रिश्तों का गाँव / एक्वेरियम / ममता व्यास
जब हम रिश्तों के गांव बसाते हैं न तो, अहसासों की पतली गलियाँ उनके बीच खुद ब-खुद बनती जाती हैं। ये गांव इन्हीं गलियों से सांस लेते हैं। गांवों के जीवित रहने में और बस्तियों के तबाह हो जाने में इन पतली, संकरी गलियों का बड़ा योगदान है।
इसलिए शायद गलियों के सिरे खुले छोड़े जाते रहे योग्य इंजीनियरों द्वारा और बातों के सिरे खुले छोड़ देते हैं समझदार लोग।
ये जुलाहे की तरह गांठ लगाकर छिपाते नहीं। ये तो सिरे खुले छोड़ते हैं, ताकि आने-जाने की सुविधा बची रहे, ताकि जाने वाले अपने अहम्, अपने स्वार्थ और अवसरवादिता के सामान लेकर कभी भी उठ कर जा सकें और आने वाले कभी भी अपने अहम् को भुला कर अहंकार को गला कर किसी भी सिरे से लौट सकें।
हाँ बहुत ज़रूरी है बातों के सिरे खुले रखना, ताकि जीवन बचा रहे, सांस न घुटे सांस न रुके, ताकि समझ आ सके जिसे सही समझ कर करते रहे वह कितना सही था और जिसे ग़लत समझ कर बचते रहे क्या वह क्या सच में ग़लत था? सड़के खुले रहने से जीवित रहती है और सिरे खुले रहने से जीवित रहते हैं रिश्ते...इतना खुलापन ज़रूरी है।