काम करना हमारी मजबूरी। चाहते हुए भी हम कहीं और काम करने के बारे में सोच भी नहीं सकते। इनके पास जमा हमारी बड़ी रकम का लालच हमें कहीं भी और जाने से गाहे-बेगाहे रोकता रहता है। इसी लालच के वशीभूत होकर हमें बार-बार यहीं पर आना पड़ता है।

आपने लिखा पिताश्री कि प्रत्येक बाप दशरथ की तरह पुत्र वियोग में तड़प-तड़पकर जान दे देता है, सारी उम्र अपने पुत्र का भविष्य बनाने में खपा देता है। पुत्र का भविष्य बने या न बने लेकिन बाप की उम्र तो दांव पर लग ही जाती है। दांव पर लगने के बाद ही कुछ-न-कुछ हासिल हो सकता है। कुछ प्राप्त करने के लिये कुछ-न-कुछ तो खोना ही पड़ता है। बिना कुछ ही खोये कुछ भी नहीं पाया जा सकता और कुछ पाने की आशा भी किस प्रकार की जा सकती है। बिना कुछ खोये पाने की आशा करना कोरी मूर्खता के सिवा कुछ भी नहीं है। ये खोने और पाने की परम्परा या रिवाज तो सदियों से चला आ रहा है और हम सब इससे जुड़े हुए हैं। आपके परदादाजी ने आपके दादाजी को और आपके दादाजी ने आपके पिताश्री को और आपके पिताश्री ने आपको खोया है। ये खोने का क्रम कभी भी रूकेगा नहीं। आपने मुझे खोकर कोई नया काम नहीं किया है, अगर नया भी किया होता तो आपका ही स्वार्थ था इस काम में कि मैं विदेश में जाकर काम करूं। आपकी तरह मुझे भी अपने पुत्र को खोने के लिये तैयार रहना पड़ेगा। ये दुनिया एक मेले की तरह ही है जिसमें लोग किसी को खोते हैं और किसी-न-किसी को पाते हैं। खो कर दुखी होते हैं और पाकर अपना दुख भूल जाते है। खुश हो जाते है कुछ देर के लिये यह सोचकर कि चलो कोई तो मिला ताकि खोने वाले का दुख भूलकर पाने वाले को देख-देखकर अपना गम भूलते रहें। दुनिया में बहुत कम लोग ऐसा कर पाने में कामयाब होते हैं वरना खोने वालों का इन्तजार करते-करते प्राण त्याग देते हैं। ये दुनिया एक रंगमंच है, जिंदगी एक नाटक है, हर इन्सान एक अदाकार है। जो कदम-कदम पर अदाकारी करता है जिसमें आप दशरथ का रोल अदा कर रहें हैं, मैं बनवासी राम का, मेरी पत्नी सीता का, बाकी सब इसी तरह के रोल कर रहे हैं। अगर आपके रोल में रोना ही लिखा गया है तो इसमें मैं क्या कर सकता हूं, इसमें मेरा क्या दोष है ? बताइये।

इसमें दोष मेरे जैसे राम बेटे का नहीं बल्कि आप जैसे, दशरथ बुजुर्गों का है। सारा दोष ही उनके सिर पर लगाया जाना चाहिए क्योंकि जब बाप अपने ही हाथों श्रवण पुत्र को बनवास देकर, विदेश भेजकर राम बना डाले, जीवन भर के लिये किसी देश का प्रवासी बना डाले तो मैं समझता हूं कि कोई भी बेटा श्रवण पुत्र नहीं बन सकता। बुढ़ापे में पिता का सहारा नहीं बन सकता। अन्धे की लाठी नहीं बन सकता। विदेश में रह रहे, नौकरी कर रहे किसी कर्मचारी का बूढ़ा बाप जब भी स्वर्ग सिधार जाता है, उसकी अर्थी को सात समुन्दर दूर बैठा बेटा कंधा देने में असमर्थ हो जाता है तो सम्बन्धी बड़े ही घमण्ड से सीना फुलाकर जवाबदारी करते है: बेटा बरसों से विदेश में है, चिट्ठी मिल नहीं पाई होगी, (लीव) छुट्टी जल्दी-जल्दी मिल नहीं सकती। मिले भी तो क्या। समय पर पहुंच नहीं सकता, हवाई जहाज में सीट बुक नहीं हो सकी होगी, आ नहीं सका। बताइये पिताश्री। इसमें दोष किसका हैं ? बेटे को बाहर भेजने वाले दशरथ जैसे बाप का या समय पर पहुंच न सकने वाले राम जैसे बेटे का। दशरथ जैसे बाप का या राम जैसे बेटे का, मंथरा जैसी दासी का, कैकेयी जैसी मां का, भरत जैसे भाई का जिन्होनें बेटे को राम बनवाया। बेटा राम बनने पर मजबूर हो जाता है। राम 14 बरस बाद अयोध्या वापस लौट आया था किन्तु परदेशी और प्रवासी बेटा कभी नहीं लौटता, जिंदगी भर के लिये विदेशी हो जाता है। बाप की किरिया-करम, रस्म पगड़ी आदि में शामिल होना या न होना केवल औपचारिकता भर रह जाता है। बाप की मौत के बाद तमाम सम्बन्धी भी उससे सम्बन्ध-विच्छेद कर लेते हैं, दूरी बढ़ा लेते हैं और वह प्रवासी बेटा विदेशी वातावरण में जीवन-यापन करने लग जाता है विदेश में शादी करवाकर, विदेशी नागरिकता प्राप्त कर लेता है और फिर अपना ही देश पराया लगने लगता है, विदेश हो जाता है। अपने ही देश में विदेशी नागरिकों की तरह घूमने आता है, छुट्टियां बिताने आता है कभी महीने भर के लिये तो कभी दो-चार महीने के लिये। आपने जिस पौधे से बड़ा होकर, वृक्ष बनकर फल देने, छाया देने के लिये आशा की है यदि वही पौधा माली द्वारा किसी दूसरे के आंगन में रोप दिया जावे, माली खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ले तो उस पौधे का क्या कुसूर। पौधे को तो हर आंगन में फलना-फूलना है चाहे यहां चाहे वहां, अंतर केवल मिट्टी का है जिसे आपने नहीं तो किसी दूसरे ने सींचा, पानी दिया, खाद दी, हर प्रकार के मौसम से रक्षा की, पौधा तो पेड़ बनकर वहीं आश्रय देगा, वहीं पर फल-फूल देगा जहां पर उसकी परवरिश हुई, उसे पनपने दिया गया। पेड़ अपनी जड़ सूखने या गिरने के बाद ही छोड़ता है। हरे-भरे वृक्ष को कभी भी काटने या गिराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए वरना वृक्ष तो मरेगा ही साथ में माली को भी कुछ नहीं हासिल हो पायेगा। मिट्टी बदली जायेगी तो वृक्ष कंही का भी नहीं रहेगा। उधर जा नहीं पायेगा और इधर जी नहीं सकेगा।

माफ कीजिये पिताश्री। शायद मैं कुछ ज्यादा ही कह गया हूं आपकी शान के खिलाफ और यह तो उसके बदले में कहा गया है जिसे आपने आज तक जाना नहीं था, आपने अगर कभी यह जानने की कोशिश भी की होती तो शायद मुझे इतना कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं होती। आपने अपनी समस्या बताई तो मुझे भी आपको बताना ही पड़ा कि मैं यहां पर कितना सुख से जीवन-बसर कर रहा हूं। अपनी समस्या बताकर मैं कितना हल्कापन महसूस कर रहा हूं शायद आप इस बात का अनुमान भी नहीं लगा पायेंगे। हम दोनों की समस्याओं की प्रकृति एक जैसी नहीं है, अलग-अलग है। किन्तु हम न कभी अलग थे और न होगें। शायद किसी ने ठीक ही कहा है कि बेटा तब तक बाप का रहता है जब तक अविवाहित, बेरोजगार होता है लेकिन बेटी हर सूरत में बाप के दिल में रहती है। उसका सम्बन्ध कभी भी बाप से समाप्त नहीं होता। खुदा न करे पिताश्री मैं भी अगर किसी वायुयान-दुर्घटना में समाप्त हो गया होता, मेरी फलाइट कभी कैश हो गई होती तो आपको मेरे होने के बजाय मेरे न होने या सम्बन्ध से ही सब्र करना पड़ता। आप सारी उम्र मेरी याद में अपनी किस्मत पर रोते रहते। आपके अरमान धरे-के-धरे रह जाते, आपकी तमाम आशाओं पर पानी फिर जाता और तमाम सुख मिट्टी में मिल जाते।

इसी आशा के साथ पत्र बन्द करने जा रहा हूं कि भविष्य में आप किसी को भी सीना फुलाकर, नाक चढ़ाकर, घमण्ड से यह नहीं कहेंगे कि आपका श्रवण पुत्र राम हो गया, सदा के लिये विदेश में आबाद हो गया। अब कभी वापस नहीं आयेगा।

हम सबकी तरफ से आप सबको चरण स्पर्श और नमस्कार।

पत्रोतर की आशा के साथ।

आपका राम बेटा

श्रवण कुमार

(साउथाल, लंदन)

(यह कहानी मधुमती के फरवरी 1987 अंक में प्रकाशित हुई थी)