रूढ़ि और मौलिकता / अज्ञेय
The more perfect the artist, the more completely separate in him will be the man who suffers and the mind which creates.*
[* कलाकार जितना ही संपूर्ण होगा उतना ही उसके भीतर भोगनेवाले प्राणी और रचनेवाली मनीषा का पृथक्त्व स्पष्ट होगा]
-टी.एस.इलियट
‘भारतवादी रूढ़िवादी हैं’, यह कथन हम सबने कभी-न-कभी सुना है। प्राय: वह स्वीकार भी होता रहा है। एक दिन इस कथन में सराहना का भाव था-यह भारतीयों का गुण समझा जाता था कि वे रूढिय़ों को मानते हैं; आज, जब चारों और ‘प्रगति’ की इतनी चर्चा है तब रूढिय़ाँ हमारे जीवन-नाटक के खल-नायक के पद पर शोभित होने लगी हैं। साहित्य में भी, विशेषतया आलोचना के प्रसंग में, यह फैशन-सा हो गया है कि रूढ़ि का तिरस्कार किया जाए। जब यह तिरस्कार इतना स्पष्ट नहीं भी होता, तब भी हम किसी आधुनिक लेखक की समकालीनता अथवा कि ‘आधुनिकता’ का मूल्यांकन इसी कसौटी पर करते हैं कि वह किस हद तक रूढिय़ों को मानता अथवा तोड़ता है। उदाहरणतया हम प्राय: कहते हैं कि ‘हरिऔध’ रूढ़िवादी हैं, तथा पन्त और ‘निराला’ आधुनिक हैं यानी रूढिय़ों के प्रति विद्रोही हैं।
आलोचना के वर्तमान फैशन की ओर तनिक ध्यान दें तो हम देखेंगे, आजकल हिंदी में (हिंदी में ही क्यों, प्राय: सर्वत्र ही,) लेखक अथवा कवि की रचनाओं के ‘मौलिक’, ‘व्यक्तिगत’ विशेष गुणों पर जोर देने की परिपाटी-सी चल पड़ी है। आजकल का साहित्यकार अपनी ‘भिन्नता’ के लिए ही प्रशंसा पाता है, ‘मौलिकता’ ‘भिन्नता’ का ही पर्यायवाची बन गया है। कवि को हम उसके पूर्ववत्र्तियों से, विशेषकर निकट पूर्ववत्तियों से, उच्छिन्न करके देख सकें तभी हमें सन्तोष होता है। आलोचकों के आगे यह कहना अपने को हास्यास्पद बना देना होगा कि कभी-कभी साहित्यकार का गौरव, उसकी रचना का महत्त्व, इस बात से भी हो सकता है कि उसमें साहित्यकार के पूर्ववत्तियों की लम्बी परंपरा, उसके साहित्य की रूढ़ि, पुन: जी रही और मुखर ही रही है।
लेकिन हास्यास्पद बनने का खतरा उठाकर भी यही कहना आवश्यक जान पड़ता है कि रूढ़ि-परंपरा-के विषय में अपनी धारणाओं की दुबारा जाँच करना अनिवार्य हो गया है। क्या हमारी धारणा ठीक है? क्या ‘रूढ़ि’ की परिभाषा ‘पुराने साहित्य की अग्राह्य और खंडनीय परिपाटियाँ’ ही है? क्या परंपरा को निबाहना, गयी हुई पीढिय़ों की रीतियों और सफलताओं के अन्धानुकरण का ही नाम है? रूढ़ि क्या है? परंपरा का साहित्य में क्या स्थान है, और साहित्यकार के लिए क्या मोल?
रूढ़ि की रूढिग़्रस्त परिभाषा हमें छोडऩी होगी, हमें उदार दृष्टिकोण से उसका नया, और विशालतर अर्थ लेना होगा। हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि रूढ़ि अथवा परंपरा कोई बनी-बनायी चीज़ नहीं है जिसे साहित्यकार ज्यों-का-त्यों पा या छोड़ सकता है, मिट्टी के लोंदे की तरह अपना या फेंक सकता है। हमें यह किंचित् विस्मयकारी तथ्य स्वीकार करना होगा कि परंपरा स्वयं लेखक पर हावी नहीं होती, बल्कि लेखक चाहे तो परिश्रम से उसे प्राप्त कर सकता है, लेखक की साधना से ही रूढ़ि बनती और मिलती है। और हम यह भी सिद्ध करेंगे कि रूढ़ि की साधना साहित्यकार के लिए वांछनीय ही नहीं, साहित्यिक प्रौढ़ता प्राप्त करने के लिए अनिवार्य भी है।
रूढ़ि की साधना, परंपरा के प्रति जागरूकता, कैसे प्राप्त हो सकती है और किस प्रकार साहित्यकार के मानस को, उसके कार्य के मूल्य को, प्रभावित करती है? इस जागरूकता का मुख्य उपकरण है एक ऐतिहासिक चेतना-अर्थात जो कालानुक्रम में बीत गया है, अनीति है, उसके बीतेपन की ही नहीं, उसकी वर्तमानता की भी तीखी और चिर-जाग्रत अनुभूति। साहित्यकार के लिए आवश्यक है कि साहित्य में और जीवन में ‘आसीत्’ का और ‘अस्ति’ का, जो ‘अचिर’ हो गया है उसका और जो ‘चिर’ है उसका, और इन दोनों की परस्परता, अन्योन्याश्रयता का ज्ञान उसमें बना रहे। आधुनिक हिंदी लेखक में यदि यह ऐतिहासिक चेतना होगी, तो उसकी रचना में न केवल अपने युग, अपनी पीढ़ी से उसका सम्बन्ध बोल रहा होगा; बल्कि उससे पहले की अनगिनत पीढिय़ों की, और उनके साथ अपनी पीढ़ी की संलग्नता और एकसूत्रता की भी तीव्र अनुभूति स्पन्दित हो रही होगी। जो ‘है’, उसकी साधना में ऐसा साहित्यकार उसे एक ओर हटाकर नहीं फेंक सकेगा जो ‘था’; यह अनुभव करेगा कि ‘अतीत’ उसी का नाम है जो पहले से वर्तमान है, जबकि ‘आज’ वह है तो वर्तमान होना आरम्भ हुआ है। अतीत और वर्तमान के इस दुहरे अस्तित्व की, उनकी पृथक वर्तमानता और उनकी एकसूत्रता की, निरन्तर अनुभूति ही ऐतिहासिक चेतना है; और इस चेतना का अनवरत स्पन्दनशील विकास ही परंपरा का ज्ञान। काल की प्रवहमानता के ऐसे ज्ञान के बिना साहित्यकार उस प्रवाह में अपना स्थान भी नहीं जान सकता, आधुनिक क्या किसी भी युग में जम नहीं सकता। ऐसे ज्ञान से हीन साहित्यकार ऐसा अंकुर है जो कहीं से भी प्राण-रस खींचने का मार्ग नहीं स्थापित कर सका ‘काल के महाप्रांगण’ में कहीं भी अपनी जड़ें नहीं जमा सका, जो उच्छिन्न होकर ही फूटा है।
इस बात को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करने का यत्न किया जाए। इसके लिए हम आज का कोई भी कवि ले लें- ‘नूतन’ अथवा ‘विद्रोही’ माना जानेवाला कवि ही-मान लीजिए सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’। क्या इन्हें समझना, इनकी समीक्षा करना साहित्य के विकास में इनका स्थान और महत्त्व निश्चित करना, इनकी रचना का मूल्य आँकना, केवल उन्हीं को अकेले-अकेले देखकर सम्भव है? क्या उनकी तत्कथित विशेषता, भिन्नता, को देखने के लिए भी हम उन्हें उनके पूर्ववर्तियों के बीच नहीं रखेंगे, उनसे तुलना नहीं करेंगे? क्या उन पर, किसी भी कवि पर, कोई भी मत स्थिर करने से पहले हम उसके पूर्ववर्ती साहित्यकारों और कवियों के साथ उसके सम्बन्ध की जाँच-पड़ताल नहीं करेंगे?
इस प्रकार का अन्वेषण केवल ‘ऐतिहासिक’ विवेचन के लिए नहीं, कलात्मक विवेचन के लिए भी नितान्त आवश्यक है। कोई भी कलावस्तु, चाहे कितनी भी नई क्यों न हो, ऐसी वस्तु नहीं है जो अकस्मात् अपने आप ‘घटित’ हो गयी है; वह ऐसी वस्तु है, जो अपने-आप में नहीं, अपने पूर्ववर्ती तमाम कलावस्तुओं की परंपरा के साथ घटित हुई है। जितनी ही वह नई है, उतनी ही महत्त्वपूर्ण घटना कलावस्तुओं की परंपरा के साथ घटित हुई है; उतना ही परंपरा के साथ उस सम्बध का अन्वेषण करना प्रासंगिक हो गया है! क्योंकि ‘जो पहले से वर्तमान है’ उसकी तो एक बनी-बनायी परंपरा थी, उसमें एक प्रवहमान स्थिरता, एक सामंजस्य था जो कि एक नई वस्तु के आविर्भाव से डाँवाडोल हो गया है। पुन: किसी प्रकार का सामंजस्य स्थापित होने के लिए, एक नया तारतम्य प्राप्त करने के लिए, समूची परंपरा को पुन: जमाना होगा, फिर इसके लिए आवश्यक परिवर्तन चाहे कितना ही अल्प अथवा सूक्ष्म क्यों न हो।
परिणाम यह निकला कि प्रत्येक नई रचना के आते ही, पूर्ववर्ती परंपरा के साथ उसके सम्बन्ध, उनके परंपरा अनुपात और सापेक्ष्य मूल्य अथवा महत्त्व का फिर से अंकन हो जाता है; तथा ‘पुरातन’ और ‘नूतन’, ‘रूढ़’ और ‘मौलिक’, परंपरा और प्रतिभा में एक नया तारतम्य स्थापित हो जाता है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि हम वर्तमान को अतीत के मानदंड पर नाप रहे हैं, अथवा कि अतीत को ही वर्तमान द्वारा आँक रहे हैं। वास्तव में इस क्रिया द्वारा दोनों विभूतियाँ परस्पर एक दूसरे के योग पर, घटित होती हैं। आधुनिक साहित्यकार को मानना पड़ता है कि, वह चाहे या न चाहे, उसे अतीत द्वारा, रूढ़ि द्वारा उतना ही नियमित होना पड़ता है जितना वह स्वयं उसे परिवर्तित अथवा परिवर्धित करता है।
नि:सन्देह ऐसा ज्ञान आधुनिक साहित्यकार के उत्तरदायित्व को बहुत बढ़ा देता है। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि इससे साहित्य-रचना में कठिनाइयाँ भी उत्पन्न होती हैं। क्योंकि इससे लेखक में यह चेतना उत्पन्न होती है कि एक विशेष अर्थ में वह अतीत द्वारा जोखा जा रहा है, उसके आगे परीक्षार्थी है। लेकिन उसे समझना चाहिए कि वह अतीत द्वारा जोखा ही जाता है, कुंठित नहीं होता। अतीत का निर्णय खंडित करनेवाला, बाँधनेवाला नहीं है-आधुनिक लेखन की आलोचना पूर्ववत्र्तियों जैसा या पूर्ववत्तियों से अच्छा या बुरा कहकर नहीं की जा सकती। न ही आधुनिक साहित्य का मोल पूर्ववर्ती आलोचकों की कसौटियों पर आँका जा सकता है। अतीत द्वारा जोखे जाने का अर्थ अतीत मानदंडों द्वारा जोखा जाना नहीं है। अतीत के कृतित्व का अन्धानुकरण विघातक होगा। निरी गतानुगतिकता से कला की परंपरा की रक्षा कदापि नहीं होती; क्योंकि जो केवल आवृत्ति है वह नूतन नहीं है और नूतनता के चमत्कार के बना वह कला ही नहीं है। अतीत के द्वारा जोखे जाने का अभिप्राय इतना ही है कि नूतन रचना उसके साथ एक तारतम्य स्थापित कर सके, एकसूत्र हो सके, उसमें परंपरा की प्रवहमानता स्पन्दित हो। यदि ऐसा नहीं होता, और जब तक ऐसा नहीं होता-यदि नई रचना के साथ कला की रूढ़ि का कोई सम्बन्ध नहीं बनता, वह एक विलग, असम्बद्ध, खंडित इकाई के रूप में रहती है-तब और तब तक, वह कला के क्षेत्र में महत्त्व नहीं रखती, प्राणवान नहीं होती है। बिना एक गतियुक्त और वर्धमान (Organic) परंपरा, एक जीवित रूढ़ि के, कला का अस्तित्व टिक नहीं सकता। इस चौंका देनेवाली और किंचित शंकनीय उक्ति को तनिक और स्पष्ट करके कहना होगा। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि कोई रचना इसीलिए महत्त्व रखती है कि वह परंपरा के अनुकूल है; अभिप्राय केवल इतना ही है कि यह अनुकूलता अथवा तारतम्य उसके महत्त्व का सूचक हो सकता है! रूढ़ि के साथ सम्बन्ध अथवा तारतम्य स्वयं ही रचना का मूल्य अथवा महत्त्व नहीं है; मूल्य अथवा महत्त्व उस गतियुक्त और वर्धमान परंपरा में, रूढ़ि की सजीव प्रवहमानता में है जो इस तारतम्य से व्यंजित होती है।
यह परिभाषा, यह सूक्ष्म भेद, इतना महत्त्व रखता है कि पुनरावृत्ति दोष का सामना करके भी इसे और स्पष्ट करने का प्रयत्न करना होगा। यों कहें कि कोई भी लेखक अतीत को ज्यों-का-त्यों, सत्तू के गोले की तरह निगल नहीं सकता, लेकिन साथ ही वह अपनी रचना के लिए किसी एक-डेढ़ कलाकार को आदर्श बनाकर, अथवा किसी विशेष काल का अनुसरण करके भी नहीं चल सकता। एक कवि या कवि समुदाय को आदर्श मान कर उसके ढंग अथवा शैली की साधना करना वय:सन्धिप्राप्त लेखक के लिए रुचिकर या हितकर हो सकता है; एक युग की अनुगतिकता साहित्यिक व्यायाम अथवा रुचि-परिष्कार के लिए उपयोगी हो सकती है। लेकिन प्रौढ़ और बलिष्ट साहित्य इस तरह नहीं चल सकता। साहित्यकार को कला की, साहित्य-सृष्टि की मुख्य प्रवृत्ति से, साहित्यिक परंपरा की निरन्तर विकासशील प्रवहमानता से परिचित होना ही होगा; अतीत में से निकट अतीत और उसमें से वर्तमान के विकास को भी परंपरा के प्रति ऐतिहासिक जागरूकता उसे पानी ही होगी। उसे अपने निजी, व्यक्तिगत, भिन्न, अकेले मन के प्रति ही नहीं, अपने साहित्य के, अपने समाज के, अपनी सांस्कृतिक परविृत्ति के, अपने देश के समाष्टिगत मन के-यदि उसकी क्षमता उतनी है तो जन-मन विश्व-मन के -प्रति भी सचेतन होना होगा; क्योंकि उसे इसका भी अनुभव करना होगा कि वह विशालतर मन उसके निजी मन से कहीं अधिक गौरव रखता है, और जितने ही बड़े मन की जितनी ही गहरी चेतना उसमें है, उतना ही अपने युग के साथ उसका सम्बन्ध फलप्रद है। इतना ही नहीं, उसे यह भी जानना होगा कि यह सामूहिक मन परिवर्तन हो सकता और होता है, विकासशील है, पर इस विकास और परिवर्तन में वह अपने किसी अंग का परित्याग अथवा बहिष्कार नहीं करता, केवल उसके प्रति एक नई चेतना पैदा कर देता है। वाल्मीकि के लिए वेदों को, कालिदास के लिए वाल्मीकि को, तुलसीदास के लिए कालिदास को, या मैथिलीशरण गुप्त के लिए तुलसीदास को, वह छोड़े नहीं देता; वह इन सब को अपनी प्रवहमानता के लम्बे सूत्र में पिरोता चलता है। उस मन में अतीत कुछ भी नहीं होता, केवल ‘पहले से वर्तमान’ की वह परंपरा बढ़ती चलती है जिसमें ‘नया आया हुआ वर्तमान’ अपना स्थान बनाएगा। अचिर के साथ चिर के तारतम्य की यही बाध्यता, अचिर की माला में गुँथ जाने का चिर का अधिकार, साहित्यकार के लिए रूढ़ि अथवा परंपरा का यही ‘शापमय वरदान’ है।
शायद इतना भी पर्याप्त नहीं होगा, शायद साहित्यकार को इससे भी अधिक कुछ जानना होगा। एक तो उसे यह समझना होगा कि ‘कला की, साहित्य-रचना की मुख्य प्रवृत्ति, का युग के सबसे उल्लेखनीय कवियों की ही रचनाओं में प्रतिबिम्बत होना अनिवार्य नहीं है। बहुत सम्भव है कि एक युग की मुख्य चिन्ताधारा ऐसे कवियों में लक्ष्य हो जो अपने युग में या कभी भी प्रसिद्धि नहीं पा सके। इस कठिनाई का सामना करते हुए उसे युग की नब्ज पहचाननी होगी, युग की चेतना का विशालतर रूढ़ि की चेतना के साथ सम्बन्ध जोडऩा होगा।
दूसरी कठिनाई उसके आगे यह होगी कि यद्यपि सामूहिक मन निरन्तर बदल रहा है, तथापि यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि यह परिवर्तन अनिवार्य रूप से ‘उन्नति’ का परिणाम है-कि इस परिवर्तन द्वारा हम कलात्मक दृष्टि से (अथवा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी, कम से कम उस हद तक जितना की कल्पना की जा सकती है) पहले से अच्छे हो गये हैं। निश्चयपूर्वक केवल इतना ही कहा जा सकता है कि कला की सामग्री निरन्तर बदलती रहती है, कला शायद नहीं बदलती। सम्भव है, सामूहिक मन का परिवर्तन केवल जीवन के संगठन की क्रमश: बढ़ती हुई उलझन का ही परिणाम है, और स्वयं एक अधिक उलझी विचार-संघदृना का पर्यायवाची है। किन्तु वह चाहे जो हो, यह तो स्पष्ट ही है कि उस परिवर्तन द्वारा प्राचीन और नवीन में एक अन्तर आ जाता है। अतीत और वर्तमान के इस अन्तर को हम यों कह सकते हैं कि जागरूक वर्तमान, अतीत की एक नए ढंग की और नए परिणाम में अनुभूति का नाम है, जैसी और जितनी अनुभूति उस अतीत को स्वयं नहीं थी। वर्तमान में रहनेवाले साहित्यकार के लिए अतीत का, परंपरा का, यही महत्त्व है।
आधुनिक साहित्यकार के लिए रूढ़ि के ज्ञान को, ऐतिहासिक चेतना को इतना महत्त्व देना पाठक को अनुचित जान पड़ सकता है। वह कह सकता है कि ऐसी चेतना के लिए बहुत पढ़ाई की, प्रकांड पांडित्य की आवश्यकता होगी, और इतिहास की साक्षी दे सकता है कि कलाकार पंडित नहीं होते, न पंडित कलाकार। वह कह सकता है कि बहुत अधिक कोरे ‘ज्ञान’ से अनुभूति-क्षमता कम होती है। सरसरी दृष्टि से यह तर्क बहुत माकूल जान पड़ता है। लेकिन सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए, तो इसमें एक भ्रान्त धारणा निहित है। ज्ञान अथवा शिक्षण केवल किताबी जानकारी का, परीक्षाएँ पास करने के लिए या रौब डालने के लिए इकठ्ठे किए हुए इतिवृत्त का, काम नहीं है। नि:सन्देह साहित्यकार को अपनी ग्रहणशीलता अक्षुण्ण बनाये रखते हुए अधिक-से-अधिक जानकारी प्राप्त करनी चाहिए * [और हमारा अनुमान है कि आज के हिंदी साहित्यकारों में अधिकांश में इतनी जानकारी नहीं है। जितनी उनकी ग्रहणशीलता अथवा अनुभूति-क्षमता है, उसे कम किए बिना ही निरी जानकारी बढ़ाने की बहुत काफ़ी गुंजाइश है।] लेकिन रूढ़ि के ज्ञान के लिए, परंपरा के सजीव स्पन्दन की चेतना के लिए, निरी जानकारी और पांडित्य अनिवार्य नहीं है ऐतिहासिक चेतना प्राप्त करने के लिए- निजी मन के साथ-साथ और उसके ऊपर, सामूहिक मन का अनुभव करने के लिए-कुछ को बहुत परिश्रम करना पड़ सकता है; कुछ उसे अनायास ही प्राप्त कर सकते हैं। भारत के ग्राम्य-मन की जो जीवित अनुभूति गाँधी में है, या हिंदी साहित्य क्षेत्र में प्रेमचन्द में थी, वह पांडित्य के सहारे नहीं आयी। जो सांस्कृतिक चेतना ‘प्रसाद’ में गूढ़ अध्ययन के सहारे जागी जान पड़ती है** वह अधिक स्वाभाविक और स्वच्छ रूप से सियारामशरण गुप्त में लक्षित होती है। कोई लोग धोखकर ज्ञान प्राप्त करते हैं, कोई अशयास सोखकर। पांडित्य पर हमारा आग्रह नहीं, आग्रह इस बात पर है कि साहित्यकार में अतीत की चेतना होनी या आनी चाहिए, और उसे आजीवन इसको पुष्ट और विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए। [** इस आयास-सिद्ध सांस्कृतिक चेतना के साथ ‘प्रसाद’ में एक प्रतिगामी चेष्टा भी है; अपने युग के साथ उनका तारतम्य नहीं स्थापित हुआ। देखिए ‘परिस्थिति और साहित्यकार’ ]
किसी ने कहा है, ‘The dead writers are removed from us because we know so much more than they did.’ अर्थात, ‘हम पूर्ववर्ती लेखकों से इसलिए अलग हैं कि हम उनसे कहीं अधिक जानते हैं।’ वह अधिक क्या है? स्वयं हमारे पूर्ववर्ती लेखक, जिन्हें हम जानते हैं। यही परंपरा के निर्माण की क्रिया का खुलासा है। इसी बात को दूसरी तरह कहें, तो कह सकते हैं कि रूढ़ि के, परंपरा के, विरुद्ध हमारा कोई विद्रोह हो सकता है तो यही कि हम अपने को परंपरा के आगे जोड़ दें।
और यह योग किस प्रकार होता है? साहित्यकार के आत्मदान द्वारा। कलाकार निरन्तर अपने व्यक्तिगत मन को, अपने तात्कालिक, अधिक क्षणिक अस्तित्व को, एक महानतर मन में और एक विशालतर अस्तित्व के ऊपर निछावर करता रहता है, अपने निजी व्यक्तित्व को एक वृहत्तर व्यक्तित्व के निर्माण के लिए मिटाता रहता है। यह आत्मनिवेदन मृत्यु नहीं है-ऐतिहासिक चेतना के सहारे कलाकार को जानना चाहिए कि व्यक्तित्व का उत्सर्ग उसका विनाश नहीं है, क्योंकि उसके द्वारा वह उस परंपरा को भी परिवर्धित कर रहा है जिस पर वह निछावर है* [इस संबंध में देखिए ‘परिस्थिति और साहित्यकार’ ]। छोटे व्यक्तित्व से, निरन्तर बड़े व्यक्तित्व की ओर बढ़ते जाना-यही कलाकार की प्रगति और उन्नति है। और ऐतिहासिक चेतना-परंपरा के स्पन्दन की अनुभूति-इस उन्नति का साधन और मार्ग है।
(2)
Poetry is not a turning loose of emotion, but an escape from emotion; it is not the expression of personality, but an escape from personality.**
[**कविता भावों का उन्मोचन नहीं है बल्कि भावों से मुक्ति है; वह व्यक्तित्व की अभिव्यंजना नहीं बल्कि व्यक्तित्व से मोक्ष है]
- टी.एस. इलियट
साहित्य के निर्माण को समझने के लिए, रूढ़ि के आगे व्यक्ति के आत्मोत्सर्ग की इस क्रिया का, जिसे ऊपर भी और अन्यत्र भी स्पष्ट करने का यत्न किया गया है, विशेष महत्त्व है। अतएव इसे और निकट से देखने का प्रयास असंगत न होगा।
आलोचना का विषय साहित्य है, साहित्यकार नहीं, कविता है, कवि नहीं; यद्यपि जैसा कि अन्यत्र भी सूचित किया गया है, साहित्य और काव्य की जाँच के लिए भी हमें निरन्तर उस मन की धातु (quality) परखनी होगी जिससे साहित्य उद्भूत हुआ है। स्पष्ट रहे कि ‘मन की परख’ व्यक्तित्व की या व्यक्तिगत इतिहास की जाँच से बिलकुल भिन्न है क्योंकि ‘अनुभव करनेवाला प्राणी’ और ‘रचना करने वाले मन’ अलग-अलग हैं या होने चाहिए। इस प्रकार की किसी साहित्यिक कृति का मूल्यांकन करने के लिए हमें अन्य साहित्यिक कृतियों के साथ उसके सम्बन्ध की ओर तो ध्यान देना ही होगा, साथ ही साथ हमें यह भी जाँच करनी होगी की रचना का उसके निर्माता के साथ-रचना करनेवाले मन में साथ-क्या सम्बन्ध है। ‘प्रौढ़’ और कच्ची कवि-प्रतिभा का अन्तर कवियों के ‘व्यक्तित्व’ कितना बड़ा अथवा कितना आकर्षक है, कौन अधिक रोचक है, अथवा किसके पास अधिक ‘सन्देश’ है। वास्तविक अन्तर की पहचान यह है कि कौन-सा कवि-मानस किन्हीं विशेष अथवा परस्पर भिन्न, ‘उड़ती हुई’ अनुभूतियों के मिश्रण और संयोग और चिरनूनत संगम के लिए अधिक परिष्कृत और ग्रहणशील माध्यम है।
अँग्रेज़ी कवि-आलोचक टी.एस.इलियट ने इस क्रिया की तुलना एक रसायनिक क्रिया से की है। सल्फर डायक्साइड और आक्सीजन से भरे हुए पात्र में यदि प्लाटिनम का चूर्ण प्रविष्ट किया जाए तो वे दोनों गैसें मिलकर सल्फ्यूरस एसिड में परिवर्तित हो जाती हैं। यह क्रिया प्लाटिनम की उपस्थिति के बिना नहीं होती, तथापि बननेवाले अम्ल में प्लाटिनम का कोई अंश नहीं होता, न प्लाटिनम में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन ही दीखता है-वह ज्यों का त्यों पड़ा रह जाता है। इलियट कवि-मानस की तुलना इस प्लाटिनम के चूर्ण से करता है। कवि-मानस भी किन्हीं विभिन्न अनुभूतियों पर असर डालकर उसे मिश्रण और संगम का माध्यम बनता है; उस संगम से एक कलावस्तु निर्मित होती है जो विभिन्न तत्त्वों का जोड़ भर नहीं, उससे कुछ अधिक है, एक आत्यन्तिक एकता रखती है; और जो बिना कवि-मानस के माध्यम के अस्तित्व नहीं प्राप्त कर सकती थी।
ध्यान रहे कि यद्यपि कवि-मानस ही इस संयोग से चमत्कार उत्पन्न करता है, और इस क्रिया में भाग लेनेवाले तत्त्व कुछ अनुभूतियाँ हैं जो कवि के अपने जीवन के घटित से भी उपजी हो सकती हैं (या उसके आत्म-घटित से बाहर की भी हो सकती हैं), तथापि कलावस्तु का निर्माण निरी निजी अनुभूतियों से नहीं होता-कलावस्तु बनती है उन अनुभूतियों से-उन अनुभूतियों और भावों के संगम से-जिनसे कवि स्वयं अलग, तटस्थ है, जिनपर उसका मन काम कर रहा है। एक दूसरी उपमा के शरण लें तो कवि का मन एक भठ्ठी है: जिसके ताप में विभिन्न धातुएँ पिघलकर एकरस हो जाती हैं। ढली हुई धातु विभिन्न तत्त्वों से बनी है, उनमें से कुछ धातुएँ स्वयं भठ्ठी के स्वामी की सम्पत्ति भी हो सकती हैं, तथापि भठ्ठी के स्वामी से भठ्ठी का, और भठ्ठी से धातु का अलगाव और स्वतन्त्र अस्तित्त्व अक्षुण्ण बना रहता है। कलाकार जितना बड़ा होगा, उतना ही व्यक्ति-जीवन और रचनाशील मन का यह अलगाव भी आत्यन्तिक होगा। उतना ही रचना करनेवाला कवि मानस अनुभव करनेवाले मानस से दूर और पृथक होगा; उतना ही चमत्कारपूर्ण उन अनुभूतियों और भावों का संगम होगा जो कवितारूपी प्रतिमा की मिट्टी है-फिर चाहे ये अनुभूतियाँ और भाव कवि के निजी अनुभव के, व्यक्तिगत जीवन के फल क्यों न हों। यों कहें कि जितना ही महान कलाकार होगा उतनी ही उसकी माध्यमिकता परिष्कृति होगी।
जिस मिट्टी से काव्यरूपी प्रतिमा बनती है, जिन तत्त्वों द्वारा कवि-मानस का असर एक चमत्कारिक योग उत्पन्न करता है, वे तत्त्व क्या हैं? उन्हें दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। स्थायी भाव (emotions) और संचारी भाव। कवि इनसे जो चमत्कार उत्पन्न करता है, पाठक के मन पर जो प्रभाव डालता है, वह कला के क्षेत्र से बाहर कहीं किसी तरह प्राप्त नहीं हो सकता- कला का ‘रस’ कला ही में प्राप्तव्य है; उस अनुभूति की कला के बाहर की किसी अनुभूति से तुलना नहीं की जा सकती। यह अनुभूति एक ही भाव के द्वारा उत्पन्न हो सकती है, या अनेक भावों के सम्मिश्रण से, या भावों और अनुभूतियों के संयोग से; और यह अनुभूति उत्पन्न करने के लिए कवि कई प्रकार के साधन काम में ला सकता है, कई प्रकार के चित्र खड़े कर सकता है। इस सृष्टि के साधन अनेक और उलझे हुए होते हैं, पर उन साधनों द्वारा उत्पन्न होनेवाले चमत्कार में एक आत्यन्तिक एकता होती है। वास्तव में कलाकार का मन एक भंडार है जिसमें अनेक प्रकार की अनुभूतियाँ, शब्द, विचार, चित्र, इकठ्ठे होते रहते हैं उस क्षण की प्रतीक्षा में जबकि कवि-प्रतिभा के ताप से एक नया रसायन, एक चमत्कारिक योग नहीं उत्पन्न हो जाएगा।
कविता की, कलावस्तु की, श्रेष्ठता उसमें वर्णित विषय की या भाव की श्रेष्ठता या ‘भव्यता’ में नहीं है; और लेखक के लिए उन विषयों या भावों के महत्त्व में, या उसके जीवन में उनकी व्यक्तिगत अनुभूति में तो बिलकुल नहीं है। कविता का, कलावस्तु का गौरव, उसकी ‘भव्यता’ है उस रसायनिक क्रिया की तीव्रता में जिसके द्वारा ये विभिन्न भाव एक होते हैं और चमत्कार उत्पन्न करते हैं। कविता की-काव्यानुभूति की-तीव्रता और कविता में वर्णित अनुभूति की तीव्रता, परस्पर भिन्न न केवल हो सकती है बल्कि अनिवार्य रूप से होती है। कला के भावों और व्यक्तिगत भावों का पार्थक्य अनिवार्य है। पाठक के लिए कवि या साहित्यकार का महत्त्व उसकी निजी भावनाओं के कारण, उसके अपने जीवन के अनुभवों से पैदा हुए भावों के कारण नहीं है। यह दूसरी बात है कि काव्य-रचना की क्रिया में अन्य भावों और अनुभूतियों के साथ, उसके अपने भाव और अपनी अनुभूतियाँ भी एक इकाई में ढल जाएँ-या कि केवल अपने भाव और अनुभूतियाँ ही उस क्रिया का उपकरण बनें। रचयिता का महत्त्व रचना करने की क्रिया की तीव्रता में है। यही बात ऊपर दूसरे ढंग से कही गयी है-कि जितना ही कलाकार महान होगा उतनी ही उसकी माध्यमिकता परिष्कृत होगी। वास्तव में काव्य में कवि का व्यक्तित्व नहीं, वह माध्यम प्रकाशित होता है जिसमें विभिन्न अनुभूतियाँ और भावनाएँ चमत्कारिक योग में युक्त होती हैं। काव्य एक व्यक्तित्व की नहीं, एक माध्यम की अभिव्यक्ति है।
काव्य की निर्व्यक्तिक परिभाषा से एक परिणाम और भी निकलता है। काव्य में नूतना-और बिना नूतनता के कला कहाँ है?-लाने के लिए कवि को नूतन अनुभव खोजने की आवश्यकता नहीं है। ऐसी खोज-नूतन मानवीय अनुभूतियाँ प्राप्त करने की लहक-उसे मानवीय वासनाओं के विकृत रूपों की ओर ही ले जाएगी और उस पर पुष्ट होनेवाला साहित्य या काव्य मानवीय विकृति (perversity) का ही साहित्य होगा। कवि का कार्य नए अनुभवों की, नए भावों की खोज नहीं है, प्रत्युत पुराने और परिचित भावों के उपकरण से ही ऐसी नूतन अनुभूतियों की सृष्टि करना जो उन भावों से पहले प्राप्त नहीं की जा चुकी हैं। वह नई धातुओं का शोधक नहीं है; हमारी जानी हुई धातुओं से ही नया योग ढालने में और उससे नया चमत्कार उत्पन्न करने में उसकी सफलता और महानता है।
यह स्थापना शंकनीय जान पड़ सकती है। लेकिन विश्व का महान साहित्य उठाकर देख डालिए-हमारे परिचित भाव ही हमें मिलेंगे, किन्तु नूतन योगों में; और हम यह भी पाएँगे कि इस या उस महान कलाकार की रचना का वैशिष्टय उसकी व्यक्तिगत अनुभूतियों की ‘नूतनता’ में नहीं, उसके उपकरणों के परस्पर अनुपात और योग के प्रकार की विभिन्नता में और सृजन की क्रिया की तीव्रता की भिन्नता में है। और यह क्रिया, इस क्रिया की तीव्रता-विभिन्न परिचित उपकरणों से नूतन चमत्कारिक वस्तु का निर्माण-चेष्टित नहीं है, वह स्वयं चमत्कारिक है।
इसका यह अभिप्राय नहीं है कि कलावस्तु के निर्माण में चेष्टित अथवा आससिद्ध कुछ भी नहीं है। नि:सन्देह कविकर्म का बहुत बड़ा अंश चेष्टित है, आयासपूर्वक सिद्ध होने वाला है, किन्तु वह अंश उपर्युक्त क्रिया की तीव्रता से सम्बन्ध नहीं रखता। बल्कि छोटे कवि में दोष यही होता है कि जहाँ परिश्रम आवश्यक है वहाँ वह ‘प्रतिभा’ पर निर्भर करता है और जहाँ ‘प्रतिभा’ का क्षेत्र है वहाँ आयास-पूर्वक तीव्रता लाना चाहता है। ये दोनों बातें उसकी रचना को ‘व्यक्तिगत’ बनाती हैं और हमारी निर्व्यक्तिक परिभाषा के अनुसार दोष हैं।
व्यक्तिगत अनुभूति की दृष्टि से देखा जाए, तो लेख के इस खंड के ऊपर दी गयी टी.एस. इलियट की उक्ति से कोई छुटकारा नहीं है-कि कविता निजी अनुभूति की मुक्ति-अभिव्यक्ति-नहीं, वह अनुभूति से मुक्ति है; व्यक्तित्व का प्रकाशन नहीं, व्यक्तित्व से छुटकारा है। यद्यपि, जैसा कि इलियट ने कहा है, इनसे छुटकारा पाने का अर्थ वही समझ सकते हैं जिनके पास अनुभूतियाँ और व्यक्तित्व है।
(3)
काव्य के लिए महत्त्व रखनेवाले भावों का अस्तित्व कवि के जीवन या व्यक्तित्व में नहीं, स्वयं काव्य में होता है। व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति प्रत्येक पाठक समझ सकता है, ‘टेकनीक’ की खूबियाँ भी अनेक पहचान सकते हैं, जब कि काव्य के निर्व्यक्तिक भाव को परखनेवाले व्यक्ति थोड़े ही होंगे-यह कहने से उपर्युक्त स्थापना खंडित नहीं होती। कला के भाव व्यक्तित्व से परे होते हैं, निर्व्यक्तिक होते हैं और कवि इन निर्व्यक्तिक भावों का ग्रहण और आयास-हीन अभिव्यंजना तभी कर सकता है जब वह व्यक्तित्व की परिधि से बाहर निकलकर एक महानतर अस्तित्व के प्रति अपने को समर्पित कर सके, अर्थात जब उसका जीवन वर्तमान क्षण ही में परिमित न रहकर, अतीत की परंपरा के वर्तमान क्षण में भी स्पन्दित हो; जब उसकी अभिव्यक्ति केवल उसी की अभिव्यक्ति न हो जो जी रहा है, बल्कि उसकी भी जो पहले से जीवित है। कवि का जीवन आज में बद्ध नहीं है, वह त्रिकाल-जीवी है।
इन स्थापनाओं से कुछ लोग चौंक सकते हैं। उन्हें लग सकता है कि यह आलोचना का एक नया फैशन भर है, जिसमें सार कुछ नहीं, क्योंकि आधुकिनता केवल परंपरा पर मुँह बिचकाने का ही दूसरा नाम है। इन लोगों से हमारा निवेदन है कि हम परंपरा की अवज्ञा करना तो दूर, परंपरा के महत्त्व पर आग्रह कर रहे हैं। इस पर आपत्ति किसी को हो सकती है तो उनको जो परंपरा का अस्तित्व ही मिटा डालना चाहते हैं। यद्यपि होनी उन्हें भी नहीं चाहिए।
हम यह कहेंगे कि हमारी स्थापनाओं पर आपत्ति करनेवाले वे ही लोग होंगे जो स्वयं अपनी परंपरा से परिचित नहीं हैं- फिर आपत्ति चाहे परंपरा के नाम पर हो चाहे प्रगति के। क्योंकि ये स्थापनाएँ ऐसी नई नहीं हैं; हमारे ही शास्त्र का विकास हैं। कुप्पी नई है, लेकिन आसव पुराना है।
हमारे आचार्यों ने भी रूढिय़ों के अध्ययन पर जोर दिया है। यह भी उन्होंने माना है कि यद्यपि काव्य का सरोकार सभी मानवीय अनुभूतियों से है, साधारण भी और आसाधारण भी, तथापि कला की खोज नूतन, अवर्णित और अज्ञात भावों के लिए नहीं है, जैसा कि देश और विदेश के कई आधुनिक कवि समझते रहे हैं। यह भी उन्होंने प्रतिपादित किया है-प्रत्यक्ष सिद्धान्त रूप में नहीं तो अप्रत्यक्ष उपसिद्धान्त के रूप में-कि कला के भाव निरे मानवीय भाव नहीं हैं, वे उन भावों के चमत्कारिक योग से उत्पन्न होनेवाले और उनसे भिन्न तत्त्व हैं। काव्यानुभूति की नूतनता इस योग की नूतनता है। काव्य का ‘रस’ कवि में, या कवि के जीवन में, या वण्र्य विषय अथवा अनुभूति में, या किसी शब्द विशेष में नहीं है, वह काव्य-रचना की चमत्कारिक तीव्रता में है।
प्रगति-पक्ष से भी आपत्ति हो सकती है-कि इस स्थापना द्वारा प्रगति को धक्का पहुँचेगा। लेकिन इस आपत्ति का उत्तर लेख के पूर्वार्ध में है परंपरा का निकट परिचय उसका अन्धानुकरण नहीं है, बल्कि उसे विकसित करने की तत्परता है।
हम अतीत को मिटाना नहीं चाहते, उसे छोटा भी करना नहीं चाहते, लेकिन हम उसकी दुहाई भी नहीं देते, परास्त होकर उसके आगे झुकते भी नहीं। हम अतीत के प्रति एक नए दृष्टिकोण की माँग करते हैं, वर्तमान में उसके स्थान की एक नई परिकल्पना करते हैं, हमारे लिए वयस्कता, शैशवावस्था का खंडन नहीं है उससे सम्बद्ध और प्रस्फुटनशील विकास का बोध है। हम परंपरा की एक विकसित परिभाषा करते हैं-कि वह वर्तमान के साथ अतीत की सम्बद्धता और तारतम्य का नाम है।