रेणु का भूत / भारत यायावर
रेणु के देहावसान के बाद उनके साथ होने का अवसर मुझे मिला और धीरे-धीरे मैं इस तरह रेणु-मय होता चला गया कि बरसों मुझे यह होश नहीं रहा कि मैं रेणु से परे या अलग हूँ. कोई ऐसा दिन नहीं, जब रेणु की चर्चा न करता. भूत-प्रेतों पर अविश्वास करनेवाले, जिनमें मैं भी हूँ- विश्वास अवश्य करेंगे! रेणु का प्रेत जो मुझ पर सवार हुआ, अब तक जमा है. उतरने का नाम ही नहीं लेता. मैंने बार-बार कोशिश की पर यह असंभव लगा. मेरे मित्रों ने, शुभ-चिंतकों ने बार-बार समझाया- रेणु के भूत से पीछा छुड़ाओ और अपना कोई मौलिक रचनात्मक लेखन करो! रेणु के पीछे पागल मत बनो. मेरे निंदकों ने मुझ पर रेणु को लेकर तरह-तरह के इलजाम लगाये, परेशान किया. मैंने रेणु के प्रेत से बस इतना ही कहा, ज्यादा कहते नहीं बना- ‘तुम्हारे लिए, मैंने लाखों के बोल सहे’.
यही बात रेणु ने अपने प्रथम कहानियों के संग्रह ‘ठुमरी’ के समर्पण में लिखी है, और यही बात मैंने रेणु के प्रेत से कही. वह ठठाकर हंसा और बोला - जिससे प्रेम करोगे और प्रेम ऐसा, जिसमें तन-मन-धन सब अर्पित तो लाखों के बोल तो सुनने ही पड़ेंगे. और सच कहूँ, जो यह मेरी छवि बन गयी है- ‘रेणु के खोजी भारत यायावर’ उससे स्वयं को विलग करना अब इस जीवन में असंभव है. कुछ और होने की लालसा भी नहीं, फिर भी यहाँ रेणु के विषय में जो भी कह रहा हूँ, उनके प्रेत से थोड़ी देर के लिए मुक्त होकर.
जैसा कि रेणु को जानने वाले सभी जानते हैं, रेणु का जन्म पूर्णिया जनपद के औराही-हिंगना ग्राम में 4 मार्च, 1921 को हुआ. उस वक्त पूर्णिया को बिहार का कालापानी कहा जाता था. कोशी कवलित भूमि- जहाँ के लोग एक तरफ बाढ़ और अकाल जैसी विपदाओं से हर वर्ष जूझते, दूसरी ओर हैजा, मलेरिया, प्लेग, काला आजार जैसी बीमारियों से आक्रांत होते. अस्तित्वरक्षण की इन विषम परिस्थितियों ने उनमें जीवटता, संघर्षशीलता और अदम्य जिजीविषा का संचार किया. मिथिला और बंगला की संयुक्त संस्कृति ने विषम परिस्थितियों में भी उन्हें हंसने, मुस्कुराने और गाते रहने को उत्प्रेरित किया. रेणु के रचनाकार-मन का निर्माण इसी लोक-भूमि में हुआ था.
उनके पिता शिलानाथ मंडल कांग्रेस से जुड़े थे. असहयोग आंदोलन से जुड़े स्थानीय नेताओं का आना और ठहरना उनके घर में होता. पूर्णिया क्षेत्र में राष्ट्रीय चेतना पैदा करनेवाले और रेणु के गुरु रामदेनी तिवारी ‘द्विजदेनी’ उनके घर आते, रेणु से हिन्दी और बंगला रामायण का सस्वर पाठ सुनते. इन्होंने उसी समय घोषणा कर दी थी- यह बालक विलक्षण प्रतिभा का निकलेगा और इस दलित-पिछड़ी भूमि का गौरव बनेगा.
शिलानाथ मंडल राजनीति के साथ ही साहित्य में भी गहरी रुचि रखते थे. वे उस समय की महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाएँ और पुस्तकें मंगवाते. सरस्वती, सुधा, माधुरी, चांद, हिंदूपंच, वेंकटेश्वर समाचार, विशाल भारत आदि पत्रिकाएँ नियमित उनके घर आतीं. रेणु जब दस-बारह वर्ष के थे, तभी से वे नियमित इन पत्रिकाओं को पढ़ते. कविता करने की शुरुआत भी यही से हुई. ‘द्विजदेनी’ जी ने उनके घरौवा नाम ‘रिनुवा’ को परिवर्तित कर ‘रेणु’ कर दिया था. रेणु ने तुकबंदियाँ करनी शुरू की- ‘कवि रेणु कहे, कब रैन कटे, तमतोम हटे ....’ सिमरबनी स्कूल से निकलनेवाली पत्रिका ‘खंगार सेवक’ में उनकी कविताएँ 1932 से ही प्रकाशित होने लगीं. उस समय की एक महत्वपूर्ण घटना, जिससे उनकी ख्याति उनके पूरे इलाके में फैल गयीं, रेणु की जुबानी ही बयान कर रहा हूँ-
यह घटना सन् 1931-32 की है, मेरी उम्र जब दस वर्ष के लगभग रही होगी और मैं फारबिसगंज हाई स्कूल का विद्यार्थी था. वहीं हॉस्टल में रहता और सप्ताह में छुट्टी के दिन गाँव आ जाता. फारबिसगंज से एक स्टेशन सिमराहा. वहाँ गाड़ी से उतरकर पांव-पैदल औराही-हिंगना, यानी अपने गांव! पिताजी किसान थे और इलाके के स्वराज्य-आन्दोलन के प्रमुख कार्यकर्ता. खादी पहनते थे, घर में चर्खा चलता था. ‘तिलक स्वराज्य-फंड’ वसूलते थे और दुनिया-भर की पत्र-पत्रिकाएँ मंगाया करते थे.
एक दिन अचानक ही थाने के दारोगा-पुलिस को अपने दरवाजे पर उपस्थित पाकर हमलोग ‘अचरज’ में पड़ गये, मैं भी फारबिसगंज से गाँव आया हुआ था और उन दिनों किसी गाँव में दारोगा-पुलिस का पहुंचने का मतलब होता था पूरे गांव के लोगों का ‘अंडर-ग्राउंड’ हो जाना, यानी लोग अपने-अपने घरों के दरवाजे भीतर से बंद कर छिप जाते थे- पता नहीं किसे बांधकर दारोगा-पुलिस चालान कर दे.
दारोगा दरवाजे पर आकर सीधे पिताजी के सामने रुके और बोले- हमें खबर मिली है कि आपके पास ‘चांद’ का ‘फांसी अंक’ आया है. आप उसे तुरंत मेरे हवाले कर दो, नहीं तो बेकार में हमरा के खानातलासी करे के पड़ी.
पिताजी घबराये नहीं, बड़ी ही निश्चिंतता के साथ ही उन्होंने कहा- आया तो था जरूर! और ‘चांद’ का फांसी अंक ही क्यों, ‘हिंदू पंच’ का बलिदान अंक तथा ‘भारत में अंग्रेजी राज’ पुस्तक भी मेरे पास थी. कोई कुटुंब-संबंधी पढ़ने को ले गये हैं. आप खानातलाशी ले लीजिए.
पिताजी साफ झूठ बोल गये. मैं वहीं खड़ा था. पिताजी को इस तरह झूठ बोलते कभी नहीं देखा था, लेकिन मुझे समझते देर नहीं लगी कि वे क्यों झूठ बोल रहे हैं. उपरोक्त पत्रिकाओं के अंक और ‘भारत में अंग्रेजीराज’ नाम की पुस्तक एक झोले में लपेटकर उनके बिछावन के सिरहाने रखी है, इस बात की जानकारी मुझे थी, पिताजी ने फिर से अपने वाक्य दुहराये- ‘चांद’ के फांसी अंक के अलावा अन्य पत्रिका-पुस्तक की जानकारी आप लोगों को मैंने इसलिए दे दी कि आज-न-कल आपको फिर खबर मिलेगी कि वह सब भी मेरे यहाँ आया है और आपको नाहक दौड़ना पड़ेगा. चलकर खानातलाशी ले लीजिए.
मैं वहाँ से खिसका. पिताजी के कमरे में आया और उनके सिरहाने से पुस्तक-पत्रिकाओं वाली झोली बगल में दबाई, दरवाजे पर आकर छाता लगाया और चलने लगा. दारोगाजी ने देखा तो पूछा - ऐ बाबू, हऊ बगलिया में का बा हो ? मैंने बिना घबराये उत्तर दिया- सिमराहा जा रहा हूँ, फारबिसगंजवाली गाड़ी पकड़ने. स्कूल का समय होने को है.
दारोगाजी जैसे मेरे उत्तर से संतुष्ट हो गये- उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि अभी फारबिसगंज जानेवाली कोई गाड़ी नहीं है. मैं दिन-भर पिताजी के एक मित्र के यहाँ टिका रहा. शाम को वापस आया तो लोग मेरी चालाकी पर दंग थे. ‘चांद’ का फांसी अंक न पाकर दारोगाजी ने बड़े ही निराश स्वर में पिताजी से कहा था- हऊ पतरिका हमरो पढ़ने का ढेर मन है.
रेणु के जीवन के इस संस्मरण से यह स्पष्ट है कि बहुत कम उम्र में ही वे बेहद परिपक्व हो गये थे. इतना कि प्रतिबंधित पत्रिकाओं के अंक और पुस्तक का घर से पुलिस द्वारा बरामद होना कितना खतरनाक है और उसका अंजाम क्या हो सकता है तथा उससे उबरने की तत्क्षण कोशिश किस तरह की जा सकती है, इससे पूरी तरह परिचित थे. रेणु के बचपन की दूसरी अविस्मरणीय घटना, जिसने उन्हें स्वाधीनता-संग्राम से जोड़ा, उसका उल्लेख भी मैं करना चाहूँगा.
रेणु अररिया हाई स्कूल के विद्यार्थी थे, जब महात्मा गांधी की गिरफ्तारी की खबर मिलते ही बाजार बंद हो गया था और स्कूल के सभी छात्र बाहर निकल आये थे. दूसरे दिन भी सभी छात्र हड़ताल पर रहे. रेणु चूँकि खद्दरधारी थे, इसलिए हड़ताल के साथ ‘पिकेटिंग’ भी कर रहे थे. अतिरिक्त उत्साह में उन्होंने असिस्टेंट हेड मास्टर साहब को भी रोका. दूसरे दिन स्कूल पहुँचने पर मालूम हुआ कि हर हड़ताली छात्र को आठ आने जुर्माने की सजा होगी. दो-तीन घंटी की पढ़ाई होने के बाद हेडमास्टर साहब का नोटिस निकला- कल जो विद्यार्थी नहीं आये थे, उन्हें आठ आने जुर्माने के और जो बीमार थे या अन्य किसी कारण से स्कूल नहीं आ सके, उन्हें दरखास्त लिखवाकर देना होगा ... और जो लोग अपनी गलती स्वीकार कर माफी मांगना चाहें, वे भी दरखास्त दें. इस नोटिस के अंत में विशेष रूप से रेणु का नाम लिखकर कहा गया था कि असिस्टेंट हेडमास्टर साहब के साथ अशोभनीय बरताव के लिए सारे स्कूल के छात्रों के सामने पांचवी घंटी के बाद इस लड़के को दस बेंत लगाये जाएंगे.
नोटिस निकलने के बाद ही रेणु अचानक ‘हीरो’ हो गये. ऊँचे दर्जे के विद्यार्थी उन्हें ढाढ़स बंधाते, शाबाशी देते और कोई-कोई तरस खाकर कहता- माफी मांग लो, लेकिन रेणु ने जालियांवाला बाग कांड और मदन गोपाल आदि क्रांतिकारियों की कहानी पढ़ी थी. कई शिक्षकों ने भी समझाया-डराया-धमकाया, लेकिन माफी मांगने को तैयार नहीं हुए. नियत समय पर सभी वर्ग के छात्र मैदान में आकर एकत्रित हो गये. सिक्स्थ मास्टर साहब, तुर्की टोपी और शेरवानी पहने हाथ में बेंत घुमाते हुए मैदान के बीच में आये. सभी शिक्षक सिर झुकाकर खड़े थे. रेणु के नाम की पुकार हुई और वे रिंग में जाकर खड़े हो गये, ठीक विवेकानंदीय मुद्रा में- दोनों बाहों को समेटकर. बेंत मारने के पहले, मास्टर साहब ने अंग्रेजी में कुछ कहा, फिर चिल्लाए- ‘स्ट्रेच योर हैंड!’ रेणु ने जवाब दिया- ‘ह्विच हैंड! लेफ्ट और राइट!’ भीड़ से कई आवाजें एक साथ आयीं- ‘शाबाश !’ मास्टर साहब ने जब ‘राइट’ कहा, तभी रेणु ने हाथ पसारा. मास्टर साहब ने शुरू किया- ‘वन’ ! रेणु ने नारा लगाया- बंदे मातरम! एकत्रित छात्रों ने भी दुहराया- बंदे मातरम! ‘टू !’ रेणु ने नारा लगाया- ‘महात्मा गांधी की जय!’ अब सड़क, कचहरी और बाजार के लोग दौड़े- नारा लगाते- ‘महात्मा गांधी की जय!’ ‘थ्री-ई-ई.’ ‘जवाहरलाल नेहरू की जय!’ अब भीड़ तरह-तरह के सुराजी नारे लगाने लगी.
हेड मास्टर साहब ने ‘केनिंग’ रुकवा दी. छुट्टी की घंटी बजवा दी गयी. लेकिन, भीड़ बढ़ती ही गयी और नारे बुलंद होते रहे. सारा कस्बा उमड़ पड़ा. इसके बाद रेणु को किसी ने कंधे पर चढ़ा लिया और लोग जुलूस बनाकर निकल पड़े. दूसरे दिन भी बाजार बंद रहा और स्कूल के सभी छात्र हड़ताल पर रहे. इस घटना के बाद रेणु छात्रों के, ‘हीरो’ हो गये. उन्हें चौदह दिनों की सजा हुई और पूर्णिया जेल में वे बंद कर दिये गये. अररिया स्कूल से उन्हें निकाल दिया गया.
इस तरह रेणु के बचपन के कई प्रेरक घटनाएँ हैं, जिन्हें मैं छोड़ रहा हूँ और उनके बचपन के एक साहित्यिक प्रसंग की चर्चा कर रहा हूँ. जैसा कि मैंने पहले ही बताया, रेणु बचपन से ही तुकबंदियाँ करने लग गये थे. साथ ही उस इलाके के विभिन्न साहित्यिक एवं सुराजी गतिविधियों में शामिल होते. इस कारण कभी-कभी स्कूल से अनुपस्थित रहते. एक बार उनके शिक्षक ने स्कूल नहीं आने का कारण पूछा. रेणु ने इसका तुकबंदी में जवाब दिया-
वाटर रेनिंग झमाझम पैर फिसल गया गिर गये हम देअरफोर सर आई कुडनॉट कम !
रेणु की इस बहानेबाजी और तुकबंदी पर पूरी कक्षा के छात्र ही नहीं, उनके शिक्षक भी हंस पड़े. वे प्रायः अपनी कक्षा के छात्रों के सामने विभिन्न महत्त्वपूर्ण लोगों एवं शिक्षकों का केरिकेचर किया करते. ब्लैकबोर्ड पर उनक कार्टून बनाया करते. गढ़कर तरह-तरह की कहानियाँ सुनाया करते. तरह-तरह की चुहलबाजियाँ भी किया करते. इन प्रवृत्तियों के साथ ही उनके भीतर मानवीयता की, करुणा की भावधारा भी बहती रहती.
उन्होंने अपने जीवन की पहली कहानी 1935-36 के आसपास ‘परीक्षा’ शीर्षक से लिखी थी, और अपनी कक्षा के मित्रों को सुनायी थी. उस कहानी में एक विद्यार्थी के अनथक परिश्रम के बावजूद असफलता का मार्मिक चित्रण था. उस कहानी को सुनते हुए कई छात्रों की आँखों में आँसू भर आये थे. रेणु के साथ पढ़नेवाले मित्रों को आज भी उस कहानी की याद है.
णु चाय पीने के बेहद शौकीन थे. पर किशोर उम्र में चाय नहीं पीते थे. उनके गुरु द्विजदेनीजी चाय के शौकीन थे. पूर्णिया में आयोजित एक समारोह में उन्होंने रेणु से चाय पीने की जिद्द की, पर वे इनकार करते रहे. इसपर द्विजदेनीजी ने एक दोहा बनाया, जिसे पूर्णिया-जनपद में आज भी लोग चाय-प्रसंग पर सुनाते हैं. दोहा इस प्रकार है- दूध-चीनी-चाय डाली, केतली गर्मा-गरम एक प्याला पी लो रेणु, सर्वरोग विनाशनम. फणीश्वरनाथ रेणु
1936 में नक्षत्र मालाकार के साथ मुजफ्फरपुर में आयोजित विराट किसान-सम्मेलन में भाग लेने रेणु आये और यहाँ से उनका संपर्क जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव, राममनोहर लोहिया, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि प्रमुख समाजवादियों से हुआ. किशोर रेणु के मन पर उनकी गहरी छाप पड़ी. 1937 में वे विराटनगर में स्व. कृष्ण प्रसाद कोइराला द्वारा स्थापित ‘आदर्श विद्यालय’ में पढ़ने चले गये. कोइराला-भाइयों में तीसरे तारिणी प्रसाद कोइराला से उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गयी. ‘कोइराला-निवास’ में इन दोनों का नाम ‘यार-दोस्त’ रख दिया गया.
ये दोनों साहित्य-कला-संस्कृति पर लगातार बातें करते. दोनों कविताएँ-कहानियाँ लिखते. तारिणी प्रसाद कोइराला बाद में नेपाली के प्रमुख कवि-कथाकार के रूप में उभरे, कोइराला-भाइयों के बीच रेणु की राजनीतिक एवं साहित्यिक चेतना प्रखर होती गयी. तारिणी के साथ ही उन्होंने 1939 में वाराणसी से मैट्रिक की परीक्षा पास की और आई.ए. में दाखिला लिया. बनारस में रेणु पढ़ाई कम और छात्र-राजनीति ज्यादा करते. उस वक्त उन्होंने ‘अवाम’ शीर्षक एक लंबी मुक्तछंद की राजनीतिक कविता लिखी थी, जो वहाँ के छात्रों में मशहूर थी. स्टूडेंट फेडरेशन के वे सचिव थे. बनारस के छात्र-आंदोलन में वे धीरे-धीरे इतना लिप्त होते गये कि साहित्य पर उनसे कोई बात करना चाहता, तो फुरसत नहीं है, कहकर टाल देते.
रेणु कई भाषाओं के जानकार थे. नेपाली, बंगला, मैथिली, भोजपुरी आदि उनकी मातृभाषा जैसी थी. उन्हें कम्युनिस्ट ग्रुप अपनी ओर करना चाहते, कभी सोशलिस्ट ग्रुप, बंगाली लोग उन्हें फारवर्ड ब्लॉक में शामिल करना चाहते. धीरे-धीरे उन्हें तीनों वामपंथी संगठनों का सदस्य बना दिया गया. इस तीनों संगठनों की खींचातानी में उनकी बहुत दुर्गति हुई. 1945 में रेणु ने ‘पार्टी का भूत’ शीर्षक कहानी लिखी, जिसमें बनारस में उनके राजनीतिक जीवन का खुलासा है. धीरे-धीरे वे इन तीनों पार्टियों से इस तरह ऊब गये कि कोई उनसे पूछ बैठे कि आप किस पार्टी में हैं, तो घबराने लगते. उसी समय उन्होंने एक शेर लिखा, जिसे ‘पार्टी का भूत’ कहानी के प्रारंभ में रखा - यारों की शक्ल से अजी डरता हूँ इसलिए किस पारटी के आप हैं ? ये पूछ न बैठें
पार्टियों से ऊबने के बावजूद आचार्य नरेंद्र देव से बराबर मिलते रहे और उनके विचारों का गहरा असर उनमें अंत तक बना रहा. 1941 में रेणु ने आई.ए. की परीक्षा पास की. बी.ए. में दाखिला लिया और एक वर्ष बाद बनारस छोड़कर घर चले आये और पूर्णिया के आजाददस्ता में शामिल हो गये. 42 का आन्दोलन शुरू होने के पूर्व ही पूर्णिया के क्रांतिकारी युवकों के साथ उग्रविद्रोही आन्दोलनों में हिस्सा लिया. अंग्रेजी प्रशासकों के विरोध में रेलवे पटरी उखाड़ी, राइफल, गोली, बारूद लूटा. नक्षत्र मालाकार उस वक्त के उनके प्रमुख सहकर्मी थे.
उस वक्त की एक प्रमुख घटना का जिक्र मैं करना चाहूँगा. पुलिस को मालूम हुआ कि रेणु एक गांव में छुपे हुए हैं. उसने गाँव को चारों ओर से घेराव कर लिया. रेणु ने एक नई दुल्हन की लाल साड़ी पहनी, दुल्हन के सभी श्रृंगार किये और बैलगाड़ी पर बैठ कर, घुंघट किये हुए उस गांव से बाहर की ओर निकल पड़े. साथ में दुल्हन को विदा करवाने वाले की भूमिका में कुछ युवक भी थे. पुलिस ने गांव के बाहर बैलगाड़ी को रोका और तलाशी ली. दुल्हन का घुंघट उठाकर भी देखा, पर रेणु को नहीं पहचान पाये और रेणु फरार हो गये. ऐसी अनेकों घटनाएँ हैं, जिन्हें मैं छोड़ रहा हूँ.
1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के प्रमुख सेनानी रेणु की गिरफ्तारी उनके गाँव में सितम्बर में हुई. पुलिस ने अन्य क्रांतिकारियों के बारे में जुबान खुलवाने के लिए उन्हें कितनी ही यातनाएँ दीं, पर उन्होंने कुछ भी नहीं बताया. उनकी छाती पर चढ़कर बूटों से उन्हें रौंदा गया. उनके मुँह, नाक और कान से खून निकलने लगा, पर उन्होंने कुछ नहीं बताया. तब उनके दोनों हाथों में रस्सी बांधकर घोड़ा से खींचते हुए लगभग बीस किलोमीटर दूर अररिया ले जाया गया. रेणु की मरनासन्न हालत हो गयी थी, पर उन्होंने जुबान नहीं खोली.
उन्हें वहाँ की अदालत ने ढाई साल की सजा सुनायी. दो-तीन महीने अररिया जेल में रखने के बाद उन्हें पूर्णिया जेल भेज दिया गया. पूर्णिया जेल से हजारीबाग सेंट्रल जेल. जयप्रकाश नारायण ने जब हजारीबाग जेल से पलायन की थी, रेणु वहीं थे. हजारीबाग सेंट्रल जेल से उन्हें फिर भागलपुर सेंट्रल जेल में भेज दिया गया. यहीं उनके गुरु रामदेनी तिवारी ‘द्विजदेनी’ और बंगला के प्रसिद्ध लेखक सतीनाथ भादुड़ी भी थे. रेणु द्विजदेनीजी को ‘शेखरः एक जीवनी’ पढ़कर सुनाया करते. रेणु ने कविता कहानी (जो बीच में लगभग छूट गयी थी) फिर से लिखना शुरू किया. उनकी रचनाओं पर नैतिकतावादी नाक-भौं सिकोड़ते.
एक बार उन्होंने कस्तूरबा की मृत्यु के बाद महात्मा गांधी की मनःस्थिति को चित्रित करते हुए एक लंबी मुक्तछंद की कविता लिखी- ‘आगा खां के राजभवन में’. इस कविता में एक स्थल पर गांधीजी प्रथम उद्दाम प्रेम के आवेग के मुहूर्त को याद कर कहते हैं- ‘प्रथम उस चुंबन का आस्वाद ....’ इस पर गांधीवादी वृद्ध श्रोताओं ने आपत्ति की थी - अश्लील और अशोभन बताकर. रेणु को बैठ जाना पड़ा था. वे उदास होकर अपने सेल में बैठे थे, तभी भादुड़ीजी ने आकर उनका हौसला बढ़ाया था. उन्होंने रेणु से पूछा- तो वे लोग क्या बोले, गांधीजी ने कभी कस्तूरबा का चुंबन नहीं किया? भादुड़ीजी ने रेणु को कहानी लिखने के प्रति उत्साहित करते हुए कहा- ‘तुम गद्य .. माने गल्प, कथा-कहानी आदि क्यों नहीं लिखते ? कहानी तो देखता हूँ अच्छा जमा सकते हो.’
भादुड़ीजी अपने सेल में बैठकर ‘जागरी’ उपन्यास का लेखन करते और रेणु को सुनाते. रेणु ने भी नियमित कथा-लेखन जेल में ही शुरू किया. 1943 के अंत में वे भीषण रूप से बीमार पड़े और उन्हें पटना कॉलेज मेडिकल हॉस्पीटल में ले जाया गया. अस्पताल में उनके पैरों में जंजीर पड़ी होतीं. लतिकाजी से प्रथम परिचय वहीं हुआ, जो धीरे-धीरे प्रगाढ़ स्नेह में बदलता गया.
1944 के मध्य में रेणु स्वस्थ हुए और उनकी शेष सजा को माफ कर मुक्त कर दिया गया. घर लौटकर उन्होंने कहानियाँ लिखनी शुरू की. उनकी पहली कहानी ‘बटबाबा’ 26 अगस्त 1944 के साप्ताहिक ‘विश्वमित्र’ में प्रकाशित हुई. फिर ‘पहलवान की ढोलक’, ‘कलाकार’, ‘रखवाला’, ‘प्राणों में घुले हुए रंग’, ‘न मिटनेवाली भूख’, पार्टी का भूत, इतिहास, मजहब और आदमी आदि कहानियाँ लगातार साप्ताहिक ‘विश्वमित्र’ में ही प्रकाशित हुई.
1946 से रामवृक्ष बेनीपुरी ने साप्ताहिक ‘जनता’ का प्रकाशन पटना से प्रारंभ किया, जो सोशलिस्ट पार्टी का मुखपत्र था. रेणु भी सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बने और पूर्णिया के कई किसान-मजदूर आंदोलनों में भाग लिया. ‘जनता’ में उनके रिपोर्ताज लगातार प्रकाशित होते, जिनमें प्रमुख हैं- डायन कोशी, जै गंगा, हड्डियों का पुल आदि. पूर्णिया के शरणार्थी शिविर पर 1948 में उन्होंने ‘एक-टू आस्ते-आस्ते’ रिपोतार्ज लिखा, जिसपर सोशलिस्ट पार्टी में बहुत हंगामा हुआ. रेणु को पार्टी से निकाल देने की पेशकश भी हुई. अंत में, जयप्रकाश नारायण ने रेणु की उस रचना के महत्त्व को स्थापित करते हुए उस विवाद को एक समारोह में समाप्त किया.
इस बीच रेणु कोइराला बंधुओं के साथ विराटनगर के विभिन्न कारखानों में कार्यरत मजदूरों के बीच यूनियन स्थापित कर रहे थे. 4 मार्च 1947 से विराटनगर के मजदूरों का पहला और ऐतिहासिक हड़ताल प्रारंभ हुआ. रेणु ने एक लंबा रिपोतार्ज वहाँ के मजदूरों पर लिखा और पुस्तक रूप में छपवाया - ‘विराटनगर की खूनी दास्तान’, यह आंदोलन कई महीनों तक चला. इस आंदोलन को कुचलने के लिए नेपाल सरकार ने भारत की अंग्रेजी सरकार की भी सहायता ली. कई राउंड गोलियाँ चलायी गयीं. कई मजदूर मारे गये. रेणु को घायल कर दिया गया. उन्हें गिरफ्तार कर पूर्णिया जेल में तीन महीनों तक रखा गया.
1949 में रेणु ने ‘नयी दिशा’ नामक एक साप्ताहिक पत्र का संपादन-प्रकाशन शुरू किया. इसमें कई छद्म नामों से वे विभिन्न प्रकार की रचनाएँ लिखा करते. 1950 में उनके पिता शिलानाथ मंडल का देहांत हो गया. पिता की मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद उनके छोटे भाई महेंद्र का देहांत हो गया, जिसे रेणु ने ‘परती-परिकथा’ समर्पित की है. पिता और भाई की मृत्यु के पूर्व ही वे ‘मैला आंचल’ के लेखन में लग गये थे. नवंबर, 1950 में वे पुनः नेपाल चले गये और फरवरी, 1951 तक ‘नेपाली क्रांति’ में शरीक हुए, जिसके बारे में रेणु को जानने वाले सभी जानते हैं.
‘जनता’ में नेपाली क्रांति पर धारावाहिक रूप से उन्होंने ‘हिल रहा हिमालय’ नामक रिपोर्ताज लिखा, जिसका पुनर्लेखन ‘नेपाली क्रांतिकथा’ के नाम से 1971 में किया. रेणु इसी बीच क्षयरोग से ग्रसित हुए और पटना अस्पताल में लंबे समय तक जीवन-मृत्यु से संघर्ष करते रहे. रोग मुक्त होकर फरवरी, 1952 में उन्होंने लतिकाजी से विवाह किया और पटना में ही रहकर ‘मैला आंचल’ को पूरा किया. 1953 में उसकी पाण्डुलिपि लेकर प्रकाशकों के यहाँ दौड़ते रहे और अंत में थक-हारकर पत्नी के गहने बेचकर खुद से छपवाना शुरू किया. एक वर्ष तक ‘मैला आंचल’ प्रेस में रहा. 9 अगस्त, 1954 को प्रकाशित होकर यह बाहर आया और उन्होंने अपने घर पर शिवपूजन सहाय, बेनीपुरी, नलिन विलोचन शर्मा, सुशीला कोइराला आदि को निमंत्रित कर एक गोष्ठी में ‘मैला आंचल’ का लोकार्पण किया. उसके बाद की रेणु की कथा से हिंदी के प्रायः सभी पाठक परिचित हैं.
अब मैं रेणु के साथ को और गहराई देने के लिए उनसे एक बातचीत प्रस्तुत कर रहा हूँ. मुझे माफ करें, यह बातचीत प्रामाणिक है और रेणु को जानने-समझने की एक कुंजी भी. इसे बातचीत नहीं कहकर सवाल-जवाब या इंटरव्यू भी कह सकते हैं.
प्रश्नः रेणुजी, सबसे पहले आप बतायें कि कथा-लेखन की प्रवृत्ति आप में कैसे आयी ?
उत्तर: बचपन से ही मुझे कथा-कहानी सुनने और गुनने का शौक रहा है. बुनने का शौक तो बहुत बाद में चलकर पैदा हुआ, और वह भी शायद इसलिए कि बचपन से ही इतने तरह के लोगों को नजदीक से देखने-समझने का मौका मिला कि बाद में चलकर मैंने महसूस किया- मेरा प्रत्येक परिचित अपने आप में अनगिनत कहानियों की खान है. बस फिर क्या था, कलम उठायीं और कथा बुनने में लग गया.
प्रश्न: आपसे एक सीधा-सरल प्रश्न पूछा जाये कि आप क्यों लिखते हैं ? आपकी विचारधारा क्या है?
उत्तर: साहित्य के राजदार पंडित-कथाकार आलोचकों ने हमेशा नाराज होकर मुझे ‘एक जीवनदर्शनहीन- अपदार्थ- अप्रतिबद्ध-व्यर्थ-रोमांटिक प्राणी’ प्रमाणित किया है ... सारे तालाब को गंदला करने वाला जीव! इसके बावजूद कभी मुझसे इससे ज्यादा नहीं बोला गया कि अपनी कहानियों में मैं अपने को ही ढूंढ़ता फिरता हूँ. अपने को, अर्थात आदमी को.
प्रश्न: यह अपने को, अर्थात आदमी को ढूंढ़ने का मतलब क्या है ?
उत्तर: देखिए, आप अपनी कथा के पात्र का नाम राम-श्याम-यदू रखिए, या हेरी-डिक-टॉम, बुझक्कड़ लोग उसको आपकी ही कहानी बूझेंगे. आपको ही अपनी कथा का पात्र मानेंगे. कथा-शास्त्रियों का कथन है, सभी कथा में एक जीवन-दर्शन होना आवश्यक है. हर कथाकार का जीवन-दर्शन होना चाहिए, कोई. सो, अपनी कथा का जीवन-दर्शन, सोदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ.
अपनी गली की गूंगी बूढ़ी को मैंने इस कथा की पात्री के रूप में पेश किया है. तो, मैं ही यह गूंगी हूँ. उस बूढ़ी को सबसे अधिक सताने वाला, गली का सर्वोच्च शैतान छोकरा सतना भी मैं हूँ.
क्लाइमेक्स के आसपास, गूंगी बूढ़ी को चिढ़ाने-सताने में मशगूल सतना का प्यारा कुत्ता मोटर के नीचे कुचलकर मर गया जो, वह मैं ही था. वह चीख मेरे ही कंठ से निकली थी. कथा के अंत में, सतना रोया, मैं रोया. अपने सबसे-बड़े दुश्मन के प्यारे कुत्ते की मौत पर बूढ़ी रोई, मैं रोया. बूढ़ी ने सतना की पीठ पर बड़े प्यार से अपनी हथेली रखी, मैंने अपनी पीठ पर अपना हाथ रखा! .... मतलब यह कि हर कथा को लेखक की आत्मकथा होनी चाहिए. वरना, कथा असफल है .... मेरे सामने समस्या है, अपनी कथा से अपने को कैसे बहिष्कृत करूँ ? कैसे निकाल दू ‘मैं’ को ? क्यों निकाल दूँ ? फणीश्वरनाथ रेणु
प्रश्न: अच्छा रेणुजी, आपको आंचलिक कथाकार कहा जाता है. इस बारे में आप क्या सोचते हैं ?
उत्तर: देखिए, हिंदी साहित्य में एक प्रकार से मुझपर आंचलिकता का ठप्पा लगाकर खारिज किया गया. कहा गया कि यह आंचलिक लेखक रेणु, इसका तो सिर्फ पूर्णिया जनपद से सरोकार है, देश के अन्य जनपदों से इसका क्या लेना-देना! देश की समस्याओं से इसका क्या सरोकार ? ‘मैला आंचल’ तक तो आंचलिकता का हौव्वा कम था, ‘परती-परिकथा’ के बाद तो उसकी लहर-सी उठी. आंचलिकता का एक बड़ा आन्दोलन शुरू हुआ. मैंने पूर्णिया जनपद का चित्रण किया था और एक-एक कर कई जनपद उठने लगे. इसपर जब हरिशंकर परसाई ने ‘कल्पना’ के ‘और अंत में’ स्तंभ में आक्रमण किया था, तो मुझे अच्छा लगा था. मैंने परसाई को इसपर एक लंबा पत्र लिखा था और बधाई दी थी ... मैं उपन्यास को उपन्यास, कहानी को कहानी कहना ज्यादा पसंद करता हूँ. ऐतिहासिक उपन्यास, यथार्थवादी उपन्यास या आंचलिक उपन्यास आदि कहना ठीक नहीं मानता. इस पर मुझे एक चुटकुला याद का रहा है, जिसे प्रयाग के कॉफी-हाउस में धर्मवीर भारती ने कभी सुनाया था.
चुटकुला इस प्रकार है - साहित्यिक गुरु ने शिष्य से पूछा, “वत्स, उपन्यास कितने प्रकार के होते हैं ?“ शिष्य ने हकलाते हुए प्रश्नोत्तर देना प्रारंभ किया- “जी, गुरुजी, धार्मिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक ... और ... और आंचलिक !“ गुरु ने कहा- “मूर्ख! एक नाम तो तुमने छोड़ दिया- धारावाहिक उपन्यास कहाँ गया ?“ चुटकुला सुनकर मैं जी खोलकर हंसा था. आज भी हंसता हूँ. और सच कहूं, ‘मैंला आंचल’ और ‘परती-परिकथा’ पर आंचलिकता का जो ठप्पा लगा, उसने मुझे आतंकित ही किया. बाद के लेखन में मैंने इससे उबरने की ही कोशिश की है.
प्रश्न: कुछ आलोचक आपको प्रेमचंद की परंपरा का कथाकार मानते हैं, कुछ नहीं. रामविलास शर्मा तक ने यह पूरी शक्ति लगायी कि आप प्रेमचंद की परंपरा के कथाकार नहीं है. इस पर आप किस तरह सोचते हैं ?
उत्तर: प्रेमचंद मेरे वरिष्ठ कथाकार हैं और आदरणीय भी. उनकी कथाकृतियों के केन्द्र में गांव और किसान-जीवन रहा है और मेरे भी. इसीलिए मेरे कथा-साहित्य को प्रेमचंद की परम्परा में रख कर आलोचना की जाती है. कितना मै प्रेमचंद की तरह हूँ और कितना नहीं. देखिए, यदि साहित्यिक परंपरा की ही बात है तो मैं किसी एक कथाकार से प्रभावित नहीं हूँ. मैं मिखाइल शोलोखोव, बंगला के ताराशंकर बंधोपाध्याय और सतीनाथ भादुड़ी तथा प्रेमचंद को अपना आदर्श और प्रेरक मानता हूँ. परन्तु मैंने अपना एक अलग रास्ता चुना. और मैं मानता हूँ हर कलाकार को, क्यों न वह कथा-शिल्पी ही हो, अनुकरण से बचना होता है.
प्रश्न: आपने अपने कथा-साहित्य में रंगों, गंधों, ध्वनियों, गीतों के टुकड़ों, ऐंद्रिक अनुभूतियों का विशद चित्रण किया है. ऐसा करने की अनिवार्यता क्या थी ? क्या ये मूल कथा से विषयांतर नहीं है ?
उत्तर: देखिए, मैं किसी भी आदमी, पेड़-पौधा, चिड़िया, जानवर, या वस्तु की कल्पना उसके रंग के बगैर नहीं कर सकता. फिर हर चीज की एक गंध होती है. तो, जब मैं लिख रहा होता हूँ तो रंगों और गंधों के बारे में बताना भी जरूरी समझता हूँ. फिर उन रंगों और गंधों का हमारी इंद्रियों पर भी प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है. वे प्रभाव किस प्रकार के हैं, इसे भी बताना होता है. ध्वनियों का चित्रण एक खास तरह की गीतात्मकता ही नहीं, कथा को गतिमयता में भी बदलता है. जिस तरह हर शब्द की ध्वान्यात्मकता होती है, प्रकृति की हर इकाई, जिसमें सक्रियता या गतिशीलता है, उसकी ध्वनि भी है. और हर समय यह ध्वनि एक जैसी नहीं होती. उसमें बदलाव होता रहता है. मैं जब लिखने बैठता हूँ तो पूरे परिवेश पर मेरा ध्यान होता है. एक असली कथाकार में चित्रकार और संगीतकार की आत्मा भी पैठी होती है. फिर आप देखेंगे कि हर आदमी, भले ही वह गांव का ही क्यों न हो, उसकी भाषा में एक अलग तरह की लय होती है, उसके उच्चारण के आरोह-अवरोह अलग होते हैं. मेरे जितने भी कथा-पात्र हैं, उनके बोलने का ढंग अलग है. और कभी-कभी ऐसा होता है कि एक ही डायलॉग में वह पात्र पूरी तरह उभर कर आ जाता है. ये तमाम चीजें आपको विषयांतर लग सकती हैं, पर ये मूल कथावस्तु की संवेदना को ज्यादा जागृत और प्रगाढ़ बनाती है. और स्पष्ट शब्दों में कहूँ, विषय को जाननेवाला ही विषयांतर से अपने विषय को स्पष्ट करता है. और ये विषयांतर ही उसकी निजी पहचान के वाहक बनते हैं.