रुदाली / हेमन्त शेष

Gadya Kosh से
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वह पेशेवर ‘रुदाली’ थी- अपने फन में बेहद माहिर! उसका रुदन मर्मबेधी था, उसके रोने के अनगिनत पड़ाव और ढंग अद्वितीय थे, मरने वाले की काल्पनिक और मनगढ़ंत अच्छाइयों का बखान विश्वासजनक शैली में करती, आँखों से आंसुओं की धार तब तक बहती रहती जब तक मुर्दा फूंक कर घर वाले लौट न आएं! आसपास के अठारह-बीस गाँवों में जब भी किसी बड़े आदमी की मौत होती, स्यापा करने वालों में सबसे पहले उसे ही बुलाया जाता! पारिश्रमिक के बतौर उसे हर घर से नया घाघरा-लूगड़ी, बाजरे की बोरी और गुड़ की भेली मिलती, मर्द के लिए नया साफ़ा और नगद दान-दक्षिणा अलग से!

सब कुछ हस्बमामूल ढंग से चल रहा था कि एक सुबह जब वह चाय का गिलास ले कर खेत पर पति को जगाने गयी तो उसे मुर्दा देख कर एकदम काठ हो गयी. गाँव में जिस किसी सुना ताज्जुब और शोक में डूब गया, वह बहुत भला और प्यारा आदमी था. रात को उसने ठीक से खाया था, कोई बीमारी तो क्या, मामूली जुकाम तक उसे जिंदगी में कभी नहीं हुआ था!

उसके आदमी की देह आँगन में पड़ी थी घर, अड़ोसी-पड़ौसी, गाँव वाले, रिश्तेदार सब के सब धाड़ें मार कर रो रहे थे, पर उसकी ज़ुबान तो जैसे तालू से चिपक गयी थी, आँखों में आंसू का एक कतरा तक न था, पथराये जिस्म और भावहीन चेहरे के साथ वह ऐसे देख रही थी जैसे वह किसी और के घर की मौत हो! पता नहीं कैसी पत्थरदिल औरत थी कि अर्थी उठने पर भी उसकी आँख से आंसू का एक कतरा तक नहीं ढुलका! जिसने देखा बड़ा आश्चर्य किया...लोग शव का दाह-संस्कार करके लौट आये तब भी वह मूक थी... पर इस दिन के बाद उसने रुदाली का काम छोड़ दिया!

वह ‘महात्मा गांधी नरेगा’ में मजदूरी करने लगी है- जहाँ मिट्टी खोदने के उसे १३५/- रोज मिलते हैं, और अब, जब जी चाहे, वह अपनी हालत पर रो सकती है!