रीमेक के मौसम में 'अपन जन' / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 29 नवम्बर 2012
गुलजार की पहली फिल्म 'मेरे अपने' १९७१ में प्रदर्शित हुई थी और 41 वर्ष पश्चात निर्माता सुनील बोहरा ने फिल्म के निर्माता रोमू सिप्पी से इसके अधिकार खरीदे हैं और अगले वर्ष वे इसका नया संस्करण बनाना चाहते हैं। ज्ञातव्य है कि रोमू के पिता एन. सिप्पी और ऋषिकेश मुखर्जी ने साझेदारी में काम किया था और इस संस्था की अनेक फिल्मों के अधिकार महंगे दामों में नए संस्करण के लिए बिके हैं और प्राप्त धन दोनों साझेदारों के उत्तराधिकारियों के बीच बंटता है। यहां मुद्दा यह है कि गुलजार की 'मेरे अपने' तपन सिन्हा की बंगाली 'अपन जन' पर आधारित थी और यह बताना कठिन है कि अधिकार खरीदे गए थे, परंतु स्वाभाविक न्याय की मांग है कि रीमेक के अधिकार से प्राप्त राशि का कुछ हिस्सा 'अपन जन' के निर्माता को भी मिलना चाहिए। ज्ञातव्य है कि इस फिल्म में एक मोहल्ले के दो गुंडों की भूमिकाएं विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा ने निभाई थीं तथा केंद्रीय पात्र मीना कुमारी ने निभाया था। दोनों गुंडे एक-दूसरे के शत्रु हैं और वृद्ध निस्सहाय मीना कुमारी से स्नेह करते हैं और यही ममतामयी स्त्री दोनों के बीच की शत्रुता समाप्त करती है।
उन दिनों यह चर्चा थी कि 'अपन जन' के मुकाबले गुलजार की 'मेरे अपने' कमजोर कृति थी। बहरहाल, नए संस्करण की सृजन टीम बनने वाली है और नया निर्देशक संभवत: दोनों फिल्में देखेगा। निर्माता इसे गुजरात की पृष्ठभूमि पर बनाना चाहता है। दरअसल आज भारत के तमाम शहर गुंडों से त्रस्त हैं, जिन्हें राजनीतिक प्रश्रय प्राप्त है। इसलिए हताश पुलिस मूकदर्शक बनने के लिए बाध्य है। उन्हें कुछ दिनों के लिए मुक्त कीजिए और फिर गुंडों का हाल देखिए। नेता प्रश्रय देते हैं, क्योंकि गुंडे उनकी सभाओं के लिए भीड़ का जुगाड़ करते हैं और चुनाव के समय भेड़-बकरियों की तरह वोटरों को लाते हैं।
बहरहाल, आज 'अपन जन' का महत्व पहले से अधिक हो गया है, क्योंकि जनजीवन को उन्होंने ठप कर दिया है और अब गुंडागर्दी या हुल्लड़बाजी नए विकराल रूप में सामने आ रही है। यहां तक कि बैंक भी अपने ऋण को वसूल करने के लिए इनकी सहायता लेते हैं और संभवत: वसूली के एवज में दिए गए मुआवजे को कोई अधिकृत रूप भी दिया गया है। पुलिस का स्वरूप भी बदला है, मसलन अभी पालघर में निलंबित अधिकारियों की बहाली के लिए बंद का आयोजन किया गया है। संविधान का अपमान विधिवत ढंग से किया जा रहा है।
भारतीय राजनीति हमेशा अवतारवादी अवधारणा के नेता के दिव्य प्रभाव से संचालित होती रही है और आज उसके अभाव में प्रांतीय क्षत्रप उभर रहे हैं। आज देश में अनेक नेताओं ने प्रांतीय भावनाओं को उन्माद में बदल दिया है और अपने प्रांत की भाषा तथा भूगोल की महानता के ओजस्वी भाषण दिए जाते हैं। यहां तक कि विदेश से भी केवल अपने प्रांत के लिए उद्योगों को निमंत्रित किया जाता है। ममता बनर्जी पर उनके दल के वरिष्ठ नेता का आरोप है कि दल के कार्यकर्ता गुंडों की तरह अवैध वसूली करते हैं। यहां जाति या प्रांत के प्रति वफादारी का हाल यह है कि एक प्रमुख दल के नेता ने अपने दल की नीति के खिलाफ केंद्र सरकार द्वारा एक उच्च नियुक्ति को जायज करार दिया है, क्योंकि संबंधित अधिकारी उनकी जाति और प्रांत का है।
बौने क्षत्रप अपनी प्रांतीय लोकप्रियता की नकली लहर के दम पर देश को अपने कद का बना देना चाहते हैं। उनका सोच है कि अगर उन्हें अखिल भारतीय लोकप्रियता नहीं प्राप्त है, तो भारत के एक विराट देश बने रहने को ही खतरे में डाल दो। सत्ता का मोह इतना विराट हो गया है कि मनुष्य अपनी आत्मा भी शैतान को बेच सकता है। याद आता है जर्मन लेखक गोयथे (प्राय: हिंदीभाषी उन्हें गेटे कहते हैं) का नाटक 'फाउस्ट' जिसका विश्वसनीय हिंदी अनुवाद विष्णु खरे ने किया है और प्रवीण प्रकाशन ने इसे प्रस्तुत किया है।
बहरहाल, आध्यात्मिक भारत के अनेक लोगों ने अपनी आत्मा बेच दी है और सत्ता की क्रूरता का तांडव अब कोई दूर की संभावना नहीं है। जैसे संगीत रचना के प्रारंभ में ध्वनियां होती हैं, वैसे ही अराजकता के आगमन पूर्व की मध्यम ध्वनियां वातावरण में गूंज रही हैं। आज भ्रष्टाचार दूसरे नंबर का मुद्दा रह गया है और देश की अखंडता पहला मुद्दा है। क्या हमारे आम लोगों के हृदय में अवतारवादी अवधारणा के तहत दशकों तक उभरने वाले करिश्माई नेतृत्व ने आज हमें यहां पहुंचा दिया कि अवतार के अभाव में हम टूटते जा रहे हैं? हर आम आदमी अपनी स्वतंत्र सोच से हीरो बनकर उभरे तो सदियों से पोषित कुछ अवधारणाओं का नाश हो। अरविंद की alt14आम आदमी' खेत में खड़ा हव्वा है, जिससे पक्षियों को डराकर फसल बचाते हैं। असली आम आदमी के प्रादुर्भाव की बेला है यह।