रूदादे-क़फ़स (मेजर मुहम्मद इस्हाक़) / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
जेल की कहानी
रावलपिंडी साज़िश केस में चार साल तक जेल के साथी रहे मुहम्मद इस्हाक़ का यह संस्मरण फ़ैज़ की रचनाशीलता को अपने ढंग से आलोकित करता है। यद्यपि यह संस्करण ‘ज़िन्दांनामा’ का आमुख या प्राक्कथन है,पर यह मूलतः जेलजीवन की डायरी है। — सम्पादक
कीमियागर बग़ुस्सा मुर्दा ब-रंज अब्ला अंदर ख़राबा याफ़्ता गंज।
(सोना बनाने की कोशिश करने वाला कीमियागर अपनी नाकामी के कारण आने वाले ग़ुस्से की तकलीफ़ को बर्दाश्त न कर सका और मर गया। लेकिन मूर्ख को (अपनी ख़ुशक़िस्मती से) खण्डहर में भी ख़ज़ाना मिल गया।)
फ़ैज़ साहब की किसी रचना का प्राक्कथन लिखने का सौभाग्य एक ख़जाना पाने से क्या कम हो सकता है, लेकिन इसकी कठिनाइयों का एहसास मुझे उस समय हुआ जब लिखने बैठा। कहते हैं पुराने ज़माने के राजे-महराजे जब किसी दुर्भाग्य के मारे सफ़ेदपोश की परेशानियां बढ़ाना चाहते थे तो उसे एक हाथी इनाम में दे दिया करते थे।
मामला बिल्कुल ऐसा ही तो नहीं है लेकिन एक सीधे-सादे फ़ौजी आदमी के लिए फ़ैज़ के क़लाम के बारे में कुछ लिखना काफ़ी परेशानी का कारण हो सकता है। और फिर एक किसान और ख़ासकर उपनिवेश के किसान के बेटे की तरबियत ही क्या होती है! देहाती स्कूलों की तालीम और वह भी अंधविश्वास और अज्ञानता के घिनौने साये तले। ऐसे माहौल में जिसमें ग़रीबी और साधन-हीनता के सौजन्य से लिखने की जगह हल की लकीर सीधी रखना, ढोर-डंगर की निगरानी करना और बैलों के लिए चारा लाना अधिक सम्मान की नज़र से देखा जाता है, जहां हर नयी चीज़, हर नये ख़याल का घृणा के साथ मज़ाक उड़ाया जाता है, जहां दुनिया का ऊंचे से ऊंचा ख़याल और पवित्रातम भावना दो बीघे ज़मीन के पैमाने से नापी जाती है, मेरी तालीमी पृष्ठभूमि ऐसी ही थी। साहित्य और कला जब मेरे गुरुजनों के बस की ही बात नहीं थी तो मैं उनको कैसे छू पाता। किताबें जीवन का हिस्सा नहीं थीं, केवल इम्तिहान पास करने का साधन थीं। लाइब्रेरियां, विद्वज्जनों की संगत, इल्मी बहसें, मुशायरे, ड्रामे, संगीत, नृत्य, आर्ट गैलरियां, म्यूज़ियम सब ग़ायब। और चारों तरफ़ साम्राज्यवादियों और उनके देसी एजेंटों के आर्थिक बोझ तले कराहती हुई जनता।
ऐसी रूखी-फीकी तालीम के बाद आठ-दस साल की फ़ौज की ‘साहब बहादुरी’ ने रही-सही कसर निकाल दी। वहां का तो बाबा आदम ही निराला था और ‘काले लोगों’ की अपनी भाषाओं को अपने देश में ही देशनिकाला मिला हुआ था या उनकी हैसियत अंग्रेज़ी ज़बान की लौंडियों-बांदियों की सी थी। जेल के चार साल इस लिहाज़ से लाभप्रद रहे कि एकाग्रता से पढ़ाई का मौक़ा मिल गया। सोने पर सुहागा यह हुआ कि दो एक प्रोफ़ेसर भी साथ ही क़ाबू में आ गये।
ज़िन्दांनामा (जेलवृत्तांत) का प्राक्कथन लिखने के बहाने मैं अपना जीवनवृत्तांत लिखने का इरादा नहीं रखता। मैं समझता हूं कि किसी रचना की सही जांच उसी समय हो सकती है जब शायर के स्थान और क्षमताओं को पूरी तरह समझ लिया जाये। इसमें कोई शक नहीं कि मैं चार साल से कुछ ही महीने कम दिन-रात फ़ैज़ के साथ रहा हूं। यह लंबा समय हमने जेल के एक ही अहाते में पास-पास स्थित कोठरियों में गुज़ारा, सैकड़ों बार सुबह-सबेरे सबसे पहले एक-दूसरे के मुंह लगे हैं, अपनी खुशियां और ग़म आपस में बांटने पर मजबूर रहे। जेल के बाहर आदमी सैकड़ों लोगों से रोज़ मिलता है मिलता न भी हो, देख ज़रूर लेता है। कई तरह की आवाज़ें सुनता है, बीसियों दृश्यों से वास्ता पड़ता है। किसी से नफ़रत है तो कन्नी काट के निकल सकता है, किसी से मुहब्बत है तो मुलाक़ात की राहें ढूंढ़ लेता है या उनकी तलाश में जी बहला लेता है। जेल में आदमी की मर्ज़ी उससे छीन ली जाती है और उसकी गतिविधि सीमित कर दी जाती है। वहां का संसार दो-चार क़ैदी, दो-चार पहरेदार, कुछ कोठरियां और कुछ दीवारें, एक-आध पेड़, एक-दो गिलहरियां, आधे दर्जन के क़रीब छिपकलियां और कुछ कौए और दूसरे परिंदे होते हैं जिनमें महीनों, बल्कि सालों तक कोई बदलाव नहीं आता। मुझे इस छोटी सी दुनिया में फ़ैज़ साहब के साथ लगातार चार साल तक रहने का मौक़ा मिला है। लेकिन इस लंबी संगत के बावजूद ज़रूरी नहीं कि मैं अपने विषय के साथ पूरा इंसाफ़ कर सकूं। एक अंधा इस ब्रह्मांड की रंगारंगी में जीवन गुज़ार कर भी रंगों का अंदाजा नहीं कर सकता। कई लोग अच्छी-भली नज़र रखते हुए भी कई रंगों को नहीं पहचान सकते। रेडियो प्रोग्राम सुनने के लिए ताक़तवर रेडियो स्टेशन ही नहीं चाहिए, रिसीविंग-सेट भी त्राुटिहीन होना चाहिए।
यहां पर ज़िंदांनामा (फ़ैज़ का तीसरा संकलन) की नज़्मों और ग़ज़लों पर टीका-टिप्पणी करने का उद्देश्य नहीं, फिर भी शायर के साथ के संस्मरण में उनकी चर्चा ज़रूरी है। फ़ैज़ की गहरी संवेदनशीलता का वर्णन मेरे बस की बात नहीं है। असर लखनवी के शब्दों में, ‘फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी तरक़्क़ी की सीढ़ियां तय करके अब उस चरम बिंदु पर है जिस तक शायद ही किसी दूसरे प्रगतिशील शायर की पहुँच हुई हो। कल्पना ने रचना के जौहर दिखाये हैं और मासूम जज़्बात को सुंदर आकृति दी है। ऐसा मालूम होता है परियों का एक झुण्ड, एक जादुई फ़ज़ा में उड़ने में इस तरह तल्लीन है कि एक पर एक परियां टूटी पड़ रही हैं और इंद्रधनुष की छवि लिये बादलों से सतरंगी बारिश हो रही है...। हर कोई अपनी योग्यता के अनुसार इस संवेदना को महसूस कर सकता है। मैं सिर्फ़ यह चाहता हूं कि अपनी समझ के अनुसार गिनी-चुनी नज़्मों की पृष्ठभूमि का बयान कर दूं। इतना याद रहे कि सही अदब अपनी पृष्ठभूमि की सीमाओं को तोड़कर बहुत आगे निकल जाता है। फ़ैज़ की शायरी को अपने पस-मंजर के सांचे में सीमित करके देखना ज़्ाुल्म है। इसलिए मेरे प्रयास को एक साइन बोर्ड से ज़्यादा महत्व नहीं देना चाहिए। आगे रास्ता सबका अपना-अपना है, और अपनी-अपनी हिम्मत।
फ़ैज़ साहब 9 मार्च 1951 को क़ैद हुए और अप्रैल 1955 में रिहा हुए। इस तरह उनकी क़ैद के दिन चार साल से कुछ ऊपर बनते हैं। इस अर्से में वह पहले तीन महीने सरगोधा और लायलपुर की जेलों में कै़दे-तनहाई में रहे। इसके बाद जुलाई 1953 ई. तक हैदराबाद (सिंध) जेल में रावलपिण्डी साज़िश केस के अन्य क़ैदियों के साथ रहे। जुलाई 1953 में हम सबको छोटी-छोटी टुकड़ियों में बांटकर लाहौर, मंटगोमरी, मच्छ (बलूचिस्तान) और हैदराबाद की जेलों में भेज दिया गया। फ़ैज़ साहब के लिए, मेरे और कैप्टिन खि़ज़्र हयात के साथ मंटगोमरी सेंट्रल जेल का चयन किया गया। लेकिन वह चूंकि इलाज के लिए कराची चले गये थे इसलिए कहीं 1953 में जाकर हमारे पास मंटगोमरी पहुंचे। यहां से हम इकट्ठा रिहा हुए।
मुझे फ़ैज़ साहब की गिरफ़्तारी के कोई तीन महीने बाद मई 1951 में बंदी बनाया गया था, इसलिए ख़ल्क़े-ख़ुदा (जन साधारण) की सरगोशियां सुनता रहा। उन दिनों फ़ैज़ साहब के साथ उनके दोस्तों और प्रियजनों को मिलने की इजाज़त नहीं थी, न वे किसी से पत्राचार कर सकते थे। उनके बारे में तरह-तरह की अफ़वाहें फैली हुई थीं और क़ैद में उनके साथ व्यवहार के विषय में अजीब-अजीब हृदयविदारक क़िस्से मशहूर थे। जब पहली बार उनसे हैदराबाद जेल में भेंट हुई तो जाकर सुकून मिला। वही मुस्कराता ललाट, वही चमकती हुई आंखें, वही गौतमी मुस्कुराहट जिसका नूर सब तरफ़ फैल रहा था और फिर वह दुनिया को जीत लेने वाली मुहब्बत जिससे उनको जानने वाले परिचित हैं।
जेल एक तरह का जादुई शीशाघर होता है जहां सूरतों की नहीं बल्कि सीरतों (स्वरूप) की छवि अद्भुत शक्लें बनाकर प्रकट होती है। किसी का मिज़ाज झगड़ालू है तो वह हर किसी से लड़ाई मोल लेने की चिंता में होगा, कोई कायर स्वभाव का है तो वह गोबर के कीड़े की तरह हर समय सिर छुपाने की धुन में होगा। कोई निराशावादी है तो वह हर अच्छी-बुरी ख़बर में अपने दिल टूटने की वजह ढूंढ़ निकालेगा। किसी को कोई सनक है तो वह दीवानगी की हद तक बढ़ जायेगी। स्वभाव में कमीनगी और तंग-नज़री विशेषतः फलती-फूलती है और छोटी-छोटी बातों पर अपने साथियों और जेलवालों से झगड़े हो जाते हैं। इसकी एक वजह तो यह है कि इनसान की सारी कायनात जेल की चारदीवारी में सीमित कर दी जाती है और जिसकी वजह से सोच-विचार और दृष्टि में तंगी आ जाती है। दूसरा कारण है कि इनसानों पर हैवानी बंदिशें लगा दी जाती हैं। कोठरी में बंद करना, एक परिसर में क़ैद कर देना, बेड़ियां पहनाना, प्रियजनों और मित्रों से मिलने पर पाबंदियां, विवशता का आलम ये सब चीज़ें क़ैदियों के दिल पर सूई की नोक का काम करती हैं। जेल के कुछ अफ़सर भी कै़दियों के दिल तोड़ने के मौक़े ढूंढ़ते रहते हैं और कै़दी के आत्मसम्मान और मान को ठेस पहुंचाने में ख़ूब दक्ष होते हैं, अगरचे यह बात सबके बारे में ठीक नहीं।
इन हालात में एक आदमी क़ैद होकर अपना रोज़मर्रा का व्यक्तित्व क़ायम न रख सके तो कोई अचरज की बात नहीं। कमाल तो उन लोगों का है जो जेल जाकर भी वज़ेदारी क़ायम रख सकते हैं। जिन लोगों को मैं जेल जाने से पहले जानता था उनमें फ़ैज़ साहब ही ऐसे थे जो प्रत्यक्ष रूप में टस से मस नहीं हुए। लेकिन आम लोगों की तरह तबीयतों का बोझ कम करने के लिए लड़ाई-झगड़े, दंगा-फ़साद और इसी प्रकार के दूसरे सेफ़्टी-वाल्व इस्तेमाल न करने से फ़ैज़ साहब पर जो मानसिक और शारीरिक दबाव पड़ा वह उनके दोस्तों से छिपा नहीं रहा। शायरी ग़नीमत थी जिसके द्वारा वे दिल का गुबार निकाल लिया करते थे, लेकिन शायरी स्वयं दिलो-जिगर के ईंधन पर जीवन पाती है :
जो हम पे गुज़री सो गुज़री, मगर शबे-हिज्रां (वियोग की रात)
हमारे अश्क तेरी आक़बत (परलोक)
संवार चले।
हैदराबाद में मुक़दमे के दौरान बीतने वाले दिन भी अजीब थे। तीन महीनों से टोडी क़िस्म के लोग अख़बारों, इश्तहारों, जलसों, जुलूसों में हमें गोली का निशाना बनाने की मांग कर रहे थे। कई अख़बारों ने ‘ग़द्दार विशेषांक’ निकाल दिये थे। कुछ ऐसा माहौल पैदा कर दिया गया था कि मुल्क में स्वतंत्र स्वभाव रखने वाला हर आदमी यह समझने लगा था कि उसको भी साज़िश में धर लिया जायेगा। चारों तरफ़ एक दहशत और भय की फ़ज़ा थी और हमारे रिश्तेदार और दोस्त हमारी जानों से हाथ धो बैठे थे। लेकिन जेल के अंदर हमारी अपनी हालत यह थी कि हम मानो पिकनिक पर आये हुए हैं। सब तरफ़ हंसी-मज़ाक था, क़हक़हे थे, उम्मीद थी, हौसला था। क़व्वालियां होती थीं, स्वांग भरे जाते थे, इसकी एक वजह तो यह हो सकती है कि हमें अपनी रिहाई पर पूरा भरोसा था और दूसरी बात शायद यह हो सकती है कि एक बहुत बड़े ख़तरे के सामने आदमी आम तौर से दो ही रास्ते पाता है या तो उल्टे पांव भाग उठता है या मुक़ाबले की ठान लेता है। अंतिम बात की भी आगे दो सूरतें होती हैं। चुनांचे हम में कई ऐसे भी होंगे जो कठिनाइयों की भयावहता के सामने कांप-कांप कर हंस रहे थे और कुछ ऐसे भी थे :
इश्रतेक़त्ल-गहे अहले-तमन्ना मत पूछ
ईदे-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरियां होना
(ग़ालिब)
(अपने क़त्ल के समय क़त्ल होने की आकांक्षा रखने वालों की ख़ुशी का कुछ न पूछो। जब उनके सामने तलवार को नंगा किया जाता है तो यह उनके लिए अपने इष्ट के दर्शन जैसा प्रसन्नतादायक होता है।)
यह स्थिति सिर्फ़ हैदराबाद (सिंध) की ही विशिष्टता नहीं थी, लाहौर में हम जो चंद दिन रुके थे, वहाँ भी हमारी यही हालत थी। चुनांचे लाहौर की बर्ड बुड बैरक्स में पुलिस को सौंपे जाने के कोई पांच मिनट बाद ही, मई 1951 में गिरफ़्तार होने वाले सातों फ़ौजी अफ़सर, ज़फ़रुल्लाह पोशनी के नेतृत्व में फ़ुज़ूल क़िस्म के फ़ौजी कोरस अलाप रहे थे। (इस तरह की बेज़रर बेहूदगियों की छोटे फ़ौजी अफ़सरों को ख़ास मौक़ों पर इजाज़त होती है)। लाहौर जेल की एक घटना याद करता हूं तो अब भी हंसी आ जाती है। वहां हमें बम केस बार्ड में रखा गया था। (यह वार्ड भगत सिंह और उनके साथियों के लिए ख़ास तौर पर तामीर किया गया था)। इसके आंगन में एक बारादरी सी है जिसके दरवाज़ांे में लोहे की मज़बूत जाली लगी हुई है। रात को हम यहीं सोया करते थे। एक दिन सोने की तैयारी में थे कि एक बूढ़ा संतरी जाली से लगकर अंदर झांकने लगा। खिज़्र हयात ने पूछा, ‘बाबा! तुम्हें हम कै़दी दिखायी देते हैं? उसने कहा, ‘जी हां जनाब।’ खि़ज्ऱ हयात बोला, ‘लेकिन बाबा हमें तो तुम कै़द में नज़र आते हो।’ इस पर बूढ़ा संतरी पहले तो बौखला सा गया, फिर इतने ज़ोर से हंसने लगा कि हम भी हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए। एक नशा था जिसमें सब मगन थे :
जो तुझसे अहदे-वफ़ा उस्तावर रखते हैं
इलाजे-गर्दिशे-लैलो-नहार रखते हैं।
(अगर तुझसे वफ़ादरी की प्रतिज्ञा की है, तो फिर रात और दिन (समय) की गर्दिश का इलाज करना भी जानते हैं।)
लाहौर ही का एक और लतीफ़ा याद आ गया। एक दिन हमें रिमांड के लिए अदालत ले जाया जाना था। ख़बर मिली कि सैयद सज्जाद ज़हीर भी साथ जायेंगे। जेल के बड़े दरवाज़े के अंदर पुलिस की क़ैदियों को ढोने वाली गाड़ी खड़ी थी। हम वहां रुक गये और सैयद साहब का इंतज़ार करने लगे। इतने में फांसी की कोठरियों की तरफ़ से सफ़ेद शलवार कुर्त्ता पहने, सिर पर जिन्ना केप जमाये, एक भारी भरकम, जीवन से संतुष्ट व्यक्ति आता नज़र आया। हम आपस में कानाफूसी करने लगे कि क्या यही सज्जाद ज़हीर हो सकता है। हममें से उनके साथ किसी की भी जान पहचान नहीं थी। कुछ लोगों का ख़याल था कि कम्युनिस्ट बदसूरत पाशविक प्रकृति के इनसान होते हैं। दायें-बायें पिस्तौल लगाते हैं, पेट पर कटार बांधते हैं। बड़ी-बड़ी मूंछें और ख़ंूख़्वार आंखें रखते हैं और उनकी बातचीत का विषय क़त्लो-ग़ारत के सिवा कुछ नहीं होता। सज्जाद ज़हीर चूंकि पाकिस्तानी कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेट्री थे, इसलिए इन लोगों के ख़याल में उनके मुंह से हर सांस में आग निकलनी चाहिए थी और उनको इस क़िस्म का काइयां इनसान होना चाहिए था कि डुबकी लगाये तो जेल से बाहर चला जाये। यह व्यक्ति जो नर्म चाल, पाक नैन नक़्श और एक अदद आलिमाना तोंद लिये हुए था, सज्जाद ज़हीर कैसे हो सकता था। हमारे ये साथी अपनी राय पर कुछ ऐसे अड़े हुए थे मानो यह उनके धर्म का हिस्सा हो। चुनांचे हम सबने यह मान लिया कि ये सज्जाद ज़हीर नहीं हो सकते कश्मीरी बाज़ार के शेख़ होंगे या पुलिस के कोई खि़ज्र सूरत एजेंट। इसलिए अदालत तक के पूरे सफ़र में हम गुमसुम बैठे उनकी तरफ़ कनखियों से देखते रहे। अदालत में जब वे खड़े होकर गरजे कि, जनाबे-वाला पंद्रह दिन हो गये हैं और मुझे अभी तक नहीं बताया गया कि मैं किस जुर्म मैं गिरफ़्तार किया गया हूं। यह बिल्कुल बेहूदा बात है।’ तो हमें यक़ीन हो गया कि वे सज्जाद ज़हीर ही हैं। रिमांड के लिए हमें जज साहब की कोठी में ले जाया गया था। वहां पुलिस गार्डों और गाड़ियों की इतनी गहमा-गहमी थी कि कोठी की ऊपर की मंज़िल में बहुत से लोग तमाशा देखने के लिए जमा हो गये थे। ज़ियाउद्दीन ने इशारे से मुझे बुलाकर कहा, भई ऐसे बैठे हो जैसे मवेशी चराने आये हो। सीधे होकर बैठो, कालर ठीक करो, ज़रा-ज़रा मुस्कुराओ। देखते नहीं हो, पब्लिक देख रही है।’ और ख़ुद भी तनकर ऐसे बैठ गया मानो तस्वीर उतरवाने आया हो। एअर कमोडोर जंजुआ से मेरी पहली मुलाक़ात वहीं हुई। उन्होंने हाथ मिलाते वक़्त मेरे हाथ को इस फुर्ती से निचोड़ा कि अब तक याद है।
हैदराबाद में अदालत की इमारत जेल के अंदर थी। अदालत का वक़्त आठ से बारह बजे तक होता था। हफ़्ता और इतवार के दिन ख़ाली होते थे। शाम के वक़्त कभी-कभी हमारे वकील मशविरे के लिए आ जाया करते थे। बाक़ी वक़्त हमारा अपना होता था। एक ही अहाते में सबके लिए जगह नहीं थी। इसलिए फ़ैज़ साहब, मुहम्मद हुसैन अता, जनरल अकबर ख़ां, ब्रिगेडियर सादिक़ ख़ां, कर्नल ज़ियाउद्दीन, कर्नल नियाज़ मुहम्मद अरबाब, मेजर हसन ख़ां, कैप्टिन ज़फ़रुल्लाह पोशनी, कैप्टिन खिज़्र हयात और मैं, एक अहाते में रखे गये। और सैयद सज्जाद ज़हीर, जनरल नज़ीर अहमद, एयर कमोडोर जंजुआ, और ब्रिगेडियर लतीफ़ ख़ां को एक दूसरा अहाता दिया गया। बेगम अकबर ख़ां के लिए अलग व्यवस्था थी। खाने का बंदोबस्त हमारी तरफ़ था। हमें ज़हूर अहमद और आदिल ख़ां दो क़ैदी निहायत अच्छा पकाने वाले मिले हुए थे और खाने की व्यवस्था एक बाक़ायदा आफ़िसर्स मेस की तरह थी जिसका सेक्रेट्री समय-समय पर चुना जाता था। शाम के वक़्त वॉलीबाल और बैडमिंटन भी हमारे अहाते में ही खेले जाते थे। इस तरह इन मिली-जुली सरगार्मियों का केंद्र यही अहाता था। मुशायरे, कव्वालियां, ड्रामे आम तौर से यहीं होते थे। सैयद सज़्ज़ाद ज़हीर वाले अहाते में हम छुट्टी के दिन की सुबह जाया करते थे जहां कॉफ़ी और बिस्कुट से आवभगत होती और अदबी व सियासी बातें होती थीं।
मिर्ज़ा सौदा के (मुलाज़िम) गुंचे की तरह फ़ैज़ साहब की बयाज़ (शायरी की कापी) उठाने का काम मेरे ज़िम्मे था। जब वे मुशायरे की महफ़िल की तरफ़ या सज्जाद ज़हीर के यहां जाते तो मैं नोटबुक उठाये पीछे-पीछे होता। दूसरे मित्रागण जब हमें इस तरह जुलूस में चलता देखते थे तो चारों तरफ़ ख़ुशी की लहर दौड़ जाती, इसलिए कि जेल में फ़ैज़ साहब के ताज़ा कलाम का वरूदे-मसूद (पवित्रा आगमन) जश्न से कम नहीं होता था। और फिर जिस अदा से हम चलते थे, वह भी प्रसन्नता की एक अच्छी ख़ासी हास्यास्पद स्थिति होती थी। फ़ैज़ साहब धीमे-धीमे मुस्कुराते हुए, शरमाये से चलते थे, और मैं एक लठैत जाट की तरह गर्दन अकड़ाये, नाक आसमान की तरफ़ उठाये, लोगों के सिरों के ऊपर से देखता हुआ चलता था और जब तक फ़ैज़ साहब के तशरीफ़ रखने पर, निहायत अदब से लेकिन एक आनबान के साथ बयाज़ उनकी खि़दमत में पेश नहीं कर देता था, मुस्कुराता तक नहीं था। मियां गुंचा और मुझमें इतना फ़र्क़ ज़रूर था कि मिर्ज़ा सौदा जब किसी बात पर नाराज़ हुआ करते थे तो गु़ंचे को सिर्फ़ कलमदान आगे बढ़ाना होता था, बाक़ी मिर्ज़ा ख़ुद भुगत लिया करते थे। यहां सूरत यह थी कि फ़ैज़ साहब तो हमेशा से ‘बा दुश्मनां मुरव्वत, बा दोस्ता मदारा’ (दुश्मनों के साथ कृपालु और दोस्तों के साथ सत्कारशील) के क़ायल रहे हैं और किसी के सामने उससे नाराज़ नहीं होते, और गुंचा द्वितीय उन दिनों दोस्त, दुश्मन सबके सिर काटने को हर वक़्त तैयार रहते थे।
हैदराबाद में फ़ैज़ साहब, मैं और अता, साथ-साथ के कमरों में रहते थे। मैं और अता उनके हर मूड से परिचित हो गये थे। शेर कहने का आलम होता तो फ़ैज़ साहब ख़ामोश हो जाया करते थे। अलबत्ता उठते-बैठते गुनगुना चुकने के बाद इधर-उधर देखने लगते। हम भांप लेते थे कि श्रोताओं की ज़रूरत हैं। चुनांचे हम दोनों कई कांफ्ऱेंसों और लगातार सरगोशियों के बाद मौक़े की मुनासबत का अंदाज़ा लगाकर, गुरुनानक देव जी के भाई बाला और मर्दाना की तरह, हुजू़रे शायर पहुंच जाते थे और इधर-उधर की हांकने के बाद ग़ज़ल या नज़्म की मांग शुरू कर दिया करते थे कि अब बहुत अर्सा हो गया है और लोग क्या कहेंगे, वग़ैरह वगै़रह। अगर नज़्म या ग़ज़ल तैयार होती थी तो एक आध शेर सुना दिया करते थे वर्ना हुक्म होता कि भाग जाओ। हम समझ जाते थे कि इस इंकार में इक़रार छिपा है, और बात फैला दी जाती थी कि
मानी की सरज़मी पे नज़ूले-सरोश है
उनके आस-पास शोर-शराबा, दंगा-फ़साद, लड़ाई-झगड़ा हर मुमकिन हद तक बंद कर दिया जाता था। फ़ैज़ साहब ने बहुत नाज़ुक तबीयत पायी है। पड़ोस में तू-तू मैं-मैं हो रही हो, दोस्तों में तलख़ कलामी हो, यूं ही किसी ने त्योरी चढ़ा रखी हो, उनकी तबीयत ज़रूर ख़राब हो जाती है, और इसके साथ ही शायरी की कैफ़ियत काफ़ूर हो जाती है। जो लोग अता को और मुझे जानते हैं वे दिल ही दिल में मुस्कुरा रहे होंगे कि ये हज़रात जिनको शायरी देख पाये तो नस्र (गद्य) में मुंह छिपाले, फ़ैज़ की तबीयत पर क्योंकर बोझ नहीं बनते थे। इसका भेद फ़ैज़ साहब ही खोल सकते हैं।
हैदराबाद में क़रीबन हर पखवाड़े मुशायरे की महफ़िल जमाने का रिवाज हो गया था। यह मुशायरा कभी ‘तरही’ होता था, कभी ग़ैर-तरही (तरही मुशायरे में शेर की एक पंक्ति दी जाती है जिसकी ज़मीन और वज़न में, क़ाफ़िया रदीफ़ के मुताबिक़ ग़ज़ल सुनानी होती है। ग़ैर-तरही मुशायरे में शायर को स्वतंत्रता है कि कैसी भी ग़ज़ल सुनाये।)। और सभी को इसमें हिस्सा लेना पड़ता था। दस्ते-सबा (फ़ैज़ का दूसरा संकलन) में निम्नलिखित पंक्तियों पर कही हुई ग़ज़लें मौजूद हैं :
1. ज़िक्रे-मुर्ग़ाने-गिरफ़्तार करूँ या न करूँ
2. आज क्यूँ मशहूर है हर एक दीवाने का नाम
3. देखना वो निगहे-नाज़ कहाँ ठहरी है
4. वगरना हम तो तवक़्को ज़्यादा रखते हैं
फ़ैज़ की ग़ज़ल ‘वहीं है दिल के क़राइन तमाम कहते हैं’, हसरत मोहानी की एक ग़ज़ल पर कही गयी है।
मेरे ज़ेहन में फ़ैज़ साहब की जेल की शायरी के चार रंग हैं (या मूड कह लीजिए)। पहला रंग सरगोधा और लायलपुर की जेलों में उनकी तीन महीनों की क़ैदे-तन्हाई का है। वे बहुत मुश्किल दिन थे। काग़ज़, क़लम, दवात, किताबें, अख़बार, ख़त सब चीज़ें मना थीं। उन्होंने इस तरफ़ इशारा भी किया है :
मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है
कि ख़ूने-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैंने
ज़बां पे मुहर लगी है तो क्या; कि रख दी है
हरेक हलक़ए-ज़ंजीर में जबां मैंने
सिर्फ़ एक शम्सुद्दीन थे जो नवाबो, जिनों, भूतों, देवों, परियों,आमिलों (प्रेतात्मा बुलाने वाले, झाड़ फूक करने वाले) और मामूलों से अपने संबंधों के क़िस्से सुनाकर फ़ैज़ साहब का जी बहलाया करते थे।
हैदराबाद में तो फ़ैज़ साहब उनके ज़िक्र से भरपूर थे, आजकल भी अक्सर याद करते रहते हैं। इस क़ैदे-तन्हाई का उनपर असर हुआ था कि हैदराबाद पहुंचने पर वे अकेले रहने से बहुत वहशत खाते। अपनी-अपनी कोठरियों के अलावा एक हॉल भी हमें दिया गया था। हमें इजाज़त थी कि जहां चाहें अपना बिस्तर जमा लें। हम अपने-अपने कमरे में रहना चाहते थे लेकिन फ़ैज़ साहब हॉल में रहने की ज़िद कर रहे थे। कहते थे कि तुम्हें मेरी तरह तन्हाई में रहना पड़ता तो दोस्तों की संगत की क़द्र होती। लेकिन उनकी यह हालत ज़्यादा देर नहीं रही और कुछ अर्से के बाद वे अपने कमरे में चले गये। अब उनका ज़्यादातर वक़्त हमें अपने कमरे से निकालने में ख़र्च होता था।
फ़ैज़ साहब कहा करते थे कि उन दिनों उनकी तबीयत में बहुत ज़ोरों की आमद थी और तरह-तरह के मज़ामीन (विषय वस्तु) सूझ रहे थे। उस दौरान का कलाम कुछ तो उनके ज़ेहन से उतर गया, जो बच गया वह सब दस्ते-सबा में निम्नांकित में समाविष्ट है :
1. मता-ए-लौहो-क़लम
2. दामने-यूसुफ़
3. तौक़ो-दार का मौसम (पहला हिस्सा)
4. तेरा जमाल निगाहों में लेने उट्ठा हूं
5. तुम आये हो न शबे-इंतज़ार ग़ुज़री है
6. तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
7. शफ़क़ की राख में जल बुझ गया सितारा-ए-शाम
कुछ कलाम ऐसा भी है जो सिर्फ़ सीना-ब-सीना चल सकता है, और जिससे फ़ैज़ साहब सिर्फ़ विशेष दोस्तों को नवाज़ते हैं। उनकी शायरी का दूसरा रंग हैदराबाद का है। यहीं हमें हर तरह का जिस्मानी आराम मिला, जो जेल में मुमकिन हो सकता है, मयस्सर था: ‘गोशे में क़फ़स के मुझे आराम बहुत है।’ की सी हालत थी कि बाहरी आराम व आसाइश के पर्दे में हज़ारों हसरतों का ख़ून और लाखों तमन्नाओं का क़ब्रिस्तान था। हमारे खि़लाफ़ कई आपराधिक धाराएं ऐसी लगी हुई थीं जिनकी सज़ा मौत थी। इसके साथ अपनी सफ़ाई पेश करने की सहूलतें बहुत हद तक हमें मिली हुई नहीं थी। लेकिन हमने समझ रखा था कि
दर बयाबां गर बशौक़ो-काबा ख़ाही ज़द क़दम
सरज़निशहा गर कुनद ख़ारे-मुग़ीलां ग़म मख़ूर।
(अगर काबे (इष्ट) की जुस्तजू में तू बीहड़ में क़दम रखे और अगर ऐसे में बबूल के कांटे तुझे (चुभकर) चेतावनी दें तो इन कठिनाइयों से परेशान न हो जाना।)
और वक़्ती तौर पर शोर-शराबे, हा-ओ-हू, गाली-गलौज के ज़रिये आने वाले ख़तरों की आहट को दबाये हुए थे। डेढ़-दो बरस तक हमारी बातचीत का विषय सिर्फ़ ‘फ़तेह’ (विजय) रहा। मुझे याद नहीं पड़ता कि मेरे सामने किसी ने कभी शिकस्त का ज़िक्र किया हो। हम समझते थे कि ऐसा ज़िक्र एक बार शुरू हो गया तो ऐसे नहीं रुकेगा। हम फ़ैज़ के उस मशहूर उदाहरण पर अमल कर रहे थे कि जब बचाव की सूरत न रहे तो धावा बोल दो। चुनांचे शुरू दिन से हम अदालत के अंदर अपनी सामर्थ्य अनुकूल बोलते रहे। फ़ैज़ साहब ने इसमें बहुत कम हिस्सा लिया। लेकिन हमें रोका भी नहीं। वे अपना जोश और बलबला अपनी शायरी में ज़ाहिर कर लिया करते थे :
फिर हश्र के सामां (कयामत की तैयारियाँ)
हुए एवाने-हवस (लालसा का भवन)
में
बैठे हैं ग़विल-अद्ल, (न्याय वाले)
गुनहगार खड़े हैं
हाँ जुर्मे वफ़ा देखिए किस-किस पे हो साबित
वो सारे ख़ताकार (मुज़रिम)
सरे-दार (सूली चढ़ने को तैयार)
खड़े हैं .... .... ... ...
यही जुनूं का, यही तौक़ो-दार (फांसी और सूली)
का मौसम
यही है जब्र (दमन) यही इख़्तियार (प्रभुता) का मौसम
क़फ़स है बस में तुम्हारे, तुम्हारे बस में नहीं
चमन में आतिशे-गुल के निखार का मौसम
बला से हमने न देखा तो और देखेंगे
फ़रोग़े-गुलशनो-सौते-हज़ार (बहार और बुलबुलों के चहचहे) का मौसम
हुई है हज़रते-नासेह (उपदेश देने वाला) से गुफ़्तगू जिस शब (रात)
वो शब ज़रूर सरे-कूए-यार (प्रेयसी की गली के पास से) गुज़री है
.... .... ... ...
हमारे दम से है कूए-जुनूं (दीवानगी की गली) में अब भी खि़जल (शर्मिन्दगी)
अबा-ए-शेख़ो-क़बाए-अमीरो-ताज़-शही (धर्मगुरु और धनवान की वेशभूषा और बादशाहों का ताज (जो धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक वर्चस्व के द्योतक हैं)
हमीं से सुन्नते-मंसूरो-क़ैस (मंसूर और मजनूं की परंपरा जिन्होंने अपने ध्येय के लिए जान दी।) ज़िंदा है
हमीं से बाक़ी है गुल-दामनी-ओकज-कुलही (दामन को फूलों से भरना और तिरछी टोपी रखना, अर्थात महरबानी और आत्मसम्मान)
.... .... ... ...
ऐ ख़ाक नशीनो (ज़मीन पर बैठने वाले) उठ बैठो, वो वक़्त क़रीब आ पहुँचा है
जब तख़्त गिराए जाएँगे, जब ताज उछाले जाएँगे।
.... .... ... ...
इज्ज़े - अहले - सितम (अत्याचारियों की नाकामी व मजबूरी )की बात करो
इश्क़ के दम-क़दम की बात करो
देखने वाले देखेंगे कि दस्ते-सबा के दूसरे हिस्से में जोशो-ख़रोश का वह आलम नहीं है जो पहले आधे हिस्से में है। इसकी एक वजह तो यह हो सकती है कि कुछ समय मुक़दमे की सुनवाई हो चुकने के बाद हमें यह उम्मीद हो चली थी कि अगर अदालत की कार्रवाई में दिलचस्पी लें तो शायद बहतरी की कोई सूरत निकल आये। इसलिए सोच-विचार ने दीवानगी की जगह ले ली थी। इसकी दूसरी वजह उनके भाई की दुखद मौत थी। वे हैदराबाद उनसे मिलने आये थे और अपने एक रूहानी पेशवा की तरफ़ से उनकी रिहाई की ख़ुशख़बरी लाये थे। अभी हैदराबाद में ही थे कि 18 जुलाई 1952 ई. की सुबह को नमाज़ पढ़ते हुए इस दुनिया से कूच कर गये। फ़ैज़ साहब को इतना सदमा हुआ कि महीनों तक नीम-मुर्दा हालत में रहे। एक दिन तो चारपाई से उतरते हुए बेहोश होकर फ़र्श पर गिर पड़े। आवाज़ सुनकर मैं और अता भागे-भागे आये और ज़मीन से उठाकर बिस्तर पर लिटाया। यह घाव अभी तक भरा नहीं है, यद्यपि उन्होंने अपनी आदत के अनुसार उसे ‘कैमुफ़्लाज’ कर लिया है।
फ़ैज़ साहब की ‘कैमुफ़्लाज’ करने की आदत भी अजीब है। कई बार ऐसा हुआ कि सिग्रेट ख़त्म हो गयी लेकिन इसके बजाय कि साथियों से मांग लें, बेक़रारी दूर करने के लिए अहाते के चक्कर काटने शुरू कर दिये। इस बेक़रारी को पहचानने में हमें काफ़ी समय लगा। उनको छिपकालियों से बहुत घिन आती थी, मेरा ख़याल है, डरते थे। एक दिन हम सब बरामदे में चारपाइयां डालकर सोने की तैयारी में थे कि फ़ैज़ साहब ने अचानक उठकर इधर-उधर चक्कर काटने शुरू कर दिये। अता की चारपाई पास ही थी। उसने सोचा कि दाल में कुछ काला है। हाथ की तरफ़ देखा तो सिग्रेट सुलग रहा था। फ़ैज़ साहब की नज़रों का पीछा किया। देखा कि उनकी नज़रें बार-बार छत की तरफ़ उठ रही थीं। वे चारपाई के पास आते थे और आगे निकल जाते थे, और घूम कर फिर यही क्रिया दुहराते थे। अता ने छिपकली को देख लिया और उठकर फ़ैज़ साहब की चारपाई एक तरफ़ कर दी।
तीसरा रंग कराची का है। जहां फ़ैज़ साहब दो महीने के लिए ठहरे। दरअसल यह रंग दूसरे और चौथे रंग की दरमियानी कड़ी है। कराची अस्पताल में फ़ैज़ साहब जेल के मुक़ाबले ज़रा आज़ाद माहौल में रहे। दोस्तों के साथ बिना किसी परेशानी के मुलाक़ात हो जाया करती थी। वहां उन्हें इन्हीं वजहों से आज़ादी की नेमतों का बड़ी तीव्रता से एहसास हुआ। इस शदीद एहसास के बाद जब वे मंटगोमरी आये तो क़ैद का एहसास भी शिद्दत पकड़ गया और उनकी शायरी में ज़ाहिर हुआ। इसीलिए उन्होंने कराची और मंटगोमरी में लिखी हुई ग़ज़लों और नज़्मों के संकलन का नाम ज़िंदांनामा (जेल-वृतांत) प्रस्तावित किया था।
कराची में फ़ैज़ साहब ने अपनी शाहकार नज़्म ‘मुलाक़ात’ लिखी। इस नज़्म का पहला बंद अक्तूबर 1953 में मंटगोमरी में आकर पूरा हुआ था, और दूसरा और तीसरा नवंबर में। इसे कराची में लिखी इस लिए बता रहा हूं कि वे इसके ‘जरासीम’ (कीटाणु) कराची से लाये थे। इन नज़्म में उस बिन जल मछली की तड़प है जिस पर जानलेवा महरूमी (वंचित होने) के बाद कुछ पानी छिड़क दिया गया हो और वक़्ती सुकून के बावजूद उसे इस बात का शिद्दत से एहसास हो कि थोड़ा सा पानी जो मिला है, सूखने वाला है। यह नज़्म दर्द की इंतहाई शिद्दत के साथ इंतहाई सुकून भी दर्शाती है। इसमें ईमान व यक़ीन की जगमगाहट भी है, इसमें इनसानी हौसले, इरादे और बुद्धिमत्ता का राग भी गाया गया है। ऐसा हौसला, अज़्म और हिकमत जो सिर्फ़ आज के इनसान की विशिष्टता है, जो धरती माता पर बेहद मज़बूती से क़दम जमाकर तारों पर कमंदें फेंक रहा है और चांद पर शबख़ून (धावा) मारने की फ़िक्र में है; जो पानी, हवा, दरिया, समंदर, बिजली, बारिश और ब्रह्मांड की दूसरी परियों और देवों पर विजय पा चुका है, या पाने वाला है; जिसके सैकड़ों, हज़ारों सालों के दुखों और ज़ख़्मों के ढेर आज क्रिया और ऊष्मा का स्रोत बने हुए हैं।
फ़ैज़ साहब की जेल की शायरी का चौथा रंग मंटगोमरी का है। यहां हमें लगभग हैदराबाद की सी सहूलतें मिली हुई थीं। जेल के प्रबंधक भी अच्छे दिल वाले थे जो जेल के अनुशासन बिल्कुल भी न तोड़ने के बावजूद हमारे दिल नहीं टूटने देते थे। उनमें से कई अच्छी रुचियां रखते थे जो हमारे साथ अदबी छेड़छाड़ जारी रखते थे। एक साहब को तो ऐसा ढंग आता था कि उनके आने के चंद ही पलों बाद फ़ैज़ साहब तूती की तरह चहकने लगते थे और मालूम होता था कि दुश्मनों ने उन पर कम बोलने का बस, इल्ज़ाम ही लगाया है। इन साहब को चिरकीं से लेकर मिर्ज़ा ग़ालिब तक सब शायरों के कुछ न कुछ भले बुरे शेर याद थे और उन्होंने तीर्थराम फ़ीरोज़पुरी के नॉवेलों से लेकर सआदत हसन मंटो की कहानियों तक सब कुछ पढ़ रखा था। वे आते ही सलाम दुआ के बाद शुरू हो जाते और फ़ैज़ साहब का ध्यान आकृष्ट न होने की परवाह किये बग़ैर यहां से वहां, वहां से कहीं और, कुछ न कुछ कहते रहते। यहां तक कि फ़ैज़ की कोई ऐसी रग छिड़ जाती कि ग़्ाुस्से में या मौज में आकर उनसे कुछ कहे बिना न रहा जाता।
मंटगोमरी में फ़ैज़ साहब को अपनी बीबी, बच्चियों और दूसरे दोस्तों-रिश्तेदारों से मुलाक़ात में भी आसानियां थीं। दिल बहलाने के लिए हमने अपने अहाते के अंदर एक फुलवारी भी बना ली थी जिसका सिलसिला बढ़ते-बढ़ते सारे जेल में फैल गया था, बल्कि जेल के बाहर भी लोगों को फूलों की पनीरी मुहैया की जाती थी। फ़ैज़ को फूलों का शौक़ इतना था कि उन्होंने विलायत से अपनी ख़ुशदामन (सास) और एक दोस्त के द्वारा फूलों के बीज मंगवाये। फूल एक बढ़ने, फलने-फूलने की चीज़ है। उनसे जेल में ख़ूब जी बहलता है, और कोई न कोई नयी सूरत पैदा हो जाती है। इसके अलावा आदमी कै़द का एक-एक दिन गिनने के बजाय मौसम गिनने लगता है, जो लंबी से लंबी क़ैद में भी उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। साथ ही नज़रें भविष्य पर रहती हैं कि आने वाले मौसम में फूल लगाने के लिए क्या-क्या बंदोबस्त करना है और पिछली ग़लतियों को दोहराने से बचने की क्या सूरत है।
लेकिन इन सब बातों के बावजूद मंटगोमरी में फ़ैज़ साहब को क़ैद का बहुत शदीद एहसास था। इसकी एक वजह तो यह थी कि हैदराबाद से तब्दीली पर यारों दोस्तों से जुदाई का क़लक़ था एक तरह से भरा घर उजड़ गया था। दूसरी वजह मैं बयान कर चुका हूं कि कराची में ज़रा अधिक आज़ादी की फ़ज़ा के बाद क़ैद का बोझ ज़्यादा कष्टप्रद हो गया था। सब से बड़ी वजह शायद यह थी कि निकट भविष्य में रिहा हो जाने की उम्मीद का जो नन्हा सा चिराग़ अब तक जलता रहा था, वह अब ख़ामोश हो चुका था, और शुरू-शुरू की क़ैदे-तन्हाई का रंग एक हद तक वापस आ गया था। दर्दो-ग़म का तूफ़ान उमड़ पड़ा था। अब वे जेल की दीवारों, दरवाज़ों, सलाखों, पहरेदारों को ग़ौर से देखने लगे थे। पहले बाहर की दुनिया के साथ कल्पना का सीधा संबंध था, अब उसे भी जेल की दीवारें फांद कर अंदर आना-जाना पड़ता था :
हम अहले-क़फ़स (पिंज़रे के क़ैदी) तन्हा भी नहीं, हर रोज़ नसीमे-सुब्हे वतन (वतन की सुबह की ठंडी हवा)
यादों से मुअत्तर (सुगंधित) आती है, अश्कों से मुनव्वर (रौशन, चमकदार) जाती है।
इस शेर में नसीमे-सुब्हे-वतन की दीवारों को फांदने की सरसराहट साफ सुनायी दे रही है और उसका हिज्रां-नसीब (जिसके भाग में बिछोह है) क़ैदी को जेल वालों की नज़रों से बच बचाकर यादों का तोहफ़ा देना और उसके आंसुओं की सौग़ात ले जाना भी नज़र आ रहा है।
जब तक सोहनी कामयाबी से चिनाब पार करके महीवाल से मिल लिया करती थी, उस वक़्त तक उसके ज़हन में चिनाब की लहरों और घड़े के पुख़्तापन की एक अदृष्ट कल्पना थी। उसका सारा ध्यान महीवाल पर केंद्रित रहता था कि वह कैसा होगा, कैसे मिलेगा और जाते वक़्त दिल पर क्या गुज़रेगी। जब वह कच्चे घड़े की बदौलत दरिया में डूबने लगी, उस वक़्त उसकी नज़रें यार की कुटिया पर थीं। लेकिन कोई वक़्त ऐसा ज़रूर आया होगा जब पूरी तीव्रता के साथ उसे दरिया की हस्ती का एहसास हुआ होगा, और कच्चे घड़े की चिकनी मिट्टी हाथों में महसूस करके पक्का घड़ा भी याद आया होगा। और जब वह महीवाल की ख़ातिर अपनी जान बचाने के लिए हाथ-पांव मार रही होगी तो एक लम्हे के लिए महीवाल का ध्यान भी ज़हन से उतर गया होगा। हैदराबाद के क़याम के दौरान फ़ैज़ की कल्पना बाहर की दुनिया के साथ बहुत मज़बूती के साथ जमी रही। जेल की ज़िंदगी ने यह रिश्ता और भी मज़बूत कर दिया था। दस्ते-सबा के अंत में फ़ैज़ साहब की दो सुंदर नज़्में ‘ज़िंदां की एक शाम’ और ‘ज़िंदां की एक सुबह’ इसकी गवाह है। यहां उन्होंने जेल के डरावने दैत्य की भयावहता का पूरा-पूरा नक़्शा खींच दिया है। लेकिन उनके मुख पर अपमानजनक मुस्कुराहट है और उन्होंने आनंद-विनोद के ऐसे स्रोत निकाल लिये हैं जो जेल के दैत्य की कार्यपरिधि से बाहर हैं :
दिल से पैहम (लगातार) ख़याल कहता है
इतनी शीरीं (मीठी) है ज़िंदगी इस पल
ज़ुल्म का ज़हर घोलने वाले
कामरां (कामयाब) हो सकेंगे आज न कल।
जल्वा-गाहे-विसाल (मिलन की जगह) की शम्एं (दीपक/शमा)
वो बुझा भी चुके अगर तो क्या?
चांद को गुल करें तो हम जानें।
... ... ... ...
गोया फिर ख़्वाब से बेदार हुए दुश्मने-जां
संगो-फ़ौलाद से ढाले हुए जिन्नाते-गिरां (भारी दैत्य)
जिनके चंगुल में शबो-रोज़ हैं फ़रियाद-कुनां (रोते फ़रियाद करते हुए)
मेरे बेकार शबो-रोज़ की ना परियां।
अपने शहपूर (पक्षी के डैने, चिड़िया के पंख) की रह देख रही हैं ये असीर (क़ैदी)
जिसके तर्कश में हैं उम्मीद के जलते हुए तीर
कराची के कलाम के बाद ये तिलिस्म टूट गया और मंटगोमरी में जेलख़ाना अपनी पूरी भयावहता के साथ रूबरू आ गया। चुनांचे उनके दर्दे-दिल ने दुनिया भर के असीरों के रंजो-ग़म को अपने अंदर समो लिया था। कीनिया के बाशिंदों पर जनतंत्रा और आज़ादी के दावेदारों के हाथों असीम अत्याचार और उनके अपने वतन की कठिनाइयां फ़ैज़ साहब के लिए हृदयविदारक बनी हुई थीं। वे अफ्ऱीक़ी औरतों के नुमायां कारनामों से विशेषतः प्रभावित थे। कई बार ऐसा महसूस होता था कि वे पाकिस्तानी नहीं रहे, अफ़्रीक़ी बन गये हैं। उनकी नज़्म ‘आ जाओ एफ़्रिक़ा’ इसकी द्योतक है।
‘हम जो तारीक राहों में मारे गये’ रोज़ेबर्ग जोड़े की बेमिसाल कुर्बानी से प्रभावित होकर लिखी गयी। यहां वह मरते दम तक इंसानियत के भविष्य, इंक़लाब का मुहब्बत, या उनके साथ अपनी वफ़ादारी जतलाते रहते हैं। इस नज़्म की सार्वभौमिकता अजीब़ो-ग़रीब है। इसने सदियों को पाटकर हर ज़माने और हज़ारों मील की दूरी तय करके, हर मुल्क के शहीदों को एक पंक्ति में खड़ा कर दिया है। यह नज़्म कर्बला, प्लासी, श्रीरंगापट्टम, मिद्की, झांसी, जलियांवाला, क़िस्साख़ानी, स्टालिनग्राद, मलाया, कीनिया, कोरिया, तिलंगाना, मराकश, त्यूनिस, सभी से जुड़ी मालूम होती है, और तेहरान, कराची और ढाका की सड़कों पर दम तोड़ते छात्रा, मराकश, त्यूनिस, कीनिया और मलाया के ख़ून में लथपथ मुजाहिद, सब एक ही उत्साहवर्धक नारा दोहराते सुनायी देते हैं:
तेरे कूचे से चुनकर हमारे अलाम (झंडा, परचम)
और निकलेंगे उश्शाक़(प्रेमी) के क़ाफ़िले
जिनकी राहे-तलब (चाहत का रास्ता) से हमारे क़दम
मुख़्तसर (छोटा) कर चले दर्द के फ़ासले।
हम मंटगोमरी में ही थे कि ईरानी देशप्रेमियों को जेल में गोली का निशाना बनाने का विस्तृत वृत्तांत अमरीकी पत्रिका टाइम में छपा। साथ ही उनकी क़त्लगाह में ली गयी तस्वीर भी थी। सादी और हाफ़िज़ के वतन से फ़ैज़ साहब को ख़ास मुहब्बत है। कई दिन बेचैन रहे और अंत में उनकी बेचैनी ‘आखि़री रात’ के रूप में ज़ाहिर हुई। यह नज़्म उस विचार और कल्पना की तर्जुमानी करती है जो क़ैदी के ज़हन में उस रात गुज़रते हैं जिसकी सुबह को उसे शहीद होना होता है। इंसानियत की राह में हुए ख़ून के करिश्मे देखिये कि शहीद कहां-कहां और किस-किस रंग में नये रूप धर लेते हैं :
कुश्तगाने-ख़ंजरे-तसलीम रा
हर ज़बां अज़ गै़ब-जाने-दीगर अस्त
(कु़बूलियत के ख़ंजर से क़त्ल होने वालों को ग़ैब से आने वाली हर बात एक और जान मिलने की तरह है।)
फ़ैज़ साहब की उस ज़माने की मानसिक स्थिति की पूरी-पूरी तर्जुमानी अगर कोई नज़्म करती है तो वह ‘दरीचा’ है।
मंटगोमरी से दांतों के इलाज के सिलसिले में कोई तीन सप्ताह के लिए मार्च 1954 में हमें लाहौर आना पड़ा। लाहौर से फ़ैज़ साहब को कु़र्बान हो जाने की हद तक मुहब्बत है। वे लाहौर आना बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। कहते थे, दिल पर बोझ पड़ेगा। यहां आकर लाहौर का पानी पिया, उसकी फ़ज़ा में सांस ली, लाहौर की आवाज़ें सुनीं और लाहौर के कई गामों, माझों से, ख़त्मे-नवूबत की तहरीक के सिलसिले में जेल आये हुए थे, मुलाक़ात हुई और वह दिलदोज़ नज़्म ‘ऐ रौशनियों के शहर’ सामने आयी जिस पर कोई शहर जितना भी गर्व करे कम है।
फ़ैज़ साहब के दिल में लाहौर और लाहौर वालों के प्रेम का जोश एक बार पहले भी उमड़ पड़ा था। जब 1953 में लाहौर के गली-कूचे उसके बेटों के ख़ून से रंगीन हो गये थे। ‘लाहौर के नाम’ अभी तक अधूरी है।
मंटगोमरी में उनकी शायरी के बारे में मेरी और उनकी काफ़ी बहसें हुआ करती थीं। मैं कोई न कोई बात कहता रहता था और उनको जवाब दिये बग़ैर चारा न था। शायर और मायर वाला मामला था। फ़रारी का रास्ता एक ही था कि सरकार के आगे सिर झुकाकर मुझसे निजात पाते। इसका सवाल ही पैदा नहीं होता था। लिहाज़ा मरता क्या न करता। आजकल भी मज़ाक़ में कहा करते हैं कि ज़िंदांनामा के ज़िंदांनामा होने में तुम्हारी ‘वहाबियत’ को भी दख़ल है।
फ़ैज़ की जेल की शायरी में वतन की मुहब्बत के चश्मे हर तरफ़ फूट रहे हैं। वे जगह-जगह अपने देश और देशवासियों की ख़स्ताहाली, क़ौम के आत्मसम्मान के सस्ते होने, लोगों की ग़रीबी, ज़हालत, भूख और ग़म को देख-देखकर बुरी तरह तड़प रहे हैं :
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठाके चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुराके चले, जिस्मो-जां बचाके चले
कई बार कुछ और नहीं बनता तो ख़याली पुलाव पकाने लगते हैं और जेल की काल-कोठरी में बैठकर भी धूल-धूसरित, परेशांहाल लैला-ए-वतन को बना संवरा देखना चाहते हैं :
बुझा जो रोज़ने-ज़िंदां (जेल का रौशनदान) तो दिल ये समझा है
कि तेरी मांग सितारों से भर गयी होगी।
चमक उठे हैं सलासिल ( बेड़ियाँ) तो हमने जाना है,
कि अब सहर तेरे रुख़ पर बिखर गयी होगी।
वतन की मुहब्बत इस तरह उनके रोम-रोम में बस गयी है कि अब उसको दूसरी मुहब्बतों से अलग करके देखना नामुमकिन हो गया है :
चाहा है इसी रंग में लैला-ए-वतन को
तड़पा है इसी तौर से दिल, उसकी लगन को
ढूंढ़ी है युँ ही शैक़ ने आसाइशे-मंज़िल (मंज़िल पर पहुंचने से मिलने वाला आराम)
रुख़्सार (केशों) के ख़म में, कभी काकुल (गाल) की शिकन (सिलवट) में।
जेल में न जाने क्या बात थी कि हम सबका देशप्रेम ज़ोरों पर था। सुबह-शाम पाकिस्तान का ज़िक्र होता रहता था। बेबसी ने मिज़ाजों में चिड़चिड़ापन पैदा कर दिया था। कभी बेहद गु़स्सा आता और कभी रोने को जी चाहता था। हाथ-पैर तो नाकाम कर दिये गये थे लेकिन दिलो-जां पर आफ़त आयी हुई थी।
1951 में जब हिंदुस्तान के पाकिस्तान की तरफ़ आक्रमण के इरादों की ख़बरें छपीं तो हममें से उन अफ़सरों ने जो अब तक माज़ूल नहीं किये गये थे, हुकूमत को दखऱ्ास्त दी कि पाकिस्तान की हिफ़ाज़त में हमको भी जान लड़ाने की इजाज़त दी जाये, ख़ास तौर पर जबकि हर एक को कश्मीर में हिंदुस्तानी फ़ौजों से लड़ने का तजरुबा है। दखऱ्ास्त में स्पष्ट कर दिया गया था कि हमारा मक़सद मुक़दमे से जान छुड़ाने का नहीं। हम गवर्नमेंट से इसके सिवा कुछ नहीं चाहते थे कि हंगामी हालात के दौरान मुक़दमे को मुल्तवी कर दिया जाये। यह कोई स्टंट भी नहीं था, इसलिए कि हमें मालूम था कि हिंदुस्तानी फ़ौजों के कंधों से कंधा मिलाये हिंदू सभाई और अकाली दरिंदे भी होंगे, और मग़रिबी पाकिस्तान से भागने का कोई रास्ता भी नहीं था। हमारी दखऱ्ास्त रद्द कर दी गयी। बहरहाल, ज़माना खरे-खोटे की तमीज़ जल्द या देर से कर ही लेगा :
नजी़री काश बनुमाई कि दर साग़र च मयदारी
कि पेशे-ज़ाहिदां क़द्रे-गुनहगारां शुवह पैदा
(ऐ नजी़री काश यह दिखायी देता कि तेरे प्याले में कितनी शराब है। गुनाहगारों की क़द्र व अहमियत तो धर्म का पालन करने वालों के सामने ही पैदा होती है)
हिंदुस्तान और पाकिस्तान का ज़िक़ चल निकला है। जेल में फ़ैज़ साहब अक्सर अपने हिंदुस्तानी दोस्तों को याद किया करते थे। उनमें कई एक लाहौर के रहने वाले थे। कई अन्य वर्षों तक पंजाब में रह चुके थे। मौलाना हसरत मोहानी, रशीद जहां, साहिबज़ादा महमूदज़्ज़फ़र, असरारुल हक़ मजाज़, मख़्दूम मुहीउद्दीन, अली सरदार जाफ़री, पंडित हरिचंद अख़्तर, उपेंद्रनाथ अश्क और उनकी बेगम, मुल्कराज आनंद, कृष्ण चंदर, डाक्टर अशरफ़, जोश मलीहाबादी, फ़िराक़ गोरखपुरी और दूसरे कई लोगों का ज़िक्र मैंने इतनी बार सुना है कि महसूस करता हूं कि उनके साथ एक अर्से से जान पहचान है, हालांकि उनमें से मैं किसी एक को भी निजी तौर पर नहीं जानता। सज्जाद ज़हीर और फ़ैज़ साहब इकट्ठे हो जाते थे।
तो फिर बातें ही अक्सर इन लोगों के बारे में हुआ करती थीं।
1947 ई. के दंगों का ज़माना फ़ैज़ साहब ने लाहौर में गुज़ारा था। उन्हीं दिनों वे पूर्वी पंजाब भी हो आये थे। दोनों तरफ़ के बहादुरों और शूर वीरों ने जिस तरह इंसानियत को ज़लील किया था, उसका आंखों देखा हाल सुनाया करते थे। बयान करते-करते दिल भर आता और रुक जाते। मेरे ख़याल में वे इतने बड़े पैमाने पर इस हौलनाक गृह-युद्ध को देखने पर मजबूर रहे हैं कि शायरी में उसको लाने की हिम्मत ही नहीं हुई। हो सकता है कि वक़्त मिलने पर वे नॉवेल या ड्रामे के ज़रिये पंजाब की इस ट्रैजिडी को बयान करें। पंजाब की सरज़मीन यूं तो हज़ारों सालों से हमालावरों के हमलों और बर्बादी का शिकार रही है। शायद ही यहां की कोई नस्ल ऐसी गुज़री होगी जिसने विदेशी घोड़ों के सुमों की टाप न सुनी हो। लेकिन इन हमलावरों में से अक्सर बगूले की तरह आते थे और आंधी की तरह गुज़र जाते थे। तलवार के साये तले जीने का अपमान कुछ कम नहीं होता, लेकिन 1947 ई. में जिस तरह पंजाबियों ने पंजाबियों को ज़लीलो ख़्वार किया, तमाम हमलावरों ने मिल कर भी नहीं किया होगा। अमृता प्रीतम के शब्दों में : (यहां एक पंजाबी ग़ज़ल है जिसका पहला शेर है :)
अज अक्खां वारिस शाह नूं किते क़ब्रां विच्चों बोल
ते आज किताबे-इश्क़ दा अगला वर्क़ा खोल...
फ़ैज़ साहब पाकिस्तान में कई लोगों के इस विचार से बहुत दुखी होते थे कि हर वह चीज़ जिसका संबंध हिंदुस्तान से भी है, पाकिस्तान के लिए ज़हरे-हलाहल है। रेडियो पर इक़बाल के कलाम, क़व्वालियों और फ़िल्मी गानों के सिवा कुछ सुनने में नहीं आता। चुनांचे हम जेल वालों से बचबचाकर हिंदोस्तानी रेडियो स्टेशन से अपने देश के राग सुना करते थे। किसी जाहिल ने ख़ुद ही क़ौमी जोश में आकर अमीर ख़ुसरो, तानसेन, वाजिद अली शाह, अब्दुलकरीम ख़ां, फ़ैयाज़ ख़ां और दूसरे बीसियों उस्तादों और नामवरों से पाकिस्तान का रिश्ता तोड़ने को ही देश प्रेम समझ लिया था।
मुल्कों की राजनीतिक और आर्थिक सीमाएं वक़्त के तक़ाज़ों के अनुसार बदलती रहती हैं। लेकिन एक ही भूखंड की तहज़ीब, भाषा, साहित्य, कला, संगीत, स्थापत्य और दूसरे सांस्कृतिक मूल्यों का मिश्रण सैकड़ों, हज़ारों सालों की कोशिशों के बाद तैयार होता है और उसके बुनियादी तत्वों में तब्दीली आसान नहीं होती। पाकिस्तान और हिंदुस्तान में सियासी धींगामुश्ती कैसा भी रूप ले ले, दिल्ली, लखनऊ, हैदराबाद और लाहौर की गंगा-जमनी तहज़ीबें अपनी जगह क़ायम रहेंगी और मीर और ग़ालिब में सबका साझा रहेगा। हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी तहज़ीबों के दरख़्तों की जड़ें मोहनजोदड़ो, गया, हर्षपुर, गांधार, तक्षशिला, मथुरा, बनारस, अंजता, अजमेर, कु़तुबमीनार, ताजमहल, जामा-मस्जिद, शालीमार हर जगह फैली हुई हैं। शाख़ों में कहीं समरक़ंद व बुख़ारा और कई अरब व अजम (ईरान) से आये हुए पैबंद अपनी बहार दिखा रहे हैं और कहीं प्राचीन डालें ज़्यों की त्यों क़ायम हैं। दूसरे की ज़िद में जड़ों को नुक़सान पहुंचाना, या शाख़ों की नोच खसोट करना अपने पांव पर आप कुल्हाड़ी मारना है।
फ़ैज़ साहब उन इंसानियत नवाज़ परंपराओं से जुड़े हैं जो हज़ारों सालों से दोनों मुल्कों की सरज़मीन की विशेषता रही हैं। वे उसी सिलसिले की कड़ी हैं जिसे अमीर ख़ुसरो, भक्त कबीर, ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, बाबा नानक, बाबा फ़रीद, अबुल फज़्ल, फ़ैज़ी, बुल्हे शाह, वारिस शाह, शाह अब्दुल लतीफ़ भिटाई, रहमान बाबा और दूसरे बहुत से बुजुर्गों ने फ़ैज़ तक पहुँचाया है।
हैदराबाद में उनका पढ़ने-पढ़ाने का सिलसिला अजब रंगा-रंगी का था। कोई क़ुरान मजीद और हदीस शरीफ़ उनसे पढ़ रहा है, तो कोई सूफ़ियों की रचनाएं, फु़तूहुल-ग़ैब, कुश्फ़ुल-महजूब, अहयाऊल-उलूम वग़ैरह की बारीकियां समझ रहा है। कोई अंग्रेज़ी और यूरोपीय अदब की उलझनें पेश कर रहा है तो किसी ने मार्क्सीय भौतिक द्वंद्ववाद के फ़लसफ़े पर बहस शुरू कर रखी है। उर्दू, फ़ारसी अदब तो तक़िया कलाम था। हैदराबाद में हमने उनको शार्गिद के रोल में भी देखा है। पोशनी के साथ मिलकर सज्जाद ज़हीर से हम फ्ऱांसीसी ज़बान सीखा करते थे। निहायत लापरवाह और कामचोर थे। सैयद साहब की उस्तादाना घुड़कियां और फ़ैज़ साहब की बहानेबाज़ियां बहुत मज़ा देती थीं।
मेहनतकशों से उन्हें ख़ास उल्फ़त है। हैदराबाद में एक बार हमारे अहाते में बिजली के खंभे का फ़्यूज़ जल गया। एक मिस्त्राी बग़ैर सीढ़ी के वहां पहुंच गया। हम तिलमिलाने लगे कि ख़ाहमख़ा वक़्त बर्बाद करने के लिए आ गया है। उसने खंभे को ज़रा ठोंका, बजाया और यह जा वो जा। सीढ़ी के बिना ही खंभे के सिरे तक पहुंच कर आंख झपकते नया फ़्यूज लगा आया। फ़ैज़ साहब देर तक उसके क़सीदे पढ़ते रहे। मंटगोमरी में शाहजी, एक पोस्टमैन, हमारे पार्सल वग़ैरह लाया करते थे। उनको देखकर फ़ैज़ साहब की आंखों में जैसी रौशनी आ जाया करती थी वह मैंने कम ही देखी है। दोनों ट्रेड यूनियन के मेंबर रह चुके थे। कहा करते थे कि हिंदुस्तान पाकिस्तान के मसलों का हल एक ही है कि दोनों मुल्कों में मेहनतकश अपने हक़ हासिल करके अपने-अपने बाग़ीचों के माली बन जायें। इसके बाद इन मुल्कों के बीच नफ़रत का ज़हर, और उसको पैदा करने वाले वे मसले जो निदान चाहते हैं, जिनकी आड़ में सामराजी आजकल अपने फ़ौलादी पंजे, वतने-अज़ीज़ की रंगों में दोबारा पैवस्त कर रहे हैं, यूं ग़ायब हो जायेंगे जैसे देवों-परियों के क़िस्सों में हीरो के इस्म पढ़ने पर दैत्य, भूत और दूसरी बलाएं पलक झपकते ग़ायब हो जाती हैं।
फ़ैज़ की शायरी में एक दिल वाले का जोश और वलवला है। इसमें पूरी क़ौम का दिल धड़क रहा है। लेकिन पता नहीं क्या बात है कि उसके क़िवाम (मिश्रण) में पाकिस्तान के मेहनतकशों का मुबारक पसीना और ख़ून की गर्मी अभी तक पूरी मिक़दार में शामिल नहीं है। समन व गुलाब को जिस चाहत से याद किया है, उसी चाहत और विस्तार से उस बदहाल और बदनसीब का ज़िक्र नहीं है जिसने समन और गुलाब को अपने जिग़र के ख़ून से सींचकर शादाब किया है और जिसको हक़ पहुंचता है कि वह भी इस समन व गुलाब की नज़ाकतों, रंग, रूप और सुगंध से फ़ायदा उठा सके। उनका दिल तो उधर खिंचा जा रहा है लेकिन
लग़्ज़िशे-पा (पांव की लड़खड़ाहट) में हैं पाबंदी-ए-आदाब (परंपरा की बेड़ियां) अभी
उनकी शायरी को ड्राइंग रूमों, स्कूलों, कॉलेजों से निकल कर सड़कों, बाज़ारों, खेतों और कारख़ानों में अभी फैलना है।
वे कहा करते हैं कि ये चीज़ सिर्फ़ पंजाबी में हो सकती है। लेकिन मैं समझता हूं कि यह उनकी हमेशा की तरह की विनम्रता है और प्राकृतिक हिचकिचाहट। दस्ते-सबा की भूमिका में उन्होंने लिखा है :
या यूं कहिए कि शायरी का काम केवल मुशाहिदा (सर्वेक्षण) ही नहीं है, मुजाहिदा (बदलाव का प्रयास) भी उस पर फ़र्ज़ है। अपने इर्दगिर्द के बेचैन क़तरों में ज़िंदगी के दजले (नदी का नाम) का मुशाहिदा उसकी बीनाई (दृष्टि) पर है। उसको दूसरों को दिखाना उसकी कलात्मकता पर, उसके बहाव में दख़लअंदाज़ होना, उसके शौक़ की मज़बूती और ख़ून की गर्मी पर और ये तीनों काम लगातर प्रयास और संघर्ष चाहते हैं। आगे फ़रमाते हैं कि ‘इनसानी ज़िंदगी के संगठित संघर्ष को समझना और इस संघर्ष में मुमकिन हद तक शामिल होना ज़िंदगी का ही तक़ाज़ा ही नहीं, कला का भी तक़ाज़ा है।’ ज़िंदांनामा इस बात का गवाह है कि फ़ैज़ के मुशाहिदे और मुजाहिदे की तुलना करें तो मुजाहिदे का पलड़ा भारी हो रहा है और यही इस वक़्त उनकी कला का तक़ाज़ा भी मालूम होता है।
अब उनकी नज़रें लाहौर के मंज़रों से उठकर पाकिस्तान के विशाल मैदानों पर पड़ने लगी हैं जहां अनगिनत इनसाननुमा मिट्टी के ढेर सदियों से एक ही तरह की धीमी-धीमी हरकत कर रहे हैं। अब इन मिट्टी के ढेरों की कमरें कुछ सीधी हो रही हैं, उनको उस बोझ का एहसास हो रहा है जो उन्होंने युगों से उठा रखा है क्योंकि उन पर धीरे-धीरे यह भेद खुल रहा है कि कुछ दूसरे देशों में उनके भाई-बंदों ने यह बोझ उतार दिया है और अब वे लोग इनसान की महानता में बराबर के शरीक हैं। उनकी आंखों में एक तरह का नूर है क्योंकि वे दूर क्षितिज पर जीवन और शक्ति की उठती-गिरती, घटती-बढ़ती रौशनी देख रहे हैं। लेकिन ये लोग किसी विरह की मारी की तरह, जो अचानक अपने प्रियतम को पास आता देखे, अभी तक लजा रहे हैं, शरमा रहे हैं और अपनी दरिद्रता और बदहाली को छिपाना चाहते हैं। फ़ैज़ साहब की नज़रें कारख़ानों में भी घुस रही हैं जहां किसानों के साथ मज़दूर इनसान की रचना शक्ति और उसकी महानता का पाठ पढ़ रहे हैं। फ़ैज़ साहब यह सब कुछ ख़ुद ही नहीं देख रहे हैं, अपने लाहौरी भाई-बंदों, मानसिक मज़दूरी करने वाले लेखकों, क्लर्कों, छोटे दुकानदारों, वकीलों, टीचरों, छात्रों, गामों और माझों को भी दिखला रहे हैं और पुकार रहे हैं कि जीवन के मैदाने-जंग में जो रण छिड़ा है उसमें धर्म और अधर्म के लश्करों को पहचानो। ‘दरिद्रता, दफ़्तर, भूख और ग़म’ ने चौमुखी पथराव करके तुम्हारे साग़ंरे-दिल को टुकड़े-टुकड़े कर दिया है और तुम्हारे मान सम्मान को मिट्टी में मिला दिया है। महबूब के इश्क़ की परी रूपी शराब का अपमान किया है। लेकिन
यादों के ग़रीबानों के रफ़ू
पर दिल की गुज़र कब होती है
एक बखि़या उधेड़ा, एक सिया
यूं उम्र बसर कब होती है
इस कारगहे-हस्ती में जहां
ये साग़र शीशे ढलते है
हर शैच का बदल मिल सकता है
सब दामन पुर हो सकते हैं ।
अब लूट झपट से हस्ती की
दूकानें ख़ाली होती हैं
यां परवत-परबत हीरे हैं
यां सागर-सागर मोती हैं ।
कुछ लोग हैं जो इस दौलत पर
पर्दे लटकाये फिरते हैं
हर परबत को हर सागर को
नीलाम चढ़ाये फिरते हैं।
कुछ वो भी हैं जो लड़-भिड़ कर
ये पर्दे नोच गिराते हैं
हस्ती के उठाईगीरों की
हर चाल उलझाये जाते हैं।
इन दोनों में रन पड़ता है
नित बस्ती-बस्ती, नगर-नगर
हर बसते घर के सीने में
हर चलती रह के माथे पर
ये कालिख भरते फिरते हैं
वो जोत जगाते फिरते हैं
ये आग लगाते फिरते हैं
वो आग बुझाते फिरते हैं।
सब साग़र शीशे, लालो-गुहर
इस बाज़ी में बद जाते हैं
उट्ठो सब ख़ाली हाथों को
इस रन से बुलावे आते हैं।
ज़िंदांनामा में फ़ैज़ साहब ने सच और झूठ की इस भयावह जंग में बहादुरों की बहादुरी की घटनाओं का ज़िक्र शुरू कर दिया है। इसका आरंभ वे दस्ते-सबा में ‘ईरानी तुलबा के नाम’ लिख के कर चुके है। लेकिन अभी तक उनकी यह आदत पूरी तरह नहीं गयी कि वे ज्वालामुखी पहाड़ से निकलने वाले धुएं के पहले मरग़ौले को ही ले बैठते हैं, और जब यह धुएं का बादल हवा के झोकों से पलक झपकते तितर-बितर हो जाता है तो दुखी हो जाते हैं। या तूफ़ान की पहली मौज के तमाशे में ही खो जाते हैं और जब उसे साहिल के रेत में जज़्ब होता देखते हैं तो दर्द की ज़्यादती से बेहाल हो जाते हैं। या बढ़ते हुए लश्कर के सबसे अगले स्काउट जब खेत हो जाते हैं तो उनको तड़पता देखकर पूरी दुनिया की व्यवस्था को आग लगा देना चाहते हैं। ऐसे दर्द की बहुलता हरेक नेक दिल की विशषता होती है, लेकिन अगर ज्वालामुखी की ज़मीन में दबी गरज को सुना जाये, और उसके चंद क्षणों में उबलने वाले करोड़ों मन लावे की कल्पना की जाये, या पहली लहर के पीछे बिफरे हुए असीम समंदर का ख़याल किया जाये तो धुएँ के पहले मरग़ौले के बिखरने, तूफ़ान की पहली लहर के जज़्ब होने और स्काउटों के मरने में दर्द व ग़म की जगह संघर्षी तड़प आ जाती है। ज़िंदगी के साये गहरे होने के बजाय उसकी रंगीनियों में इज़ाफ़ा हो जाता है। इन तीनों की मौत पर रोने-धोने के बजाय उनकी यादगार मनाने को जी चाहता है। वे इश्क़ो-मुहब्बत के पहले मरने वाले ही नहीं, जीत की नींव डालने वाले भी हैं, उनकी मौत ज़िंदगी का रस है। फ़ैज़ साहब का केन्वस ज़रा और बड़ा हो जाये तो निःसंदेह हमारे अदब के गोरिकी बन जायेंगे। उनसे ज़्यादा इस रुत्बे का और कौन हक़दार है। बदक़िस्मती से हालात कुछ ऐसे हैं कि रजज़ ख्वां (योद्धाओं का उत्साह बढ़ाने वाला शायर) अपनी एक जान के साथ क्या कुछ कर सकता है?
मंटगोमरी में मेरी एक ड्यूटी फ़ैज़ साहब के लिए श्रोता इकट्ठा करने की भी थी। इसका एक ज़रिया यह था कि मैं उनका ताज़ा कलाम सैयद सज्जाद ज़हीर को मच्छ जेल में, और अता और पोश्नी को हैदराबाद भेज दिया करता था। सैयद सज्जाद ज़हीर के एक ख़त का एक हिस्सा इस प्रसंग के आखि़र में पेश करना बहुत मुनासिब रहेगा :
सेंट्रल जेल
मच्छ, बलोचिस्तान
21 फरवरी 1954 ई.
...आइंदा मैं ज़्यादा पाबंदी से तुम्हारे ख़तों का जवाब दूंगा। इस इरादे में मेरी नैतिक ज़िम्मेदारी ही नहीं बल्कि स्वार्थ भी शामिल है। तुम्हारे ख़तों से दोस्ती और मुहब्बत की धीमी सुगंध आती है जिससे रंजूर (दुखी) दिल को बेइंतेहा, ठंडक पहुंचती है। इस तरह हम तन्हाई में बातचीत कर लेते हैं। थोड़ी बहुत फ़लसफ़ियाना और अदबी मूशिगाफ़िया (सूक्ष्म विमर्श) भी कर लेते हैं। और फ़ौलादी दीवारों में किसी क़दर दरार डालकर जैसे निकलते हुए सूरज की किरनों से ज़रा देर के लिए दिमाग़ को रौशन कर लेते हैं। फिर इसके अलावा तुम फ़ैज़ के कलाम के तोहफ़े भी भेजते हो, और अब की तो तुमने ढेर लगा दिये हैं। इनके लिए फ़ैज़ और तुम्हारा बहुत बहुत शुक्रिया। यह तो ऐसा अतिया (भेंट) है जिसके बदले मैं कभी कुछ नहीं दे सकता।
फ़ैज़ की नज़्म ‘मुलाक़ात’ मुझे पसंद आयी है। इसमें प्रतीकों का अलंकरण अपने चरम पर पहुंच गया है, और पहली पंक्ति से शुरू होकर (ये रात उस दर्द का शजर है) नज़्म के बहाव के साथ-साथ सुन्दर उपमाओं और रूपकों के जैसे नाज़्ाुक फूल चारों तरफ़ खिलते चले गये हैं जिनमें से हरेक ऐसा है जो अपनी अलग सुगंध और रंग भी रखता है और दूसरों के साथ मेल भी खाता है और संतुलित भी है। फिर नज़्म का बुनियादी ख़याल पूरी कल्पना के साथ बड़ी कामयाबी के साथ मिलाया गया है जैसे एक हसीन और नाज़्ाुक जिस्म में दर्दमंद, अनुभूति रखने वाली और नाज़्ाुक रूह हो। यह नहीं मालूम होता कि दुख, ग़म का एहसास और दर्द की अधिकता, और उन सबके बावजूद बल्कि उनके द्वारा उदित होने वाली ‘नयी सहर’ की कल्पना को आत्मसात करके शायर ने उसे नज़्म में ढाला है। बल्कि यहां पर यह ऊंचा, उत्साहवर्धक, ख़याल और कल्पना जैसे शायराना कल्पना का फल है और पूरी नज़्म के गुलदस्ते से आकर्षक और रूह अफ़्ज़ा रंगीनियों और खु़शबुओं के साथ झुक पड़ा है। तीसरे बंद के शुरू की चार पंकितयां जहां से नज़्म को एक मोड़ दिया गया है, अपनी रवानी, संगीत, शब्द रचना और प्रभाव के ऐतबार से अपना जवाब नहीं रखतीं। उन्हें एक बार पढ़ लो तो दिल पर नक़्श हो जाती हैं और फिर भूलती नहीं। ऐसा मालूम होता है कि जैसे इतवार की सुबह को किसी चर्च की घंटियां लहक-लहक कर बज रही हों और उनकी मुसलसल आवाज़ सिर्फ़ कानों में नहीं बल्कि सारे जिस्म के रोम-रोम में उतर रही हो। फ़ैज़ की शायरी का ‘रंग’ लोग जिस बात को कहते हैं, उसमें लहजे का दर्द और फ़ज़ा की नर्मी एक चीज़ है। मुझे खु़शी है कि इन पंक्तियों में वह रंग नहीं है। अच्छे और बड़े शायर अपना रंग ज़रूरत और मौक़े के अनुसार बदलते रहे हैं, हालांकि वे अपनी प्रकृति नहीं बदल सकते।
‘तुमने अपने पिछले ख़त में इसकी तरफ़ इशारा किया था कि अब उन्हें हिम्मत करके एक छलांग लगानी चाहिए ताकि उनकी शायरी में खु़शबुओं और फूल बिखेरने के अलावा ख़ल्के-ख़ुदा के उस मुबारक पसीने और ख़ून की हरारत का भी मिश्रण हो जिससे अस्ल में ज़िंदगी बनती, बदलती और संवरती है। मैं इस ख़याल से बिल्कुल सहमत हूं। लेकिन मैं उन्हें ऐसा करने के लिए धक्का देना नहीं चाहता ... इन आशाजनक प्रतिबिंबों के कारण, जो उनकी नज़्मों और ग़ज़लों में ख़ुद ही नज़र आ रहे हैं, सही जनतांत्रिक वर्तमान दिशा का पता चल रहा है।
मेरे ख़याल में वे ख़ुद इस बिंदु को समझते हैं। पंजाब की सरज़मीन सदियों पहले बाबा फ़रीद, वारिस शाह, बुल्हेशाह की ज़ातों में, दूसरे हालात और दूसरे माहौल में, ऐसी जम्हूरी शायरी पैदा कर चुकी है। हमारे यहां कबीर, तुलसी, सूर हो चुके हैं। ऐसे नग़्मे फिर क्यों नहीं छेड़े जा सकते।
इन नयी ग़ज़लों पर उनको मुबारकबाद देना, हांलाकि यह सही है कि दाद मिर्ज़ा जाफ़र अली ख़ां से ही लेना चाहिए, मैं तो अब बराएनाम लखनऊ का रह गया हूं। छः साल पंजाब में और पंजाबियों के साथ रहकर अल्लाह ही जानता है कि ज़बान कितनी ‘बिगड़’ गयी है। शायद चूंकि मौसम बहार का है इसलिए हमें ‘गुलों में रंग भरे बादे-नौ-बहार चले’ वाली ग़ज़ल सब से अच्छी लगी। इस शेर की तारीफ़ नहीं हो सकती :
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़म गुसार चले
जिस ग़ज़ल को तुमने ‘वासोख़्त’ का शीर्षक दिया है वह भी अपने रंग में ख़ूब है। एक-एक शेर नश्तर है। किस किस की तारीफ़ करें। ख़ासतौर पर यह शेर :
गर फ़िक्रे-ज़ख़्म की तो ख़तावार हैं कि हम
क्यों महवे-मदहे-ख़ूबी-ए-तैग़े-अदा (अदा की तलवार की खूबियों की तारीफ़ करने में मगन) न थे
इसकी दाद तो फ़ैज़ मिर्ज़ा नौशा (ग़ालिब) से भी लेते, जाफ़र अली ख़ां असर तो अलग रहे....’।
उर्दू से अनुवाद : अर्जुमंद आरा