रीछ / दूधनाथ सिंह

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इसका पता, कुछ दिन पहले बिस्तर में ही चल गया था। गलती उसी की थी। उस वक्त, जब वह लगातार उस खूँखार से लड़ रहा था, उसे सोने के कमरे में इस तरह अचानक नहीं चले आना चाहिए था। लेकिन या तो वह भूल गया था, या कुछ पलों के लिए अपना मानसिक संतुलन खो बैठा था। ...या शायद वह बुरी तरह डर गया था और उसे मददगार की जरूरत महसूस हुई थी। जो हो, अचानक ही वह बीच का दरवाजा खोल कर सोने के कमरे में चला आया था।

पत्नी बच्चे को सुला कर इंतजार करती-करती सो गई थी। वह उसकी बगल में बिस्तर पर लगभग ढह-सा गया। ...लेकिन तभी उसे अहसास हुआ कि उसने गलती की है। क्षण-भर को वह पत्नी के सुते हुए चेहरे की ओर देखता रहा। वह, यह भाँपने की कोशिश करता रहा कि अगर वह सो गई है और उसके इधर आने की खबर उसे नहीं लग सकी है तो वह उठ कर चला जाएगा और उधर जाकर सुस्ता लेगा, स्वाभाविक हो लेगा, तब इधर जाएगा। लेकिन वह कुछ भी अंदाजा नहीं लगा सका। वर्षों से ऐसा होता आया था। केवल शुरू के कुछ दिनों को छोड़कर, जब वह भयानक रूप से लड़ती थी। फिर वह सहसा ही चुप हो गई थी। तब से वह अकसर इसी तरह सोई हुई मिलती। कई बार यह समझकर कि वह गहरी नींद में है, वह उठने की कोशिश करता तो पाता कि उसने धीरे से बाँहें बढ़ाकर उसकी कमर घेर ली है और मुस्करा रही है। पत्नी के प्यार अथवा वासना के आवाहन का यह ढंग अब उसका इतना तकियाकलाम बन गया था कि उसे केवल चिढ़ ही होती है। लेकिन बिस्तर में आ जाने के बाद वह कुछ नहीं कर सकता था, सिवा...। शायद वह इस तरह शरीर के स्तर पर उतर कर सब कुछ भूलना चाहता था। लेकिन ऐसा कुछ भी न हो पाता। तब वह चिड़चिड़ा उठता या जल्दी खत्म कर लेता। खत्म होने के तुरंत बाद ही उसे लगता कि वह एक मरी हुई चीज के पास लेटा है। लेकिन वह चीज जिंदा होती और दुबारा उसका भान होते ही वह फिर उसी तरह उस खूँखार से लड़ना शुरू कर देता।

सहमते-सहमते वह ज्यों ही उठा, पत्नी तपाक से उठकर बैठ गई। उसकी निगाहों में जिस शक का इंतजार उसे था, वह सहज ही वहाँ दिखाई दे गया। 'क्या हुआ? तुम इतने परेशान क्यों नजर आ रहे हो?' वह पूछ ही बैठी।

वह जैसा-का-तैसा स्तंभित-सा खड़ा रह गया। अगर वह रोज की तरह अपनी वह हरकत दुहराती तो उसे इतना डर नहीं लगता। लेकिन उसके इस तरह चौंक कर उठ-बैठने से उसे विश्वास हो आया कि वह पकड़ लिया गया है। उसे दुर्गंध लग गई है और अब उसके सहारे टटोल कर वह वहाँ तक आसानी से पहुँच जाएगी। ...तभी वह उठ कर खड़ी हो गई। वह सहसा जैसे होश में आया। अपनी आवाज को भरसक संयत करते हुए उसने कह दिया कि 'वह ठीकठाक है। अचानक उसे एक काम याद आ गया। एक जरूरी फाइल रह गई है। निपटा कर अभी आया।' इस तरह बोलते हुए उसने मुस्करा कर सारी बात को स्वाभाविक बनाने की कोशिश की।

अपने निजी कमरे में आ कर उसने दरवाजा बंद कर लिया और तख्त पर बैठ गया। टाँगें फैला दी और खिड़की की टेक लगा कर उठँग गया। शायद वह अभिनय में चूक गया था उसने सोचा। पत्नी को विश्वास नहीं आया था। उसने मुस्कुराहट के बीच की दरारों से अंदर झाँक लिया था। वह वैसे ही शक्की निगाहों से देखती हुई खड़ी-की-खड़ी रह गई थी। शायद वह अब भी खड़ी होगी उधर, सोच रही होगी और इंतजार कर रही होगी कि वह आए तो उसे तुरंत कठघरे में खड़ा करे। ...अब शायद, सब कुछ खत्म हो गया...। आज नहीं तो कल... कल नहीं तो परसों वह पकड़ लिया जाएगा। नहीं वह ऐसा नहीं होने देगा। या तो वह पहले ही बता देगा और उसे कमरे में ले जाकर सब कुछ दिखा देगा... या... या वह खुद ही उस रक्त-पिपासु को जान से मार डालेगा। उसे तहखाने में सदा के लिए उसे दफनाकर, उसका दरवाजा मूँद देगा... अथवा...।

बैठे-ही-बैठे गर्दन जरा-सी मोड़कर उसने तहखाने के खुले दरवाजे की ओर देखा। उसका खयाल था कि अब तक रोज की तरह, वह अंदर चला गया होगा और खर्राटे ले रहा होगा। तभी उसने देखा कि वह दरवाजे की चौखट पर अपने दोनों पाँव फैलाए अधलेटा पड़ा था। उसके बड़े-बड़े काले नाखून बघनख की तरह चमक रहे थे। उन्हीं पर उसका थूथन टिका था और अजीब-सी अधमुँदी पलकों से वह उसे घूर रहा था। उसके थोबड़े जैसे जबड़े से झाग निकल कर उसके काले-काले पंजों पर चिमट गई थी और खून-सनी आँखों के इर्द-गिर्द पसीना पिघल रहा था। क्षण-भर को उसे झुरझुरी-सी छूट आई। शायद वह बहुत थक गया है या कहीं गहरी चोट लगी है। या? उसने सोचा, क्या वह बदला लेने की ताक में है और इसी लिए अंदर नहीं गया। तो क्या उछल कर फिर उस पर सवार हो जाएगा और अंततः... उसे खत्म करके ही दम लेगा। नहीं, फिलहाल तो इससे बचे रहना ही ठीक होगा, उसने अपने को टटोला। वह बिलकुल थक गया था और इस वक्त वह सचमुच आक्रमण कर दे तो मिनटों में उसका काम तमाम कर सकता है। वह थोड़ा सजग होकर तख्त पर बैठ गया और किसी भी क्षण उसके लंबे उछाल का इंतजार करने लगा। फिर उसे ध्यान आया कि पत्नी उधर अभी भी जगी होगी और भाँप रही होगी। शायद वह इधर भी आ जाय। या ऐसा न हो कि वह उठ कर उधर जाने लगे तो यह खूँखार भी उसी वक्त उछलकर साथ ही साथ सोने के कमरे में दाखिल हो जाय! नहीं, इस तरह आकस्मिक रूप से वह यह सब कुछ उद्घाटित होने देना नहीं चाहता था। न ही उसकी पत्नी यह सब कुछ अचानक सह सकती थी। वह निर्णय तो बाद में लेगी। उसके पहले उसका क्या होगा, इसकी कल्पना से ही इसके रोंगटे खड़े हो जाते। उसने फिर उधर देखा। यह अंदाजा करना कठिन था कि वह सो रहा है या निशाना तक रहा है। ...फिर भी वह उठा और धीरे-धीरे तहखाने के दरवाजे तक गया।

दरवाजा हल्के-से हिला तो उसने अपनी पूरी-की-पूरी आँखें खोल दीं और उठ कर खड़ा हो गया। लगा, उसने अपना एक पंजा जरा-सा सरका कर फिर ऊपर की ओर उठाया। जैसे वह पूरी तैयारी के बाद अंतिम और सफलतम वार करने जा रहा हो। उसने सहम कर जरा-सा परे हटने की कोशिश की। लेकिन तब तक उसने अपने दोनों पंजे उसकी छाती पर रख दिए और थूथन उठाकर उसके होंठ छूने की कोशिश करने लगा। अचानक ही उसका भय अपनी चरम सीमा पर जा कर टूट गया और उसकी जगह एक थकान और सहानुभूति ने ले ली। यह सहानुभूति अपने और उसके, दोनों के ही प्रति थी। एक विवश-सी पहचान... आने वाले अतीत की... या अतीत के अवसान की। उसने धीरे से उसको परे हटा दिया और चुमकारता हुआ सहलाने लगा। सहलाते हुए उसने गौर किया कि उसकी पहले की काली खूबसूरत आँखें अब ललछौंहीं रहने लगी थीं। हाँ, कई वर्ष हो गए थे, कई धुँधले वर्ष। अब वह और ज्यादा खूँखार लग रहा था। ...उसने रोज की तरह उसे दरवाजे के भीतर ठेल दिया और सावधानी से दरवाजा बंद कर दिया। फिर लौट कर उसी तरह तख्त पर बैठ गया। हाथ-पाँव ढीले छोड़ दिए और आँखें मूँद लीं। लेकिन चाहने पर भी वह अपने शरीर को ढीला नहीं छोड़ सका। वह इतना थक गया था कि वह नामुमकिन था। सारा बदन अकड़ा हुआ था जैसे अभी तड़तड़ा कर टूट जाएगा। कनपटियों के बगल में दो मोटी-मोटी नसें धड़कती हुई अंदर दिमाग की तहों को फाड़ती हुई-सी प्रवेश कर रही थीं। उसने लक्ष्य किया कि नीचे लटकता हुआ उसका एक पैर एक खास लय में थरथरा रहा था। उसने पैर ठीक कर लिया। लेकिन कुछ सेकेंडों बाद ही कँपकँपी फिर शुरू हो गई। उसने पाँव ऊपर कर लिया। उसकी नजर बीच के दरवाजे की ओर चली गई। उस ओर सोने के कमरे में अँधेरा था दरवाजे की संधि से रोशनी की लकीर नहीं दिख रही थी। वह सो गई है। वह कल सुबह निश्चिंत भाव से सफाई माँगेगी, आराम के साथ, उसने पत्नी के बारे में सोचा। यह सोचकर, कि चलो इस वक्त तो खतरा टला, उसे थोड़ा आराम महसूस हुआ। लेकिन दूसरे ही क्षण उस बात के आकस्मिक रूप से खुल जाने का भय उस पर छा गया। कल के बाद अगला कल... फिर एक दिन और फिर एक दिन... और फिर एक दिन... और वह अंतिम दिन...।

उठ कर दुबारा सोने के कमरे में जाने का खयाल आते ही फिर जैसे उन्हीं ताँत की जालियों में वह जकड़ गया। क्या वह पत्नी को सब कुछ बता दे? यही उसने चाहा था। बहुत शुरू में... बल्कि शादी के पहले ही उसने इस बात का निर्णय ले लिया था। उन दिनों वह एक आदर्शवादी की तरह सोचता था जिसके मन में पाप की गहरी अनुभूति होती है। अब उस बात को याद करना भी, कि वह 'कनफेशन' में विश्वास रखता था, कितना हास्यास्पद लगता है। लेकिन जब उन दिनों, इसी किस्म के उत्साह में उसने पहली रात को प्रयत्न किया था। इसमें वह सफल नहीं हो सका था। इधर-उधर की बातों द्वारा अपनी मूल बात पर आने की भूमिका उसने कई बार तैयार की थी। बल्कि बार-बार वह यहीं करता रहा। और हर बार पत्नी उसकी भूमिका को चीर कर एक नए अनागत खौफ में उसे जकड़ देती। फिर जकड़ देती... फिर छोड़ती और फिर जकड़ देती। सारी रात यही चलता रहता। सुबह, जैसे सभी कुछ अपने-आप तय हो गया था। इस तरह सोच कर उसने इस बात को भविष्य पर छोड़ दिया था। ...विवाह से पहले उनका प्रेम संबंध बहुत लंबे दिनों का नहीं था। उसे हमेशा लगता था कि अगर कहीं उसने लड़की को सोचने-विचारने के लिए ज्यादा वक्त दिया तो यह संबंध टूट जाएगा। शुरू के परिचय के दिनों में लड़की उसे छुई-मुई और मूर्खा-सी लगती थी। वह मिलने पर हमेशा उसे मुग्ध भाव से तका करती या ऊटपटाँग बातें किया करतीं। उसने सोचा था कि विवाह के बाद भी वह ऐसी ही रहेगी और तब सब कुछ कह सकना बहुत आसान होगा। हालाँकि उन शुरू के थोड़े से दिनों के बाद ही, यह स्वीकार कर लेने पर कि वे दोनों एक दूसरे को चाहते हैं, लड़की ने अचानक ही यह सवाल उसके सामने रख दिया था, 'आपने क्या इसके पहले भी कभी...?' उसने वाक्य अधूरा छोड़कर अपनी शंका और संकोच, दोनों व्यक्त कर दिए।

वह अचकचा कर उसे देखता रह गया था। नहीं, उस वक्त उसे भड़काना ठीक नहीं होगा। फिर भी उसने झूठ बोलने की कोशिश नहीं की। गोल-मोल-सा जवाब दे दिया, 'तुम इस तरह के बेकार सवाल क्यों पूछती हो? सच यह है कि मैं तुम्हें ...।' उसने पहले वाक्य पर गुस्सा होने का अभिनय किया और दूसरे वाक्य पर भावुक होने का।

लड़की पर इस अभिनय का अनुकूल असर हुआ। उसने अपने सवाल के लिए माफी माँग ली। बाद में कई दिनों तक मिलने पर वह बार-बार अपना एक वाक्य बातों के सिलसिले में अवसर निकाल कर जरूर दुहरा देती, 'क्या आप सचमुच नाराज हैं? क्या माफी नहीं मिल सकती।' सच यह था कि वह जानती थी कि न तो वह नाराज है, न ही अब तक उसने माफ नहीं किया। सिर्फ ऐसा कहकर वह बार-बार खुद को यकीन दिलाती कि वह मात्र उसी को चाहता है।

लेकिन वह सवाल रख कर उसी दिन से, उसने ये ताँत की जालियाँ उसके इर्द-गिर्द बिछानी शुरू कर दी थी। एक हल्का-सा संकोच और छिपाव तभी उसके मन में आ गया थ। उस दिन यह पूछ कर लड़की ने दूर-दूर दो-चार पतले तार बिछा दिए थे। उस पहली रात, उसने निश्चय किया था कि वह उन्हें काट कर फेंक देगा। लेकिन उसकी हर कोशिश भोंथरी साबित होती और लगता कि कटने की जगह दो-चार और तार बिछ गए हैं। एक बार उसने कहना शुरू किया, 'स्त्री, पुरुष की सबसे बड़ी कमजोरी होती है। इतिहास में इसके कितने उदाहरण हैं...।'

'तुम तो उन इतिहास-पुरुषों में से नहीं हो?' पत्नी बीच ही में तोड़ देती।

'मैं तो ऐसे ही कह रहा था।'

'ऐसे ही कह रहे थे। हम से ऐसी बातें मत किया करो। हमें नहीं सुननी हैं ऐसी बातें। हम वैसे नहीं हैं। क्या हैं?' अंतिम वाक्य पर वह घूरने लगती।

वह कोई और बात छेड़ देता।

'मैं यह नहीं सह सकती।'

'छोड़ो भी।'

घंटे भर बाद वह फिर उठ बैठती और पूछने लगती, 'मैं यह सोच भी नहीं सकती। हाउ इट हैपेन्स? हाउ दे टालरेट, आई डू नाट नो। ...बताओ?'

उसने महसूस किया कि अब उन हल्के-हल्के तारों की एक जाली-सी बुन गई है और उसे धीरे-धीरे कस रही है।

उसके बाद यह भी सोचता रहा कि इस तरह का निर्णय उसने बेकार ही लिया था। उसे कहीं, अपने अंदर ही 'उसको' भर जाने देना चाहिए था। उसमें भी क्या, सिवा एक ठंडे और भयावने अपमान के। यदि वह साहस करके उसे प्रकट भी कर देता तो या तो उसे लिजलिजी-सी दया मिलती या हिकारत भरा उपहास। वह इन दोनों परिणामों के लिए तैयार नहीं था। ठीक है, अगर 'वह' अंदर-ही-अंदर मर जाय। वह, उस रात, यह सोच कर थोड़ी देर के लिए कुछ हल्का हो लिया था। लेकिन वह डरता भी था। यदि वह सचमुच मर गया तो उसकी सड़न और बदबू को वह कतई छिपा नहीं सकेगा। सारा कमरा दुर्गंध से भर जाएगा। चूमते वक्त उसकी साँसों में दुर्गंध निकलेगी। उसके बदन पर पीले-मटमैले दाग उभर आएँगे। जीभ पर फफोले आ जाएँगे या जहाँ-तहाँ मुँह बंद फोड़े निकलते दीख पड़ेंगे। उसको वह मरने देना चाहकर भी कहीं अंदर से जीवित रखने की उत्कृष्ट लालसा से पीड़ित था। कहीं-न-कहीं उन दोनों में आपस में एक गहरी अनजान-सी कोमल पहचान थी... उस अपमान की तह में छिपी हुई, जिसे दोनों एक दूसरे के लिए सँजोए हुए थे। यह एक दूसरी तरह का कसाव था। जिसे वह निकलना नहीं चाहता था। जो भी हो, वह उसे कहीं छोड़ आया था। तब वह बहुत छोटा-सा था। कोमल और बिलकुल भोला। यह सोचता था कि वह रास्ता भूल गया होगा और लौट कर फिर नहीं आएगा।

लेकिन एक दिन 'वह' लौट आया। वह दफ्तर से लौट रहा था कि अचानक ही वह रास्ते में खड़ा दिखाई दे गया। छोटा-सा, झबरे-झबरे बाल, छोटी-छोटी मिचमिची आँखें, जिनमें कहीं गहरी पहचान और उलाहने का भाव था। क्षण भर को वह रुक गया और उसे देखता रहा। फिर वह तेजी से मुड़ा और भीड़ में शामिल हो गया। नहीं वह 'उसे' बुला नहीं सकता था। वह 'उसे' पुचकार नहीं सकता था। वह उसके संग अपना थोड़ा-सा भी वक्त अकेले में गुजारने लायक नहीं रह गया था। सड़क के उस ओर बहुत बड़ा मैदान था... या कि रेगिस्तान। लोग कहते थे, धीरे-धीरे वह रेगिस्तान शहर के अंदर तक बढ़ता हुआ चला आ रहा है। अँधेरे में सफेद, किरकिरी रेत उड़ कर घरों, सड़कों, मकानों, चौरास्तों और आदमियों पर बिछ जाती है और सुबह वह हिस्सा बंजर के भीतर चला जाता है। उसने सोचा, वह उसी मरुभूमि में लोट गया होगा, जहाँ वह उसे छोड़ आया था। भीड़ के साथ-साथ आगे बढ़ते हुए भी वह बार-बार पीछे मुड़ कर उस ओर देखता रहा। उसे लुप्त होता हुआ देखता रहा। इसी मनःस्थिति में वह घर लौटा और चुपचाप जाकर अपने कमरे में लेट गया। वह क्यों आया था? अचानक ही, उस भीड़ भरी सड़क पर पहचान जताता हुआ, वह क्यों खड़ा था, इतने दिनों बाद शायद लोग, उसे इस तरह उजबक की तरह खड़े होकर उसकी ओर देखते हुए लक्ष्य कर रहे थे। क्या उनमें कोई परिचित भी था? उसे कुछ भी याद नहीं आया। वह इतना अधिक अभिभूत हो गया था... उसके इस तरह अप्रत्याशित रूप से प्रकट हो जाने पर... इतना अधिक डर गया था कि उसने और कुछ भी नहीं देखा। तभी उसे अहसास हुआ कि वह भीड़ में है और सड़क के नियम के खिलाफ पीछे मुड़कर दूसरी ओर देख रहा है।

दूसरे-तीसरे दिन भी उस खास जगह पर एक बार नजर दौड़ाना वह नहीं भूला। लेकिन वहाँ कुछ भी नहीं था। उस ओर बहुत दूर क्षितिज में रेत का उड़ता हुआ सफेद बवंडर दिखाई दे जाता था और सीमाहीन, मटियाला जलता आसमान। धीरे-धीरे उसे लगने लगा कि वह इंतजार-सा करने लगा है। वह उसकी आहट-सी ले रहा है। अचानक ही उसकी समझ में सब कुछ आ गया। पत्नी उसके जिस अभिनय की चर्चा किया करती थी वह सच साबित होने लगा था। सहवास के हर क्षण में उसे लगता कि वह ठीक कह रही है। वह सचमुच ही अभिनय कर रहा है। बगल में लेटते ही 'उसका' असहाय घेर लेता। पत्नी की उपस्थिति मात्रा, तुरंत 'उसका' मान करा देती। वह सोचने लगता, सोचने लगता, सोचने लगता। फिर सिर झटक कर इस खयाल को निकालना चाहता। अपने चेहरे, हाव-भाव, अपने व्यवहार, अपने लेटने, उठने-बैठने, बोलने या चुप रहने को वह पहले की-सी स्वाभाविकता प्रदान करने की कोशिश करता लेकिन इस प्रयत्न में वह अभिनय तुरंत दुगुने रूप में गहरा हो उठता। उसे लगता कि वह पहचान लिया गया है। वह हठ करता कि ऐसा नहीं है, लेकिन वह खुद से मात खा जाता। फिर उसे लगता कि वह लगातार 'उसी' के बारे में सोच रहा है। पहले सचमुच ही ऐसा नहीं था। पत्नी ने 'उसे' फिर से जीवित कर दिया था। या वह उसके वीरानेपन से सहसा ही 'उसे' वापस खींच लाई थी। सिर्फ उसके संसर्ग में जाने भर की देर होती कि वह 'उसमें' लीन हो जाता। पत्नी का व्यंग्य एक सच्चाई में परिणत होने लगा था। उसे यह तक महसूस होने लगा कि वह पत्नी के सहवास में सिर्फ 'उसी से' मिलने के लिए जाता है, सिर्फ 'उसे' पुर्नीजवित करने के लिए, सिर्फ 'उसे' ही बार-बार पाने के लिए... हवा की दीवार के उस पार...। लेकिन उसकी समझ में यह नहीं आता कि पत्नी को कैसे समझाए। कि 'उसे' इस तरह बार-बार लौटाने में उसी का हाथ है कि वह असल में क्या कर रही है। कि वह किस तरह स्वयं ही अपने हाथों से उसे खो रही है, दूसरी शक्ल में गढ़ रही है। कि वह स्वयं ही उसे उठा कर दूर फेंक रही है। ...दिनों के बीतने के साथ ही उसका शक और भी बढ़ता जा रहा था। वह उसे तरह-तरह से छेड़ती, 'टीज' करती और खोद-खोद कर प्राचीनतम, टूटी-फूटी, धड़वाली, बदरूप मूर्तियाँ और छिपे शिलालेख बाहर निकालना चाहती। कुछ न मिला तो वह मिट्टी ही उठा लेती या टूटी ईंटें या कोई घिसा हुआ पत्थर। और उसी को पढ़ने का प्रयास करती। या अपने ढंग से उसकी व्याख्या करती और कहानियाँ गढ़ती या अपने निर्णयों से उसे लगातार टुकड़े-टुकड़े करती चलती। '...अगर मैंने जान लिया कि ऐसा कुछ भी तुमने किया था तो मैं तुम्हें दिखा दूँगी। तुम कल्पना भी नहीं कर सकते... हाँ। कि मैं क्या कर सकती हूँ। कि मैं क्या कर सकती हूँ। मैं एक क्षण में तुम्हारी यह सारी 'पवित्रता-पवित्रता की रट' को तोड़ दूँगी। मैं किसी बहुत फूहड़ नाकारा आदमी के साथ...। तुम जल कर राख हो जाओगे। मैं तुम्हारी मूर्ति... वह अंदर की मूर्ति पटक कर चूर-चूर कर दूँगी। देखूँगी, तुम कैसे जिंदा रहते हो, उसके बाद। ...कुछ नहीं, मैं समझ गई, तुम्हें क्या पसंद है...। भारी-भारी नितंब ...हुँह। कितने गंदे होते हो तुम लोग। हमेशा पीछे से ही पसंद करते हो। हाँ, चेहरा तो ठीक-ठाक है लेकिन पीछे से एकदम बेकार है। क्या पीछे से खाओगे। हाँ तुम लोग खाते ही हो। तो क्यों नहीं ढूँढ़ ली कोई विकट नितंबा? क्यों नहीं ढूँढ़ ली कोई लंबे चेहरे वाली। क्यों गोल चेहरे पर मरने आए। कौन थी, जरा मैं भी तो जानूँ।' वह बाँहों में कस लेती, जरूर थी। वह छोड़ देती और करवट बदल कर लेट जाती। '...पता चलने दो। तुम नहीं बताओगे तो क्या पता नहीं चलेगा। मैं इतनी कच्ची नहीं हूँ। मैं तुम्हारा चेहरा सूँघ कर बता दूँगी। वक्त आने दो।' वह उसे चूमने का प्रयत्न करता। उसके बाद उसके बोलने का लहजा बदल जाता, 'क्या तुम्हें कभी इतना सुख मिला है? क्या तुम इस तरह किसी और के साथ... ठीक इस तरह...? छिः। ...हाँ-हाँ, मेरे तो छोटे-छोटे हैं...। उसके कितने बड़े थे। बीच में जगह थी या दोनों मिल गए थे। इसीलिए तुम यहाँ नहीं चूमते। दोनों हाथों में क्या एक ही आता था...? इसीलिए रेस्त्राँ में उस औरत को देख रहे थे। सारी छाती ढकी थी...। तुम क्या समझते हो बच्चू, तुम्हारी हर नजर मैं ताड़ लेती हूँ। क्यों, उसे देख कर किसी और की याद आ गई क्या? हाय, हाय कितना दुख है बेचारे को...च्च...च्च...च्च...।'

वह एकदम व्यर्थ और सर्द पड़ जाता। उसकी कोई इच्छा नहीं होती। चुपचाप बगल में लेट जाता और छत की ओर ताकने लगता। लेकिन किधर से भी निजात मिलनी कठिन थी। शुरू में जब उसने प्रतिवाद करने की कोशिश की वह कहती कि जरूर उसके मन में चोर है, तभी तो वह चिढ़ता है, सच, सब को बुरा लगता है...। लेकिन इस तरह चुप रहने का भी वह अर्थ निकाल लेती। '...अब क्यों होने लगा मन। यह मेरा अपमान है। मुझे इस तरह करके एकाएक हट जाना...। नहीं तो इस तरह एकाएक चुप हो जाने का मतलब...? कहीं बहुत गहरे चोट लगी है...। तो उसका बदला तुम मुझसे क्यों निकाल रहे हो? मेरे साथ 'करते' हो और मन में किसी और को बिठाए रखते हो। ...लेकिन ...ठीक है ...मैं तुम्हारी असलियत तुम्हारे सामने खोल के रख दूँगी...। तुम फिर घिघियाओगे... देखना...।'

'तुम्हारे पास इन बातों के लिए क्या सबूत है?'

'सबूत है। मेरा मन... मेरा दिल। मैं तुम्हारी छुवन पहचानती हूँ। तुम मेरे साथ नाटक करते हो। एक खूबसूरत नाटक। लेकिन मैं नाटक नहीं होने दूँगी। तुम्हारा यह अभिनय... तुम्हारा यह ग्रीन-रूम... मैं खोज निकालूँगी...।'

'तुम हीन-ग्रंथि की शिकार हो। तुम्हें अपने पर विश्वास नहीं है। काश! कि तुम्हें विश्वास दिलाया जा सकता।'

'बस करिए...। मैं इन चिकनी-चुपड़ी बातों से तुम्हारे चंगुल में नहीं आने की। तुम मुझे बहुत ठग चुके। मैं अब और अधिक धोखा नहीं खा सकती।'

'तो मुझे छोड़ दो।'

'छोड़ दूँगी। जरूर छोड़ दूँगी। तुम क्या समझते हो, मैं इतनी बेहया हूँ। तुम्हारे बिना मेरा काम नहीं चलेगा। मैं चली जाऊँगी...। पहले देख तो लूँ... देखूँ तो।'

'जब तुम कहती हो तो मान ही लो कि ऐसा है।'

इस पर वह क्षण भर को उसके चेहरे को उलट कर देखती। फिर कहती, 'मैं तुम्हारे इस झूठ में नहीं आ सकती। समझे। मैं सच जान के रहूँगी। तुम मुझे चार सौ बीसी पढ़ाना चाहते हो। इसी तरह छुटकारा पाना चाहते हो... हाँ-हाँ क्यों नहीं! कहीं इंतजार जो हो रहा होगा। लेकिन मैं तुम्हें इस तरह छोड़ कर नहीं चली जाने की...।'

'तुम्हारा वह सच क्या है?'

'मुझे नहीं मालूम...। मुझे कैसे मालूम हो सकता है। मैं क्या कर सकती हूँ।' वह बाँहों में सिर गड़ा लेती और सिसकने लगती।

थोड़ी देर बाद वह शुरू कर देता। वह इस तरह मान जाती जैसे कुछ भी न हुआ हो। लेकिन वह हर क्षण दहशत से भरा हुआ रहता। न जाने कब... अगले किस क्षण वह टोक दे। उसकी उँगलियाँ काँपने लगतीं। वह संवादों की कल्पना करने लगता...। जैसे वह अभी पूछेगी, 'उसकी जाँघें कैसी थी। एकदम चिकनी। तभी तो...।' वह अपनी थरथराती हुई उँगलियाँ रोक लेता। लगता, उसकी जाँघों से हजारों सुनहले तीर अँखुवा रहे हैं...। लेकिन वह यंत्रवत् लगा रहता और खत्म करने के बाद नए सिरे से आहत होने की प्रतीक्षा करता।

उस दिन भीड़ में दिख जाने के बाद, एक बार तो उसने सोचा था कि 'वह' इत्तफाकन चला आया था और लौट गया होगा। लेकिन धीरे-धीरे उसका यह भ्रम दूर होने लगा। वह बहुत सजग हो गया। वह नहीं चाहता था कि उसके आने की आहट भी किसी को लगे। पत्नी के लाख छेड़ने पर वह केवल नकार जाता या चुप रहने लगा। वैसे उसके बाद कुछ दिनों तक वह नहीं दीख पड़ा। पत्नी उसे उसी तरह उलटती-पुलटती रहती और उसके हर व्यवहार में झाँकने की कोशिश करती। वहाँ कुछ नहीं मिलता। वह अंदर-ही-अदर 'उसकी' आहट लेता बैठा रहता। उसे, अब विश्वास हो गया था कि 'वह' कहीं भी मिल सकता है। 'वह' हमेशा के लिए लौट आया है और यहीं कहीं आस-पास ही छिपा हुआ है। या शहर के बाहर, नदी के किनारे या पुलों पर या खंडहरों में घूमा करता है। उसे हर क्षण का पता है कि 'वह' उसे कहाँ पकड़ लेगा। वह अजीब ढंग से चौकन्ना रहने लगा। शाम होने के पहले ही वह घर लौट आता। रास्ता चलते हुए वह सीधे आगे की तरफ देखता। कभी-कभी पीछे आहट-सी लगती - झिप्-झिप्... झप्...झप्...धप्-धप्... बालों के हिलने या उसके छोटे-छोटे गद्दीदार पाँवों की थपथपाहट। वह पीछे मुड़ कर देखता। कहीं कुछ नहीं होता। सड़क के किनारे के नल से पानी की एक-एक बूँद टप-टप लगातार टपकती होती या दूसरी पटरी पर कोई खोजहा कुत्ता अपने पिछले पावों से नुची हुई, बदरंग गर्दन खुजलाता होता। ...लेकिन एक दिन सुबह, अभी वह सोया ही हुआ था कि पत्नी ने आ कर जगाया। बाहर कमरे की दीवारों पर अजीब-से बदशक्ल हाथों की छाप थी। ...कीचड़ की छाप। किवाड़ों और बरामदों के फर्श पर भी। उसने पत्नी से कह दिया कि कोई कुत्ता या जंगली जानवर आया होगा। पत्नी को विश्वास नहीं हुआ। वह काफी हद तक डर गई थी। उसका कहना था कि ये निशान किसी जानवर के हाथ-पैरों के नहीं हैं। वह तुरंत समझ गया था। ...तो वह वहाँ तक भी आया था...।

उसने दफ्तर से लंबी छुट्टी ले ली और चुपचाप घर में पड़ा रहने लगा। 'क्या तुम बीमार हो? तुम इतने चुप क्यों रहते हो? क्या ऑफिस में कोई बात हो गई है?' पत्नी के ऐसा पूछने पर उसने कह दिया कि उसकी छुट्टियाँ बाकी हैं। नहीं लेगा तो बेकार चली जाएँगी। पिछले कुछ दिनों से वह काफी थकान महसूस कर रहा है। बाहर जाना उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। वह कहीं नहीं जाना चाहता। ...उसके इस तरह सजग और चुप हो जाने से पत्नी के मन पर एक दूसरे ही तरह का असर हुआ। उसने समझा वह हार गया है। वह सच कहता था। कहीं कुछ नहीं था। उसका शक बेकार था। ...धीरे-धीरे वह संतुष्ट नजर आने लगी। वह उसकी तरह-तरह से फिकर करने लगी। जैसे वह घर में कोई मेहमान हो। वह आ कर, उसके पास बैठ जाती और नए सिरे से स्नेहिल नजरों से उसे देखती रहती। उसे विश्वास हो रहा था कि उसका अभीप्सित उसे मिल रहा है। पति के रूप में जिस तरह के आदमी की कल्पना उसके दिमाग में थी, वह उसे बिल्कुल वैसा ही अब लगने लगा था। चुप, उसके एकदम पास निराश्रित-सा और उसका मुँह जोहता हुआ...। अपने अधिकार की इस वापसी से वह नए रूप में अपने को महसूस करने लगी और अप्रत्याशित रूप से नर्म पड़ गई। पत्नी के इस परिवर्तन से उसके भीतर का यह नया अपराध तेज छुरी की तरह घाव करने लगता। जब कुछ नहीं था तो वह किसी तरह तंग करती थी! अब? वह उसकी ओर देखता। वह उसे अत्यंत दयनीय और सीधी लगती। वह उसे फिर से प्यार करने को सोचता। लेकिन दूसरे ही क्षण यह भोंड़ा विचार उसे अत्यंत हास्यास्पद लगता और वह इंतजार करने लगता कि वह उठ कर चली जाय और उस लहू-प्यासे के साथ उसे अकेला ही छोड़ दे। वह उठ कर चली जाती तो वह अपने को परखने लगता। अपनी बाँहों को, टाँगों को, बिस्तर को, आरामकुर्सी को... अपनी आवाज को या अपनी चुप्पी को शीशे में अपने चेहरे को, आँखों को... होठों को... ललाट को। कुछ नहीं होता, केवल माथे पर तीन गहरी खरोंचे उगतीं और फिर बुझ जातीं। वह फिर बाहर देखने लगता...।

आधी रात से ज्यादा बीत गई थी, जब सहसा पत्नी ने उसे जगा कर बैठा दिया। वह लगातार खिड़की की ओर देखे जा रही थी। वह बेहद भयभीत थी।... 'वह देखो, वह... वहाँ। वह क्या था? खिड़की की सलाखें पकड़े बैठा था। झूम रहा था और अपना लंबूतरा-सा थूथन पर्दे के अंदर ढकेल रहा था। मुझे बदबू-सी लगी थी। पहले मैंने बिस्तर पर देखा। तुम्हें..., बच्चे को। फिर मेरी नजर खिड़की पर चली गई। मुझे देखते ही वह कूद गया...।' वह एक साँस में कह गई। वह समझ गया और चुपचाप बैठा रहा।

'तुम कुछ बोलते क्यों नहीं? यह कौन हमारे पीछे पड़ा है? तुम्हें मालूम है तो बताते क्यों नहीं? मैं इस तरह नहीं रह सकती। अभी उस दिन दीवारों पर नाखूनों की खरोंच दिखी थी...। यहाँ उसके लिए क्या है?'

उसने उठ कर बत्ती जला दी। खिड़की के पर्दे के बाहर कुछ भी नहीं था। केवल सामने केले का एक नया-नया फूटा हुआ पत्ता हवा के इशारे पर 'नहीं-नहीं' की मुद्रा में लगातार हिल रहा था और 'सट-सट' की हल्की आवाज आ रही थी। वह जान-बूझ कर हँस पड़ा, 'वह देखो, बेकार ही डरती हो।'

पत्नी मानने को तैयार नहीं हुई। वह अपनी आँखों को धोखा नहीं दे सकती थी। लेकिन वहाँ कोई सबूत नहीं था। खिड़की के पर्दे के बाहर केले के पत्ते की लंबूतरी-सी छाया डोलती दिखती। वह सोने की कोशिश करती। वह बैठा रहता। वह बड़बड़ाने लगती, जैसे डर से छूटने के लिए ऐसा कर रही हो...। 'तुम यह मकान छोड़ दो। मुझे शक होता है यहाँ कोई रहता है। मैं मकान मालकिन से पूछूँगी कल। लेकिन वह क्यों बताने लगी। अब मालूम हुआ, क्यों यहाँ लोग चार-छः महीने से ज्यादा नहीं टिकते, तुम्हारे न मानने से क्या होता है। यहाँ कोई छाया डोलती है। हाँ देखो जी, हँस कर मत उड़ाओ। तुम यह मकान छोड़ दो। दूसरा मकान 'सेफ' रहेगा? जगह बदलने से सारी बातें बदल जाती हैं। ...तुम आखिर क्यों नहीं मानते? ...मुझे दिन में भी कहीं निकलते डर लगता है। तुम्हारे कमरे की सफाई करने जाती हूँ तो अजीब-सा सन्नाटा लगता है। लगता है तहखाने वाली कुठरिया में कोई बंद है। उधर देखने का साहस नहीं होता। क्या तुम कभी उसे खोलते हो? ...तुम आरामकुर्सी बिलकुल कोने में क्यों रखते हो? जब भी जाओ खिड़कियाँ बंद मिलती हैं। खोल कर क्यों नहीं जाते? कितना गुम-सुम लगता है कमरा। बदबू आती रहती है...। उधर की गली भी तो कितनी गंदी है। कल कूड़े के ढेर पर दो-दो काले पिल्ले मरे पड़े थे। ...तुम शाम को जल्दी लौट आया करो जी। मुझे नींद नहीं आती। हर क्षण आहट-सी लगी रहती है। मैं यहाँ किसी से कह भी तो नहीं सकती...। मैं ...अब मुझे बहुत डर लगता है। तुम्हें कहीं कुछ हो गया तो? ...सच ...सुनो मैंने तुम्हें बहुत तकलीफ दी है न। जब कि कहीं कुछ नहीं था। नहीं था न? जानते हो मैं ऐसा क्यों करती थी? मैं तुम्हें बहुत। मुझे अभी भी... अभी भी मेरे मन से वो चीज निकल थोड़े ही गई है। यह मत समझना कि ऐसा कुछ भी करोगे तो मुझसे छिपा रहेगा। लेकिन अब मैं उस तरह नहीं कर सकती। क्या मुझमें कुछ है। ...तुमने मुझे... तुमने मेरा सब कुछ...। मैं जानती हूँ। अब मुझमें क्या आकर्षण होगा। एक ही चीज... हमेशा वही-वही...। लेकिन तुम लोग क्या सिर्फ नई-नई चीज के पीछे ही भागते-फिरते हो जी? ...स्त्री हमेशा अधिक नैतिक होती है। उसका अपना पुरुष उसे रोज ही नया लगता है। लेकिन तुम लोग। मैं जानती हूँ... अगर तुम अपने संस्कारों और संकोचों से विरत हो जाओ तो एक बार वह भंगिन भी तुम्हें मुझसे ज्यादा रुचेगी। लेकिन मैं...? मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकती कि तुम्हारी चीज मुझमें और उसके पहले किसी दूसरे में... या उसके बाद में भी...। तुम सोचते होगे, मैं कितनी गंदी हूँ। कितनी गलीज बातें मुँह से निकालती हूँ। मैं तुमसे बताती हूँ, हर औरत ऐसे ही सोचती है। ...अगर उसे मालूम हो जाय कि वह जूठन उठा रही है तो वह तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेगी। सचमुच कभी नहीं क्षमा करेगी। विवशता में क्या नहीं होता लेकिन मन से इसका अहसास नहीं जाता। ...नहीं हो जाता। कोई भी छिछड़ा क्यों पसंद करेगी। ...तुम कहोगे, इसके विपरीत बड़े-बड़े उदाहरण हैं...। तो तो वह केवल एक समझौता है। चाहे वह श्रद्धावश हो या स्वार्थवश...। ऐसी सारी औरतें आधुनिक बनने के नाम पर केवल अपने इस अहसास को छुपाती हैं... समझे। ...मैं यह सब ठंडे दिल से कह रही हूँ। मुझे क्रोध नहीं। ...समझे। ...मैं जूठन अपने अंदर नहीं ले सकती। ...लेकिन अगर ऐसा है या हुआ तो ...मैं ...तो मैं... पता नहीं... ओफ...। तुमने मुझे कितना छोटा और अपाहिज कर दिया है।' वह उलट कर पत्नी को देखता है, उसकी एक आँख बाँहों के नीचे दबी हुई है। उसमें से एक लंबा आँसू निकल कर अपनी लकीर छोड़ता हुआ गाल के नीचे कहीं कानों की ओर गुम हो गया है।

छुट्टियों के बाद दफ्तर का वह पहला दिन था। वह बड़ा खुश-खुश बाहर से लौटा था। बसन्त की शुरुआत थी। हवा में एक खुनकी और त्वचा पर उसके स्पर्श की पहचान। जब कि अचानक महसूस होता है कि उसी शहर में है। और आँखें एक परिचय की खोज में उठ जाती हैं, झरती हुई पत्तियों वाले पेड़ों की ओर या धुमैले आसमान और सूखना शुरू होती चिड़ियों की ओर...। यही पहचान ले कर वह घर लौटा था। सोने के कमरे में कोई नहीं था। पत्नी शायद रसोई में थी। वह बीच वाले दरवाजे से ही अपने कमरे में चला आया। भीतर घना अँधेरा था और हवा लथपथ-सी। ...यह एकांत सच में एकांत है। यहाँ कोई छाया नहीं है। थोड़ी देर अपने से मिला जा सकता है, उसने सोचा। उसने बत्ती नहीं जलाई। न ही कपड़े बदले, चुपचाप कुर्सी में धँस गया। फिर धीरे-धीरे अंधकार के भीतर कमरे का एक-एक चीज, चीजों के करीने उगने लगे। ...तभी, हाँ, तभी उसका भान हुआ। पहले उसे विश्वास नहीं हुआ। उसने आँखों के पपोटे दो-एक बार मसले और फिर पूरी आँखें खोल दीं। हाँ, 'वही' था, एकदम। लगता था, जैसे मेज पर अँधेरा घनीभूत रूप में बैठा है। और हिल रहा है। उसने उठ कर बत्ती जला दी। 'वह' मेज पर उँकड़ूँ बैठा हुआ ऊँघ-सा रहा था। रोशनी होते ही उसने अपनी आँखें खोलीं और उसे घूरता रहा। फिर वह उछल कर नीचे उतर आया और उसकी टाँगें सूँघने लगा। उसने देखा, 'वह' पिछले दिनों की अपेक्षा काफी बड़ा हो गया था। तभी उसने जम्भाई ली। उसका जबड़ा, जो इस तरह देखने में काफी छोटा लगता था, एकाएक खुलने पर भयावह दिखने लगा। इतना कि उसका सिर 'वह'आसानी से उसमें पकड़ कर चबा सकता था। अंदर लाल-लाल खुरदरी जीभ दिख रही थी और नीचे के जबड़े में दोनों ओर दो लंबे, तेज, नुकीले पीले दाँत विचित्र ढंग से चमक रहे थे। जैसे 'वह' मुस्कुरा रहा हो और उसकी वह मुस्कुराहट उसके दाँतों में समा गई हो। ...सबसे पहले उसने बीच का दरवाजा बंद किया खिड़कियाँ बंद की, रोशनदान की रस्सी ढीली कर दी। फिर वह जाकर कुर्सी में धँस गया। अब क्या हो? उसे ऐसी ही आशा थी। वह शायद रोज ही यही सोचता था। अक्सर वह कमरे में आते ही बत्ती जला देता और चारों ओर देख लेता। लेकिन आज वह भूल गया था। गाफिल पड़ गया था। यह मौसम का असर था। वह मौसम उन दिनों की याद दिलाता था जब उसके पास कुछ भी नहीं था। जब वह रिक्त था और खुला हुआ सपाट... और सचमुच अकेला। वह लगातार यही सोचता रहा था कि उस तरह 'छायाहीन' होना क्या था फिर संभव नहीं है? कहाँ संभव था! उसने देखा, 'वह' उसकी पीठ पर अपने दोनों अगले पाँव रखे गर्दन हिला रहा है। ...अचानक ही उसे जोर का गुस्सा आ गया। उसने 'उसे' पकड़ कर दोनों टाँगों के नीचे दबा लिया और घूँसों से पीटने लगा। इस तरह एकाएक ताबड़तोड़ पीटे जाने पर पहले तो 'वह' हतप्रभ रह गया। शायद 'उसे' विश्वास नहीं हो रहा था। शायद 'वह' समझता था कि वह 'उसे' आया हुआ देखकर खुश हो जाएगा और चुमकारेगा। वह इस प्रहार को सहने के लिए बिलकुल ही तैयार नहीं था। ...फिर उसने जोर की एक घुरघुराहट की आवाज निकाली और उछल कर उसकी पीठ पर चढ़ गया। उसने अपना जबड़ा खोला और उसकी गर्दन उसमें भर ली। लेकिन कुछ ही सेकेंडों में लिपट गया और जीभ से उसके पैर चाटने लगा।

वह भौंचक-सा 'उसे' देखता रह गया। वैसे ही कुर्सी में पड़ा हुआ... थका और निढाल-सा।

दिन बीतते जा रहे थे। वह इस इंतजार में था कि शायद 'वह' ऊब कर या हार कर खुद ही चला जाएगा। लेकिन वह कभी बाहर नहीं निकलता था। कमरा बंद होते ही वह और अधिक निश्चिंत हो जाता। अक्सर वह दिन भर आराम कुर्सी पर बैठा झूलता होता या वार्ड रोब में घुस कर बैठा रहता या रजाई तानकर खर्राटे भरता रहता। उसके लौटने पर हमेशा वह आँखें किचमिचाता हुआ स्वागत-सा करता मिलता। जब कभी उसने उसे बाहर खदेड़ने की कोशिश की, वह लड़ पड़ता और उसकी पीठ पर चढ़कर झूमने लगता या उसके दोनों हाथ अपने जबड़े में भर लेता और कटकटाने लगता। ...हार कर उसने उसे वहीं रहने दिया। ...यह सारा-का-सारा क्रम उसे एक दिवा-स्वप्न की तरह लगता। वह चाय पीता होता या दोस्तों के साथ बैठा होता या कहीं जरा भी अकेला पड़ता कि वह उसी दिवा-स्वप्न में खो जाता। उसे लगता कि 'वह' धूप में तपते चौराहों पर, दफ्तर के लंबे अँधेरे ठंडे गलियारों में, मसाले की दुकानों पर, सिनेमा हालों में, नदियों के किनारे, पिकनिक में, या चावखानों या विवाह-शादी के अवसरों पर, मेलों, बाजारों या सुनसान सड़कों या ठंडी दीवारों के आस-पास, हर जगह मौजूद है। वह बीच में से गिलास उठा लेता और 'सिप' करने लगता है। यह गलियारे में खड़ा-खड़ा आने-जाने वालों को घूरता है और उसे देखते ही पीछे लग जाता है। वह दफ्तर की मेज पर बैठ जाता है और ऊँघने लगता है। दफ्तर से वह 'उसे' ढोता हुआ अपने को घसीटता हुआ चला आ रहा है। कभी-कभी उसे लगता कि वह गहरी नींद में सोए हुए बच्चे की बगल में लेटा हुआ है या पत्नी की चारपाई के नीचे ऊँघ रहा है। वह कमरे में बैठा है और ऐसे दीख रहा है कि 'वह' काफी खिड़की के शीशों से, दरवाजे के काठ से, दीवारों की ईंट, चूने-गारे या सीमेंट से या छत की खपरैल से छनकर कमरे के अंदर चला आता है।

...सारे माहौल में एक सन्नाटा-सा बरसता होता। पत्नी एक छाया में बदल-सी गई थी। वह सिर्फ चलती या आँखें फाड़ के देखती या अजीब-से दयनीय ढंग से मुस्कुराती या बच्चे को उठा कर पेशाब कराने लगती... या नाक उठाकर हवा को सूँघती रहती। ...गनीमत यही थी कि अभी वह दुर्गंध नहीं दे रहा था।

लेकिन एक दिन यह भी हो गया... काफी दिनों बाद। शायद एक बरस या दो बरस... या कि पता नहीं... शायद जन्मांतरों के बाद... हाँ कुछ ऐसा ही लगता था। वह दो दिन तक कहीं नहीं गया। चुपचाप कमरे में पड़ा हुआ था। उसने पास जाकर देखा क्या वह बीमार है या वह इतना सभ्य हो गया है। नहीं ऐसा कुछ भी नहीं था। उसने पाया कि वह अजीब तरह से बदबू कर रहा है। ...शायद इस बदबू का पता उसे खुद भी हो गया था। अचानक वह बहुत डर गया। अब इसका पता लगना कठिन नहीं है। अब निश्चय ही यह रहस्योद्घाटन हो जाएगा...। एक दिन वह लौटा तो उसने पाया कि वह तहखाने में दरवाजे के पास बैठा है। उसने दरवाजा खोला तो वह तुरंत अंदर चला गया और बदबूदार हवा के भभके में विलीन हो गया। उसने दरवाजा बंद कर दिया और सिटकनी चढ़ा दी। फिर वह एकाध दिन तक इंतजार करता रहा। 'वह' बाहर नहीं आया। बल्कि ज्यों ही शाम को वह बाहर से लौटता, उसकी आहट पाते ही 'वह' तहखाने का दरवाजा खरोचने लगता था। वह दरवाजा खोल देता। वह सारे कमरे को अपनी बदबू से भर देता। फिर वह उसकी कमर पकड़ लेता या उछल कर पीठ पर चढ़ जाता और झूमने लगता। यदि वह जरा भी प्रतिरोध करता तो वह लड़ने पर उतारू हो आता और घुरघुराने लगता। ...फिर एक नियम बन गया। शाम को लौटते हुए वह अपने को इस लड़ाई के लिए तैयार करता आता। तहखाने का दरवाजा खोलते ही वह एक लंबी उछाल लेता और उसके ऊपर सवार हो जाता। एक दिन फिर उसने उसकी गर्दन अपने जबड़े में जकड़ ली। थोड़ी देर तो वह इंतजार करता रहा कि वह छोड़ देगा लेकिन दूसरे ही क्षण उसने उसके तेज दाँतों को गड़ते हुए महसूस किया। उसने एक जोर का झटका दिया तो वह दूर जाकर गिर पड़ा। लेकिन वह फिर उछला और गर्दन दबोचने की कोशिश करने लगा। यह असह्य था...। शायद वह कुछ और सोच रहा है, उसने गौर किया। फिर उसने पटक कर घूसों से मारते-मारते बेदम कर दिया और तहखाने में डालकर दरवाजा बंद कर दिया। उसके बाद उसने पाया कि वह खुद उसकी बदबू में सना हुआ है। ऐसी स्थिति में सोने के कमरे में जाना असंभव था। वह तख्त पर बैठ जाता और सुस्ताने लगता... या अपने को ब्रश करने लगता। ...दूसरे दिन बाजार से वह ताँबे का तार खरीद लाया और उसे पटक कर उसके जबड़े कसकर बाँध दिए। उसके बाद वह हमेशा बौखलाया हुआ और क्रोधांध दीख पड़ता। सिवा लड़ने के वह कुछ नहीं करता था। यह लड़ाई कभी-कभी घंटों चलती और जब वह थक जाता या हार जाता तो भाग कर तहखाने में घुस जाता...।

फिर दिन... हफ्ते... महीने... वर्ष...। अब उसकी आँखें और भी मिचमिची लगने लगी थीं। तहखाना खोलते ही दुर्गंध का एक भभका निकलता और कमरे की रग-रग में बिंध जाता। ऐसा लगता कि सिर्फ एक दुर्गंध ही रह गई है... खूँखार और रक्त-पिपासु दुर्गंध...। उसके काले चमकीले बाल झरने लगे थे और उसकी खाल जगह-जगह खुरच कर बदरंग पड़ गई थी। वह बिलकुल कंकाल हो गया था।

और थूथन पर कई छोटे-छोटे घाव उभर आए थे। लेकिन वह पहले से अधिक तीव्रता से आक्रमण करने लगा था और जल्दी परास्त नहीं होता था। कभी-कभी महसूस होता कि उसमें दुगुनी-चौगुनी शक्ति आ गई है और आज वह खत्म करके ही दम लेगा...।

ऐसे ही में उस दिन वह सोने के कमरे में चला गया था। उस खूँखार और रक्त-पिपासु दुर्गंध के साथ। और फिर वह लौट आया था। पत्नी ने दूसरे दिन सुबह कुछ उल्टे-सीधे सवाल भी किए थे। उसने हँस कर टाल दिया था। लेकिन शायद, उसका शक धीरे-धीरे वापस आ रहा था। वह चुपचाप लेटी रहती और घूरती रहती। या दूसरी ओर मुँह करके सिसकियाँ रोकने का प्रयत्न करती या बच्चे को पीट देती और स्तन छुड़ा लेती। उसे समझाना भी व्यर्थ लगता। वह करवट बदल लेता और धीरे-धीरे एक भूरी दीवार उसके सीने पर उगने लगती...।

('क्या बात है? तुम बार-बार घड़ी की ओर क्यों देख रहे हो? कोई नहीं आने का। क्या तुम डरते हो। घड़ी का मुँह दीवार की तरफ...। अब ठीक है? मुझे कोई डर नहीं है। आई फील सब्लाइम। क्या तुम जानते हो, उनके साथ मुझे कैसा लगता है... जैसे कोई रीछ मेरे ऊपर झूम रहा हो। अब कोई आने को होती है। तुम विश्वास नहीं करते। तुम्हारे साथ? तुम तो एक बच्चे की मानिंद लेट जाते हो। इतने साफ्ट... कोमल... केवल मैं जानती हूँ... माई चाइल्ड... मेरे शिशु...'), यह कौन बोलता है...? कौन? वह उधर कमरे की आहट लेता है।

'नींद नहीं आती?' पत्नी पूछती।

'जागना अच्छा लगता है।' वह कहता।

पत्नी मुस्कुराती है। उठती है और जाकर खिड़की के पर्दे खोल देती है। वह फिर स्पर्श करता है। आँखों में कुछ अलग-सी आँखें...। बाँहें... भरा हुआ गोश्त। आश्चर्यजनक। नितंबों की गोल-सुडौल रेखाएँ... भरा हुआ काँपता वक्ष। सहसा हाथ में पत्नी के नन्हें-नन्हें सूखे स्तन आ जाते हैं वह गड़ जाता है और हाथ हटा लेता है।

'क्या हुआ?' के भाव से पत्नी आँखों से ताड़ती है। चुप है। वह समझ जाता है और बचने के लिए उनकी घुंडियाँ जोर से मसल देता है। वह चीखती है, एक रस-भरी चीख। वह एक खोखली हँसी हँसकर करवट बदल लेता है। फिर घूमता है और दबोच लेता है।

('साँस बदबू करती है। ना, पायरिया नहीं है। पहले गोमती में दिन-दिन भर तैरा करते थे। हर वक्त जुकाम बना रहता है। पीला-पीला कफ निकलता है। बिलकुल मवाद की तरह। ...सिर्फ इसीलिए चलते हैं। हजरतगंज में कोई औरत देखी। पीछे-पीछे घूरते हुए दो-चार चक्कर लगाया। लौट कर दो-चार कपड़े लिए और स्टेशन भागे...। ग्यारह बजे उतरे और आते ही नोचना शुरू...। ...वह तस्वीर देखते हो? मेरे पिता की है। तुम मुझे बिलकुल उन्हीं की याद दिलाते हो...। यू आर माई फादर। ऐसे शांति नहीं मिलेगी... हाँ ऐसे... सो साफ्टली यू डू... अनइमेजिनेबिल...। माई फादर, ...अब तुम्हें नींद आ जाएगी...। ...तुम ...तुम्हें मैंने किडनैप कर लिया है...। मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगी अगर चले भी गए तो मैं पीछा करूँगी...। मैं लगी रहूँगी। यह तुम्हारी साँस... यह तुम्हारा चंदन की तरह महकता बदन... मैं इसमें छा जाऊँगी। क्या तुम समझते हो... इसे अनइमेजिनेबिल? ...देखना...।')

वह इधर-उधर देखने लगता...। लगता है सारा कमरा एक दुर्गंध में डूबा हुआ है...। यह पत्नी की आवाज है। नहीं, शायद...। तभी पत्नी कहती है, 'मुझे तो नींद नहीं आती। प्लीज, मुझे माफ करो... तुम बसाते हो। ...कल गर्म पानी से नहा लो। ये बिस्तर पर बाल किस चीज के हैं...? इतने मोटे और काले-काले...' वह दो उँगलियों के बीच एक बाल को उठाकर मसलती है...। 'ये तुम्हारे बाल हैं...।

वह बदबू... तुम्हारी साँस में, बदन में, काँख में... हथेलियों में... यह क्या है... अनइमेजिनेबिल...।'

वह उठता है और बाथरूम की ओर चला जाता है। उसका सारा मुँह एक कड़वे थूक से भर गया है। यही थूक वह सड़क पर भी थूकता रहता है। पीला-पीला थूक...। लेकिन थूकते रहने के बावजूद हर वक्त एक नमकीन स्वाद बना रहता है। क्या उसे पायरिया हो गया है? वह कभी-कभी सोचता है,उसके मसूड़े ऊबड़-खाबड़ हो गए हैं और काले पड़ गए हैं। उसके बीच वाली दंतपंक्ति में दाढ़ में दो नुकीला, लंबे दाँत उग आए हैं। और वे तालु में घाव कर रहे हैं। सुबह जब आईने में वह अपना चेहरा देखता है तो इस भ्रम को दूर कर नए विश्वास के साथ दिन शुरू करता है। लेकिन शाम होते-होते वही सिलसिला, कड़वा, नमकीन थूक उसके मुँह में इकट्ठा होने लगता है। बार-बार वह पूरे दिन को थूकता रहता है... सारे अतीत को थूकता रहता है... लेकिन वह चीज नहीं जाती। एक लुआबदार झाग-सी इकट्ठी होती रहती है अंदर-ही-अंदर... खून में मिली लिसलिसी-सी झाग...।

उस रात बाथरूम से लौटते हुए उसने निर्णय लिया था। अब बिल्कुल ही वक्त नहीं था। इस तरह सोचने-विचारने या एक अनाम मोह में फँसे रहकर वक्त जाया करने में कुछ भी हो सकता है। अब वह बहुत दुबला हो गया। उसकी छाती पर हड्डियों का एक जाल उभर आया था। आँखें गढ़ों में चली गई थी और नासूर की तरह जलता मवाद उगलती थीं। जब भी वह कमरे में आता, उसकी आहट पाते ही वह तहखाने के किवाड़ भयावने रूप से खरोचने और घुरघुराने लगता। वह उसकी छाती के अंदर फेफड़ों को लगातार खरोंच रहा है। अब उसकी आँखों से वह पहचान एकदम गायब हो गई थी। वहाँ जन्मांतरों पार से एक अजनबी क्रूरता झाँकती रहती। दरवाजा खुलते ही वह मल्ल-युद्ध शुरू कर देता।

इधर लगातार उसे लगता था कि उसके जबड़े को कसने वाले तार कुछ ढीले पड़ रहे हैं और उसका जबड़ा पहले से कुछ ज्यादा खुला रहने लगा है। उसने दुबारा तारों को कसना चाहा तो उसने पूरी शक्ति से इसका विरोध किया था और उसके हाथों को काट खाने लपका था। ...उसने तय किया, कल ही... अगले दिन ही...। अब और नहीं चलाया जा सकता।

उसका अनुमान ठीक था। वह तुला हुआ बैठा था। वह गुस्से में अंधा हो रहा था। पहली ही उछाल में वे गुत्थमगुत्था हो गए। वह भी तैयार था। ...वह उसके दाँव-पेंचों से वर्षों से परिचित हो चुका था। उसने पाया कि वह खूँखार कमजोर पड़ रहा है। वह बार-बार उछल कर उसकी गर्दन दबोचना चाहता। लेकिन अंततः 'उसे' पछाड़ दिया। और नीचे ले जा कर लगातार उसकी अँतड़ियों को घूँसों की मार से कूटने लगा। उसके जबड़े पर उगे हुए नासूर बहने लगे और कमरे की हवा में जैसे एक मादक जहर घुल गया। गुस्से में आ कर उसने और भी जोर-जोर से घूँसे लगाने शुरू किए।

थोड़ी देर बाद उसने महसूस किया कि 'उसकी' ओर से कोई प्रतिरोध नहीं हो रहा है। तो शायद वह...। तभी उसने लक्ष्य किया, 'वह' चुपचाप नीचे पड़ा हुआ उन्हीं खूनी निगाहों से उसे तक रहा था। जैसे 'उसे' कहीं भी चोट न आई। वह सर्वथा निर्विकार-सा, तटस्थ, चुप और शांत पड़ा था।

सहसा ही वह पस्त पड़ गया और जाकर तख्त पर ढह गया। उसके हटते ही वह उठा। एक बार उसने बड़े जोर की जम्हाई ली और फिर उछलकर उसके ऊपर सवार हो गया। उसे लगा, वह धीरे-धीरे डूब-सा रहा है। बेहोश हो रहा है... तिरोहित हो रहा है। उसने देखा कि वह दीवारों पर अँधेरे में अपनी छाप लगा रहा है। खिड़की की सलाखें पकड़ झूम रहा है। गलियों, मकानों, चौराहों, सड़कों के मोड़ों और भरे बाजारों में ऊँघता हुआ टहल रहा है। उसने देखा कि वह उसकी पत्नी के बगल में लेटा है...। तभी उसके जबड़े को कसने वाला तार, शायद टूट गया। उसे लगा कि 'उसने' उसका सिर बीच से दो टुकड़े कर दिया है। फिर उसे लगा कि 'वह' अपना थूथन, फिर पंजे और फिर धड़ उसके फटे हुए सिर के बीच घुसेड़ रहा है...। एक भयानक चिघाड़ उसे जैसे बहुत दूर से आती सुनाई दी...।