रिश्ते / श्याम सुन्दर अग्रवाल

Gadya Kosh से
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“सरिता दीदी का फोन था, दोपहर बाद आ रही हैं।” कृष्णा ने सूचना दी।

“किसलिए? कुछ कह रही थीं क्या?” राजेश ने पूछा।

“बधाई दे रही थीं।” कृष्णा ने बताया।

“किस बात की?” राजेश को जानने की उत्सुकता हुई।

“साक्षी का रिश्ता तय कर दिया है, शादी भी इसी माह है।”

“साक्षी का रिश्ता हो गया! चलो, अच्छी बात है।” राजेश ने ठंडे-से स्वर में कहा।

“दीदी, भात के लिए न्योतने आ रही हैं।”

बहन के आने पर राजेश का चेहरा निस्तेज-सा था। कृष्णा चाय-पान ले आई। ननद से घर-परिवार की बातें भी पूछती रही। चाय-पान के बाद सरिता बोली, “भैया! तुम्हारी भानजी की शादी इसी माह की तीस तारीख की तय हो गई है। भाभी व बच्चों सहित पहुँचना है…और तुम्हारे जीजा जी ने कहा है, भात देते वक्त उनकी प्रतिष्ठा का ध्यान रखना…तुम्हारी बहन की इज्जत का भी सवाल है भैया।”

बहुत देर से खामोश बैठे राजेश ने आखिर चुप्पी तोड़ी, “दीदी, बात ऐसी है कि आपको मेरी हालत दिख ही रही है। किराए के मकान में हूँ। तनख़ाह में तो गुज़ारा भी बड़ी कठिनाई से होता है। बच्चों को ढंग से पढ़ा भी नहीं पा रहा। ऐसे में में…।”

“भैया! सामाजिक रीति रिवाजों का निर्वाह तो करना ही पड़ता है। ऐसे वक्त तो भाई कर्ज लेकर भी अपना और बहन दोनों का मान रखते हैं…।”

राजेश को जैसे बड़ी शक्ति मिल गई, बोला, “दीदी, पिता जी जो छोटा-सा मकान छोड़ गए थे, उसमें से भी तुमने अपना हिस्सा ले लिया, तभी आज किराए के मकान में बैठा हूँ…।”

“भैया, मैंने तो कानून के अनुसार ही अपना हिस्सा लिया।” सरिता ने राजेश की बात बीच में ही काटते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे हिस्से का तो कुछ छीना नही।’’

“दीदी!…’’ सरिता की तिलमिलाहट भरी दलील सुनकर भी राजेश संयत स्वर में बोला, ‘‘जिस कानून के तहत आपने अपना हिस्सा लिया, उसमें यह तो कहीं नहीं लिखा कि मामा ने भानजे या भानजी की शादी में भात देना ही देना है!”

“भाई, ये तो सामाजिक रीति-रिवाज है…!” सरिता हक जमाती-सी बोली।

“दीदी, पारिवारिक रिश्तों में सरकार और समाज दोनों के कानून एक साथ नहीं चलते। उनमें से एक को ही चुनना होता है। आपने सरकार का कानून चुना, इसलिए समाज के रीति-रिवाज निभाने की दुहाई देने का कोई हक नहीं रह गया आपको…।”

सरिता कुछ देर सोचती सन्न-सी बैठी रही; फिर हताश-सी उठकर चल दी।

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