रेणु की कथा अर्थात कोसी की कथा / भारत यायावर
रेणु हिन्दी ही नहीं, विश्व के उन विरल कथाकारों में एक है, जिनके कथा-साहित्य में शब्द एक जीवित अस्तित्व ग्रहण करते हैं। रेणु के शब्द — कहीं बोलते हुए, कहीं गाते हुए और कहीं सौंदर्य की एक विराट छवि को दर्शाते हुए — राग तथा संगीत से समाविष्ट। और यही शब्द कहीं प्रतीकों में, कहीं चरित्रों में और आगे बढ़कर एक सघन संवेदनशील कथानक में। इन सबके बावजूद इन सबका अपना काल-संदर्भ और स्थानिकता है। इनकी जड़ें इतिहास में भी धँसी हुई हैं। अपने समय के जीवित इतिहास को कथा में बदलने की प्रक्रिया रेणु के कथाकार को जिन ऊँचाइयों पर ले जाती है, वह समकालीन कथा-साहित्य में दुर्लभ होती जाती वस्तु है।
रेणु की जीवन-कथा को जानने-समझने-बूझने के लिए मैं बरसों से भटकता रहा हूँ। अनेक लोगों से मिलना, बातें करना, अनेक गाँवों, क़स्बों, शहरों की ख़ाक छानना, रहस्यों से भरी अद्भुत जीवन-गाथाओं से गुज़रना और फिर हार मान जाना — नहीं, रेणु की कथा लिखना मेरे लिए संभव नहीं। जो अद्भुत है और सरल भी। जो रोमानी, प्रेमी, भावुक है और परम यथार्थवादी भी। आभिजात्य का वैभव और ‘भदेस’ की साधना का समन्वय। परले दर्जे का नशेड़ी, गपोड़ी, कामुक, खिलन्दड़ ! वैसा ही सन्त, महात्मा, पवित्र। हर तरह के रस का आस्वादक। हिन्दी का यह अनोखा शब्दशिल्पी ! नहीं, मैं रेणु की जीवन-गाथा नहीं लिख सकूँगा। लिखना मेरे लिए संभव नहीं। फिर भी एक संकल्प बना रहा कि रेणु की जीवनी लिखनी है। मैं बरसों इस ‘द्वन्द्वजाल’ मैं फँसा रहा और हार-हार जाता रहा कि नहीं लिख पाऊँगा। फिर भी लिखने का संकल्प मेरे मन में जागता रहा।
हिन्दी की मारधाड़ और उठापटक से दूर रहकर साहित्य-साधना करने वाले इस छोटे से लेखक की यह उधेड़बुन जारी रही। मैंने इस कार्य के लिए तथ्यों की खोज-पड़ताल करने के लिए लगातार लम्बी-लम्बी यात्राएँ की। मैं तथ्यों का संकलन करता ही रहा। फिर जब लेखन की बारी आई तो सबसे मुश्किल भरा काम था, इसकी शुरूआत कैसे की जाए?
अन्त में, रेणु का यह कथन ही रास्ता दिखाते हुए उपस्थित हुआ —
कोसी या उसके किसी अंचल के सम्बन्ध में जब भी कुछ कहने या लिखने बैठता हूँ, बात बहुत हद तक ‘व्यक्तिगत’ हो जाती है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। क्योंकि, कोसी हमारे लिए नदी ही नहीं, माई भी है ! पुण्यसलिला, छिन्नमस्ता, भीमा, भयानका भी: प्रभावती — कोसी मैया !!
अन्ततः रेणु की कथा कोसी और उसके अंचल की कथा ही तो है। यही से एक रास्ता मिला।
कोसी का स्मरण करने के पहले कालिदास के शब्दों को उधार लेकर हिमालय की स्तुति :
अस्त्युत्तरस्यां दिशिदेवतात्मा,
हिमालयो नाम नगाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः
पृथिव्या इव मानदण्डः।।
हिमगिरि पृथ्वी का मानदण्ड है। यह पृथ्वी और आकाश के बीच सेतु है। अपने सम्मुच्चय में सबसे क़रीब है आकाश के। (बकौल राजा खुगशाल) अगर पृथ्वी एक कविता है तो पहाड़ शीर्षक हैं पृथ्वी के।
हिमालय से निकलने वाली सभी नदियाँ नगाधिराज की पुत्रियाँ हैं। भारत के उत्तराखण्ड में स्थित पर्वतराज की सात बेटियाँ एक साथ, आसपास पैदा हुईं। उन सातों बहनों ने तय किया कि वे एक साथ दक्षिण दिशा में बहती हुईं, अनेक क्षेत्रों को सिंचित करती हुईं, आगे चलकर एक-दूसरे से मिलते हुए पूर्व दिशा की ओर गमन करेंगी। सबसे बड़ी बहन गंगा, फिर यमुना, फिर क्रमशः सरयू, रामगंगा, काली, गोरी और सबसे छोटी बहन कोसी।
हिमालय की गोद से निकलकर चलने वाली सातों बहनों में छोटी बहन कोसी — मनचली, अहंकारी और बावली थी। वह अपनी बहनों के साथ न चलकर आधी रात को ही चल पड़ी। सुबह छहों बहनों ने जब कोसी को आगे गमन करते पाया तो गुस्से में शाप दिया —
सुस्वानै रये,
भुभ्वानै रये,
रहौने रये,
बहौने रये !
अर्थात् तू जिस स्थान से गुजरेगी, उसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। लोग तुझे पूजेंगे नहीं। तू अपवित्र ही रहेगी। तू अकेली बहती रहना। हमें कभी नहीं मिलना।
कोसी उत्तराखण्ड में अशक्त हो गई। अपनी पतली धारा में सिमट गई। शेखर जोशी ने उसी कोसी नदी के घटवार पर अपनी कहानी लिखी है। वह कोसी वहीं क्षीण होकर सिमट चुकी थी या लगभग मर चुकी थी। पर कोसी हार मानने वाली नहीं थी। उसने पुनर्जन्म लिया और वह अपनी महत्ता को बढ़ाने के लिए हिमालय के सबसे ऊँचे शिखर सागरमाथा के शरण में गई और उसी के आसपास अपनी पाँच धाराओं में प्रकट हुई। सागरमाथा की खोज एवरेस्ट नामक एक पर्वतारोही ने की थी और यह स्थापित किया था कि हिमालय की सबसे ऊँची चोटी यही है। तबसे अँग्रेज़ों ने इस चोटी को माउण्ट एवरेस्ट कहना शुरू किया, लेकिन नेपाल में आज भी इसे सागरमाथा ही कहते हैं। इस पर्वत शिखर के पूरब में कँचनजँघा है। कँचनजँघा से कोसी की दो धाराएँ नकलीं। कोसी की सप्तधाराओं में पाँच का उद्गम क्षेत्र सागरमाथा है, जिनमें सबसे प्रमुख है — सुन कोसी। इसे नेपाल के कुछ लोग भोट कोसी भी कहते हैं। यह नदी सागरमाथा के उत्तरी छोर अर्थात् तिब्बत से से प्रकट होकर फिर दक्षिण दिशा में इस विराट पर्वत शिखर का चक्कर लगाते हुए लम्बी यात्रा करते हुए आगे बढ़ती है।
इस नदी के पश्चिम दिशा में बहने वाली इसकी दूसरी बहन इन्द्रवती कोसी इससे मिलती है और दोनों बहनें मिलकर पश्चिम दिशा से पूर्व की ओर बहती हैं। लगभग सौ किलोमीटर की यात्रा तय करने के बाद गोसाईंधान नामक जगह से निकलने वाली ताम्बा कोसी सुन कोसी में मिलती है। फिर आगे लिक्षु कोसी, फिर आगे दूध कोसी। कंचनजंघा के पश्चिम से निकलने वाली अरुण कोसी एवं पूर्वी दिशा से निकलने वाली तामर कोसी जिस जगह मिलती हैं, उसे त्रिवेणी कहते हैं। त्रिवेणी नेपाल के धनकुट्टा जिले में स्थित है। यह एक पहाड़ी क्षेत्र है।
त्रिवेणी से आगे बहने वाली धारा को सप्त कोसी कहा जाता है। त्रिवेणी से दक्षिण की ओर गमन करती सप्त कोसी वराह क्षेत्र में प्रवेश करती है। नेपाल के लोगों की मान्यता है कि विष्णु ने वराह अवतार यहीं लिया था, इसलिए इसे पवित्र-स्थल के रूप में माना जाता है और प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। वराहक्षेत्र के दक्षिण में चतरा नामक मैदानी क्षेत्र से गुजरती हुई यह नेपाल के अन्तिम शहर भीमनगर से होती हुई, बिहार के सुपौल जिले में प्रवेश करती है। सुपौल से जब यह सहरसा पहुँचती है तो इस नदी में बागमती और कमला नामक दो बड़ी नदियाँ सीतामढ़ी, मधुबनी, दरभंगा से गुज़रते हुए आकर मिल जाती हैं। सहरसा से इसकी धारा मधेपुरा, पूर्णिया एवं कटिहार जिले के दक्षिणी दिशा से बहती हुई कुरसेला नामक जगह में अपनी बड़ी बहन गंगा से आकर मिल जाती है।
बागमती, कमला और कोसी नदियों के क्षेत्र को मिथिला कहते हैं। सीतामढ़ी, मधुबनी, दरभंगा, सहरसा, मधेपुरा, सुपौल, अररिया, किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार जिला ही मिथिलांचल है। मिथिलांचल के उत्तर में नेपाल के कई शहरों में मैथिली भाषा बोली जाती है। प्राचीन काल में जनकपुर मिथिला की राजधानी थी, जो आज नेपाल में स्थित है। मिथिलांचल के पूर्वी हिस्से में मैथिली के लोकप्रचलित रूप अंगिका का प्रचलन है और इसका विस्तार गंगा नदी के पार दक्षिण में स्थित प्रमुख शहर भागलपुर तक विस्तृत है।
रेणु के जीवन-काल में पूर्णिया बिहार का एक बड़ा ज़िला था, जिसके खण्ड-खण्ड कर कई ज़िले बने — पूर्णिया, कटिहार, किसनगंज और अररिया। अररिया पूर्णिया से उत्तर की तरफ बसा शहर है। इससे सटा हुआ सिमराहा, जिससे लगभग पाँच किलोमीटर की दूरी पर औराही-हिंगना गाँव है, जिसे आजकल रेणु गाँव भी कहते हैं। औराही हिंगना से कुछ दूरी पर रानीगंज नामक जगह है, जिसे मेरीगंज भी कहते हैं। रानीगंज से करीब ही सिमरबनी नामक जगह है, जहाँ रेणु के गुरु रामदेनी तिवारी ‘द्विजदेनी’ एक स्कूल चलाया करते थे। सिमराहा के उत्तर में फारबिसगंज नामक व्यापारिक शहर है। उसके उत्तर में नेपाल की सीमा से सटा जोगबनी नामक शहर है। जोगबनी के बाद नेपाल का विराटनगर। इन तमाम जगहों में रेणु का बचपन से अन्तिम दौर तक जीवन्त सम्बन्ध रहा है। रेणु अपने इस क्षेत्र के बारे में लिखते हैं — “हम कोसी के उस अंचल के वासी हैं, जिससे होकर क़रीब तीन-चार सौ वर्ष पहले कोसी बहा करती थी और यह सर्वविदित है कि कोसी जिधर से गुज़रती, धरती बाँझ हो जाती। सोना उपजाने वाली काली मिट्टी सफ़ेद बालूचरी में बदल जाती। लाखों एकड़ बन्ध्या धरती उत्तर नेपाल की तराई से शुरू होकर दक्षिण गंगा के किनारे तक फैली हुई परती : पूर्णिया के नक़्शे को दो असम भागों में बाँटती हुई।
इस ‘परती’ के उदास और मनहूस बादामी रंग को रेणु बचपन से ही देखते आए थे — दूूर तक फैली हुई साकार उदासी। जिसपर बरसात के मौसम में क्षणिक आशा की तरह कुछ दिनों के लिए हरियाली छा जाती — वरना बारहों महीने, दिन-रात, सुबह-शाम धूसर और वीरान....।
‘परती-परिकथा’ उपन्यास का प्रारम्भ ही इसी प्रसंग से होता है। रेणु अनुमान लगाते हैं कि बहुत पहले जब कोसी की यह विनाश-लीला हुई होगी, तो लाखों एकड़ भूमि बंजर हो गई होगी। कछुए की पीठ की तरह ऊबड़-खाबड़ धरती ! इसी के किनारे उनका गाँव था। पूर्णिया जिले का ऊपरी हिस्सा अररिया से होते हुए प्राचीन काल में कोसी नदी बंगाल के मालदह ज़िले की ओर गमन करती थी। तिब्बत से निकलकर बहने वाली सुन कोसी, जिसे भोट कोसी भी कहते हैं, अपनी छह सहायक धाराओं के साथ अपार बालू और अन्य तरह के गादों से इस इलाकों को भरती गई और फिर उसने छाड़न को भरने के बाद अपनी कई छाड़न धाराओं को इस पूरे इलाके में जगह-जगह अवशेष के रूप में छोड़ दिया। इन छाड़न धाराओं के कारण ही रेणु अंचल का बहुत-बड़ा इलाका अन्न-फल-मत्स्य-मांस से भरा-पूरा है।
इन छाड़न धाराओं या कोसी से विच्छिन्न धाराओं के अलग-अलग स्थान और नाम हैं। अररिया से 55 कि०मी० दूर दक्षिण दिशा में परमान और पनार नाम कोसी की दो धाराएँ हैं। पूर्णिया शहर के पूरब में बहने वाली भैंसना नदी। पूर्णिया शहर के बीच से गुज़रने वाली दुलारी दाय। इसे सौरा कोसी भी कहते हैं। पूर्णिया शहर के पश्चिम में बहने वाली कमला कोसी। रानीगंज (मेरीगंज) से गुज़रने वाली लिबरी कोसी और धमदाहा कोसी, हिरन कोसी, धौंस कोसी, लोरन कोसी, धंसान कोसी, तिलावे कोसी, धेमुराधारा कोसी, सोहराइन कोसी, तिलयुगा कोसी आदि धाराएँ एक विस्तृत भूभाग को हरित भूमि बनाती हैं।
अनेक रूपा कोसी की आदिकाल से अनेक कथाएँ हैं। अनेक शब्द-शिल्पियों ने इसको लेकर तरह-तरह की बातें कही हैं। आदिकवि वाल्मीकी ने अपने ‘रामायण’ में सर्वप्रथम कोसी को याद किया है। बालकाण्ड के बारहवें सर्ग में कोसी का संस्कृत नाम कोशिकी के रूप में वर्णन है, जो कुशनाभ की पुत्री होने के कारण सत्यवती के साथ-साथ कौशिकी नामधारिणी भी हुई। विश्वामित्र की यह बड़ी बहन थी। कुशवंश के कारण विश्वामित्र को कौशिक कहा जाता है।
पूर्वजा भगिनी चापि मम राघव सुव्रता।
नाम्ना सत्यवती नाम ऋचीके प्रतिपदा।।
सशरीरा गता स्वर्ग भतरिमनुवर्तिनी।
कौशिकी परमोदारा प्रवृत्ता च महानदी।।
दिव्या पुण्योदका रम्या हिमवन्तमुपाश्रिता।
लोकस्य हितकायर्थि प्रवृत्ता भगिनी मम।।
जब विश्वामित्र ने उपर्युक्त बातें राम और लक्ष्मण से कहीं, तब वहाँ उपस्थित सभी मुनियों या मनीषियों ने विश्वामित्र की प्रशंसा करते हुए कहा —
कुशिकानामयं वंशी महान् धर्मपरः सदा।
ब्रह्मनोपसा महात्मानः कुशवंश्या नरोत्तमाः।।
विशेषेण भवानेव विश्वामित्र महायशः।
कौशिकी सरितां श्रेष्ठा कुलाद्योतकरी तव।।
कौशिकी-कोशी-कोसी ! नदियों में श्रेष्ठ है। यह लोक के हितकार्य में युगों-युगों से अनेक धाराओं में विभाजित होकर सदियों से बह रही है, बहती जा रही है।
‘अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते हुए’ देखने के बाद नागार्जुन का कवि मन प्रश्नोत्तुर हो उठा — हिमालय से पतली-पतली धाराओं में निकलने वाली ये नदियाँ अपने पिता की गोद में कितनी प्यारी लगती हैं — उछलती, कूदती, खिलखिलाकर निरन्तर हँसती हुई। लेकिन धरती पर उतरकर इनका उल्लास कैसे गायब हो जाता है। हिमायल की ये बेटियाँ पिता को छोड़कर कहाँ भागी जा रही हैं ? यह कौन लक्ष्य है जिसने इन्हें बेचैन कर रखा है ? अपने महान पिता का विराट प्रेम पाकर भी अगर इनका हृदय अतृप्त ही है तो वह कौन होगा जो इनकी प्यास मिटा सकेगा ! बर्फ जली नंगी पहाड़ियाँ, छोटे-छोटे पौधों से भरी घाटियाँ, बन्धुर अधित्यकाएँ, सरसब्ज़ उपत्यकाएँ — ऐसा है इनका लीला निकेतन ! खेलते-खेलते जब ये जरा दूर निकल जाती हैं, तो देवदार, चीड़, सरो, चिनार, सफ़ेदा, कैल के जंगलों में पहुँचकर शायद इन्हें बीती बातें याद करने का मौक़ा मिल जाता होगा। कौन जाने, बुड्ढा हिमालय अपनी इन नटखट छोकरियों के लिए कितना सर धुनता होगा ! बड़ी-बड़ी चोटियों से जाकर पूछिए तो उत्तर में विराट मौन के सिवा उनके पास और रखा ही क्या है ?
दिनकर ने भी इस मौन तपस्वी को जगाने के लिए ‘हिमालय’ कविता लिखी — मेरे नगपति, मेरे विशाल ! साकार, दिव्य, गौरव, विराट ! इस विराट की साधना हज़ारों वर्षों से भारतीय मनीषा के दिव्य साधक करते रहे हैं और हिमालय की सार्थकता ही है उसकी क्रोड़ में बाल-लीलाएँ करतीं उसकी पुत्री रूपी नदियाँ, जो नीचे मैदानों में उतरकर धरती को हरियाली प्रदान करती हैं, जीवन का संचार करती हैं। फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी पहली कहानी ‘बट बाबा’ में एक वाक्य लिखा है — “हिमालय और भारतवर्ष का जो सम्बन्ध है, वही सम्बन्ध उस वृद्ध पेड़ और गाँव का था।” इस तरह रेणु ने अपनी पहली ही कहानी में हिमालय को याद किया है। वे कोसी नदी के उद्गम स्थानों की ओर प्रायः जाते रहते थे। हिमालय की तराई में बसे छोटे-छोटे गाँव ! वहाँ के गोरखा, भोट आदि जातियों के भोले-भाले लोग उनको आकर्षित करते थे। उन्होंने ‘रखवाला’ नामक एक प्रारम्भिक कहानी में ऐसे ही एक गाँव का चित्रण किया है। रेणु की कथा-भूमि हिमालय के पर्वतीय अंचल की ओर बार-बार गमन करती है, क्योंकि वहाँ एक मनोरम दुनिया है — शान्त, स्निग्ध, सरस, सुवासित ! रेणु कथा कहते हैं —“रक्त की प्यासी सभ्य दुनिया से दूर-बहुत दूर — हिमालय के एक पहाड़ी गाँव का अँचल। छोटा-सा झोंपड़ा। पहाड़ी की ओट से छनकर आती हुई सूर्य की किरणों में छोटा-सा सरकण्डे का झोंपड़ा सोने के झोंपड़े की तरह चमक रहा था। झोंपड़े के इर्द-गिर्द केले, नारंगी, नासपाती के दरख़्त, फल-फूल और हरे-पीले पत्तों से लदे हुए। झोंपड़े के सामने एक अमरूद का पेड़, खूँटे से बँधा एक बछड़ा। पेड़ के नीचे बैठी वह, जँगली बेंतों और बाँस की पतली-पतली तीलियों से डोको बना रही थी। प्यारा-सा सुकुमार बच्चा गोद में मीठी नींद ले रहा था। किसी गीत की ‘कड़ी’ को गुनगुनाते हुए वह काम कर रही थी। उसके हाथ मशीन की भाँति चल रहे थे। बेतों और तीलियों को काटते-सँभालते गुनगुनाहट का क्रम तो रूक भी जाता, पर उसकी स्मृतियों के तार न टूटते थे। हाँ, कभी-कभी सामने की मटमैली.....धुँधली पहाड़ी की ओर नज़र उठाकर देख लेती, देख लेती अपनी गोद में सोये प्यारे बच्चे को और पेड़ में पके अमरूदों को। तब उसके मानस-पट पर चलने वाले स्मृतियों के सवाक चित्रपट के एकाध अस्फुट शब्द निकल पड़ते।”
नेपाल की पहाड़ी तराइयों में बसे हुए गोरखा लोगों के गाँव रेणु को बेहद आकर्षित करते थे। कोसी की सप्तधाराओं के किनारे छोटे-छोटे तृण-आच्छादित पर्वत, छोटी-छोटी पगडण्डियाँ, ईर्ष्या-द्वेष से रहित लोग रेणु को बेहद आकर्षित करते थे।
ऐसे ही जीवन की तलाश में अज्ञेय हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों में बार-बार जाते रहते थे। एक बार वे ऐसे ही पूर्वोत्तर के माफलाँग नाम गाँव में पहुँचे और घास एवं पेड़ों से भरी पहाड़ियों से इतने प्रभावित हुए कि उनकी ‘दूर्वाचल’ नामक कविता स्वतः प्रकट हुई। 22 सितम्बर, 1947 को लिखी गई कविता के कारण ही उन्हें यायावर कहा गया। रेणु भी उन्हें यायावर ही नाम से अभिहित करते रहे —
पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में
डगर चढ़ती उमँगों-सी
बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा ।
विहग शिशु मौन नीड़ों में ।
मैंने आँख भर देखा ।
दिया मन को दिलासा — पुनः आऊँगा।
(भले ही बरस दिन-अनगिन दिनों के बाद !)
क्षितिज ने पलक-सी खोली,
तमक कर दामिनी बोली —
‘अरे यायावर, रहेगा याद ?’
रेणु ने ‘रखवाला कहानी में नेपाली भाषा का एक छोटा-सा संवाद लिखा है — अलि पख न, अलि सुन न ! अर्थात् जरा ठहरो न, जरा सुनो न ! यह जीवन अज्ञेय को ही नहीं, रेणु को भी जरा ठहरने और सुनने को निमंत्रित करता रहता था।
रेणु नेपाल को सानोआमाँ कहते थे। सानोआमाँ का मतलब छोटी माँ। वे कहते थे — जब कभी नेपान की धरती पर पाँव रखता हूँ — पहले झुककर एक चुटकी धूल सिर पर डाल लेता हूँ। रोम-रोम बज उठते हैं — स्मृतियाँ जग पड़ती हैं।......जय नेपाल! नेपाल मेरी सानोआमाँ !
रेणु के कार्यक्षेत्र और कथाक्षेत्र का जीवन जो है वह कोसी का ही बनाया और बरबाद किया हुआ है। बरसात के दिनों में बिहार के जिन क्षेत्रों से होकर कोसी बहती है, वहाँ उसके बाद का भीषण प्रकोप जहाँ तबाही का दृश्य उपस्थित करता है, वहीं नेपाल के पर्वतीय इलाके में इसकी छोटी-छोटी निर्मल धाराएँ अद्भुत प्राकृतिक परिवेश का निर्माण करती हैं। सागरमाथा और कंचनजंघा से थोड़ा नीचे उतर कर ये धाराएँ गौरी-शंकर पर्वतमाला में प्रवेश करती हैं। गौरीशंकर शब्द के निर्माण के विषय में भाषा शास्त्रियों का मानना है कि गौरी गिरि से बना है और शंकर शिखर से। हिमालय की जितनी भी चोटियाँ हैं — शिव-पार्वती स्वरूप हैं और दोनों के संयुक्त रूप को प्रतीकात्मक रूप से प्रकट करने के लिए ज्योतिर्लिंग या शिवलिंग की अवधारणा बनी। हिमालय की हर चोटी शिवलिंग स्वरूप है और इससे प्रकट होने वाली जलधाराएँ ही भारतीय जीवन का स्रोत है।
नेपाल को तिब्बत से जोड़ने वाली कोसी की सबसे लम्बी धारा को नेपाल में सुनकोसी और तिब्बत में भोट कोसी कहते हैं। इसी के किनारे-किनारे चलते हुए एक बार राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत की यात्रा की थी। इस नदी के किनारे भोट जाति के लोगों के अनेक गाँव हैं। कोसी की अन्य धाराओं के किनारों में भी इसी तरह की अनेक आदिवासी जातियों के गाँव हैं। इन गाँवों में तरह-तरह के पेड़ और हरियाली से भरी हुई धरती सैलानियों को आकर्षित करती है। लेकिन सबसे ज़्यादा आकर्षित करता है वराह क्षेत्र। यह एक मनोरम तीर्थक्षेत्र है। यहाँ की पहाड़ी गुफ़ाओं में वराह भगवान की मूर्तियाँ हैं, साधकों का यह प्रिय साधना क्षेत्र रहा है। अज्ञेय ने अपनी मिथकीय कविता ‘असाध्यवीणा’ में जिस किरीटी तरू, वज्रकीर्ति और प्रियंवद केशकम्बली का शब्दांकन किया है, यहाँ आकर पूरी कविता मन के पर्दे पर आकृति ग्रहण करने लगती है।
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि नेपाल में स्थित यह वराहक्षेत्र रेणु की प्रिय भूमि रही है। इसे कोकामुख तीर्थ भी कहा जाता है। उत्तर प्रदेश में दो अन्य वराहक्षेत्र हैं — बस्ती जिले में कुआनो नदी के तट पर एक है, तो दूसरा अयोध्या के निकट सोरों में, जिसे शूकर क्षेत्र भी कहते हैं। यहीं तुलसीदास का बचपन बीता था और उन्हें उनके गुरू नरहरिदास मिले थे।
नेपाल में वराह क्षेत्र से कोसी जब नीचे समतल भूमि पर उतरती है उसे चतरा कहते हैं। ‘चतरा’ शब्द चौकोर समतल भूमि को कहा जाता है, जहाँ से मैदानी इलाका शुरू होता है। यहीं से कृषि योग्य, उपजाऊ धरती की शुरूआत होती है। इसके बाद कोसी को सप्तकोसी या महाकोसी कहा जाता है। कोसी बिहार में सुपौल जिले में प्रवेश करती है, उसके ठीक पहले नेपाल के हनुमान नगर एवं भीमनगर नामक दो शहरों के बीच से होकर यह गुज़रती है। कोसी पर यहीं एक विशाल बाँध बनाया गया है, जिसे कोसी बराज भी कहते हैं। फिर यहाँ से गँगा के उसके मिलन-स्थल तक पक्के तटबँधों का निर्माण किया गया है। यह बाँध 1958 से 1962 के बीच निर्मित हुआ और एक विशाल जलाशय का निर्माण हुआ। जल-नियंत्रण के लिए इस पर 52 द्वार बनाए गए हैं, एवं मिथिलाँचल की विस्तृत भूमि की सिंचाई के लिए नहरों का जाल बिछाया गया है। अनियंत्रित कोसी को बाँध कर संयमित किया गया है, किन्तु सात बार यह बाँध टूट चुका है, और प्रलयँकर रूप धारण कर अपनी विनाशलीला कर चुका है। कोसी बाँध में हिमालय से बहकर आने वाले रेत के जमा होने से इसका जलस्तर बढ़ जाता है और इसके टूटने का खतरा बना रहता है।
अँग्रेज़ी राज से अनियंत्रित कोसी को बाँधने की लगातार कोशिश होती रही है। इसका एक लम्बा इतिहास रहा है। भीमनगर में विशालकाय बाँध बनाने के पहले इसके उद्गम स्थल पर तटबँध बनाने की योजना बन रही थी, तब रेणु ‘मैला आँचल’ में यह स्वप्न देख रहे थे — यहाँ की मिट्टी में बिखरे, लाखों-लाख इनसानों की ज़िन्दगी के सुनहरे सपनों और अधूरे अरमानों को बटोरकर प्राणियों के जीवन-कोष में भर देने की कल्पना मैंने की थी। मैंने कल्पना की थी — हज़ारों स्वस्थ इनसान — हिमालय की कन्दराओं में, अरुण-तिमुर-सुणकोसी के संगम पर — एक विशाल ‘डैम’ बनाने के लिए पर्वत-तोड़ परिश्रम कर रहे हैं। लाखों एकड़ बन्ध्या धरती, कोसी कवलित, मरी हुई मिट्टी शस्य-श्यामला हो उठेगी। कफ़न जैसे सफ़ेद बालू भरे मैदान में धानी रंग की ज़िन्दगी की बेलें लग जाएँगी। मकई के खेतों में घास गढ़ती हुई औरतें बेवजह हँस पड़ेंगी।
‘मैला आँचल’ में रेणु ने मिथिलांचल के प्रसिद्ध लोकनाट्य विदापतनाच का एक दृश्यबन्ध रचा है, जिसमें वराह क्षेत्र में कोसी पर डैम बनाने की चल रही सरकारी कवायद को अपने अनोखे अंदाज़ में प्रस्तुत किया है :
बिकटा कह रहा है — नायक जी ! हमको धीरज बँधाने वाला कोई नहीं। सुनते हैं कि बराहछत्तर में सरकार बहादुर कोसी मैया को बाँध रहा है, लेकिन हमारे दिल को बाँधने वाला कोई नहीं।
फिर रेणु का अंगिका भाषा में बनाया हुआ यह गीत वह गाता है —
केना के बाँधबे रे धीरजा, केना के बाँधबे रे,
मुद्दई भेल पटवारी रे धीरजा केना के बाँधवे रे !
यह लोक-जीवन का मार्मिक स्वर है ! सरकार बहादुर अर्थात् अँग्रेज़ी सरकार वराहक्षेत्र में अनियंत्रित कोसी को बाँध रही है, किन्तु हमारे धैर्य या धीरज को वह कैसे बाँधेगी, क्योंकि मुद्दई अर्थात् दावा करने वाला स्वयं पटवारी हो गया है। वह दस हाथ के बाँस का लग्गा लगाकर नापता है और पाँच हाथ नपाई का लिखता है। उसने मेरी ज़मीन का गली-कूची, घाट-बाट, डगर-पोखर सब नाप लिया। धीरे-धीरे मैं भूमिहीन होता गया। अब स्थिति यह है कि —
कहै कबीर सुनो भाई साधो
सब दिन करै बेगारी
खँजड़ी बजाके गीत गवैछी
फटकनाथ गिरधारी रे धिरजा.....
अब साल भर बेगारी करता हूँ। खँजड़ी बजाकर गीत गाता हूँ और फटकनाथ गिरधारी अर्थात् निर्धन अवस्था में जी रहा हूँ।
रेणु को कोसी पर डैम बनने की खबर रोमांचित करती थी, तो दूसरी तरफ किसानों का भूमिहीन होकर बेगार अर्थात् बिना पारिश्रमिक के सिर्फ भोजन पर काम करने वाले मजदूरों में बदलते जाने की पीड़ा सालती थी। ‘मैला आँचल’ की रचना उन्होंने 1950 में ही शुरू की थी, किन्तु 1852 में वे उसे पूरी कर पाए थे। इसमें 1946 से 1948 तक की समयावधि को उन्होंने चित्रित किया है। उस समय का जीवन, देशभर में चल रहे राजनीतिक, सामाजिक घटनाओं-दुर्घटनाओं का गाँव के जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ रहा था, उसकी बारीक पकड़ इस उपन्यास में है।
रेणु का गाँव-इलाका बाढ़ से वंचित रहा। उस इलाके में बाढ़ का अनुभव किसी को भी नहीं था। वे बताते हैं- मेरा गाँव इसीलिए ऐसे इलाके में है जहाँ हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की- कोसी, पनार, महानंदा और गंगा की- बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरती पर गाय, बैल, भैंस, बकरों के हजारों झुंड-मुंड देखकर ही लोग बाढ़ की विभीषिका का अंदाज लगाते हैं।
परती क्षेत्र में जन्म लेने के कारण अपने गाँव के अधिकांश लोगों की तरह रेणु भी तैरना नहीं जानते थे। किंतु बाढ़ का उनका अनुभव व्यापक था। स्कूली उम्र से ही वे बाढ़-पीड़ित क्षेत्रों में बचाव और राहत का काम करते रहे थे। कोसी नदी हर बरसात में सहरसा, सुपौल, मधेपुरा क्षेत्र के हजारों गाँवों को जलमग्न कर देती थी। कभी कटिहार के मनिहारी में गंगा का जलप्लावन, कभी कमला, बागमती का भीषण जल-तांडव ! रेणु बाढ से घिरे लोगों को बचाने एवं राहत कार्य के लिए जाते रहते थे।
कोसी की विभीषिका को देखते हुए उन्नीसवीं शताब्दी से ही उसे बाँधने का प्रयास हो रहा था। 1940 के दशक में बिहार के प्रमुख नेता एवं तत्कालीन वित्तमंत्री अनुग्रहनारायण सिंह ने कोसी अंचल के पीड़ितों को सुरक्षित क्षेत्र में ले जाकर बसाने का प्रस्ताव रखा था। उनका मानना था कि कोसी की लगातार यातना भुगतने से बेहतर है कि लोग कहीं दूसरी जगह पर बसाए जाएँ। यह जगह हजारीबाग के रामगढ़ इलाके के पहाड़ियों में हो। लेकिन वराह क्षेत्र में कोसी पर बाँध बनाने की परियोजना लागू होने पर इस प्रस्ताव को छोड़ दिया गया। 1945 ई॰ में कोसी की भीषण तबाही के समय तत्कालीन वाइसराय लार्ड वेवेल ने कोसी क्षेत्र की बाढ़ का हवाई सर्वेक्षण दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह तथा बिहार के तत्कालीन गवर्नर रदरफोर्ड के आग्रह पर किया और 1946 ई॰ में कोसी बाँध परियोजना का गठन कर इस आयोग की जिम्मेदारी अयोध्यानाथ खोसला को दिया। उनके सहयोगी जे. बी.ओडेन एवं के.के.दत्त थे। अमेरिका के बाँध विशेषज्ञ डॉ. जे. ल.सैवेज, वाल्टर यंग एवं डॉ. एफ.एच.निकेल आदि के सहयोग से इस परियोजना का प्रारम्भ 1946 में किया गया। यह परियोजना जल्दी पूरी हो इस पर वहाँ के जन-जीवन के द्वारा भी लगातार दबाव बनाया जा रहा था। 16-17 नवम्बर 1946 ई. में सुपौल में कोसी की बाढ़ से पीड़ित लोगों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ, जिसमें यह बात उभरकर आई कि एटम के जमाने में जब समुद्र को सुखाकर उर्वर भूमि में बदला जा रहा है, हमारे कोसी के तांडव को बन्द करने का कुछ भी उपाय नहीं होता। बिना चीखे माँ बच्चे की नहीं सुनती, जब तब हम कोसी के पीड़ित एक जबर्दस्त आंदोलन खड़ा नहीं करते, अपनी चीख़, तड़प और शोर से आकाश को थर्रा नहीं देते, हमारे अच्छे दिन कभी वापस नहीं आएँगे। इस समारोह में रेणु भी उपस्थित थे। वे अन्य पीड़ित लोगों के साथ नारे लगा रहे थे — इस कोसी को बाँध दो, इस कोसी को बाँध दो।
कोसी पर वराह क्षेत्र में बाँध बनने का काम 1947 के प्रारम्भ से ही शुरू हुआ, पर इस वर्ष भी भीषण बाढ़ आई। रेणु इस बाढ़ में सिर्फ प्रत्यक्षदर्शी ही नहीं थे, जी-जान से बाढ़-पीड़ितां की सहायता में जुटे थे। उस समय समाजवादियों का साप्ताहिक पत्र ‘जनता’ का प्रकाशन हो रहा था, जिसमें उनके कई मित्र काम करते थे। उनके आग्रह पर अपने जीवन की पहली लम्बी रचना ‘डायन कोसी’ लिखकर उन्होंने भेजा, जो 26 जनवरी, 1948 के ‘जनता’ साप्ताहिक के विशेषांक में प्रकाशित हुई। यह बेहद प्रभावशाली रिपोर्ताज था। लेखक के रूप में पटना के साहित्यकारों के बीच मान्यता दिलाने वाले इस रिपोर्ताज को पढ़कर आकाशवाणी, पटना से उन्हें निमंत्रण मिला कि इस विषय को रेडिया-वार्ता के रूप में तैयार करें, ताकि उसे प्रसारित किया जा सके।
रेणु ने इस लम्बे रिपोर्ताज को अपने ही अन्दाज़ में रेडिया-वार्ता के रूप में प्रसारित किया। इसका लिखित रूप पटना की एक पत्रिका ‘अमृत’ ने बाद में प्रकाशित किया। कोसी की बाढ़ और उसकी विभीषिका का शब्दांकन रेणु ने इन शब्दों में किया है।
हिमालय को चोटी की बर्फ का पिघलना या हिमालय की तराई में घरघोर वर्षा का होना ही कोसी की बाढ़ का कारण है और मिथिलांचल का लोक-जीवन लगातार तबाह होता रहता है। इसलिए वराह क्षेत्र में जब कोसी पर डैम बनाने की परियोजना शुरू हुई, तो वे वहाँ प्रायः जाते रहते थे। 1954 से भीमनगर में डैम बनाने की परियोजना शुरू हुई। हिमालय की तराइयों से पहाड़ी चट्टानों को तोड़कर वहाँ से भीमनगर लाया जाता। उस समय रेणु परती-परिकथा लिख रहे थे। उन्होंने लिखा है — उपन्यास लिखने के दौरान पहाड़ों की कन्दराओं में तपस्या में लीन देवताओं को बार-बार देख आता। मेरा नया तीर्थ वराहक्षेत्र, जहाँ आदमी लड़ रहे थे। बड़े-बड़े टनेल में पहाड़ काटने-वाले पहाड़ी जवानों से बातें करके धन्य हो जाता। अरुण-तिमुर और सुण कोसी के संगम पर बैठकर पानी मापने वाले, सिल्ट की परीक्षा करने वाले पहाड़ी विशेषज्ञों को श्रद्धा तथा भक्ति से प्रणाम करके लौट आता। हर बार नई आशा की रंगीन किरण लेकर लौटता।
रेणु ने कोसी परियोजना के विस्तृत परिप्रेक्ष्य को ‘परती परिकथा’ में रचनात्मक रूप में समाहित किया है। 1950 से 1954 के बीच पूर्णिया क्षेत्र में सर्वे सेटलमेंट अर्थात् भूमि वितरण के परिप्रेक्ष्य का सामान्य जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव से लेकर भीमनगर में कोसी पर डैम बनाकर नहर के द्वारा उस विस्तृत इलाके में सिंचाई की व्यवस्था का पूरा रचनात्मक विवरण इस उपन्यास में दिया है। उपन्यास के समापन स्थल की कुछ पंक्तियाँ :
कँकालों की टोली —
बेघरबार लोगों की छाया !
कोशी की बाढ़ से पीड़ित इलाकों की तस्वीर....
डूबे हुए गाँव,
बहती हुई लाशें
गिद्धों की टोली मण्डराती आसमान में
चारों ओर निराशा का अन्धकार !
निराश, हताश, कोसी-कवलित मानवों की टोली
नवजागरण का मंत्र :
कोसी बह रही है
लहरें नाच रही हैं
अर्ध-नग्न जनता का विशाल दल !
पर्वत तोड़, हइयो !
पत्थर जोड़, हइयो !
इस कोसी को साधेंगे !.....
बच्चे मर गए, हाय रे !
बीबी मर गई, हाय रे।
उजड़ी दुनिया, हाय रे !....
हम मज़दूर, हो गए ।
घर से दूर, हो गए ।
वर्ष-महीना, एक कर !
खून-पसीना, एक कर !
बिखरी ताक़त, जोड़कर ।
पर्वत-पत्थर, तोड़कर !
इस डायन को, साधेंगे ।
उजड़े को बसाना है ।
और डायन कोसी को साधने के साथ ही कोसी अंचल हरा-भरा और ख़ुशहाल होने जा रहा था। पूरे मिथिलाँचल में एक नई उम्मीद पैदा हो रही थी। नागार्जुन जी ने 1955 में ही कोसी की वन्दना करते हुए कुछ पंक्तियाँ लिखीं थीं —
जय कोसी महरानी !
अब तो तुम बँध जाओगी
अमृत होगा पानी
मिट जाएगी मिथिला से अब
दुख-दारिद्र-कहानी
जय कोसी महारानी !
सभी कुदाल उठाएँ कर में
सभी बनें श्रमदानी
कान लगाकर सुन लो भाई
नेहरू जी की बानी
जय कोसी महरानी !
कोसी नदी पर बड़े बाँध के निर्माण, कोसी नदी के गंगा नदी में संगम स्थल तक तटबन्ध बनाना, पूरा मिथिलाँचल में नहरों का निर्माण एक लम्बी और जटिल प्रक्रिया थी, जो धीरे-धीरे मन्द गति से आगे बढ़ती रही।
लेकिन कोसी नदी की कभी-कभार विनाशलीला बार-बार दिखाई पड़ती रही।
2008 ई० में कोसी की प्रलयँकारी विनाश-लीला ने साहित्यिक जगत में पुनः रेणु की उन रचनाओं की याद दिला दी जिसे भोगते हुए उन्होंने अपनी अनेक रचनाओं की सृष्टि की थी। समय की शिला पर अंकित उनके अक्षर-अक्षर फिर से जगमगा उठे।
कोसी-अँचल के जीवन को रेणु जब भी चित्रित करने या उसके विषय में बताने बैठते, उनके लिए बात बहुत हद तक ‘व्यक्तिगत’ हो जाती, क्योंकि कोसी उनके लिए नदी ही नहीं, ‘माई’ भी थी — पुण्यसलिला, छिन्नमस्ता, भीमा, भयानका, भी: प्रभावती - कोसी मैया !! वे अपने बारे बताते हुए कहते हैं — हम कोसी के उस अंचल के वासी हैं, जिससे होकर क़रीब तीन-चार सौ वर्ष पहले कोसी बहा करती थी, और यह तो सर्वविदित है कि कोसी जिधर से गुज़रती, धरती बाँझ हो जाती। सोना उपजाने वाली काली मिट्टी सफ़ेद बालूचरों में बदल जाती। लाखों एकड़ बन्ध्या धरती-उत्तर नेपाल की तराई से शुरू होकर दक्षिण गंगा के किनारे तक फैली हुई परती — पूर्णिया के नक़्शे को दो असम भागों में बाँटती हुई। इस ‘परती’ के उदास और मनहूस बादामी रंग को बरसात के मौसम में क्षणिक आशा की तरह कुछ दिनों के लिए हरियाली छा जाती — वरना बारहों महीने, दिन-रात, सुबह-शाम घूसर और वीरान.....। और इस मरी हुई मिट्टी पर बसे हुए इनसान ? मलेरिया और कालाआजार से जर-जर शरीर- रक्त-मांसहीन चलते-फिरते नरकंकालों के समूह, जिनकी ज़िन्दगी में न कहीं रस और न रंग। रोने और कराहने के सिवा कुछ नहीं जानते थे — न हँसना, न मुस्कुराना। जिनके चेहरों पर हमेशा आतंक की रेखाएँ छायी रहतीं और आँखों में दुनिया-भर की उदासी। बचपन के उन दिनों की याद आती है। हर साल हमारे एक दर्जन साथी, हमजोली हमसे बिछुड़ जाते — हमारे साथ पढ़ने वाले, साथ खेलने वाले। और, हर ऐसे मौक़े पर हमें यह एहसास होता — शायद, अगले साल हम भी नहीं रहेंगे। अगले साल क्या, अगले महीने या दूसरे ही दिन अथवा-घड़ी में घड़ा फूट सकता है। हमने मैलेग्नेण्ड-मलेरिया से मरते हुए लोगों को देखा था — डेढ़ घंटे में ही मृत्यु।
.....आजादी के बाद इसी अँचल पर रेणु का पहला उपन्यास प्रकाशित हुआ — ‘मैला आँचल’, जो हिन्दी साहित्य की अमर कृति है। उनकी दूसरी महान कृति — ‘परती-परिकथा’ भी कोसी अंचल की जीवन-लीला को एक विराट दृष्टि के साथ समग्रता में अभिव्यंजित करता है। इन दोनों बड़े उपन्यासों के अलावा रेणु की अनेक कृतियों में कोसी और उसके तटवर्ती इलाकों में बसे जीवन के अनेक चित्र अँकित हैं।
जैसा कि मैंने पहले बताया कि कोसी पर जब डैम बन रहा था, तब रेणु उसे देखने प्रायः जाते थे। 24 अप्रैल, 1964 ई॰ में जब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री नेपाल सरकार के अतिथि के रूप में ‘कोसी बाँध’ की पश्चिमी नहर के खनन-समारोह के अवसर पर जब वहाँ गये थे, तब रेणु ने ‘दिनमान’ में एक टिप्पणी लिखी थी। इसमें वे बताते हैं- “छिन्नमस्ता डायन कोसी को साध लिया गया है, हालाँकि उसकी छटपटाहट बताती है कि साधकों के सामने वह कभी भी नई समस्या उपस्थित कर दे सकती है। हर साल लाखों एकड़ धरती को डुबाकर तबाह करने वाली, उर्वर भूमि को बालू से पाटकर बंजर बना देनेवाली, हर साल राह काटने वाली, लाखों प्राणियों को लीलने वाली वेगवती कोसी की विनाश लीला की कहानियाँ अब पौराणिक कहानियाँ हो जायेंगी और कोसी को ‘नाथने-साधने’ के बाद ऐसी ही नयी कहानियाँ लिखी जा रही हैं।” लेकिन बाँध बनाने का काम इतने लचर ढंग से हुआ कि उन्हें आशंका होती है यदि कहीं यह बाँध टूटा तो जनता जो ‘नयी कहानियों’ का स्वप्न देख रही है, वह फिर विनाश-लीला में परिवर्तित न हो जाये। रेणु लिखते हैं, “इस क्षेत्र का बच्चा-बच्चा जानता है कि नहरवाले ठेकेदारों से सस्ती दर पर ईंट-सीमंेट, लोहे के छड़ खुले-आम खरीदे जा सकतेे हैं। न खरीदने वाला इस कर्म को अवैध मानता है और न ही बेचने वाला और ये ठेकेदार कौन होते हैं ? कांग्रेस के कर्मठ कार्यकर्त्ताओं या उनके भाई-भतीजों को छोड़कर और कोई नहीं !” भ्रष्टाचार के इस माहौल में बाँध एवं नहरों का कमजोर निर्माण उसके भावी दुर्घटना की ओर संकेत कर रहा था। रेणु ने 1965 में ही इसे साफ-साफ देखा था। वे लिखते हैं- “पिछले साल (यानी 1963 ई.) मुख्य पूर्वी नहर में अनुष्ठान के बाद पहली बार ऐन बरसात में पानी दिया गया तब पता चला कि मुख्य नहर के बहुत-से पुल-पुलियों, फाटक आदि के निर्माण में ठेकेदारों ने अपनी चतुराई का भरपूर परिचय दिया है। मुख्य नहर के अलावा उप-नहर, शाखा-नहर पर निर्मित पुलों की दुर्दशा देखकर अबोध जनता में यह भय फैलना स्वाभाविक है कि कहीं भीमनगर कर कारबार भी ऐसा ही कच्चा तो नहीं ?..... वह स्वप्न-भंग कैसा होगा !..... ऐसी हालत में कोई अबोध व्यक्ति या दल, भय और भ्रमपूर्वक यह सवाल लोगों से पूछता फिरे कि कोसी बांध भीमनगर में बनाकर भारत सरकार ने क्या अदूरदर्शिता का परिचय नहीं दिया है ? तो उसकी शंका के निवारण के लिए पंचशील, तटस्थता, भाईचारे, सांस्कृतिक एकता आदि शब्दों से रचित कोई वक्तव्य पर्याप्त नहीं होगा। कोसी को वे ‘डायन’ मानते ही रहेंगे। डायन, जो अपने ही बच्चों को खा जाती है।” और रेणु की यह आशंका सच साबित हुई। बंधने के बाद भी कोसी की विनाश-लीला साल-दर-साल जारी रही। वह आज भी अपने बच्चों को खाती रही है। 2008 की भयानक एवं विनाशक कोसी की लीला ने हजारों लोगों को निगल लिया। लोगों के घर-मकान, खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, पशु-पक्षी कोसी द्वारा उपस्थित जल-प्रलय में विलुप्त हो गये। किसी तरह अपनी जीवन-रक्षा कर चुके लोग शरणार्थी-शिविरों में पनाह लेकर बच सके।
कोसी पर बांध बनने के बाद जब पहली बाढ़ आयी थी, तब उस पर रेणु ने एक कथा-रिपोतार्ज लिखा था- ‘पुरानी कहानी: नया पाठ’। हर वर्ष बाढ़ का आना रेणु के लिए पुरानी कहानी की तरह था, पर उसका एक राजनीतिक पक्ष भी था, जिसका एक ‘नया पाठ’ वे उसमें प्रस्तुत कर रहे थे। उनके उस चित्रण की कुछ बानगी यहाँ दी जा रही है --
“भयातुर प्राणियों के कंठों से चीखें निकलीं- बा-आ-आ-ढ़ !
अरे बाप !”
“बाढ ?”
“बकरा नदी का पानी पूरब-पश्चिम दोनों कछारों पर ‘छहछह’ कर रहा है। मेरे खेत की मड़ैया के पास कमर-भर पानी है।”
“दुहाय कोसका महारानी !”
इस इलाके के लोग हर छोटी-बड़ी नदी को कोसी ही कहते हैं।.....कोसी-बराज बनने के बाद भी बाढ़ ?.....कोसका मैया से भला आदमी जीत सकेंगे ?.....लो और बाँधों कोसी को !“
रेणु जी की यह रचना 8 नवम्बर, 1964 ई. के ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुई थी। तब और लोगों की तरह रेणु भी मानते थे कि बँध जाने के बाद कोसी एवं उसकी सहायक नदियों का प्रलय-प्रकोप बंद हो जायेगा। किन्तु, उनका स्पप्न तुरंत ही भंग हो गया। जब नदी बंधी तो जीर्ण-शीर्ण उसका निर्माण जगह-जगह से ध्वस्त होता रहा और हर साल बाढ़ और तबाही अपने भीषण रूप में चलती रही। रेणु ने अपनी दूरदर्शिता एवं विलक्षण रचना-कौशल के द्वारा बहुत कम शब्दों में जो यह रचना तैयार की थी, उसमें तब से लेकर अब तक के बाढ़ प्रभावित इलाकों में जो कुछ घटता रहा है और उसको लेकर पक्ष-प्रतिपक्ष के बीच जो राजनीतिक पैंतरेबाजी चलती रहती है, उसका सशक्त चित्रण यहाँ किया है।
सबसे पहले बाढ़ आने का दृश्य !.....गाँव के लोगों की आँखों की रोशनी मंद हो गई।.....एक तरल अंधकार में दुनिया डुब रही है।......प्रलय-प्रलय ! निरूपाय, असहाय लोगों ने झांझ-मृदं्रग बजाकर कोसी मैया का वंदना-गीत शुरू किया। जवानों ने टाँगी-कुदाली से बाँस की बल्लियों, लकड़ियों को काटकर मचान बाँधना शुरू किया। मृदंग-झाँझ के ताल पर फटे कंठों की भयोत्पादक सुर- कि आहे मैया कोसका-आ-आ हैय मैया तोहरो चरनवाँ-गै मैया अड़हुल फूलवा कि हैय मैया हमहु चढ़ायब हैय.....। धिनतक धिन्ना, धिन-तक धिन्ना ! जनकवि नागार्जुन की कविता की एक पंक्ति का बार-बार इसी धुन पर आवृति कर रहा है एक ‘पढुवा-पागल’- ता-ता थैया, ता-ता-थैया, नाचो-नाचो कोसी मैया....! और सचमुच इसी ताल पर नाचती हुई आयी कोसी मैया और देखते-ही-देखते खेत-खलिहान-गाँव-घर-पेड़, सभी इसी ताल पर नाचने लगे- ता-ता-थैया, ता-ता-थैया !- मुँह बाए, विशाल मगरमच्छ की पीठ पर सवार दस-भुजा कोसी नाचती, किलकती, अट्टाहास करती आगे बढ़ रही है। अब मृदंग-झाँझ नहीं, गीत नहीं- सिर्फ हाहाकार ! इस हाहाकार में अनेक स्वर, आधे-अधूरे एक साथ सुनाई पड़ते हैं। इन सभी आवाजों को रेणु जी अद्भुत कला-कौशल के साथ इस तरह प्रस्तुत करते हैं- ओसारे पर पानी आ गया !.....किसका घर गिरा ?.....मड़ैया में कमर-भर पानी !....ताड़ के पेड़ पर कौन चढ़ रहा है ?..... घर में पानी घुस गया !....... अरे बाप !.....छप्पर पर चढ़ जा !
अब अलग-अलग लोगों के शब्द स्वर (यानी चीख-पुकार) और तीव्र हो गया- माय गे-ए-ए-ए-बाबा हो-ओ-ओ-ओ-दुहा-ई-ई-हाय-हाय-माय गे-बाबा हो-ओ-ओ-हे इस्सर महादेव- ले-ले गया-गया-डूबा-डूबा-आँगन में छाती-भर पानी -यह छप्पर कमजोर है, यहाँ नहीं-यहाँ जगह नहीं है- हे हे ले गिरा- भैंस का बच्चा बहा रे-ए-ए-ए-डोमन ए डोमन- साँप-साँप- जै गौरा पारबती-रस्सी कहाँ है- हँसिया दे-बाप रे बाप- ता-ता थैया, ता-ता थैया, नाचो-नाचो कोसी मैया- छम्मक-कट-छम.....!
इस तरह रात-भर बाढ़ से घिरे हुए लोग चिल्ल-पों करते रहे- मृत्यु से संघर्ष करते रहे। उनके सामने सबसे प्रश्न- इस जीवन-संकट से निकलना, अपने अस्तित्व की रक्षा करना। फिर भोर के मटमैले प्रकाश में ताड़ की फुनगी पर बैठे हुए वृद्ध गिद्ध ने देखा- दूर, बहुत दूर तक गेरूआ पानी-पानी-पानी ! यानी चारों तरफ जल-प्रलय का दृश्य! बीच-बीच में टापुओं जैसे गाँव-घर, घरों और पेड़ों पर बैठे हुए लोग। वह वहाँ एक भैंस की लाश! डूबे हुए पाट और मकई के पौधे !
यह है कराहते-छटपटाते कोसी अंचल की कथा! रेणु इस जीवन से एकाकार थे। उनके जीवन और साहित्य को इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता। उनके जीवन और कथा-साहित्य में प्रकट हाहाकार का एक विकट स्वरूप है। प्रकृति और जीवन और धरती से नेह-छोह का ऐसा भावात्मक रिश्ता आज के मानवीय परिवेश में दुर्लभ है। रेणु की कथा अंततः कोसी अंचल के जीवन की ही व्यथा-कथा है। रेणु का कथाकार मन इसी लोक-जीवन से ही कथा के तमाम ताने-बाने ग्रहण करता है। उनका लोक वही है जो उन्हें लौकता रहा या दिखता रहा। अदृश्य की तलाश उनके यहाँ नहीं है। ‘लोक’ दृश्यमान जगत है, ‘परलोक’ अदृश्यमान। उनके ‘लोक’ में जड़-जंगम या चर-अचर दोनों है। पहाड़, नदियाँ, जंगल, खेत-खलिहान और मनुष्यों की बहुविध रूप-छवियाँ। वे तुलसी की तरह ‘जो लोकहिं मत लागै नीका’ की तरह उसे ही देखते हैं जो उनके मत में ठीक लगता है और वे लोकहित की बात करते हैं। यह ‘लोक’ गाँव और शहर दोनों जगह विभिन्न रूपों में है। वे उभयनिष्ठ होकर दोनों छोरों को साधते हैं। मानवीय परिवेश की समग्रता में देखने की यह उभयनिष्ठ दृष्टि ही उनको एक बड़ा लेखक बनाती है। वे लोक के पक्ष में खड़े होकर सत्ता और अनेक विचारों से बद्ध गतिहीन पद्धतियों से टकराते हैं। साथ ही साथ लोक-जीवन की अनेक असंगतियों और बुराइयों से नजर चुराने का काम भी वे नहीं करते। वे किसी की अनदेखी भी नहीं करते, बल्कि उसे जगाने का काम करते हैं। उन्होंने लोक को जगाया और इसी से रचनात्मक शक्ति ग्रहण की।
कोसी अँचल का यह कथाकार कभी वादी नहीं रहा, न विवादी। प्रायः जो वादी होते हैं, वही विवादी भी होते हैं। विस्तृत जीवन से भरा हुआ यह कथाकार संवादी है। उनका साहित्य बोलता-बतियाता हुआ एक विस्तृत जीवन का संवाद है। उसको प्रस्तुत करने के कारण रेणु संवदिया हैं। मैला आँचल का यह संवदिया ! उसको संवाद की नाट्य-भंगिमा, स्वर का आरोह-अवरोह, द्रुत और विलंबित गति, सुर और ताल की अद्भुत समझ है। वह रंग-चेतना से लैस कथा का मार्मिक गायन करने वाला आधुनिक विद्यापति है। कोसी का यह पुत्र प्रतिभा का अनुपम पुंज है, जिसकी दीप्ति कभी क्षीण नहीं होती।