रूममेट / महेश कुमार केशरी

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कमबख्त कुछ भी तो नहीं बदला है l सारी चीज़ें , ज्यों- की- त्यों अपनी जगह पर जमा हैं l लगता है जैसे कैलेंड़र को उठाकर एक आले से दूसरे आले पर रख दिया गया हो l रौशनी , में क्या बदला है ? सबकुछ तो वैसा ही है l अलबत्ता बालों के बीच से कुछ सफेदी झाँकने लगी है l लेकिन वह पहले की तरह ही खुबसूरत है l नख से शिख तक l गोरा रंग , लंबी नाक , कत्थई आँखें ईश्वर ने जैसे उसे बहुत ही मेहनत से बनाया है l

"अरे तुम... ,कैसे हो ...? बहुत दिनों के बाद ...l"

रमेश बस मुस्कुरा कर रह भर जाता है l

उसके साथ एक चार पाँच - साल का बच्चा भी है l चेहरा कुछ - कुछ रौशनी से ही मिलता जुलता है l ये शायद दूसरा बच्चा है l क्योंकि जहाँ तक रमेश को उससे मिले कुछ बीस - बाईस एक साल तो हो ही गये होंगे l

"ये दूसरा ... वाला है l मेरा छोटा बेटा l" उसने तस्दीक की l

"कितने साल का है ?"

"इस साल पाँच साल का हो जायेगा l"

कुछ देर उनके बीच चुप्पी के कतरे तैरते रहते हैं l समय का हर एक सेकेंड़ जैसे किसी राक्षस की तरह रमेश को अपने जबड़े में खींच लेने को तैयार है l

लेकिन , ये भारी पल रौशनी को भी उसके सीने पर किसी पत्थर की मानिंद लगतें हैं l शायद वे दोनों ही इस स्थिति के लिये तैयार नहीं हैं l कभी - कभी हमारे जीवण में हम ऐसे पलों को भी महसूस करतें हैं l जिसमें हम ईश्वर से ये कामना करते हैं l कि ये पल हमारी ज़िन्दगी से अगर निकाल दिये जायें l तो हम ईश्वर के आजीवण ऋणी रहेंगें l

तभी रौशनी ने बच्चे को सम्बोधित किया - "अर्णव...l"

अर्णव अपनी माँ की तरह ही समझदार है l झुककर रमेश के पैरों को छूता है l

रमेश बच्चे को पुचकारता है - "अरे , नहीं बेटा ... ! ये सब नहीं l"

"बड़ा प्यारा नाम है , अर्णव l और उतने ही प्यारे हो तुम l ख़ूब पढ़ो l ख़ूब तरक्क़ी करो तुम l भगवान् से यही प्रार्थना है मेरी l"

रमेश , रौशनी को आँखें कड़ी करके देखता है - "तुम्हें तो पता ही है l मुझे शुरू से ही ये सब पसंद नहीं है l"

रौशनी बस मुस्कुरा कर रह भर जाती है l

रमेश खिलौने की दूकान से एक चाॅकलेट खरीद कर अर्णव की ओर बढ़ा देता है l वह माँ की तरफ़ देख रहा है l मानों उसे माँ से इजाज़त चाहिए l

रौशनी मुस्कुराते हुए , अपनी मौन स्वीकृति दे देती है lअर्णव चाॅकलेट लेकर खाने लगता है l

"और क्या हो रहा है ? अभी दिल्ली में ही हो या...l" जैसे रौशनी पूछना चाह रही हो l अभी भी सिविल सर्विसेज की तैयारी में ही लगे हो , रमेश...या... l

सकुचाते हुए रमेश जबाब देता है - "नहीं अब मैं मास्को , में रहता हूँ l यहाँ पर जे. एन. यू. के रुसी भाषा विभाग के सालाना वार्षिकोत्सव में भाग लेने आया था l हर साल आता हूँ l यहाँ के प्रोफेसर , सब मुझे जानते हैं l वहाँ मैं रुसी भाषा और साहित्य पढ़ाता हूँ l कुछ साल प्राग में भी रहा l वहाँ बच्चों को रूसी भाषा और साहित्य पढ़ाता था l"

रमेश अपने शब्दों के सिरे को एक बार फिर से , जोड़ता है - "मैं अब भारतीय नहीं हूँ l मैंने रूसी नागरिकता ले ली है l अब रूस में ही मेरा घर है l"

"ओह ! इसलिये तुम्हारे चेहरे का रंग इतना लाल हो गया है l और तुम्हारे बाल भी तो ललिहाँ भूरे दिख रहें हैं l" लेकिन , तुम , तब भी खुबसूरत थे l और आज भी हो l

रमेश के दिल में एक बार आया कि वह कह दे कि , तब , तुम्हें कहाँ मेरी खुबसूरती दिखी थी ?

लेकिन , इन सब बातों का अब कोई मतलब भी नहीं है l

"शादी हो गई या ऐसे ही हो...अबतक...?" वह शायद ऐसे ही पूछती है l

लेकिन , उसके लिए इसका उत्तर देना आसान नहीं होता l

"हाँ , रूस में एक सर्लिन कुरसोवा नाम की लड़की है l मैंने उससे शादी कर ली है l वह भी रूसी भाषा और साहित्य माॅस्को यूनिवर्सिटी में पढ़ाती है l"

फिर वह आगे जोड़ता है "तुमसे कुछ दस - एक साल छोटी ही होगी l दरअसल वह मेरी छात्रा थी l मैं उसे रूसी भाषा पढ़ता था l"

वो रौशनी को जलाने के लिया कहता है -"दरअसल वह मेरे रूसी भाषा के ज्ञान और व्याकरण की शुद्धि के कारण ही मुझसे प्रभावित हुई थी l मैंने कई देशों की यात्राएँ की कुछ साल फ्राँस में भी रहा l कुछ साल जर्मनी और अमेरिका के विश्वविधालयों में भी प्रोफेसर रहा l वहाँ , मैं , रूसी भाषा और साहित्य पढ़ाता रहा l"

वो , अतीत के किसी पतझड़ वाले साल के पत्ते बटोरने लगता है l जिसके पत्तों में उसके आँखों की नमी जज्ब है l

रौशनी के शब्दों में तो उसने यही कहा था - " प्रैक्टिकल बनो यार , प्रैक्टिकल ! इतना मन- मसोसने की ज़रूरत नहीं है l तुम्हें मुझसे भी अच्छी लड़की मिल जायेगी l

अगर , घर वालों का दबाव ना होता तो मैं तुमसे ही शादी करती l लेकिन , मम्मी -पापा का दबाव है l मैं अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर रही हूँ l तुम्हें तो पता है l हम मिडिल क्लास लोग हैं l आज भले ही मेरा यू. पी. एस । सी. क्रैक हो गया है l लेकिन , अपने मम्मी- पापा को मैं ना नहीं बोल सकती l "

किसी ने सही कहा है l वक़्त , इंसान और आदमी के

हालात बदलते रहतें हैं l

रमेश के मन में उस वक़्त ये ख़्याल आया था कि वह कह दे कि ना तो सिर्फ़ तुम मुझे ही कह सकती हो l तुम्हारे लिये ये आसान भी है l लेकिन , तुम ये क्यों नहीं समझती कि हम एक - दूसरे से प्यार करतें हैं ?

लेकिन , यहाँ प्यारे कौन कर रहा था ? सही बात है l पद और प्रतिष्ठा मिलते ही आदमी अपनी औक़ात भूल जाता है l उसको अपने ख़ुद के जैसे साधारण लोग भी बेहद घटिया और दो कौड़ी के लगने लगते हैं l तो क्या रमेश भी रौशनी की नजरों में दो कौड़ी का आदमी था ? नहीं उसे , वह पिछले सात - आठ सालों से जानता है l उसकी बातों से कभी उसे ऐसा नहीं लगा कि वह इस तरह से बदल जायेगी l कि एक सिरे से उसके और अपने रिश्ते को खारिज़ कर देगी l कभी - कभी रमेश ये भी सोचता कि बेकार ही वह रौशनी से मिला l बेकार ही उसने रौशनी को रूम पार्टनर बनाया l अगर , रूम पार्टनर भी बनाया तो एक दूरी बनाकर रखता उससे l लेकिन नहीं l ऐसा नहीं हो सका l शुरूआती दिनों से ही वह रौशनी को दिल से चाहने लगा था l वह देवी की तरह उससे प्रेम करता था l रौशनी , उसके लिये प्रेम की नहीं , श्रद्धा की वस्तु थी l अगर , वह रौशनी से नहीं मिलता l या अगर वह उसकी रूम पार्टनर नहीं होती l तो क्या वह उससे प्यार कर पाता ? नहीं ना l दिल्ली बहुत बड़ा शहर है l सैकड़ों - लाखों लड़कियाँ आतीं हैं l इस शहर में l क्या उसे सब लड़कियों से प्रेम हो जाता ? नहीं ना l ये तो संयोग ही था l कि उससे रौशनी की मुलाकात हो गई l और वह उसकी रूम पार्टनर बन गई l क्या कोई और लड़की उसकी रूम - पार्टनर होती तो क्या वह , उससे भी प्रेम कर बैठता ? नहीं उसे पता नहीं l वह , कुछ भी सोचना नहीं चाहता था l या वह इस सवाल को टाल जाना चाह रहा था l उन दिनों उसकी हालत बिल्कुल पागलों की तरह हो चुकी थी l रौशनी से ब्रेकप के बाद उसने सिविल सर्विसेज की तैयारी करना ही छोड़ दिया था l उसे रौशनी नाम और सिविल सेवा की तैयारी से चिढ़-सी हो गई थी l उसका आत्म - विश्वास जाता रहा था l उसने मुखर्जी नगर के अपने उस पुराने फ़्लैट को भी छोड़ दिया था l अब वह भाषा और साहित्य को पढ़ने लगा था l अब उसे लुशून , मैक्सिम गोर्की , विक्टर ह्यूगो , को पढ़ना अच्छा लगता था l अब उसे , चीनी , रूसी , जापानी भाषा का साहित्य पढ़ना - लिखना बहुत भाने लगा था l इस घटना के बाद उसने जे । एन. यू. के भाषा विभाग में दाखिला ले लिया था l वहीं उसने कई विदेशी भाषाओं का अध्ययन किया l उनके साहित्य के अध्ययन में जुट गया l बाद में उसे मास्को यूनिवर्सिटी में बतौर प्राध्यापक की नौकरी मिल गई थी l बहुत साल रूस में रहा l वहाँ अध्यापन का कार्य किया l प्राग से जब रूसी भाषा पढ़ाने का उसको सामने से मौका मिला l तो वह टाल ना सका l

वह, कभी - कभी अख़बार के कतरनों के कोनों - अंतरों में ये ख़बर पढ़ता कि अमुक लड़के ने अमुक लड़की के चेहरे पर तेजाब से हमला कर दिया l या किसी लड़के ने लड़की को चाकू मार दिया l और , पुलिस ने लड़के को गिरफ्तार कर लिया है l कैसे करतें होंगें ऐसा लोग ? ख़ासकर तब , जब वे , एक - दूसरे से प्रेम करते हों l क्या उनकी भी ऐसी ही मनोदशा होती होगी ? उस समय l उस प्रेमी को , वैसा ही लगता होगा l जैसा अभी रमेश को लग रहा है l या कि जैसी उसकी मनोदशा अभी है l

अखबार , में कभी - कभी ये भी छपा होता कि लड़के ऐसा एकतरफा प्रेम में पड़कर करतें हैं l और कभी - कभी वह बलात्कार की घटनाओं के बारे में भी पढ़ता l तो उसको लगता कि क्या ऐसी मनोदशा में ही लोग बलात्कार भी करतें हैं l क्या उसकी मनोदशा भी एक एसिड़ अटैकर की या एक बलात्कारी की हो गई है ? क्या वह इतना क्रूर हो गया है ? कि वह रौशनी के ऊपर तेजाब फेंक देगा l या उसके साथ बलात्कार करेगा l क्या वह इतना कुँठित हो गया है ? लेकिन , उसे वह इतनी आसानी से भूल भी तो नहीं पायेगा l

प्रेम को पगने में समय लगता है l आठ साल , अट्ठारह साल , ... या फिर एक सदी... या कई - कई सदी l...लेकिन ये तो बिछोह था... l किसी जन्म में अनकिये या किये का प्रतिदान l लेकिन , इस किये - अनकिये का दु:ख अकेले वह ही क्यों भोगे? जबकि प्रेम, उसने अकेले थोड़े ही किया था l जो अकेले ही प्रतिदान पाता l रौशनी को भी तो प्रतिदान मिलना चाहिए l

प्रेम के तो नायाब उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं l उसका प्रेम उदात्त प्रेम है l जैसे कृष्ण जी और राधा जी ने किया था l रोमियो और जूलियट ने , हीर और राँझा ने किया था l प्रेम में केवल लेना नहीं होता l देना भी होता है l धरती पर ऐसे कई उदाहरण हमें मिलते हैं l जो सशरीर कभी मिले ही नहीं l लेकिन , आज भी ज़माना उनकी मिसाल देता है l

वो , जितना प्रेम के बारे में सोचता है l उतना ही उलझता जाता है l लगता है दिमाग़ के तंतु फट जायेंगें l लेकिन वह , कभी - कभी लचीला भी हो जाता है l वह मठो - मंदिरों के बारे में सोचता है l कि , वह कहीं काशी , मथुरा , हिमालय , या बनारस चला जाये l मोक्ष की नगरी l जहाँ चितायें , जलती हों l जहाँ जीवण का सार पता चले l वह , अपनी चिता ख़ुद जलती देखे l समझे इस निस्सार , दुनिया को l जलते हुए वह लोगों के सच - झूठ को समझे l आख़िर , ईश्वर से प्रेम भी तो प्रेम ही है l अलमस्त हो जाये l पीरों की तरह l भूल जाये घर-द्वारा , माँ - बाप की चिंता l जोगियों या साधुओं की तरह l जाति- पाती , ऊँच - नीच , धर्म - मज़हब , से ऊपर उठ जाये l लोग कहतें हैं l ये जो , हट्टे - कट्ठे योगी हैं , महात्मा हैं l ये लोग अकर्मण्य लोग हैं l काम से भागने वाले l फिर काम कौन करता है ? महलों के धन्ना सेठ , या राजनेता l सारी ज़िन्दगी वे दूसरों के श्रम पर पलतें हैं l लेकिन , जिनके श्रम पर पलते हैं l उनको ही हेकड़ी दिखाते हैं l सुबह से शाम तक इनका काॅलर कभी गँदा नहीं होता l लेकिन, ये मालपुये और छप्पन भोग खाते हैं l श्रम करके खाने वाला दिहाड़ी मज़दूर अगले दिन क्या खायेगा ? इस बाबत वह सोचता है l ऐसे देखा जाये तो , ये जो अलमस्त जोगी हैं l इन्होंने जीवण के सार को जान लिया है l तभी तो वे खाना बदोश हैं l बिल्कुल नदी की तरह ! नदी भी तो प्रेम की तरह है , उन्मुत -उश्रृंखल l नयी लयात्मकता के साथ आगे रास्ता तलाशती हुई l ऊँचे - पहाड़, पठार- मैदानी - भूभाग सबको फलाँगती हुई ! कोई सीमा- रेखा नहीं l ना कोई - देश , ना कोई धर्म l ना कोई जाति l ना इंसानों की तरह नफ़रत ी सोच l ना लोभ , ना लालच !

प्रेम भी नदी की तरह ही होता है l बहता जाता है l नदी की तरह , स्वायत्त ! देश , नागरिकता , धर्म , मज़हब , से दूर l सरहदों से परे l इसे बाँधा नहीं जा सकता l सीमाओं में l प्रेम संगीत की तरह होता है l आप किसी दूसरे देश में चले गयें हैं l आपको कोई संगीत सुनाई पड़ता है l और , आपकी ऊँगलियों और पैरों में जुँबिश होने लगती है l अपनी कुँठा के कारण ही आदमी , देश , समाज , जाति- पाति, ऊँच-नीच , छोटे - बड़े , अमीर - गरीब में बँटा हुआ है l

साधुओं -पीरों को कभी देखा है , चिंतित होते हुए ? उन्हें नहीं पता कल क्या होगा ? कल वह क्या खायेंगें ? कल उनका ठौर कहाँ होगा ? लेकिन , चिंता मुक्त हैं l आज यहाँ रूके l कल वहाँ l ना कोई स्थायित्व l ना कोई झमेला l झमेला तो दुनिया दारी से जुड़े लोगों का है l दिनभर तनाव में बिताते हैं l नमक रोटी की जुगाड़ा में l ज़िन्दगी भर दौड़ते रहो l लेकिन कहीं शाँति नहीं मिलती l दम भरने की भी फुरसत नहीं l जैसे ज़िन्दगी की रेस में बेवजह दौड़ रहें हों l आख़िर , क्या हासिल कर लेंगें ? वह ज़िन्दगी के सबसे आखिरी छोर पर l जब , वह ये बात सोचता है कि वह बनारस या काशी या मथुरा चला जाये l और अपना दाह - संस्कार होते देखे l तो उसके शरीर में कोई झुरझुरी पैदा नहीं होती l कभी - कभी उसको लगता है l कि वह कोई दार्शनिक हो गया है l अरस्तू , सुकारात की तरह l आख़िर , ऐसी - बहकी - बहकी बातें भला कौन करता है ? कोई है , जो उसके तर्कों को काटकर दिखाये ? वह झूठ भी तो नहीं कह रहा l इतनी माथा- पच्ची के बाद भी वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाता l ये ज़िन्दगी भी कितनी ऊहा- पोह से भरी पड़ी है !

लेकिन , बलिदान आख़िर , रमेश ही क्यों दे ? और लालच क्या रौशनी के मन में नहीं आ गया था ? वह पद - प्रतिष्ठा और रूपये - पैसों को ही बहुत ज़्यादा अहमियत नहीं देने लगी थी l क्या हुआ अगर वह यू. पी. एस ।-सी । क्रैक नहीं कर पाया l बहुत सारे लोग हैं l जो यू. पी. एस ।-सी । क्रैक नहीं कर पाते l तो, क्या उनके साथ किया , हुआ लोगों का कमिटमेंट लोगों को भूल जाना चाहिए ?

और , पैसा आदमी के जीवण में आता जाता रहता है l लेकिन , प्यार नहीं l हरीश ने बेशक यू. पी. एस । सी. क्रैक कर लिया हो l लेकिन , प्यार तुम उससे नहीं करती , ये तुम भी जानती हो l और , तुमने तो सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास कर ली है l तुम आज की नारी हो l आधुनिक काल की l तुम पर कोई अपने विचार थोप नहीं सकता l तुम स्वायत्त हो l कुछ दिनों में तुम्हारी ज्वाइनिंग किसी बड़े शहर में हो जायेगी l तुम प्रशासनिक अमले की प्रमुख होगी l तब भी प्रशासन को चलाने के लिये, जिले को संभालने के लिये , तुम अपने - मम्मी पापा से सहयोग माँगोगी ? नहीं ना ...! उस समय तुम्हें अपने बुद्धि और विवेक का उपयोग करना होगा l क्या कोई प्रशासनिक अधिकारी कोई फ़ैसला लेते समय अपने घरवालों से पूछता है ? या ख़ुद फैसले लेता है ? ...

प्रशासन , संभालना और , शादी- ब्याह दोनों अलग - अलग मामले हैं l प्रशासनिक व्यवस्था संभालते हुए हम निजी नहीं होते l लेकिन शादी ब्याह नितांत पारिवारिक और निजी मामले होते हैं l घर वालों की मर्जी के बगैर मैं , कोई फ़ैसला नहीं कर सकती l बावजूद इसके कि हम सात - आठ सालों तक अच्छे दोस्त रहें हैं l भविष्य में भी हम अच्छे दोस्त बने रह सकतें हैं l

लेकिन , हम दोस्ती के रिश्ते से बहुत आगे बढ़ चुके हैं l इन सात - आठ सालों में हम केवल रूम - पार्टनर ही नहीं रहें हैं l बल्कि हम दोनों एक - दूसरे के सुख- दु:ख के साथी भी रहें हैं l और , हम सिर्फ़ दोस्त ही नहीं हैं l ये बात तुम्हें भी अच्छी तरह पता है l अगर , मैं भी यू. पी. एस. सी. क्रैक कर लेता l तो ,आज की तारीख में हम दोनों शादी कर रहे होते l

"कर लेते तब ना ... !" रौशनी की आवाज़ अपेक्षाकृत कुछ ज़्यादा ही तेज हो गई थी l

"तो क्या तुम मुझसे प्यार भी नहीं करतीं...?"

"बी , प्रैक्टिकल यार l डोंट बी फुल l प्यार पहले करती थी l लेकिन , अब नहीं l लोग क्या कहेंगें ? वैसे भी मुझे अब ट्रेनिंग के लिये जाना होगा l फिर मैं तुम्हें कहाँ - कहाँ लेकर जाऊँगी ? उसके बाद मेरी पोस्टिंग होगी l फिर ?"

उसी समय रौशनी का फ़ोन बजता है l रौशनी फ़ोन लेती है l फ़ोन उसके पिता ने ही किया था शायद l फ़ोन पर आवाज़ कुछ स्पष्ट नहीं है l

रौशनी कई बार हैलो हैलो कहती है l लेकिन आवाज़ फिर भी नहीं आती l शायद नेटवर्क खराब था l या शायद फ़ोन ही खराब था l रौशनी फ़ोन को स्पीकर पर ले लेती है l एक बूढ़ी आवाज़ स्पीकर से कौंधती है - "क्या कर रही हो , अब तक तुम वहाँँ ? यहाँ हरीश के पापा का बार - बार फ़ोन आ रहा है l उन्हें हाँ , कहूँ या ना l"

आखिर के लाईन रमेश की छाती में शूल की तरह पैवस्त हो जाते हैं - "उस कँगले , रमेश को साफ़ मना कर देना शादी के लिये l हाँ मत कह देना l तुम बहुत भावुक हो , बेटी.। l"

रौशनी , बाप की बात पूरी होने से पहले ही फ़ोन काट देती है l

"चलती हूँ l मेरी शाॅपिंग हो गई l" रौशनी की बात से रमेश की तँद्रा टूट जाती है l

"हाँ , चलो फिर , मिलते हैं l"

अचानक से रमेश के दिमाग़ में हरीश का ख़्याल आता है l वह , हरीश के बारे में रौशनी से पूछता है -

"तुम्हारा पति हरीश नहीं दिख रहा l वह कहाँ है ?"

रौशनी के स्वर में उदासी कहीं गहरे तक उतर आती है - "पिछले साल कोविड़ में वह नहीं रहे l"

"ओह !"

"तुम ठीक से रहना l माॅस्को में भी बहुत से लोग मर रहें हैं l मैंने पति को तो खो दिया है l लेकिन , अब एक बहुत , अच्छे दोस्त को नहीं खोना चाहती l अपना ख़्याल रखना l दरअसल मेरी तक़दीर ही खराब है l" वह रोने लगी थी l

"मैं तुम्हारी, अपराधिनी हूँ l मुझे मेरे किये की सजा मिल रही है l"

रमेश, आज अपने आप को बहुत छोटा महसूस कर रहा था l वह सोच रहा था l बेकार ही वह माॅस्को गया l बेकार ही रूसी भाषा सीखी l बेकार ही प्रोफेसर बना l

तभी उसे प्रतिदान का ख़्याल आया l किसी किये - अनकिये का प्रतिदान वह अकेले कहाँ भोग रहा था ? कभी- कभी मिथक भी सच हो जाते हैं !