रूप की रानी चोरों का राजा / रवीन्द्र कालिया

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यह कहानी मैं दोबारा लिख रहा हूँ। वैसे सच तो यह है कि मैं लगभग प्रत्येक कहानी एक से अधिक बार ही लिखता रहा हूँ। हर बार लिखते हुए लगा कि मैं रवीन्द्र कालिया की तरह लिख रहा हूँ। किसी दूसरे कथाकार को ऐसा लगता तो वह परेशान होता। मैं तो खामखा परेशान हो रहा हूँ। मैं रवीन्द्र कालिया की तरह नहीं लिखूँगा तो क्या ममता कालिया की तरह लिखूँगा ? आप मेरे पाठक हैं, मेरी छटपटाहट को समझने की कोशिश कीजिए। मेरी इस व्याकुलता का यह अर्थ मत निकाल लीजिए कि मैं कोई तीर मारने जा रहा हूँ। मेरी अपनी सीमाएँ है। आप तो जानते ही हैं, मैं कभी अच्छा तीरंदाज नहीं रहा। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि कहानी अभी शुरू भी नहीं और आप से राब्तः कायम हो गया और अब मैं कहानी के बीच-बीच में आप से संवाद करता रहूँगा।

दरअसल टी.वी. ने मेरी आदत खराब कर दी है, कोई भी कार्यक्रम निर्बाध रूप से देखने का अभ्यास नहीं रहा, आप मन लगा कर कोई धारावाहिक देख रहे हैं कि बीच में अचानक विज्ञापन अथवा प्रोनो थोप दिये जाते हैं। दर्शक अब इस के अभ्यस्त हो चुके हैं। शायद दर्शकों को राहत देने के लिए फिल्म में ‘इंटरवल’ की व्यवस्था रहती है। उपन्यास को कई अध्यापकों में विभाजित कर दिया जाता है, मगर कहानी एक ऐसी विधा है कि एक बार शुरू हुई तो अंत तक पहुँच कर ही दम लेती है। ज़ेहन में अचानक यह ख़याल गुजरा कि पिक्चर के दौरान थियेटर में शायद इसीलिए मुँगफली वेफर्स बिकते रहते हैं। आप मेरी कहानी पढ़ने जा रहे हैं, मैं आप की सुविधा-असुविधा का ध्यान रखूँगा, आप चाहेंगे तो बीच में चाय-नाश्ते का भी प्रबंध करता रहूँगा। 

कहानी एडवोकेट दिवाकर के घर की है। वह दिल्ली गया हुआ है। उसके पिता को दिल का दौरा पड़ा था। घर में उसकी पत्नी संध्या और दो बच्चे हैं। बच्चों की परीक्षाएँ सिर पर हैं, वरना वे लोग भी दिवाकर के साथ चले गये होते। सुबह जब संध्या की आँख खुली तो उसने देखा घर का पूरा सामान कमरों में इधर-उधर बिखरा पड़ा था, खिड़कियों और दरवाजों के कपाट खुले पड़े थे। लग रहा था, जैसे अभी-अभी कोई ज़लज़ला आया हो। संध्या का कलेजा मेंढक की तरह उछलने लगा। वह देर तक कमरे में ‘हाय मेरी साड़ी’ ‘हाय मेरी शॉल’ जैसे शब्द बुदबुदाते हुए इधर-उधर दौड़ती रही। बरामदे में जल रहे बल्ब की बीमार ज़र्द रोशनी कमरे की देहरी लाँघ आयी थी।

इसी अफ़रातफ़री में उसने कमरे में सब स्विच ऑन कर दिये और सब से पहले बच्चों को छू कर देखा। बच्चे ने इस हादसे से बेखबर इत्मीनान से सो रहे थे। दूसरा ख़याल उसे दिवाकर का आया। यह सोच कर उसे बहुत खुशी और हल्की सी ग्लानि हुई कि उसके तमाम विरोध के बावजूद दिवाकर घर का सारा कीमती सामान बैंक के लॉकर में रख आया था। वह कहती रह गयी कि साल दर साल लॉकर का भाड़ा भरते-भरते इतनी रकम खर्च हो चुकी है कि सारा सामान फिर से खरीदा जा सकता है। दिवाकर ने उस के किसी तर्क को अहमियत नहीं दी और अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। यह सोच कर उसने बहुत राहत महसूस की कि घर में न ज़्यादा रकम थी न जुएलरी। ज़िद कर के उसने गले की चेन, कंगन और अंगूठियां रोक ली थीं और अब अल्मारी का सेफ़ उसे मुँह चिढ़ा रहा था। घर के खर्च के लिए रखे आठ-दस हजार रुपये भी गायब थे। उसे ठीक-ठीक नहीं मालूम, दिवाकर कितनी राशि घर में छोड़ गया था।

संध्या ने सब से पहले अमरेन्द्र को चोरी की सूचना दी। अमरेन्द्र दिवाकर का मित्र था और इसी कालोनी में रहता था। डायल घुमाते हुए संध्या ने देखा दिवाकर ने डायल पर कुछ ज़रूरी नम्बर लिख रखे थे। उनमें थाने का भी नम्बर था। संध्या ने तुरत थाने का नम्बर डायल किया। उसे सुखद आश्चर्य हुआ, थाना जग रहा था। ‘‘थाना सिविल लाइन्स, सिपाही फौजदार सिंह।’ उधर से आवाज़ आयी। संध्या ने अचानक अपने को बहुत महफ़ूज महसूस किया, बेसाख़्ता उसके मुँह से निकल गया, ‘आपने फ़ोन उठाया, शुक्रिया। मैं दो बटा तीन स्वराज नगर से मिसेज़ दिवाकर वर्मा बोल रही हूँ। हमारे यहाँ चोरी और लूटपाट हुई है, एस .ओ. साब से बात हो सकेगी क्या ?’’ ‘एस.ओ.साब क्वार्टर पर हैं।’

‘किसी दूसरे अधिकारी से बात करा दें।’ ‘मेरे अलावा कोई नहीं है। आप घर पर फ़ोन कर लें।’ ‘घर का फ़ोन नम्बर है आप के पास ?’ ‘आप होल्ड करें, अभी देख कर बताता हूँ।’ फौज़दार सिंह ने कहा। मेज़ पर ठक से रिसीवर रखने की आवाज आई। संध्या कान पर चोंगा रखे देर तक बैठी रही। रिसीवर में कुत्तों के भौंकने की आवाज़ सुनायी दे रही थी। ‘मैडम फ़ोन का चार्ट मिल नहीं रहा। वह बगले में रहते हैं, मैं अभी नम्बर पूछकर आता हूँ।’ फौजदार सिंह ने जवाब सुने बगैर चोंगा दोबारा मेज पर पटक दिया। कुत्ते फिर भौंकने लगे। दो-चार मिनट में ही संध्या को एस.ओ.साहब का नम्बर मिल गया। उसने तुरत फ़ोन उठाया और जैसे रटे-रटाये शब्दों में जानकारी दी कि एस.ओ. साहब बाथरूम में हैं।

किसी भी सूरत में यह टायलट जाने का समय नहीं था और दूसरे क्या एस.ओ. साहब गेट पर तैनात सिपाही को सूचित करने के बाद बाथरूम जाते हैं, संध्या ने इन गैरज़रूरी सवालात पर ध्यान न देते हुए पूछा, ‘कब तक बाहर आ जाएँगे ?’ ‘यह तो वही बता सकते हैं।’ ‘कितनी देर बाद फ़ोन करूँ?’ ‘सुबह कीजिए।’ ‘आपकी सुबह कब होती है ?’ संध्या ने झुँझलाकर पूछा। ‘आप 100 नम्बर पर फ़्लाईंग स्क्वायड को फोन मिलाएँ।’ सिपाही ने सही मश्वरा दिया। ‘ठीक है। मगर एस.ओ. साहब कब मिलेंगे ?’ ‘आप अपना फोन नम्बर छोड़ दें, मैं उन्हें दे दूँगा।’ ‘काग़ज़ कलम है तुम्हारे पास ?’ अखबार पर लिख लूँगा।’

‘कलम है ?’ ‘कलम तो है मैडम, मगर उसकी स्याही खत्म हो चुकी है। दबा कर लिखूँगा तो पढ़ा जाएगा।’ संध्या ने फ़ोन काट दिया और सिर थाम कर बैठ गयी। तभी गेट पर गाड़ी रुकने की आवाज़ आई। शायद अमरेन्द्र आ गया था। वह लपक कर दरवाज़े की ओर बढ़ी, मगर दरवाज़े पर नवताल लटक रहा था। भीतर आकर वह भूल गयी कि रात को चाबी कहाँ रखी थी। तकिया उठा कर देखा, वहाँ चाबियों का गुच्छा नहीं था। अमरेन्द्र कालबेल बजा रहा था और संध्या को चाबियों का गुच्छा नहीं मिल रहा था। वह किवाड़ के पास जा कर चिल्लाई, ‘भाई साहब चाबियाँ नहीं मिल रहीं। लगता है चाबियाँ भी ले गये।’

अमरेन्द्र बाहर खड़े-खड़े अपने मोबाइल से फ़ोन मिलाने लगा। उसने इन्सपेक्टर डी.वाई.एस.पी., एस.ओ.,सी.ओ., सबके नम्बर मिला कर देख लिए, कोई भी अधिकारी लाईन पर नहीं आया। एस.पी. (रूरल) खान उसका मित्र था, जब कोई अधिकारी न मिला तो उसने खान से बात करना मुनासिब समझा। ख़ान का मोबाइल नम्बर उसके पास था। खान से उसकी बात हो गयी। यह क्षेत्र ख़ान के अधीन नहीं था, फिर भी वह आने को तैयार हो गया। ‘क्या बताऊँ भाई साहब, मेरा तो दिमाग खराब हो गया है। सामने मेज़ पर चाबियों का गुच्छा पड़ा था, मुझे दिखायी न पड़ा। मैंने पूरा घर छान मारा।’ अमरेन्द्र भीतर आया तो संध्या ने कहा। ‘घर तो आपका चोरों ने छान मारा है। देखिए दिवाकर का नया सूट धूल फाँक रहा है। अभी जो चीज़ जहाँ है, वहीं पड़ी रहने दीजिए। कुछ छुइए मत।’

संध्या कोट की जेब में से पर्स ढूँढ़ रही थी, उसने कोट वहीं रख दिया। अमरेन्द्र कुर्सी पर बैठे हुए लगातार फ़ोन मिला रहा था। संध्या कुछ बोलती तो वह सिर उठाता और दोबारा फ़ोन मिलाने में जुट जाता। तभी कोई गाड़ी घर के बाहर रुकी और गाड़ी के चारों दरवाजे खुलने और बंद होने की आवाज़ आयी। ‘भाभी आप बैठें, मैं देखता हूँ। खान होगा, एस.पी. रूरल। मेरा दोस्त है।’ दिवाकर ने बाहर जाकर खान को रिसीव किया। खान के साथ उसके सुरक्षा कर्मी भी थे। वे उसके पीछे पीछे चल रहे थे। उत्सुकतावश संध्या भी बाहर आ गयी। उसने खान का अभिवादन किया और बोली कि वह अभी चाय लेकर आती है। ‘वल्लाह क्या खूबसूरत बदन है।’ खान ने अपने दोनों हाथ अमरेन्द्र के हाथों पर रख दिये। ‘सुबह महक महक उठी।’ ‘खान बेवकू़फ़ी की बातें मत करो। वह मेरे नज़दीकी दोस्त की बीवी है।’ ‘अमर तुम बहुत खुशकिस्मत हो कि वही तुम्हारा नज़दीकी दोस्त है, जिसकी बीवी इतनी खूबसूरत है। लगता है तुमने उसे ग़ौर से नहीं देखा।’

‘तो तुम भी हर चीज़ पुलिसिया निगाह से देखने लगे हो।’ ‘क्यों पुलिस के दिल नहीं होता ?’ ‘यह बकवास बंद करो और किसी ज़िम्मेदार अधिकारी को बुलवाओ। फ़ोन पर कोई अधिकारी उपलब्ध नहीं। जो उपलब्ध हैं, वे बाथरूम में हैं।’’ ‘बड़े अधिकारियों की लोकेशन बाथरूम ही होती है।’ खान ने एक सिपाही को वायरलेस पर एस.पी. (सिटी) से सम्पर्क करने को कहा। देखते वह एस.पी. (सिटी) से गाड़ी में जाकर बात भी कर आया। संध्या ने अमरेन्द्र और खान के सामने चाय की ट्रे कर दी। दोनों ने अपना-अपना कप उठा लिया।

‘एस.पी. से बात हो गयी है, वह आते ही होंगे।’ अमरेन्द्र ने कहा, ‘आप भीतर जाएँ, तब तक मैं खान को दिखाता हूँ कि चोर कहाँ से खिड़की तोड़ कर घुसे।’ ‘आइए मैं दिखाती हूँ।’ संध्या उन दोनों के आगे-आगे चलने लगी। अमरेन्द्र वहीं रुक गया। ‘रुक क्यों गये ?’’ ‘तुम जानते हो।’ ‘उसे बार-बार भीतर जाने के लिए क्यों कह रहे हो ? वह होगी तुम्हारे दोस्त की बीवी, मैं भी तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ।’ ‘हुए तुम दोस्त जिसके, दुश्मन उसका आसामाँ क्यों हो।’ अमरेन्द्र ने कहा। ‘तुम जानते हो, मैं दोस्तों से शायरी और अफ़सानानिगारी के रिश्ते नहीं रखता वैसे इस वक्त तुम काफ़ी गै़रशायराना हरकत कर रहे हो।’

अमरेन्द्र को लगा, खान से बहस करना फ़िजूल है, उसने चुपचाप अपने मोबाइल से दिवाकर का नम्बर घुमा दिया। उसे विश्वास था, घंटी सुनते ही संध्या भीतर भागेगी, वही हुआ। भीतर से ‘हैलो, हैलो’ की आवाज़ आती रही। अमरेन्द्र ने नम्बर काट दिया। संध्या दोबारा बाहर चली आई। वह अभी बीच रास्ते में ही थी कि अमरेन्द्र ने ‘रीडायल’ दबा दिया। संध्या उल्टे पाँव कमरे की तरफ़ लपकी। इसबार अमरेन्द्र ने बाहर से कमरे की सांकल चढ़ा दी। ‘लगता है तुम्हारे दोस्त की बीवी को कोई पुराना आशिक फ़ोन मिला रहा है।’ खान ने कहा, ‘तुमने उसे कमरे में क्यों बंद कर दिया।’

अमरेन्द्र खान को लेकर बाहर आ गया और वह खिड़की दिखाने लगा, जिसे काट कर चोर भीतर कूदे थे। खिड़की में से भीतर देखा तो सामने संध्या खड़ी थी। अमरेन्द्र को देखते ही उसने हैरत से पूछा, ‘भाई साहब, साँकल किसने लगा दी ?’ ‘इसे डर लग रहा है, कहीं चोर दुबारा न घुस आयें। खान बोला, ‘इनका दोष नहीं, बहुत से लोग पुलिस को सबसे बड़ा चोर समझते हैं।’ एस.पी. (सिटी) अपने फौज काटे के साथ आते दिखायी दिये तो अमरेन्द्र ने राहत की साँस ली। उनकी तेज़ रफ्तार गाड़ी कुछ ऐसे झटके के साथ रुकी और वह कूद कर बाहर निकले, जैसे चोर कहीं आसपास ही हैं और वह लपक कर उसे पकड़ लेंगे। खान और अमरेन्द्र ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया।

एस.पी. और पुलिसकर्मीयों को देखकर संध्या तुरत रसोई में घुस गयी और चाय के लिए ढेर-सा पानी चढ़ा दिया। जब तक पानी उबलता, वह एस.पी. वगैरह को टूटी हुई खिड़की और कमरे का जायज़ा लेते हुए देखती रही। उसे आश्चर्य हो रहा था। कि घर में इतनी चहल-पहल थी और बच्चे दीन-दुनिया से बेख़बर सो रहे थे। संध्या मेज़ पर झुक कर प्यालियों में चाय उड़ेल रही थी। एस.पी. (सिटी) ने एस.पी. (रूरल) की तरफ़ देखा। दोनों ने आँखों ही आँखों में सन्देशों का आदान-प्रदान किया। अमरेन्द्र से यह छिपा न रह सका। उसके चेहरे पर तनाव की रेखाएँ स्पष्ट देखी जा सकती थीं। उसे लग रहा था, उसके सामने ही चोरी हो रही है और वह कुछ नहीं कर सकता। ‘क्या क्या ले गये ? अन्दाज़न कितना नुकसान हुआ होगा ?’ एस.पी. ने संध्या को सिर से पैर तक देखते हुए पूछा। ‘सब कुछ ले गये। सेफ़ में कुछ नहीं बचा।’

‘क्या-क्या सामान था ?’ ‘रुपया पैसा, ज्वैलरी, सब कुछ।’ संध्या बोली, ‘बहन की शादी पड़ रही थी, यह सोच कर कुछ सामान लॉकर से निकाल लाई थी।’ ‘एक लिस्ट बनायें, सब सामान की। नकदी कितनी थी ?’ ‘दिवाकर को मालूम होगा। वही बता पायेंगे।’ संध्या ने कहा। ‘दिवाकर इनके पति का नाम है।’ अमरेन्द्र बोला, ‘वह कल ही दिल्ली गये हैं। उनके पिता नर्सिंग होम में भर्ती हैं।’’ ‘ओह तो आप अकेली थीं।’ एस.पी. ने पहलू बदलते हुए अपनी राय ज़ाहिर की, ‘निश्चित रूप से यह राजू गिरोह का काम है। खिड़की की ग्रिल काटने का हुनर उसी के पास है। वह मज़बूत से मज़बूत सरिया टेढ़ा कर के निकाल लेता है।’ एस.पी. के पीछे सावधान की मुद्रा में एक इन्सपेक्टर खड़ा था। उसने एस.पी. साहब की बात सुनते ही थाने को फ़ोन किया कि राजू को कहीं से भी खोज कर फौरन हाज़िर किया जाए।

‘डॉग स्क्वायड और फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट को बुलाइए।’ ‘सर, मैं फोन कर चुका हूँ। कुत्ते अभी मार्निंग वाक के लिए निकले हुए हैं। मैंने सन्देह छोड़ दिया है।’ ‘और वह डफर फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट ?’ ‘उसके यहाँ फ़ोन नहीं है सर। उसे बुलाने के लिए एक सिपाही गया है।’ तमाम लोग मौकाए वारदात का जायज़ा लेने के लिए उठे। कमरे के भीतर फर्श पर कपड़े, लत्ते और कागज़ात फैले हुए थे। आल्मारी और उसके भीतर के सेफ़ के कपाट खुले पड़े थे। थोड़े बहुत कपड़े अल्मारी में दिखायी दे रहे थे, उनकी भी तहें खुल चुकी थीं। खिड़की की कुछ टेढ़ी मेढ़ी सलाखें खिड़की के बाहर पड़ी थीं और कुछ कुबड़ी-सी खिड़की में ही पड़ी रह गयी थीं। खिड़की के भीतर से आने जाने का एक ऐसा कलात्मक गोल घेरा बन गया था कि बिना किसी खरोंच के बाहर से भीतर आया जा सकता था।

‘निश्चित रूप से यह राजू गिरोह का काम है।’ एस.पी. ने एक बार फिर अपनी राय प्रकट की। ‘सर, ध्यान सिंह राजू को लेकर पहुँच ही रहा होगा।’ एस.ओ. बोला। संध्या उरोजों के नीचे बाँहों का घेरा बनाए कुछ इस मुद्रा में खड़ी थी, जैसे बाँहें हटायेगी तो वे नीचे गिर जाएँगे। अमरेन्द्र ने देखा, खान अपना बायाँ पैर एस.पी. के पैर के ऊपर रख कर दबा रहा था। अमरेन्द्र जितनी बार संध्या की तरफ देखता उसका पारा चढ़ने लगता। अब तक संध्या को भीतर भेजने के सारे प्रयत्न निष्फल रहे थे।

प्रिय पाठकों, कहानी के प्रारम्भ में ही मुझसे एक भूल हो गयी थी, मालूम नहीं, आपने उसकी तरफ़ ध्यान दिया या नहीं। मैंने सोचा था, नायिका का नामकरण कर देना पर्याप्त होगा। इससे पहले मैं बहुत-सी ऐसी कहानियाँ भी लिखी हैं, जिनमें पात्रों का नाम ही नहीं है, ‘वह’ आदि सर्वनामों से काम चला लिया गया है। इस कहानी में पात्रों के नामकरण के बावजूद कुछ दिक्कतें दरपेश आ रही हैं। जैसे आप जानना चाह रहे होंगें संध्या की शकल सूरत कैसी है, उसकी देह में ऐसा कौन सा आकर्षण है कि उसके पति का दोस्त उसे पुलिसिया आकर्षण से दूर रखना चाहता है। जिस समय उसे चोरी का पता चला, वह क्या पहने हुई थी। कथाकार के गले के नीचे यह बात नहीं उतरती कि जब कोई दुर्घटना होती है, उस समय कोई अपनी पोशाक के बारे में सोचता होगा। किसी प्रियजन की मृत्यु का समाचार सुनकर यह जिज्ञासा तो नहीं होती कि मौत के समय वह क्या पहने हुए था, थ्रीपीस सूट में था या कुरते पायजामें में ? ऐसा भी नहीं देखा गया कि किसी के बाप की मौत हो जाए और वह फौरन कोट पतलून उतार कर धोती पहन ले।

इस कहानी में संध्या के साथ ऐसा ही कुछ हुआ। संध्या के पति को पसंद था कि उसकी पत्नी महीन कॉटन की नाईटी में ही बिस्तर पर आए। उसके पास दर्जनों नाईट सूट थे और वह वर्षों से यही पहन कर सो रही थी। हालाँकि आज उसका पति घर पर नहीं था, वह हस्बे मामूल नाईटी पहन कर सो गयी थी। संध्या को कल रात अगर साड़ी पहना कर सुला दिया होता तो ये अनपेक्षित स्थितियाँ पैदा न होतीं। वैसे यह तो ऐसी ही बात हुई कि किसी से कहा जाए, सुबह आपकी मौत होने वाली है, रात को अवसर के अनुकूल वस्त्र पहन कर सोयें। बहरहाल, अब जल्दी से संध्या के कपड़े तब्दील करवाने का इन्तज़ाम करता हूँ, क्योंकि जब तक संध्या कपड़े नहीं बदलेगी, कहानी उसकी नाईटी के आगे पीछे तांकझांक करती रहेगी। लीजिए, ध्यानसिंह राजू को पकड़कर ला रहा है।

‘सलाम साब।’ राजू पुलिस अधिकारियों को देखकर ज़रा भी विचलित न हुआ। ‘क्यों बे, दुबारा जेल की हवा खाना चाहते हो।’ इन्सपेक्टर ने अपने गाली कोश से अफसरों की उपस्थिति में चल सकने लायक गालियों का सावधानीपूर्वक चुनाव करते हुए उसे गिरेबान से पकड़कर दो तीन बार झिंझोड़ा, बता किसके लिए किया यह काम ? मैं तो खिड़की देखते ही समझ गया था यह तुम्हारी करामात है।’ ‘नहीं साहब, मैंने यह काम छोड़ दिया है।’ ‘रात को कहाँ था, बता वर्ना अभी बाँस पर चढ़ा दूँगा।’ गाली गलौज के माहौल का लाभ उठा कर अमरेन्द्र ने संध्या से कहा, ‘भाभी, आप अन्दर जाएँ।’ संध्या उठकर कमरे की ओर चल दी। खान ने शिकायती नज़रों से अमरेन्द्र की तरफ देखा। तमाम निगाहों ने संध्या का पीछा किया।

‘झूठ नहीं बोलूँगा हुजूर। रात को कुछ ज़्यास्ती पी गया था, हौली में ही ढेर हो गया। किसने घर पहुँचाया, कुछ पता नहीं।’ ‘हर बार तुम यही जवाह देते हो। मैं तुम्हारी रग-रग से वाकिफ़ हूँ।’ इन्सपेक्टर ने उसे खिड़की की तरफ़ धकेलते हुए कहा, ‘साहब को बताओ, कैसे भीतर घुसे थे।’ राजू वहीं फर्श पर उकड़ूँ बैठा रहा, बोला, ‘साहब यकीन मानिए यह मेरा काम नहीं है। मेरा हुनर ही मेरा दुश्मन बन गया है।’ ‘साहब को भी दिखाओ अपने हुनर का कमाल।’ एस.ओ. ने आदेशत्माक स्वर में कहा। ‘अमरेन्द्र भाई, एक चाय तो पिलवाइए, बहुत तलब हो रही है।’ खान ने कहा। वह खान का आशय समझ रहा था। वह राजू के हुनर का कमाल देखने में मशगूल हो गया।