रूस के पत्र / अध्याय-4 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
मॉस्को से सोवियत व्यवस्था के बारे में दो बड़ी-बड़ी चिट्ठियाँ लिखी थीं। वे कब मिलेंगी और मिलेंगी भी या नहीं, मालूम नहीं।
बर्लिन आ कर एक साथ तुम्हारी दो चिट्ठियाँ मिलीं। घोर वर्षा की चिट्ठी है ये, शांति निकेतन के आकाश में शाल वन के ऊपर मेघ की छाया और जल की धारा में सावन हिलोरें ले रहा है -- यह चित्र मानसपट पर खिंचते ही मेरा चित्त कैसा उत्सुक हो उठता है, तुमसे तो कहना फिजूल है।
परंतु अबकी जो रूस का चक्कर लगाया, तो यह चित्र मन से धुल-पुँछ गया। बार-बार मैं अपने यहाँ के किसानों के कष्टों की बात सोच रहा हूँ। अपने यौवन के आरंभ काल से ही बंगाल के ग्रामों के साथ मेरा निकट परिचय है। तब किसानों से रोज मेरी भेंट-मुलाकात होती थी -- उनकी फरियादें मेरे कानों तक पहुँचती थीं। मैं जानता हूँ कि उनके समान निःसहाय जीव बहुत थोड़े ही होंगे, वे समाज के अँधेरे तहखाने में पड़े हैं, वहाँ ज्ञान का उजाला बहुत ही कम पहुँचता है, और जीवन की हवा तो जाती ही नहीं, समझ लो।
उस जमाने में जो लोग देश की राजनीति के क्षेत्र में अखाड़ा जमाए हुए थे, उनमें से ऐसा कोई भी न था, जो ग्रामवासियों को भी देश का आदमी समझता हो। मुझे याद है, पबना कान्फ्रेंस के समय मैंने उस समय के एक बहुत बड़े नेता से कहा था कि हमारे देश की राष्ट्रीय उन्नति को यदि हम सत्य या वास्तविक बनाना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें इन नीचे के लोगों को आदमी बनाना होगा। उन्होंने उस बात को इतना तुच्छ समझ कर उड़ा दिया कि मैं समझ गया कि हमारे देश के नेताओं ने 'देश' नाम के तत्व को विदेशी पाठशाला से समझा है, वे हृदय में अपने देश के मनुष्यों की अनुभूति नहीं करते। ऐसी मनोवृत्ति से लाभ बस इतना ही है कि 'हमारा देश विदेशियों के हाथों में है' इस बात पर हम पश्चात्ताप कर सकते हैं, उत्तेजित हो सकते हैं, कविता लिख सकते हैं, अखबार चला सकते हैं, मगर काम तो तभी शुरू होता है, जब हम अपने देशवासियों को अपना आदमी कहने के साथ ही साथ उसका दायित्व भी स्वीकार कर लें।
तब से बहुत दिन बीत गए। उस पबना कान्फ्रेंस में ग्राम संगठन के विषय में मैंने जो कुछ कहा था, उसकी प्रतिध्वनि बहुत बार सुनी है -- सिर्फ शब्द नहीं, ग्राम-हित के लिए अर्थ भी संग्रह हुआ है, परंतु देश की जिस ऊपरी मंजिल में शब्दों की आवृत्ति हुई है, वहीं वह अर्थ भी घूम-फिर कर विलुप्त हो गया है; समाज के जिस गहरे खंदक में गाँव डूबे हुए हैं, वहाँ तक उसका कुछ अंश भी नहीं पहुँचा।
एक दिन मैंने पद्मा की रेती पर नाव लगा कर साहित्य चर्चा की थी। मन में ऐसी धारणा थी कि लेखनी से भावों की खान खोदूँगा, यही मेरा एकमात्र कार्य है, और किसी काम के मैं लायक ही नहीं। मगर जब यह बात कह-सुन कर किसी को समझा न सका कि हमारे स्वायत्त शासन या स्वराज्य का क्षेत्र है देहातों में, और उसका आंदोलन आज से ही शुरू करना चाहिए, तब कुछ देर के लिए मुझे कलम कान में खोंस कर यह बात कहनी पड़ी कि 'अच्छा, मैं ही इस काम में जुटूँगा।' इस संकल्प में मेरी सहायता करने के लिए सिर्फ एक आदमी मिला था, वे हैं काली मोहन, शरीर उनका रोग से जीर्ण है, दोनों वक्त उन्हें बुखार आता है, और उस पर भी पुलिस के रजिस्टर में उनका नाम चढ़ चुका है।
उसके बाद, फिर वह इतिहास दुर्गम ऊबड़-खाबड़ मार्ग से थोड़ा-सा तोशा ले कर चला है। मेरा अभिप्राय था -- किसानों को आत्म-शक्ति में दृढ़ करना ही होगा। इस विषय में दो बातें सदा ही मेरे हृदय में आंदोलित होती रही हैं -- जमीन पर अधिकार न्यायतः जमींदार का नहीं, किसान का होना चाहिए; दूसरे, समवाय नीति के अनुसार सभी खेत एक साथ मिलाए बिना किसानों की कभी उन्नति हो ही नहीं सकती। मांधाता के जमाने का हल ले कर छोटे-से मेड़दार खेत में फसल पैदा करना और फूटी गागर में पानी लाना, दोनों एक ही बात है।
किंतु ये दोनों ही मार्ग दुरूह हैं। पहले तो किसानों को जमीन का अधिकार देने से वह स्वत्व दूसरे ही क्षण महाजन के हाथ में चला जाएगा, इससे उनके कष्टों का भार बढ़ने के सिवा घटेगा नहीं। खेतों को एक साथ मिला कर खेती करने के विषय में मैंने एक दिन किसानों को बुला कर इसकी चर्चा की थी। सियालदह में मैं जिस मकान में रहता था, उसके बरामदे से एक के बाद एक दिगंत तक खेत ही खेत दिखाई देते थे। खूब सबेरे ही उठ कर हल-बैल लिए एक-एक किसान आता और अपना छोटा-सा खेत जोत कर लौट जाता। इस तरह बँटी हुई शक्ति का कितना अपव्यय होता है, सो मैंने अपनी आँखों से देखा है। किसानों को बुला कर उन्हें जब सब खेतों को एक साथ मिला कर मशीन के हल से खेती करने की सहूलियतें मैंने समझाईं, तो उन लोगों ने उसे उसी समय मान लिया। मगर कहा, 'हम लोग कम-अकल हैं। इतना भारी काम कैसे सँभालेंगे?' अगर मैं कह सकता कि उसका भार लेने को मैं तैयार हूँ, तो फिर कोई झंझट ही न रहती, पर मुझमें इतनी सामर्थ्य कहाँ? ऐसे काम के चलाने का भार लेना मेरे लिए असम्भव है -- वह शिक्षा, वह शक्ति मुझमें नहीं है।
परंतु यह बात बराबर मेरे हृदय में जाग्रत रही है। जब बोलपुर में को-ऑपरेटिव की व्यवस्था का भार विश्व भारती के हाथ में आया, तब फिर एक दिन आशा हुई थी कि इस बार शायद मौका मिल जाएगा। जिनके हाथ में ऑफिस का भार है, उनकी उमर कम है, मुझसे उनकी बुद्धि कहीं किफायती और शिक्षा बहुत ज्यादा है। परंतु हमारे युवक ठहरे स्कूल-सिखुए, और किताब-रट्टू है उनका हृदय। हमारे देश में जो शिक्षा प्रचलित है, उससे हममें विचार करने की शक्ति, साहस और काम करने की दक्षता नहीं रहती, किताबी बोलियों की पुनरावृत्ति करने पर ही छात्रों का उद्धार अवलंबित है।
बुद्धि की इस पल्लवग्राहिता के सिवा हमारे अंदर और भी एक विपत्ति का कारण मौजूद है। स्कूल में जिन्होंने पाठ कंठस्थ किए हैं और स्कूल के बाहर रह कर जिन्होंने पाठ कंठस्थ नहीं किए, इन दोनों में श्रेणी-विभाजन हो चुका है -- शिक्षित और अशिक्षित का। स्कूल में पढ़े मन का आत्मीयता-ज्ञान पोथी-पढ़े के पाठ के बाहर नहीं पहुँचा सकता। जिन्हें हम गँवार किसान कहते हैं, पोथी के पन्नों का पर्दा भेद कर उन तक हमारी दृष्टि नहीं जाती, वे हमारे लिए अस्पष्ट हैं। इसलिए वे हमारे सब प्रयत्नों के बाहर रह कर स्वभावतः ही अलग छूट जाते हैं। यही कारण है कि को-ऑपरेटिव या सहकारी समितियों के जरिए अन्य देशों में जब समाज की निम्न श्रेणी में एक सृष्टि का कार्य चल रहा है, तब हमारे देश में दबे-हाथों रुपए उधार देने के सिवा आगे कुछ काम नहीं बढ़ सका। क्योंकि उधार देना, उसका सूद जोड़ना और रुपए वसूल करना अत्यंत भीरु हृदय के लिए भी सहज काम है, बल्कि यह कहना चाहिए कि भीरु हृदय के लिए ही सहज है, उसमें यदि गिनती की भूल न हो तो कोई आशंका ही नहीं।
बुद्धि का साहस और जनसाधारण के प्रति सहानुभूति --- इन दोनों के अभाव से ही दुखी का दुख दूर करना हमारे देश में इतना कठिन काम हो गया है, परंतु इस अभाव के लिए किसी को दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि क्लर्क-फैक्टरी बनाने के लिए ही एक दिन हमारे देश में वणिक-राज्य द्वारा स्कूल खोले गए थे। मेजों की दुनिया में मालिक के साथ सायुज्य प्राप्त करने में ही हमारी सद्गति है। इसीलिए उम्मीदवारी में अकृतार्थ होते ही हमारी विद्या-शिक्षा व्यर्थ हो जाती है। इसीलिए हमारे देश में देश का काम प्रधानतः कांग्रेस के पंडाल और अखबारों में प्रकाशित लेखमाला में शिक्षित संप्रदाय की वेदना-उद्घोषणा में ही चक्कर काट रहा था। हमारे कलम से बँधे हाथ देश को बनाने के काम में आगे बढ़ ही न सके।
मैं भी भारत की आब-हवा में पला हूँ, इसीलिए जोर के साथ इस बात को कल्पना में लाने की हिम्मत न कर सका कि करोड़ों जनसाधारण की छाती पर से अशिक्षा और असामर्थ्य का पहाड़ उतारना संभव है। अब तक यही सोचता रहा हूँ कि थोड़ा-बहुत कुछ किया जा सकता है या नहीं। सोचा था, समाज का एक चिरबाधा-ग्रस्त जो नीचे का अंश है, जहाँ कभी भी सूर्य का प्रकाश पूर्ण रूप से नहीं पहुँचाया जा सकता, वहाँ कम से कम तेल की बत्ती जलाने के लिए कमर कस कर जुट जाना चाहिए। परंतु साधारणतः उतना कर्तव्य-बोध भी लोगों के दिल पर काफी जोर के साथ धक्का नहीं लगाता है, क्योंकि जिन्हें हम अँधेरे में देख ही नहीं सकते, उनके लिए कुछ भी किया जा सकता है -- यह बात भी साफ तौर पर हमारे मन में नहीं आती।
इस तरह का स्वल्प साहसी हृदय ले कर रूस आया था। सुना था, यहाँ किसानों और मजदूरों में शिक्षा प्रचार का कार्य बहुत ज्यादा बढ़ गया है और बढ़ता ही जाता है। सोचा था, इसके मानी यह हैं कि यहाँ ग्रामीण पाठशालाओं में 'शिशु शिक्षा' का पहला भाग या बहुत हो तो दूसरा भाग पढ़ाने का कार्य संख्या में हमारे देश से अधिक हुआ है। सोचा था, उनकी सांख्यिक सूची उलट-फेर कर देख सकूँगा कि वहाँ कितने किसान दस्तखत कर सकते हैं और कितनों ने दस तक पहाड़ा याद कर लिया है।
याद रखना, यहाँ जिस क्रांति ने जार का शासन लुप्त किया है, वह हुई है 1917 में। अर्थात उस घटना को हुए सिर्फ तेरह वर्ष हुए हैं। इस बीच में उन्हें क्या घर और क्या बाहर, सर्वत्र प्रचंड विरोध के साथ युद्ध करना पड़ा है। ये अकेले हैं, और इनके ऊपर एक बिलकुल टूटे-फूटे राष्ट्र की व्यवस्था का भार है। मार्ग इनका पूर्व दुःशासन के कूड़े-करकट की गंदगी से भरा पड़ा है -- दुर्गम है। जिस आत्म-क्रांति के प्रबल तूफान के समय इन लोगों ने नवयुग के घाट के लिए यात्रा की थी, उस क्रांति के प्रच्छन्न और प्रकाश्य सहायक थे इंग्लैंड और अमेरिका। आर्थिक अवस्था या पूँजी इनके पास बहुत ही थोड़ी है -- विदेश के महाजनों की गद्दियों में इनकी क्रेडिट नहीं है। देश में इनके कल-कारखाने काफी तादाद में न होने से अर्थोपार्जन में ये शक्तिहीन हैं, इसलिए किसी तरह पेट का अन्न बेच कर इनका उद्योग पर्व चल रहा है। इस पर राष्ट्र व्यवस्था में सबसे बढ़ कर जो अनुत्पादन विभाग -- सेना -- है, उसके पूरी तरह से सुदक्ष रखने का अपव्यय भी इनके लिए अनिवार्य है। क्योंकि आधुनिक महाजनी युग की समस्त राष्ट्र-शक्तियाँ इनकी शत्रु हैं और उन सबों ने अपनी-अपनी अस्त्र-शालाएँ छत तक भर रखी हैं।
याद है, इन्हीं लोगों ने लीग ऑफ नेशंस में शस्त्र-निषेध का प्रस्ताव भेज कर कपटी शांति-इच्छुकों के मन को चौंका दिया था। क्योंकि अपना प्रताप बढ़ाना या उसकी रक्षा करना सोवियतों का लक्ष्य नहीं है -- इनका उद्देश्य है सर्वसाधारण की शिक्षा, स्वास्थ्य, अन्न और जीवन की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के उपाय, उपकरणों को प्रकृष्ट प्रणाली से व्यापक बना देना, इन्हीं के लिए निरुपद्रव शक्ति सबसे अधिक आवश्यकता है। परंतु तुम तो जानते ही हो, लीग ऑफ नेशंस के सभी पहलवान गुंडई के बहु-विस्तृत उद्योग को किसी तरह भी बंद नहीं करना चाहते; महज इसलिए कि शांति की जरूरत है, सब मिल कर पुकार मचाते हैं। यही कारण है कि सभी साम्राज्यवादी देशों में अस्त्र-शस्त्र के कँटीले जंगल की फसल अन्न की फसल से आगे बढ़ती जा रही है। इसी बीच कुछ समय तक रूस में बड़ा भारी दुर्भिक्ष भी पड़ा था -- कितने आदमी मरे, इसका निश्चय नहीं। उसकी ठेस सह कर भी ये सिर्फ आठ वर्ष से नए युग को गढ़ने का काम कर रहे हैं -- बाहर के उपकरणों का अभाव होते हुए भी।
यह मामूली काम नहीं है -- यूरोप और एशिया भर में इनका बड़ा भारी राष्ट्र क्षेत्र है। प्रजा मंडली मे इतनी विभिन्न जातियाँ हैं कि भारत में भी उतनी न होंगी। उनकी भू-प्रकृति और मानव प्रकृति में परस्पर पार्थक्य बहुत ज्यादा है। वास्तव में इनकी समस्या बहु-विचित्र जातियों से भरी हुई है, मानो यह बहु-विचित्र अवस्थापन्न विश्व-संसार की समस्या का ही संक्षिप्त रूप हो।
तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि बाहर से जब मॉस्को शहर देखा, तो यह यूरोप के और सब धनी शहरों की तुलना में अत्यन्त मलिन मालूम हुआ। सड़कों पर जो लोग चल-फिर रहे हैं, उनमें एक भी शौकीन नहीं, सारा शहर मामूली रोजाना के कपड़े पहने हुए है। रोजाना के कपड़ों में श्रेणी भेद नहीं होता, श्रेणी भेद होता है शौकीनी पोशाक में। यहाँ साज-पोशाक में सब एक हैं। सब मजदूरों के ही मुहल्ले हैं -- जहाँ निगाह दौड़ाओ, वहाँ-वहाँ ही ये हैं। यहाँ मजदूरों और किसानों का कैसा परिवर्तन हुआ है, इसे देखने के लिए पुस्तकालय जा कर किताब खोलने अथवा गाँवों या बस्ती में जा कर नोट करने की जरूरत नहीं पड़ती। जिन्हें हम 'भद्र' या 'शरीफ आदमी' कहते हैं, वे कहाँ हैं, सवाल तो यह है।
यहाँ की साधारण जनता भद्र या शरीफ आदमियों के आवरण की छाया से ढकी नहीं है; जो युग-युग से नेपथ्य में थे, वे आज बिल्कुल खुले मैदान में आ गए हैं। ये पहली पोथी पढ़ कर सिर्फ छापे के हरूफ ढूँढ़ते फिरते होंगे -- मेरी इस भूल का सुधार बहुत जल्दी हो गया। इन्हीं कई सालों में ये मनुष्य हो गए हैं।
अपने देश के किसान-मजदूरों की याद उठ आई। 'अलिफ़-लैला' के जादूगर की करामात-सी मालूम होने लगी। दस ही वर्ष पहले की बात है, ये लोग हमारे देश के मजदूरों की तरह ही निरक्षर, निःसहाय और निरन्न थे, हमारे ही समान अंध-संस्कार और धर्म-मूढ़ता इनमें मौजूद थी। दुख में, आफत-विपत्ति में देवता के द्वार पर इन्होंने सिर पटके हैं। परलोक के भय से पंडों-पुरोहितों के हाथ और इहलोक के भय से राजपुरुष, महाजन और जमींदारों के हाथ अपनी बुद्धि को ये बंधक रख चुके थे। जो इन्हें जूतों से मारते थे, उन्हीं के वे ही जूते साफ करना इनका काम था। हजारों वर्ष से इनकी प्रथा-पद्धतियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। यान और वाहन, चरखा और कोल्हू -- सब बाबा आदम के जमाने के चले आते थे। इनसे हाल के हथियार से हाथ लगाने को कहा जाता था, तो ये बिगड़ खड़े होते थे। हमारे देश के तीस करोड़ आदमियों पर जैसे भूत काल का भूत सवार है, उसने जैसे उनकी आँखें मींच रखी हैं। इन लोगों का भी ठीक वैसा ही हाल था। इन्हीं कई वर्षों में इन्होंने उस मूढ़ता और अक्षमता का पहाड़ हिला दिया तो किस तरह हिलाया? इस बात से अभागे भारतवासियों को जितना आश्चर्य हुआ है, उतना और किसको होगा बताओ? और मजा यह कि जिस समय यह परिवर्तन चल रहा था, उस समय हमारे देश का बहु-प्रशंसित 'ला एंड आर्डर' (कानून और व्यवस्था) नहीं था।
तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ कि यहाँ के सर्वसाधारण की शिक्षा का चेहरा देखने के लिए मुझे दूर नहीं जाना पड़ा, या स्कूल के इंस्पेक्टर की तरह हिज्जे पूछते समय यह नहीं देखना पड़ा कि ये 'राणा' और 'वाणी' में 'ण' लगते हैं या 'न'। एक दिन शाम को मॉस्को शहर में एक मकान में गया। वह किसानों के रहने का घर था। गाँव से जब किसी काम से वे शहर आते हैं, तो सस्ते में उसी मकान में उन्हें रहने दिया जाता है। उन लोगों से मेरी बातचीत हुई थी। उस तरह की बातें जब हमारे देश के किसानों से होंगी, उस दिन हम साइमन कमीशन का जवाब दे सकेंगे।
और कुछ नहीं, स्पष्ट दिखाई देता है कि सभी कुछ हो सकता था, मगर हुआ नहीं। न सही, हमें मिला है 'ला एंड आर्डर'। हमारे यहाँ सांप्रदायिक लड़ाइयाँ होती रहती हैं और इसके लिए हमारी खास तौर से बदनामी की जाती है। यहाँ भी यहूदी संप्रदाय के साथ ईसाई संप्रदाय की लड़ाई हमारे ही देश के आधुनिक उपसर्ग की तरह अत्यंत कुत्सित और बड़े ही जंगली ढंग से होती थी -- शिक्षा और शासन के द्वारा एकदम जड़ से उसका नाश कर दिया गया है। कितनी ही बार मैंने सोचा है कि साइमन कमीशन के लिए भारत में जाने से पहले एक बार रूस घूम जाना उचित था।
तुम जैसी भद्र महिला को साधारण भद्रतापूर्ण चिट्ठी न लिख कर इस तरह की चिट्ठी क्यों लिख रहा हूँ, इसका कारण सोचोगी तो समझ जाओगी कि देश की दशा ने मेरे मन में आंदोलन मचा रखा है। जलियाँवाला बाग के उपद्रव के बाद और भी एक बार मेरे मन में ऐसी अशांति हुई थी। ढाका के उपद्रव के बाद आज फिर उसी तरह दुखित हो रहा हूँ। उस घटना पर सरकारी पलस्तर चढ़ा है, मगर इस तरह के सरकारी पलस्तर की क्या कीमत है, यह राजनीतिज्ञ समझते हैं। ऐसी घटना अगर सोवियत रूस में होती, तो किसी भी पलस्तर से उसका कलंक नही ढक सकता था। सुधीन्द्र ने भी -- हमारे देश के राष्ट्रीय आंदोलन पर जिसकी कभी भी किसी तरह की श्रद्धा नहीं थी -- अबकी बार मुझे ऐसी चिट्ठी लिखी है, जिससे पता चलता है कि सरकारी धर्मनीति के प्रति धिक्कार आज हमारे देश में कहाँ तक बढ़ गया है। खैर, आज तुम्हारी चिट्ठी अधूरी ही रही -- कागज और समय खतम हो आया, दूसरी चिट्ठी में इसके अपूर्ण अंश को पूरा करूँगा।
28 सितंबर, 1930