रुश्दी और भी हैं / आलोक रंजन
रुश्दी और भी हैं
हम भारतियों की आदत रही है की एक ही पल में अपनी संस्कृति की प्राचीनता, अखण्डता और प्रासंगिता का ढिंडोरा पीटना और दूसरे ही पल उसी संस्कृति के पतन और सम्भावित खतरों पर हाय –तौबा मचाना, द्वन्द्व तो इतना की एक ही पल हम अपनी महानता का यशोगान अपने ही मुख से मुक्त –कंठ करने लगते हैं और दूसरे ही पल उसी महान देश के वही देश –प्रेमी देश के पतन पर ओजपूर्ण व्याख्यान बाँचना अपना परम कर्तव्य समझने लगते हैं।
संस्कृति और इतिहास पर हमें गर्व होना ही चाहिए परन्तु बात –बात पर “सांस्कृतिक पतन –सांस्कृतिक पतन” का शोर करना ये कैसा विरोधाभास है ?
एक फुटकर अभिनेत्री जिनकी अभिनय क्षमता कुछ अश्लील चलचित्रों में प्रदर्शित हुई, उनके एक भारतीय टी .वी श्रृखंला में उपस्थिति को लेकर संस्कृति के पतन की परिकल्पना कर ली गयी और विरोध और नारेबाजी के हमारे जन्मसिद्ध अधिकार ने ‘बा –मुश्किल’ हमारी सभ्यता और संस्कृति को बचाया।
अगर एक महत्व-हीन अभिनेत्री जिसका नाम भी कई लोग हंगामे के बाद ही जान सके, वो हमारी ५००० वर्ष पुरानी तथा ऋषिओं द्वारा संचित और बलिदानों से पोषित सभ्यता और संस्कृति के पतन का कारण बन सकती है तो अच्छा होता की ऐसी कमजोर सभ्यता और संस्कृति मिट्टी में मिल जाती, फिर तो अकारण ही हमारे अगिनत सपूतों ने अपना वक्त बर्बाद किया, सब पर भारी तो वो कल की अभिनेत्री निकली, जिसके एक घंटे के टी.वी शो ने हमारी इतनी पुरानी सभ्यता को लग-भग चौपट कर दिया।
एक विदेशी जोड़े ने जयपुर में हिंदू-पारंपरिक विधि से शादी रचा डाली, अख़बारों और मीडिया ने फुटेज दे दी, बस शुरू हो गया ‘सांस्कृतिक-गायन’, किसी ने इसे भारतीय परंपरा की विजय तो किसी ने हिंदुत्व की विश्वविजय तक बता डाला, न उन जोड़ों को भारतीयता से मतलब था न हिंदुत्व से, उन्होंने अपना शौक पूरा करने के लिए यह स्वांग रचा था, कई लोगों ने हवाई –जहाज पर अपने ब्याह के शौक को पूरा किया, तब किसकी विजय हुई थी ? कल मैं रुश्दी साहब के संदर्भ में लिखने को सोच रहा था, थोड़ी थकावट और आलस्य के कारण कार्य को अगले दिन पर छोड़ दिया।सुबह दैनिक जागरण में एस शंकर जी का लेख दिखा, उन्होंने भी उसी शीर्षक का चुनाव किया जो मैंने सोच रखा था,-“सलमान रुश्दी के बहाने”, लेकिन प्रसन्नता हुई की कमसे कम किसी साहित्यकार ने उनकी यात्रा का विरोध कर रहे सांस्कृतिक संरक्षकों का प्रतिवाद तो किया, पर उन्होंने भी केवल एक कौम और उसकी तुष्टीकरण में तत्पर एक पार्टी को खरी –खोटी सुना लगभग सभी विवादित कलाकारों जैसे तस्लीमा, हुसैन, दीपा मेहता आदि को उसी तुष्टिकरण से जोड़ दिया।
पहली बात चाहे वो रुश्दी साहब रहे हों या तस्लीमा जी , ये नास्तिक ही रहे और ईश्वर को इन्होने कभी भी स्वीकार नहीं किया, उन्होंने आस्था के रास्ते चलना स्वीकार नहीं किया, अगर उनमे आस्था का आभाव है तो उनकी समस्या है, आप क्यों व्याकुल हो रहे हैं ?दोजख और नरक उन्हें मिलेगी आप क्यों पागल हो रहे हैं ?
दूसरी बात अगर उन्होंने किसी कौम के विरुद्ध कोई अभिव्यक्ति दी, तो कई विज्ञानी तो ईश्वर या खुदा को बकवास बताते चले आ रहे हैं, बुद्ध ने भी ईश्वर को नाकारा, तो सिर्फ रुश्दी साहब पर फतवा क्यों ?आधिकारिक रूप से चीन नास्तिक है, सारे मार्क्सवादी नास्तिक हैं, तो कीजिये चीन पर फतवा जारी, भेजिए पत्र केंद्र सरकार को की करोड़ों लोगों की भावना को ध्यान में रख चीन के दूतावास को बंद किया जाये, लेकिन इसकी हिम्मत आपमें नहीं है, सिर्फ एक लेखक को धमका कर अपनी पीठ थपथपाते जाएँ और संस्कृति को शिखंडी के स्थान पर आपोरित करते जाएँ।
तीसरी बात उन्होंने तो मात्र अभिव्यक्ति दी आप तो जान लेने पर उतारू हो गए, तर्क को तर्क से परास्त न कर आप कुश्तीबाजी पर उतारू हो गए ?इसी बौद्धिकता और दर्शन को आप संस्कृति का नाम दे रहे थे ?बेकार ही आपने इस रीढ़ –विहीन संस्कृति को ढोया। एक और बात शंकर जी के अनुसार रुश्दी साहब अब अप्रासंगिक हैं और अरब देशों में भी उन्हें कोई पढता नहीं, उनकी लोकप्रियता का कारण मात्र उनका विवादास्पद लेख रहा है, और एक कौम के तुष्टिकरण के लिए उनका विरोध किया गया।
मैं मानता हूँ एक सरकार का दायित्व था की उन्हें संरक्षण दे, खास –कर ‘अतिथि –देवो भव, ’ के सूत्र वाक्य वाले राज्य –सरकार का।लेकिन न रुश्दी जी, न तस्लीमा जी और न हुसैन साहब, सिर्फ विवादों ने तो उन्हें मुकाम नहीं दिया, अगर ऐसा होता तो तोगड़िया जी और वरुण जी को कला की दुनिया ने उस स्थान पर क्यों नहीं स्थापित किया ?
वस्तुतः कलाकार अपनी कला से आबद्ध और स्वभाव से विद्रोही होता है, तुलसी ने संस्कृत को छोड़ लोकभाषा का चुनाव किया, काशी जैसे धर्मस्थल ने उनका जीना मुहाल कर दिया, कबीर ने विद्रोह किया और उनसे अधिक किसने इस्लाम तथा हिंदुत्व का माखौल उड़ाया, क्या यह सब सस्ती –लोकप्रियता थी ?क्या कलाकार अब बनिये की तरह नाप –तौल शुरू कर दे ?कला और साहित्य इतनी सस्ती नहीं है न साहित्यकार भाट! ‘लालू –चालीसा’ लिखकर माननीय बनने की कला सबके बस की बात नहीं, आत्मा का सौदा हर किसी के बूते नहीं।
क्या खजुराहो के मूर्तियों से अधिक नग्नता और अश्लीलता हुसैन साहब की चित्रकला और दीपा जी के फिल्मों में आपको दिखाई देती है ?तब तो हिंदू संगठनो को सबसे पहले उसका विरोध करना चाहिए।जमींदोज कर दें उन्हें क्योकि आपकी संस्कृति के अनुकूल तो दिखाई नहीं पड़ती वो प्रतिमाएं।
बात तो इतनी ही है की न खजुराहो के शिल्पी अश्लील थे न हुसैन, उन्होंने मानव की आतंरिक नग्नता को बहिर्मुखी किया, महावीर नग्न हुए, कृष्ण ने गोपियों को वस्त्रविमुख किया, फिर उन्हें क्यों पूजते हैं ?महावीर और कृष्ण के विद्रोह ने उन्हें महान बनाया, नग्नता में सहजता थी।
दोषपूर्ण आपकी मानसिकता है, आप नग्न देखना चाहते हैं और जो आप देखना चाहते हैं वही देख पाते हैं, या आप अंधे हैं, हिंदू संगठनों के एक नेता ने कहा उसने हमारे खिलाफ लिखा, आप ने भी वही पढ़ा , किसी और ने कहा उसने हमारे विरूद्ध चित्र बनाया, आपको वही दिखा, लोकतन्त्र की कठपुतली, चाभी वाली, अश्लील और भद्दी।
कलाकार अगर सहज न हो तो सृजन आरोपित हो जाये।साहित्य समाज का आइना है-यह सिर्फ रटने की बात नहीं है, अगर साहित्य –शिल्पी सहज अभिव्यक्ति न करें तो साहित्य सरकारी गजट हो जाये जो आपको पुरस्कार तो दिला सकती है, सरकारी पुरस्कार इस शर्त पर धिक्कार से अधिक कुछ भी नहीं।कीमत का आकलन आप स्वयं करें ..........!