रिश्ते / प्रभात चतुर्वेदी

Gadya Kosh से
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मैं उस दिन सुबह जल्दी कार से अकेला ही यात्रा पर रवाना हुआ था। अगले शहर पहुंचने तक सूरज आसमान पर चढ़ आया था और मुख्य सड़क पर गुजरते समय काफी आमदरफ्त देख सावधानी बरतता हुआ धीमी गति से कोई गीत गुनगुनाते हुए गाड़ी चला रहा था।

एक चौराहे के पास उस ने हाथ लहराते हुए मुझ से लिफ्ट मांगी। आजकल जमाना खराब है इसलिये मैं आम तौर पर किसी अनजान आदमी को गाड़ी में बिठाना उचित नहीं समझता क्यों कि पता नहीं कैसी मुसीबत गले पड़ जाए। पर उस के चेहरे की एक झलक से ही मुझे वह बड़ा बेचारा सा लगा और मैंने न जाने क्यों कार रोक दी। उसने साधारण मगर साफ सुथरे कपड़े पहने हुए थे और हाव भाव से किसी फौजी की तरह अनुशासित लग रहा था।

वह बोला साब, मेरा अगले शहर पहुंचना बहुत जरूरी है, मेहरबानी कर के मुझे ले चलें। मैंने कार का पीछे का दरवाजा खोल कर उसे बैठने का संकेत दिया। वह धन्यवाद बुदबुदाता सा हुआ बैठ गया। उसके चेहरे पर बादल की तरह छाई उदासी ने किसी संक्रामक रोग की तरह मुझे घेर लिया और मेरा गुनगुनाना कब बन्द हो गया मालूम ही नहीं चला। शहर से बाहर निकलने के पश्चात मैं सड़क पर चलते वाहनों पर ध्यान केंद्रित हो जाने के कारण काफी देर तक उसकी ओर देख भी नहीं पाया। थोड़ी मोहलत मिलने पर जब अचानक मेरी नजर पीछे देखने वाले कांच में उसके चेहरे पर पड़ी तो मै चौंक गया। वह पीछे की सीट पर अधलेटा सा बैठा था और उसकी नजर कहीं अन्तरिक्ष में टिकी थी और उसके गालों पर आंसू बह रहे थे। किसी का निःशब्द रूदन देखने से आघात सा लगता है। मैं कुछ देर दुविधा में रहा कि किसी अपरिचित व्यक्ति से रोने का कारण पूछना चाहिये या नहीं। शायद उसे महसूस हो गया कि मैं उसकी तरफ देख रहा हूं इसलिये उसने अपना चेहरा हथेलियों में छुपा लिया। बरबस ही एक सिसकी निकल ही गई और तब मुझ से रहा नहीं गया और पूछा ” भाई क्या बात है ? क्या घर में कुछ दुख की बात हो गई ? “ उसने इनकार में सिर हिलाया पर वह कुछ बोल नहीं पा रहा था। मैंने पानी का एक गिलास भर कर उसे दिया। कुछ प्रकृतिस्थ होकर उसने कहा ” बाबूजी कोई खास बात नहीं है, आप अपना कीमती समय खराब मत कीजिये। “ मैंने कहा ” अगर तुम बताना न चाहो तो कोई बात नहीं पर कई बार बात करने से दिल का बोझ कम हो जाता है।”

वह कुछ देर तक कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर बाद उसने बोलना शुरू कर दिया। बात प्रारम्भ करते समय वह इतना धीरे बोल रहा था कि लगा कुछ बुदबुदा सा रहा है। मैंने पीछे मुंह मोड़ कर उसकी तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो उसने खखार कर ऊंचे स्वर में बोलना शुरू किया।

उसने कहा - बाबूजी! मैंने अपनी पत्नी को अपने जीवन में सबसे ज्यादा प्यार किया था, अभी अभी उससे सारा रिश्ता तोड़ कर आ रहा हूं।

मेरी नौकरी पुलिस में है पर मैंने जिन्दगी में कभी गलत कमाई के एक रूपये को भी हाथ नहीं लगाया। पता नहीं किन जन्मों के पाप मेरे सामने आए हैं। एक छोटे थाने में मेरा स्थानान्तरण हुआ। षुरू में साथियों ने बेइमानी के रास्ते पर डालने की कोशिश की पर धीरे धीरे सब मेरी प्रकृति समझने लगे और मुझे कहना बन्द कर दिया। इतने साथियों में से एक मोहन के साथ मेरी दोस्ती हो गई और हम जब कभी समय मिलता, साथ साथ ही घूमते रहते थे। वह अकेला ही था इसलिये अकसर मेरे घर आ जाया करता था। मेरे दोनो बच्चों पर तो उसने जादू सा कर दिया। उनके लिये हमेशा कुछ न कुछ लेकर ही आता था। मैंने कई बार उसे रोकने की कोशिश भी की पर वह नहीं माना, यहां तक कि मेरी बीवी चम्पा भी तर्क वितर्क में उसी का साथ देने लगी थी। एक बार तो चम्पा ने यहां तक कह दिया कि खुद की कुछ ऊपरी आमदनी है नहीं। बच्चों को मन का कुछ दिला नहीं पाते , मोहन भैया ले आते हैं वह भी तुम्हें अच्छा नहीं लगता। मैं उसका मुंह देखता हुआ चुपचाप खड़ा रह गया। दुर्भाग्यवश तब भी मैंने इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया। मेरे दो बच्चे हैं। बड़ी लड़की ग्यारह साल की है और लड़का आठ साल का है। साल भर पहले मेरा प्रमोषन हुआ। छः महीने की ट्रेनिंग में अजमेर भेज दिया गया। महीने में एक बार घर आता था। पीछे से मोहन का मेरे घर आना जाना बढ़ गया। मुझे एक बार शक भी हुआ। साब , यह बात छुप नहीं सकती। अपन प्यार करते हैं तभी मालूम पड़ जाता है।

अभी हाल में मोहन ने उसे एक घड़ी भी लाकर दी थी। मैं जब ट्रेनिंग से लौटा तब चम्पा ने यह बात मुझसे छुपा ली। मुझे बोली मैं मायके बहुत दिन से नहीं गई हूं। अब तुम आ गए हो अपन साथ ही चलेंगे। वहां जाकर उसने शायद अपनी मां को समझाया कि मैंने घड़ी ली है इन्हे बताऊंगी तो गुस्सा होंगे। तुम मुझे दे देना। उसकी मां ने चलते समय उसे दी कि तेरे लिये लेकर रखी थी।

इतना कह कर वह चुप होकर कुछ सोचने लगा। मैं ने पूछा - पर तुम्हे यह सब पता कैसे चला। तब वह बोला मैं जब ट्रेनिंग से वापस आया तो मेरी चौकी वाले मुझ से हंसी ठट्टा करने लगे थे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बात है , मेरे साथ एक सिपाही है पंडित, उसको अकेले में पूछा तो उसने कहा कि मोहन का तेरे घर आना जाना बन्द कर , वह तेरे पीछे वहां क्यो आता है?

मैं अपनी बेटी के स्कूल गया। कक्षा से बेटी को बाहर बुलाया और अपनी कसम दी तब उसने सारी हकीकत बताई। उसने कहा कि नानी ने जो घड़ी दी वह असल में अंकलजी ने दी थी। और भी चीजें लाकर मां को देते थे। उसने यह भी कहा कि जब वो आते थे मां हमें घर से भेज देती थी , और तो साब मेरी बेटी मुझ से क्या बोलती। अपने बाप की शर्म उससे भी देखी नहीं जा रही थी।

कुछ देर चुप रह कर वह फिर बोला - मैं बहुत देर तक बदहवास घूमता रहा। फिर कुछ निष्चय कर मैंने घर आकर उसे कहा कि तुझे जल्दी तेरे मायके बुलवाया है। मैंने दोनों बच्चों को चाचा के पास उदयपुर भेज दिया। उसे साथ लेकर बस से रवाना हुआ। बस में रास्ते भर यही सोचता रहा कि क्या करूं। मैं उसे जान से मार देना चाहता था। पर कैसे मार सकता था। मैं उसे कितना चाहता था। वह मेरे बच्चों की मां थी। उसके गांव पहुंचने से पहले ही मैं बस के दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया और उसे भी बुला लिया। बस रूक भी न पाई थी कि आवेष में मैंने दरवाजा खोल कर उसे धक्का दे दिया। वह चलती बस से नीचे गिर पड़ी और उसके हाथ पांव छिल गए। मैं बस से उतरा तो मेरी आंखों से आंसू बह रहे थे। मैंने उसे कहा आज से तेरा मेरा रिश्ता खतम। तूने मेरा घर बर्बाद कर दिया। तू मेरी जिन्दगी से चली जा। वह एक पल में जैसे सब कुछ समझ गई। उसने एक शब्द भी मुंह से नहीं निकाला। अपने हाथ में लगी चोट को सहलाती हुई सहमी सी खड़ी रही। मेरी तरफ देखा भी नहीं। मैं वहां से मुड़ कर चला आया। साब! आपही बताएं मेरा क्या कसूर है। मैंने उसका क्या बिग़ाड़ा था।

इतना कह कर वह चुप हो गया। मैं भी कुछ नहीं कह पा रहा था। जब आदमी अपनी षर्म के बोझ तले दबा हो और उसे रिश्ते की डोर के टूटने का अहसास हो तो उसे क्या कह कर कोई सांत्वना दी जा सकती है। तब तक मैं अपनी मंजिल पर पहुंच गया था गाड़ी शहर में प्रवेश कर रही थी। उसने कहा- बाबूजी मुझे यहीं उतार दीजिये। मैंने गाड़ी रोक दी। उसने नमस्कार किया और मुड़ कर गली में चला गया। उसके कंधे एकदम झुके हुए थे। मैं कुछ क्षण उसे जाते हुए देखता रहा फिर आगे बढ़ गया।