रिश्ते / अशोक भाटिया
वह आम सड़क थी और सरूप सिंह आम ड्राइवर था। सवारियों ने सोचा था कि भीड़-भाड़ से बाहर आकर बस तेज़ हो जाएगी। पर ऐसा नहीं हुआ। सरूप सिंह के हाथ आज सख़्त ही नहीं, मुलायम भी थे। भारी ही नहीं, हल्के भी थे। उसका दिल आज बहुत पिघल रहा था। वह कभी बस को, कभी सवारियों को और कभी बाहर पेड़ों को देखने लगता, जैसे वहाँ कुछ ख़ास बात हो। कंडक्टर इस राज को जानता था। लेकिन सवारियाँ बस की धीमी गति से परेशान हो उठीं।
“ड्राइवर साहब, जरा तेज़ चलाओ, आगे भी जाना है...” --एक ने तीख़ेपन से कहा।
सरूप सिंह ने मिठास घोलते हुए कहा-- “आज तक मेरी बस का एक्सीडेंट नहीं हुआ।"
इस पर सवारियाँ और उत्तेजित हो गयीं। दो चार ने आगे-पीछे कहा-- “इसका मतलब यह नहीं कि बीस-तीस पे ढीचम-ढीचम चलाओ।"
कोशिश करके भी सरूप सिंह बस तेज़ नहीं कर पा रहा था। उसने बढ़ते हुए शोर में बस रोक दी। अपना छलकता चेहरा घुमाकर बोला-- “सच बात यह है कि इस रास्ते से मेरा तीस सालों का रिश्ता है। आज मैं यह आख़िरी बार बस चला रहा हूँ। बस के मुकाम पर पहुँचते ही मैं रिटायर हो जाऊँगा, इसलिए...।"
यह कहकर उसने एक्सीलेटर पर अपने पैर का दबाव बढ़ा दिया।