रिश्तों की कैद / राजा सिंह
उसका नाम नमिता है। वह सोच रही है कि नाम का क्या असर पड़ता है, व्यक्तित्व पर। अक्सर नाम तो शख्सियत के विपरीत होते हैं, फिर उसका नाम क्यों अपने को सार्थक कर रहा है। नमिता का मतलब है झुकी हुई या झुकाई हुई. क्या ज़िन्दगी में उसे हर एक के सामने झुकना पड़ेगा या वह झुकाई जाती रहेगी। मगर वह झुकी नहीं है, उसने प्रतिरोध किया है। यह प्रतिरोध ही है कि वह यहॉं पर है। परन्तु यह प्रतिरोध सांकेतिक है जिसकी कोई निर्णयात्मक परिणति दृष्टिगोचर नहीं होती। नमिता सोंचती है कि वह यहॉं निरर्थक तो नहीं है? वह एक ऐसा पौधा है जो अपनी जमीन से उखाड़कर दूसरी जगह रोपित करने के लिये ले जाया गया, परन्तु वह उस जमीन पर अपनी जड़े नहीं जमा सकी। क्यांेकि उसे वहॉं आवश्यक खाद पानी हवा मुअस्सर नहीं हुये। अब वह फिर अपनी पहली जमीन पर रोपित होने की कोशिश करती है, परन्तु अब वातावरण बदल चुका है और वह पहले जैसे ढ़ग से रोपित नहीं हो पा रही है, जैसे वह पहले स्थापित थी। -नमिता के लिए ज़िन्दगी के मायने बदल गये हैं। वह अपना खोंट ढुंढ रही है। उसे ज़िन्दगी को कोई दिशा समझ में नहीं आ रही है।
मिस्टर आदेश श्रीवास्तव, नमिता के पापा आंदोलित है, परन्तु सुप्त ज्वालामुखी की तरह शान्त है। कब फट पड़ेगें? कोई कह नहीं सकता। उनकी स्थिति देखकर नमिता दहल उठती है। माँ मुखर है परन्तु भाग्य को कोसती रहती है। उनकी छटपटाहट इस बात से ज़्यादा है कि उन्हें धोखा दिया गया और इस कारण वह विरोधी को सबक सिखाना चाहती है। परन्तु वह नहीं जानती है कि यह सबक विपक्ष को कम उसे ज़्यादा घायल करेगा। वह क्या कर सकती है? माँ के निर्देशानुसार ही चलना है। वह जानती है कि वह समस्या का हल नहीं है, बल्कि पीड़ित को ही प्रताणित करने वाला है और अभियुक्त को एक सुकुन भरा तोहफा ही साबित होगा। आदेश श्रीवास्तव की घर के मामलें में अपनी कोई राय नहीं है, उन्हें तो हर हाल में पत्नी का अनुसरण करना है। भाई विभव अपने में संलग्न है। कभी कुछ कहता है तो नमिता से एकान्त में, जो माँ की व्यवस्था में हसतक्षेप नहीं करता। छोटी बहन पूजा अल्पावस्था में है। शुरू से ही माँ किशोरी देवी की चलती है और अन्य सदस्य उनके द्वारा शासित है। नमिता माँ की इच्छा के विरूद्ध विद्रोह करना चाहती है, परन्तु अब वह अपने ही घर में शरणागत है। शरणागत की व्यवस्था में वह सुधार की मांग नहीं कर सकती।
नमिता का मन किसी एक बिन्दु पर स्थिर नहीं हो पा रहा है। उसे अपने अन्दर इस अस्थिरता का अहसास है। वह उन अस्वाभाविक पलों को याद नहीं करना चाहती। मगर वे टीसने वाले पल बार-बार उसके सामने आ खड़े होते। वह उन्हें वैसी ही उदासी और निर्लिप्तता से झेलती थी, जैसी कि आजकल वह अपनी दिनचर्या वहन करती है।
तन्मय का घर, उसका कमरा नितांत निपट अकेला, घर के उॅंपर छत पर बना हुआ, एकाकीपन का संताप झेलता हुआ, एकदम साधारण सा। कहीं से नहीं लगता कि वह नव-विवाहित का कमरा है, रोता हुआ कमरा और उसमें सिमटी, सकुचायी नमिता। ज़िन्दगी की नयी शुरूआत का पहला दिन। मधुर कल्पनीय कामनाओं से झूमता मन, उसमें थिरकती हुई तन्मय के आने की प्रतीक्षारत ऑंखें और सम्भावित स्पर्श की भावानुभूति से कम्पायमान होता तन। प्रतीक्षा अवधि बढती जा रही थी और नमिता की ऑंखे भरने को उत्सुक। चकरघिन्नी की तरह घूमती ऑंखें हर चीज का निरीक्षण करते थक गई थी। अनेक बार उन्हीं चीजों को देखते-परखते हुये सब चुक-सा गया था और ऑंखों में सूनापन उतर आया था। इन्तजार बोझिल और थकावट भरा होता जा रहा था। उदास-सी रात और बोझिल से लम्हें उस अकेली रात को काटना दुश्वार होता जा रहा था।
नमिता जानती है हर इन्सान सिर्फ़ आदतों व्यवहार में या नेचर में ही नहीं एक दूसरे से अलग होते हैं बल्कि हंसने-मुस्कराने और रिश्ते बनाने में भी अलग होते हैं। परन्तु रिश्ते बनाने की भी सामर्थ और क्षमता होनी चाहिए.
...उसे चिढ़ हो रही थी उसे स्पर्शिता होने की बेताबी हो रही थीं रात के एक बज रहे थे, जब वह आया था। तन्मय ने उसे एक पल देखा। वह जागती हुयी सो रही थी। उसने झुक कर आहट लेने की कोशिश की नमिता नींद में है क्या? फिर लाइट बुझाकर उसके बगल में लेट गया वह रात भर सोता रहा और वह रात भर स्पर्श की चाह में जागती रही। नमिता के लिए सोना दूभर हो गया, उसके जेहन में एक खामोंशी छा गई.
नमिता में गजब का सेन्स है, ब्यूटी है और क्रियेटिविटी है, सिर्फ़ उसमे खुलेपन का अभाव है। अगर वह अपने स्वभाव में खुलेपन को शामिल कर सकती तो काफी आगे जा सकती है। यह बात तोे कहीं भी, प्रमुख निर्णायक कर्ता ने जब वह कालेज में "कालेज प्रिंसेस" चुनी गई थी। खुलापन वह अपने में पैदा नहीं कर पायी, इसलिए सम्बन्धों के मामलों में वह फिसड्डी रही और उसकी क्रियेटिविटी दुख, निराशा के पर्त्ताें में गुम हो गई.
नमिता का अन्दाजा ग़लत निकला उसका ख्याल था कि वह देखकर-बातचीत कर मनुष्य को पहचान सकती है कि वह कैसा है? वह क्या चाहता है? वह कौन-सी नकाब ओढें है। परन्तु तन्मय को वह नहीं पहचान पाई. तन्मय कैसा खूबसूरत नवजवान है, उसकी मुस्कान गजब ढाने वाली है। उसे लगा था कि तन्मय उससे ज़्यादा खूबसूरत है और ज़्यादा काबिल भी है। वह साफ्टवेयर इंजीनियर है और अमेरिका में पोस्टेड और शायद सेटल भी है। उसके लिए विदेश का आकर्षण चरम पर था। ऐब्राड में रहने वाले भारत में विशिष्ट कहलाते है, वह भी शान-शौकत की दुनियाँ में रहेगी और विशिष्ट कहलायेगी। उसका मैच परफेक्ट था परन्तु अब क्या परफेक्ट मैच है? आन्तरिक मैच कौन कर पाया है?
पहले दिन की कहानी अगले दिन भी दोहरायी गई. क्या बात है वह कुछ समझ नहीं पा रही थी। अरे! इसमें समझ में न आने वाली क्या बात है बात अच्छी व खराब नहीं होती। ज़िन्दगी और वक्त मिल कर इन्सान को बहुत कुछ सिखा देते है। क्या वह आकर्षण हीन है? ...क्या वह एक सम्पूर्ण नवयुवती नहीं है? ...क्या तन्मय किसी और को चाहते है? क्या कोई उनकी प्रेमिका है जिसे वह प्यार करते थे और उसी से शादी करना चाहते थे। मजबूरी में मेरे से शादी की। क्या वह प्रतिशोध ले रहे है? नहीं ...ऐसा नहीं लगता। वह खुद देखने आये थे, अलग से अकेले में। काफी देर तक उन दोनों ने कई प्रकार की बातें की थी। उन बातों में उन्होने उसकी सुन्दरता और बुद्धिमानी की प्रसंसा भी की थी। उसके बाद उन दोनों का दैनिक सम्पर्क किसी न किसी माध्यम से अवश्य होता रहा था उसे यकीन था कि तन्मय पढने-लिखने वाले लड़के रहे होगें। जो प्रेम प्रसंगों से निहायत दूर रहते होगें। जैसे नमिता थी। अब क्या? वह ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है जैसे कि वह लड़का ही न हो।
हर औरत, हर आदमी अपने आप में खास होता है। हर एक में कोई न कोई खासियत तो होती ही है फिर तन्मय में क्या है? सुबह से शाम उन दोेनों का समय अच्छा बीतता रहा था शादी के बाद कुछ घरेलू रीति रिवाज वह दोनों प्रसन्नतापूर्वक मन लगा कर निपटाते कभी मन्दिर पूजा, कभी गंगा स्नान और अन्त में भगवान सत्य नारायण की कथा साथ-साथ गॉंठ जोड़ कर हॅसीं खुशी निपटाई. परन्तु तन्मय को रात में क्या हो जाता है? वह नितान्त अंजान, अपरिचित कैसे हो जाता है? उसका दिल कचोटता रहता है। एक हूक-सी उठती है एक दर्द हल्का-हल्का-सा दिल में होता रहता है। कब मिलन होगा?
आज तीसरी रात है वह सोचती है इसे खाली नहीं जाने देगी। आज वह कमरे का दरवाजा बन्द रखेगी, जिससे कि आज तन्मय जब आऐगा तो वह सम्पूर्ण रूप सजग और सक्रिय होगी और जगावट में मिलन तो होके रहेगा। ...खट-खट की आवाज से पलकें हिली, वह जग ही रही थी। इन्तजार में नींद का क्या काम? इन्तजार तीन रातों का था और बेहद तीखा था। वह एक झटके से उठी परन्तु पता नहीं क्या सोच कर वह खिड़की से झॅाकनें लगी। अरे ये क्या? तन्मय तो नहीं है। फिर कौन उसे लगा कि तन्मय का छोटा भाई सरल तो नहीं? नहीं ...नहीं...वह क्यों होगा? दोनों एक जैसे लगते है। परन्तु वह कुछ कांपता-सा क्यों लग रहा है। उसे ऐसा लगा कि वह कुछ डरा सहमा-सा है। यह तन्मय कैसे हो सकता है? कोई अपनी पत्नी के कमरे में दाखिल होते डरंेगा क्यों? नमिता ने इन्तजार करना उचित समझा उसने एक बार फिर हल्के से खटखटाया, मगर उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वह धीरे से लौट गया और नमिता वापस बिस्तर पर बेसुध सी. उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। कुशंका सर पर सवार थी। काश, आज दरवाजा बन्द न किया होता तो? वह भीतर तक हिल गई उसका सर दर्द से फटने लगा था और शरीर लगभग संज्ञा शून्य-सा था। वह कितनी ही देर तक वैसी ही पड़ी रही, हलचल विहीन।
काफी देर बाद फिर वही खट-खट की आवाज, परन्तु अब की बार काफी तेज स्वर में। उसने ऐतिहात बरतते हुये, आश्वस्त हो जाना चाहा कि तन्मय ही हो, तभी दरवाजा खोला। तन्मय बिगड़ उठा था। बिफर गया, इतनी देर से दरवाजा खोलने के कारण। 'दरवाजा बंद करने' की क्या ज़रूरत थी? एक बार आकर लौट गया हॅू। वह चिल्ला रहा था। आवाज बाहर तक फैल रही थी। "आदमी, इंतजार में सो भी सकता है, वह भी इतनी गहरी नींद में ताज्जुब है। अजीब तमाशा है? अपने कमरे में आने के लिए भी पहरे लगे हैं ...वगैरह-वगैरह।" वह चीख रहा था वह चुप थी विस्मय से भरी आहत थी एकदम हतप्रभ और पशेमान उसने अपना गुबार निकाला और शान्त हो गया धीरे-धीरे कमरे में खामोशी छा गई. तन्मय लेट गया और सो गया, नमिता खामोशी से बिस्तर का एक कोना पकड़कर अकड़ी-सी पसर गई. वह फिर प्रतीक्षारत हो गई. उसे क्यों लगता है कि तन्मय नाराज नहीं था सिर्फ़ दिखावा कर रहा था। उसे लगता है कि उम्मीद है, आने वाले कल में। ...वह कैसा है जो प्यार करना नहीं जानता उसके साथ प्यार में एक सार क्यों नहीं होता? प्यार में एक साथ क्यों नहीं बहता उसमें प्यार का उन्माद क्यों नहीं होता।
घर आई नमिता को देखकर पता नहीं क्यों उसकी मॉं किशोंरी देवी को लगता है कि उसकी देह भोगी हुयी नहीं है उसकी चाल में कसक और ठसक नजर नहीं आ रही थी। उसकी ऑंखों में प्यार का सैलाब उमड़ता हुआ नहीं है और चेहरे परं चमक का अभाव दिखा। वह नमिता से कैसे उसका हाल पूछे? जो होना चाहिए था वह हुआ क्या? आखिर में किशोरी देवी ने नमिता को एकान्त में पकड़ लिया।
'दामाद जी कैसे हैं?' ं
ं 'अच्छे हैं?'
'ख्याल रखते हैं?'
'हॉं, बिल्कुल।'
'घर, वाले कैसे हैं?'
'ठीक है?'
'तुम्हारा वहॉं मन लगता है,। तुम वहॉं खुश हो? नमिता एक क्षण चुप रही फिर बोली' मैं तुम्हें खुश नहीं दिखती?
'अच्छा! रात में बात चीत होती है?'
'हॉ। बातें तो होती ही हैं, रात में सोने तक।'
सिर्फ बातें ही होती हैं, चीतें नहीं होती? नमिता ने एक पल चीतें शब्द पर ध्यान दिया। वह समझ गयी, मम्मी क्या जानना चाहती हैं?
'नहीं! चीते नहीं होती।' यह कहकर उसका चेहरा मुरझाया और वह उदासी के आलम में खो गया।
'तो कुछ नहीं हुआ जो मिलन की रात में होना चाहिए.' मॉं झुंझलाई और उसका स्वर तीव्र हो चला था। नमिता जड़वत थी। निराशा और उदासी से घिरी वह खीज उठी, 'वह रात ही नहीं, सारी रातें खाली थी।'
किशोरी देवी दहक उठी और अविश्वास से पिघल पड़ी। उनका विशालकाय व्यक्तित्व भरभरा कर धाराशही हो उठा।
आदेश श्रीवास्तव और किशोरी देवी आ धमके, तन्मय के घर। तन्मय के पापा राकेश निगम और उसकी मॉं शारदा देवी भौचक रह गये यह आरोप सुनकर। दोनों ने इस मामलें में पूरी तरह से अपने को अनभिग्न घोषित कर दिया। शारदा देवी ने प्रत्यारोपण भी लगा दिया। जिसे किशोरी देवी बरदाश्त नहीं कर सकी और बमक उठीं। तन्मय को बुलाया गया।
'बेटा जब तुम काम के नहीं थे, तो तुमने शादी क्यों की। किशोरी देवी ने पूछा।'
'गलत इल्जाम मत लगाओ मेरे बेटे पर। वह पूरी तरह से फिट है।' शारदा देवी बोली आपने हम लोगों को धांेखा दिया है। मॉं को पता होता है, उसका बेटा कैसा है?
'ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसकी तुम्हें आशंका है।' निगम साहब बोले। '
'अमेरिका में बाहर अकेला रहता है। हो सकता है वहॉं ग़लत संगत में पड़कर अपना अहित कर बैठा हो।'
'हॉ, ं पापा मेरा वहॉं ईलाज चल रहा है। मैं शीघ्र ही ठीक हो जाऊॅंगा। एक नार्मल परसन की तरह।' तन्मय ने स्वीकोरोक्ति करके गर्म माहौल को ठंडा कर दिया।
'इतना बड़ा धोखा?' किशोरी देवी सुबक-सुबक कर रो पड़ी। '
मुझे यकीन नहीं होता, यह लड़का पहले से ऐसा नहीं है। डाक्टरी जॉंच होगी डाक्टर हमें बतलायेगा कि लड़का पहले से ऐसा है या अभी हुआ है। ' श्रीवास्तव जी बोले। पॉचों लोग निकट के डाक्टर के पास पहुॅंचे और तन्मय की समस्या का जिक्र किया।
डाक्टर ने तन्मय से अलग ले जाकर काफी पूछतॉंछ की और कुछ सलाहें दी जो उन लोगों की पहुॅंच से दूर थी। डाक्टर ने कुछ दवाईयाँ लिखी और छै माह तक नियमित रूप से खाने की सलाह दी और कहा कि वह ठीक हो जायेगा। सभी को राहत मिली और धीरे-धीरे कटुता घुलने लगी थी और सब वापस अपने-अपने घर आ गये। नमिता को मॉं ने समझाया और बताया कि वह शीघ्र ही ठीक हो जायेगा।
एक दो दिन बाद तन्मय आया और नमिता को विदा करा के अपने घर ले आया। वह आश्वस्त थी भविष्य में आने वाले खुशनुमा लम्हों के लिए. घर में तन्मय ने दिखाकर दवाई भी ली और रात में उससे लिपटकर सोया भी। अगले दिन ही तन्मय वापस अमेरिका के लिए चल पड़ा, वे सब उसे छोड़ने एअरपोर्ट तक गये थे। नमिता का मन उड़कर तन्मय के साथ चला जा रहा था। काश वह भी साथ-साथ जा पाती। वह बोझिल और उदास लम्हों को ढोती अपने सास-ससुर के साथ वापस तन्मय के घर आ गई. वहॉं वहीं उदास शाम थी और अकेली रात थी। अब तो दिन भी बोरिंग हो गये थे और साथ में थी अनिश्चितता।
नमिता अनमनी-सी उचाट नजरों से छत को घूर रही थी। रोज की तरह आज भी नींद कोसों दूर थी। उसकी शादी किससे हुयी? वह कौन है? शादी उपरान्त उसकी रातें अकल्पनीय प्रसंगों से भरपूर थी। विदेश प्रवासी लड़के क्या ऐसे ही होते है? उसका क्या होगा? नहीं उसे यहॉं नहीं रहना है। उसे तन्मय के पास ही जाना है उसके साथ रह कर ही, वह उसकी देखभाल कर पायेगी तभी वह ठीक हो पायेगा। जब यहॉं पर वह ढंग से दवाईयाँ नहीं ले रहा था तो वहॉं अकेले में, क्या करेगा? वह तो पूरा लापरवाह है अपनी प्रति भी और उसके प्रति भी, ऐसा कैसे चलेगा? क्या वह यहॉं रहेगी और वह अमेरिका में? नहीं वह यह बरदाश्त नहीं कर पायेगी।
नाइट बल्ब की रोशनी भी उसे चुभती प्रतीत हो रही थी। उसके प्रकाश में उसकी मनोस्थिति अनावृत हो रही थी। उसे लगा कि इसे बन्द कर देना चाहियें और नींद लेने की चेष्टा करना चाहिये। सिर्फ़ नींद पर ध्यान केन्द्रित करना है। उसने नाइट बल्ब बन्द कर दिया। एकदम अन्धेरा छा गया भीतर और बाहर, अँधेरा ही अँधेरा था। वह अपने आप को ही नहीं देख पा रही थी। उसे अपने को इस माहौल में भूलने में सहूलियत हो रही थीं। अंधेरे में विलीन एक अस्तित्वहीन प्राणी।
इस स्थिति में वह कब तक पड़ी रही उसे भान नहीं था। उसकी चेतना पद चापों की आवाजों से वापस आयी। उसे आभास हुआ कि कोई उॅपर आ रहा है। उसी की आहट है। इस समय कौन हो सकता है? रात्रि का दूसरा प्रहर है। अपने आप भय पैदा करने वाला प्रहर। उसने पदचाप पहचानने की कोशिश की, असफल रही। एक पल उसे लगा कि तन्मय तो नहीं? अरे! कैसी बाबली है? अमेरिका से कैसे आ सकता है वह? फिर कौन? एक भय सिर से उतर कर सारे शरीर में फैल गया। ज़्यादा भय ने उसमें एक साहस भी भरा और सर्तकता ने उसमें गति भर दी और उसने बंद दरवाजों को पुनः चेक किया। वह बंद थे। फिर उसकी नजर खिड़की पर गई वह भी बंद थी, परन्तु एक दराज भर खुली थी। उसने उसे वैसा ही रहने दिया। उसने दराज पर अपनी आंखें टिका दीं। उसकी आंखें खिड़की से जीने तक और वापस दरवाजे तक एक तिर्यक कोण बना रही थी और उसे आगाह करने के लिए पर्याप्त बिन्दु प्रदान कर रही थी।
नमिता विश्मय से भर उठीं। ये क्या? अरे! निगम साहब यानी पापा जी आ रहे हैं। क्यों? आखिर इतनी रात में क्यों? वह कमरे के दरवाजे तक आ गये। धक्का दिया, एक हल्की-सी आवाज के साथ दरवाजा हिला पर खुला नहीं। थोड़ी देर सोचते रहे। फिर सांकल खटखटायी-एक बार-दो बार फिर कई बार हल्के-हलके से। इधर कमरें के भीतर खिड़की से सटी नमिता चित्रलिखित-सी स्थिर थी। निगम साहब लौट गये थे उनके लौटते ही नमिता वापस धरा पर प्रगट हुई. अपने आप जागृत अवस्था में आते ही रो पड़ी। वह ओंधें मुॅंह बिस्तर पर गिर पड़ी और बिना किसी आवाज के वह रो रही थी। उसके साथ कैसा मजाक किया था वह अनुमान लगाने का प्रयत्न कर रही थी। उसकी याद में अपना घर, उसका परिवेश और उससे जुड़े सारे सदस्य एक-एक करके उसे बुला रहे थे। वापस अपने सुरक्षित ठिकाने में लौट आने के लिए लालायित कर रहे थे। अगले दिन, वह अपनों के पास लौट आयी थी।
नमिता अपने घर की छत पर, अपना सर दोनों घुटनों के बीच में दिये, ऑखें पैर के अंगूठों और अगुलियों से खेलती चुप चाप बैठी थी। जब से तन्मय अमेरिका गया है, उसने अपनी कोई खोज खबर नमिता को नहीं दी। ऐसा सुनने में आया कि वह अपनी मॉं को फोन करता है उन्हीं से नमिता के विषय में पूछता है और उसे भी तन्मय की मॉं से उसके विषय में जानकारी मिल जाती है। किन्तु तन्मय उसे फोन क्यों नहीं करता? आखिर वह उसकी पत्नी है। क्या एक कॉल का भी हक नहीं है उसका? वह उहॉपोह में है कि वह काल करें कि उसकी कॉल का अब भी इन्तजार करें। उसे ज्ञात हुआ है कि तन्मय उससे नाराज है क्योंकि वह अपने घर चली आयी जबकि उसे उसके घर में रहना चाहिए थे। इस जिच की स्थिति को आखिर में नमिता ने ही तोड़ा। उसने तन्मय को फोन किया।
'तुम मुझे प्यार नहीं करते?'
'नहीं...तुम ग़लत सोचती हो'
'ऐसा ही है, इतने दिन साथ रहे। तुम्हारा प्यार नादारत था। अब तो दूर रहने पर प्यार तो दूर की बात है, एक आवाज के लिए भी तरस गई हॅू।'
'कुछ दिनों की बात है, सब ठीक हो जायेगा।'
'मुझे भरोसा नहीं आ रहा है। देखों मैं बहुत दुखी हॅू'। मैं तुम्हारे पास आना चाहती हॅू। तुम मुझे अपने पास बुला लो। '
मर्द औरत के दैहिक रिश्तों को सोच कर, वह दहक कर तड़फ उठती थी ं। दर-असल इस तरह की बाते वह नहीं जानती थी। शादी तो हुयी परन्तु रिश्ता बना नहीं और पहले उसका किसी के साथ कोई रिश्ता बना नहीं था न देह का और न मन का।
नमिता ने मम्मी से तन्मय के पास जाने की इच्छा व्यक्त कर दी और उनका उत्तर सकारात्मक था। उसका पासपोर्ट बनवाया गया और वीजा के लिए अप्लाई कर दिया गया। धीरे-धीरे वह वक्त भी आ गया, जब उसे जाना था। उसने तन्मय को सूचित कर दिया। परन्तु उसकी प्रतिक्रिया बड़ी नकारात्मक थी। 'मैं खुद तुम्हें आकर ले जाने वाला था। अकेले कैसे आ पाओगी? रहने दो। एक दो महीनेे में सब ठीक होते ही आ जाऊॅगा।' परन्तु नमिता न मानी। वह अपने आप में खुश थी। अब उसका मिलन हो जायेगा। अब तक तो तन्मय भी ठीक हो चुका होगा जुदाई की कालावधि बीत चुकी थी और आशा, आकांक्षा का पहाड़ सामने खड़ा था।
...शूरू से ही तन्मय के अलावा उसे कुछ नहीं सूझता था। उसने जब उसे पहली बार देखा था तो उस पर फिदा हो गयी थी। उसने मम्मी पापा को शुक्रिया अदा किया था कि इतना अच्छा दुल्हा उसके लिए तय किया था। वह उससे मिलने और पाने के लिए बेचैन हो उठी थी और फिर जब मिले ...तो ऐसा धोखा। बहेलिये ने मनमोहक जाल फेका था कि वह ऐसे चंगुल में फंसी थी, जिसमें न मौत थी न जीवन, घायल होता यौवन था। कम से कम तन्मय को ऐसा नहीं करना चाहिए था। वह फिर भावनाओं के इन्द्रजाल में फंस गयी थी। उसे खुद पर गुस्सा आ रहा था कि वह उसकी ओर खिंची चली जा रही थी। वह उसके आकर्षण में बधीं उस पर बिछी जा रही थी परन्तु तन्मय उसे अनदेखा कर रहा था। अमेरिका के इस फ्लैट में वे दो विपरीत धु्रव थे, जो आपस में मिल ही नहीं सकते। उन दोनों के बीच ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिसकी प्रतिक्षा नमिता अर्से से कर रही थी। वहॉं की दिनचर्या भी बड़ी बोरिंग और उबाऊ हो चुकी थी। साथ-साथ रहते हुए भी अलग थे। उसने महसूस किया कि तन्मय अपनी बीमारी के प्रति लापरवाह है, वह नियमित दवाई नहीं ले रहा था। बल्कि एक तरह से ले ही नहीं रहा था। भारत से लाई मेडीसिन अपने उपयोग के लिए तरस रही थी।
'मेडीसिन क्यों नहीं लेते?' नमिता ने पूछा
'क्या फायदा?' तन्मय के मुॅंह से अनायास ही निकल पड़ा।
'क्या मतलब?'
'कुछ नहीं, ध्यान नहीं रहा। अब तुम आ गई हो। सब कुछ नियमित हो जायेगा।' नमिता ने जिद पकड़ ली। डाक्टर के पास चलने के लिए. आखिर में तन्मय को जाना पड़ा। वहॉं डाक्टर ने फटकार लगाई ठीक से ईलाज करवाइयेगां, वरना पत्नी रूकेगी नहीं। 'फिर डाक्टर ने ढेर सारी मेडीसिन दी और उसे ढेर सारी हिदायतों के साथ सौंप दिया। कुछ दिन वह ठीक से दवाई लेता रहा। फिर उसका रवैया ढुलमुल हो गया और बदल रही थी उन दोनों की जिन्दगानीं। नमिता की खीज एक दिन उसे वापस भारत ले आयी।' जब तक तुम ठीक नहीं हो जाते मैं वापस नहीं आने की। तन्मय पर कुछ असर नहीं हुआ। उसने तुरन्त फोन लगाकर अपनी मॉं को सूचित कर दिया।
नमिता फिर अपने मां-पिता के घर आ गई थी। एक न मिटने वाली उदासी को लेकर। अन्तरमन में झूंझता झंझावत और अनिर्णय का बोझ उसे अपने से ही गाफिल किये था। घर में छाया था अनहोनी का मातम। अब क्या किया जाये के प्रश्नाकुल से आहत घर था? सबने निर्णय लिया था कि नमिता को अपने पैरों पर खड़ा किया जाय। इस हेतु उसका एम.बी.ए. में एडमीशन हुआ। ंएम.बी.ए. की पढाई और नौकरी की खोजबीन प्रारम्भ की गई. सतही तौर पर स्थिति पूर्ववत लगती थी। एक आशंका अब भी थी पूरे घर-परिवार में कि तन्मय ठीक होने लायक है भी कि नहीं?
दिन गुजरते जा रहे थे दोनों के बीच किसी प्रकार का सम्पर्क नहीं था। नमिता की जिद थी कि वह रूष्ट है तो तन्मय को मनाना चाहिए और उससे वार्तालाप की पहल वहीं से हो। परन्तु तन्मय कुछ अलग था। अपने घर फोन आदि करता था परन्तु उसने नमिता की कोई परवाह नहीं की। इधर नमिता के माता-पिता श्रीवास्तव तन्मय के विषय में, निगम साहब से दो-चार होते ही रहते थे। वे उसे धोखा देना कहते थे और वे इसे निहायत ग़लत बताते रहे और जल्द ही ठीक हो जाने की दिलाशा देते रहे। हर तरह की खबर नमिता को छीलती रहती और उसे गम की गहराइयों में ढकेलती रहती थी।
अचानक एक दिन तन्मय का फोन आ गया नमिता के पास। वह खुशी से उछल पड़ी। खुशखबरी सुनने के लिए पूर्णरूपेण उत्सुक और बेचैन थी। पर यह क्या तन्मय तो शिकायत कर रहा था। 'तुम मेरी पत्नी हो? और तुम मुझे छोड़कर अपने घर चली आयी। क्या ऐसा होता है?'
'पत्नी जैसा मुझे कुछ मिला क्या?'
'तुम मुझे प्यार नहीं करती?'
'निश्चय ही।'
'पर क्यों?'
'प्यार जैसा हम में कुछ हुआ क्या?' तुम्हें वह सब करना चाहिए था, जिसकी हकदार थी मैं। जो तुमने नहीं किया। मुझे लगता है कि मैं वहॉं नहीं हॅू या हॅू, ना तुम्हें फर्क पड़ता है न मुझे।
'मैं सोचता हॅू कि मुझे शादी नहीं करनी चाहिए थी।'
तड़फ उठी थी वह। अप्राप्त को प्राप्त करने की नादानी कर रही थी वह।
'मुझे पर भरोसा नहीं रहा?' ...देखो तुम दुखी मत होना। मैं मजबूर हॅू। ...क्या हम खुश नहीं रह सकते, शारीरिक सम्बन्धों के बगैर। ...क्या हम दो दोस्त की तरह नहीं रह सकते? '
' मैं तुम्हारी दोस्त नहीं हॅू। मैं तुम्हारी पत्नी हॅू। समाज में विवाह का आधार ही दैहिक सम्बन्ध है। मैं नाम मेरा गॉंव तेरा वाले सम्बन्ध नहीं बना सकती।
हर एक की ज़िन्दगी में कभी न कभी ठहराव आता है, परन्तु उसकी ज़िन्दगी उससे कोसों दूर थी। उसे देखकर किशोरी देवी किटकिटाकर रह जाती थी और निगम एण्ड कम्पनी को गरियाने लगती थी। वह घायल नागिन की तरह फुंफकार रही थी। शारदा देवी को काट खाने को आतूर पर विवशता उन्हें कचोंट रही थी। शारदा निगम उनकी दूर की रिश्तेदारी में भी आती थी। इसके बावजूद ऐसा छल किया।
'ऐसा कैसे चलेगा? अब हम क्या करेगें?' ऐसे ही किस्मत को कोसते रहेगें। श्रीवास्तव जी के चेहरे पर दीनता और मजबूरी प्रगट हो रही थी।
' उन पर हम धोखा-धड़ी का केश दायर करेगें। किशोरी देवी गुर्रायी।
'कैसी, धोखा-धड़ी?'
'लड़का सक्षम नहीं था फिर भी छुपाकर मेरी लड़की के साथ शादी कर दी।'
'तलाक भी देना चाहिये।' विभव ने अपनी राय जाहीर की। 'तभी अन्याय का प्रतिकार सम्भव होगा।'
'नहीं इतनी आसानी से हम उन्हें नहीं छोडे़गें।' पहले जो मेरा पच्चीस-तीस लाख शादी में खर्चा हुआ है, उसे वसूलना है। उसके बाद कुछ सोंचेगें।
'मम्मी, दीदी को तलाक दिलवा दीजियेगा। इस ग्राउन्ड पर आसानी से मिल जायेगा और फिर दीदी की दुबारा शादी कर दीजियेगा।'
'अब मैं दूबारा भोपना नहीं रचवाउॅगी। मेरेे पास इतना पैसा नहीं है कि दूसरी शादी करें। हमारी दूसरी बेटी भी है उसका भी तो शादी-ब्याह करना पड़ेगा। उसके लिये कहॉं से पैसा लायेगें।'
पापा चुप थे। उनकी खोपड़ी में कुछ समा नहीं रहा था, जैसे छेद हो गये हो चारों तरफ, बातें आती और निकल जाती। उन्हंे लगता था कि उनका खून कर दे या अपना कर ले। मुर्दाहिया खामोशी छा गई थी। नमिता के लिए यह सब सुनना एक यंत्रणा-सा था। वह निकल पड़ी थी एकान्त की तालाश में। उसने खुद का चुना और बुना अकेलापन अपना लिया था। उसके दिन भी धुप्प अंधेरे ंमे डूबे हुये थें। उसे आज मम्मी स्वार्थी नजर आ रही थी। उसके विषय में निर्णय लिया जा रहा था और उससे कोई नहीं पूछ रहा है कि वह क्या चाहती है?
उसे लगा सब अर्थ की दुनिया है जब तक वह आर्थिक रूप से स्वतत्रं नहीं हो जाती, वह अपने लिए अपने मन का कुछ नहीं कर सकती। उसे इन्तजार करना था उस दिन का, जब वह रिश्तों की कैद से अपने को आजाद कर पायेगी।