रेणु के कथागायन का सौन्दर्य और सीमाएँ / रणेन्द्र

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1954 में प्रकाशित अपने प्रथम उपन्यास ‘मैला आँचल’ को कथा गायक फणीश्वरनाथ रेणु ने स्वयं ‘आंचलिक उपन्यास’ की संज्ञा से विभूषित किया था। दरअसल वे ‘आंचलिकता’ की इस उद्घोषणा के माध्यम से अपनी नई भाषा, शिल्प, कथ्य और स्थानिकता को विशेष रूप से रेखांकित करना चाह रहे थे, लेकिन उल्टे इस ‘आंचलिकता’ ने उनके तत्कालीन आलोचकों को मजबूत हथियार-सा थमा दिया था। एक तो रेणु इस ‘आंचलिकता’ के माध्यम से हिन्दी कथा-साहित्य में ‘गाँव’ की वापसी चाह रहे थे जो प्रेमचन्द के बाद जैनेन्द्र, यशपाल, इलाचन्द्र जोशी, अज्ञेय आदि के साथ-साथ नई कहानी के सुप्रसिद्ध त्रयी मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर की सृजन-परिधि से बाहर हो गया था। दूसरी ओर पचास के दशक में गाँवों के नृशास्त्रीय-समाजशास्त्रीय अध्ययन के क्षेत्र में एक खास तरह की सक्रियता आ गई थी। संभवतः इस परिवेश ने भी रेणु के लिए उत्प्रेरक का कार्य किया हो।

गांधी का ‘ग्राम-स्वराज’ गाँव, ग़रीबी और उसके नैतिक आभामण्डल को विमर्श में ले आया था। हालाँकि औपनिवेशिक नीतियों के तहत फ़्रांसिस बुकानन जैसे अधिकारियों, प्राच्यवादियों और मिशनरियों ने 19वीं सदी के प्रारम्भ से ही भारतीय गाँवों का विस्तृत अध्ययन प्रारम्भ कर दिया था। 1809-1810 में ही बुकानन ने ‘एन एकाउण्ट आफ़ द डिस्ट्रिक्ट आफ़ पूर्णिया’ लिखा था। बुकानन के श्रमसाध्य कार्य को गैज़िटियर्स लिखने वाले ब्रिटिश अधिकारियों ने आगे बढ़ाया। एक आई०सी०एस० अधिकारी एल०एस०एस०ओ०’ मेली ने तत्कालीन बंगाल राज्य के कई ज़िलों का गैज़िटियर लिखा। उसी क्रम में पूर्णिया ज़िले का उनका ही लिखा 1911 ई॰ में प्रकाशित गैज़िटियर आज भी सूचनाओं का एक विश्वसनीय स्रोत है।

रेणु का ‘अंचल’ बनाम गाँव की एथनोग्राफ़ी

इतिहासकार सदन झा के अनुसार, “गाँव के अध्ययन में अगला महत्वपूर्ण पड़ाव 1920 के दशक में आया, जब महात्मा गांधी ने भारतीय आत्मा को गाँव के मध्य स्थापित करते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन को नई दिशा दी। जी० किटीन्स और हेराल्ड मान ने बम्बई में, गिल्बर्ट स्लेटर ने मद्रास में और ई० वी० लुकास ने पंजाब में ख़ास-ख़ास गाँव के गहन अध्ययन की जो मुहिम छेड़ी, उसका स्वागत गर्मजोशी से किया गया और साथ ही भविष्य में ऐसे प्रयासों की ज़रूरत भी महसूस की गई, पर सन् 1950 से इस रूझान में कुछ मूलभूत परिवर्तन दिखते हैं। शायद ही कोई एक ऐसा सघन पल रहा हो, जब ग्राम्य अध्ययन ने भारत में इतने बड़े स्तर पर बुद्धिजीवियों को आकर्षित किया हो जितना स्वतंत्रता के बाद इस पहले दशक में।”1

सदन झा का उपर्युक्त कथन इस तथ्य से प्रमाणित होता है कि एम० एन० श्रीनिवासन, एस० सी० दुबे, मेक्किम मेरियट, डी० एन० मजूमदार, एफ़० जी० वायली और रामकृष्ण मुखर्जी जैसे समाजशास्त्रियों-नृशास्त्रियों के ग्राम-अध्ययन (‘रिलीजन एण्ड सोसायटी अमांग द कुर्ग्’, ‘विलेज इण्डिया’, ‘रूरल प्रोफ़ाइल्स’ आदि) 1952 से 1957 के मध्य प्रकाशित-चर्चित होते हैं। किन्तु रेणु की रचनाओं में अपनी आत्मीय और सम्पूर्ण उपस्थिति से पाठकों को अभिभूत-चकाचौंध करने वाला जिला पूरेनिया (पूरइन/ कमल पुष्प का देश) या पूर्ण-अरण्य इन समाजशास्त्रियों-नृशास्त्रियों के अध्ययन-वृत्त में सिमटे हुए गाँवों से कई मायनों बिल्कुल भिन्न था। वह ऐसा ‘अंचल’ था जिसमें ‘देश’ घनीभूत रूप में समाहित था। समालोचक नित्यानन्द तिवारी के अनुसार, “जैसे प्रेमचन्द ने ‘घटना’ की आन्तरिक दुनिया में कहानी पाई, उसी तरह रेणु ने ‘देश’ के घनीभूत रूप ‘अंचल’ में विन्यस्त कहानी को पा लिया था।” ‘घटना’ (प्रेमचन्द में) और ‘अंचल’ (रेणु में) रचनात्मक धारणाएँ हैं, उपकरण, माध्यम, तकनीक, शिल्प या पृष्ठभूमि नहीं।2

इतिहासकार सदन झा रेणु के इस ‘अंचल’ के कई नए आयामों से हमारा परिचय करवाते हैं। “रेणु का आंचलिक गाँव तीन बातों पर टिका हुआ है। ये हैं — रेणु का अनोखा लहज़ा (उनकी लेखनी में साहित्य के अनूठे रूपों के साथ खेलने की बाज़ीगरी), जो उन्हें प्रेमचन्द की विरासत से अलग करता है, दूसरा उनके द्वारा अंचल और गाँव के जीवन से जुड़ी सूचनाओं का अपार संग्रह और उपयोग (ग्रामीण जीवन का लेखा-जोखा, जो अद्भुत मानवशास्त्रीय विवरणों और सूक्ष्म नज़रियों से भरा पड़ा है), जिसे मैं अंचल की सांस्कृतिक-स्मृति कहूँगा; और तीसरा, उनके कथा कहने का अनूठापन। ये तीन कुल मिलाकर अंचल की विशिष्ट छवि बनाते हैं, जिसमें आंचलिक ग्राम्य के साथ अपनापे की अहम भूमिका है। यह अपनापा हमें एक खास ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में आंचलिक ग्राम्य का एक वैकल्पिक आर्काइव प्रदान करता है। यह अपनापा 1950 के दशक के गाँव के मानवशास्त्रीय-समाजशास्त्रीय विवरण में नदारद है।

".......रेणु के यहाँ गाँव का अतीत है, जो इतिहास में विलीन नहीं है। यहाँ गोदान या श्रीनिवासन के गाँवों की तरह इतिहास नदारद नहीं है। रेणु के गाँव के पास उसका अतीत भी है और इतिहास भी। इन दोनों की सक्रिय भागीदारी इसीलिए भी सम्भव हो पाई है, क्योंकि रेणु अपने गाँव को महज समय के स्केल पर स्थानिकता से नंगा कर खड़ा नहीं कर रहे। यही कारण है कि रेणु के गाँव में समय भी बहुवचन में कई स्तरों पर कथाशिल्प से खिलवाड़ करता हमारे सामने आता है। एक क्षण में पण्डुकी की कहानी, अगले क्षण में कोशिका मैया की कहानी, फिर अगले क्षण में धरती के लाश बनते जाने का इतिहास और नेहरु के सपनों के भारत का भीषण आशावाद। यहाँ सब कुछ है, लब्बोलुबाब यह कि रेणु के गाँव को, उनके शिल्प को समझना है तो हमें आधुनिकता के समय-केन्द्रित विमर्श से बाहर आना होगा। ............समय के बदले केन्द्र में ‘जगह’ और उसकी स्थानिकता को रखना होगा। देश के एबस्ट्रैक्ट स्पेस की जगह प्लेस की बात करनी होगी जहाँ ज़मीन पूँजी का महज एक और उदाहरण नहीं रह जाता और ज़मीन से लगाव महज इसीलिए नहीं कि वह किसान का खेत है। यहाँ ज़मीन का मतलब धरती है। मैया भी और बन्ध्या भी।”3

इन्द्रधनुषी भाषिक जनतंत्र में बहुजातीय दावे

दरअसल ‘अंचल’ में घनीभूत देश और उसकी बहुजातीयता अपनी-अपनी भाषाओं-बोलियों की विविधता-बहुलता के संग रेणु की रचनाओं में उपस्थित होती हैं। यहाँ मैथिली, मगही, भोजपुरी, बांग्ला, संताली, नेपाली, उर्दू, अर्द्धतत्सम्, कचराही, अंग्रेजी, संस्कृत सब के सब भाषा के जनतंत्र में अपना-अपना दावा प्रस्तुत करती हमारे समक्ष खड़ी हैं। साथ ही भाषा के जनतंत्र में ठेलमठेल करती ये विविध रंगी भाषाएँ-बोलियाँ अपने देहातीपन-भदेसपन के साथ श्लीलता-संस्कार-व्याकरण आदि को किनारे ठेलती उस खड़ी बोली के पौरुषयुक्त कवच में भी सेंध लगाती हैं जो 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में एक पौरुषपूर्ण राष्ट्र के लिए आवश्यक मानी गयी थी। लोकगीतों, कथाओं, आख्यानों, मिथकों, मौखिक इतिहास, अफवाहों आदि से युक्त रेणु की अनूठी भाषा उक्त पौरुषयुक्त खड़ी बोली को थोड़ा नम्य बना रही थी और थोड़ा-सा लास्य और लय से रसा रही थी ताकि वह निहुर कर आम लोगों के साथ भी गप्प-शप्प कर सके, कथा-कहानी सुन-सके, सुना-सके। रेणु की यह बहुरंगी भाषा हिन्दी कथा को लिखित परम्परा के बंधन से मुक्त कर पुरानी वाचिक परम्परा में उसकी वापसी सुनिश्चित करती दिखती है।

कैथरीन हैन्सन

हिन्दी साहित्य की जापानी विदुषी कैथरीन हैन्सन ने रेणु की इस इन्द्रधनुषी भाषा और मनमोहक शिल्प पर बहुत शिद्दत से लेखनी चलाई है और उनके परिवर्तनकारी प्रभावों को रेखांकित किया है। सुश्री हैन्सन के अनुसार “रेणु ने खड़ी बोली के उत्तराधिकार को त्याग नहीं दिया था बल्कि उसे कल्पना प्रवण नवीन विस्तार दिया था। अपने पूर्व के हिन्दी उपन्यासकारों की तुलना में इन्होंने अपने लेखन में भाषाओं की कई शैलियों का योग किया। उन्होंने अवधी, भोजपुरी और मैथिली जैसी बोलियों के आधुनिक एवं मध्यकालीन रूपों, बंगाली, नेपाली, आदिवासी भाषाओं के साथ-साथ संस्कृतनिष्ठ हिन्दी, बाजारू हिन्दुस्तानी, अंग्रेजी और उर्दू को भी अपनी लेखनी में सम्मिलित किया।

रेणु ने अपनी भाषा के माध्यम से अपनी बहुजातीय समाज का लाक्षणिक (Metaphoric) चित्र प्रस्तुत किया। उन्होंने भारतीय ग्रामीण जीवन के एक ऐसे बहुभाषी (Polyglot) दुनिया को पुनः उत्पादित किया जिसमें वाक् के भिन्न-भिन्न लय और स्वर विभिन्न समुदायों, कालखंडों और स्थानों का प्रतिनिधित्व करते हैं साथ ही वे ध्वनि की एकल समष्टि में समाहित हो जाते हैं। किन्तु इस उपलब्धता के लिए रेणु अपने गाँव की बातचीत को अपने मानस में रिकार्ड कर उसका प्रतिलेखन (Transcript) मात्र नहीं करते और न केवल स्थानीय भाषाओं-बोलियों की चित्रात्मक प्रतिकृति मात्र प्रस्तुत करते हैं बल्कि वे अपने आस-पास की भाषाई समृद्धि का सचेतन विश्वसनीय, सबसे सुबोधगम्य आवाजों का चयन कर उसे अपने पाठकों को परोसते हैं। इस प्रक्रिया में वे वाचिक परम्परा के उन तत्वों का सावधानीपूर्वक वापसी भी सुनिश्चित करते हैं जो आधुनिक हिन्दी गद्य से लुप्त हो गया था।

........बहुविध भाषा-बोलियों की सचेतन प्रस्तुति के पीछे रेणु की सुनिश्चित दृष्टि काम कर रही थी। वे भारतीय संस्कृति के पुरातन एवं आधुनिक स्वरूप का संगम चाह रहे थे। उनके अनुसार पारम्परिक ग्रामीण समाज-संस्कृति के पास आधुनिक शहरी व्यक्ति को प्रदान करने के लिए बहुत कुछ था, जिनमें से वाचिक शब्दों की प्रचुरता, समृद्धि, ध्वनि एवं उसके अनुगूँज की संवेदना ऐसे तत्व थे जो अशिक्षित ग्रामीण व्यक्ति को अपनी संस्कृति से उत्तराधिकार में प्राप्त हुए थे।4

पश्चिमी नावेल का देसीकरण

विदुषी कैथरीन हैन्सन अपने आलेख ‘रेणु की आंचलिकता : भाषा और शिल्प’ में यह भी स्थापित करती हैं कि रेणु अपनी मयूरपंखी भाषा और गल्प रचाने और गप्प रसाने वाले मोहक शिल्प से हिन्दी कथा को पुनः वाचिक परम्परा में वापस ला कर ‘नावेल’ के पश्चिमी संस्कारों का परिष्कार कर रहे थे। वे अपनी रचनाओं से औपनिवेशिक आधुनिकता का ‘देशज सामूहिक चेतना’ और ‘सामुदायिक-स्मृति’ के बदले ‘इतिहास’, ‘अनुभव’ के बदले ‘निरीक्षण’ और समय के एकरैखीय स्वरूप की मानकता की स्थापना का प्रतिकार भी सफलतापूर्वक करते दिखते हैं। सुश्री हैन्सन के अनुसार, “कहानी सुनाने की पारम्परिक शैली को अपना कर रेणु ने ‘समय’ की रैखिक अवधारणा को तोड़ दिया और ‘काल’ की चक्रीय गति और घटनाओं की समक्षणिकता या समकालिकता को स्थापित किया।

पश्चिम की ‘काल’ की अवधारणा और ‘कार्य-कारण सिद्धान्त’ (कि ‘ए’ के बाद ‘बी’ घटित होगा और वह ‘ए’ के कारण घटित होगा) जो 19वीं सदी के उपन्यासों से उत्तराधिकार में प्राप्त हुए थे, रेणु के यहाँ आ कर ‘काल’ की भारतीय दृष्टि से प्रतिस्थापित हो जाते हैं। इस भारतीय दृष्टि में काल की संरचना एक बृहत्तर इकाई के रूप में है। जब उसका विखंडन छोटे-छोटे खंडों में होता है तब उसके एक अंश तक मानवीय काल-माप (Time Scale) पहुँच पाता है। काल का यह विभाजन परम्परागत वाचन की संरचना की ओर इशारा करता है जिसकी गति निरन्तर अभ्यान्तर (Inward) की ओर होती है। एक कथा अपने में दूसरी कथा को समोये रहती है और दूसरी कथा के गर्भ में तीसरी कथा छुपी होती है और यह क्रम चलता जाता है। ‘काल’ भी अनन्त तक विस्तृत हो वृत्ताकार रूप ग्रहण कर लेता है। यहाँ कोई भी क्षण सृजन या विसृजन का नहीं है बल्कि वह क्षण अस्तित्व और अनस्तित्व (शून्य) के मध्य एकान्तरण या प्रत्यावर्तन (Alternation) की अपरिमित संख्या मात्र है। एक कथा इच्छानुरूप प्रसार पाती रह सकती है और ‘प्रारम्भ’ और ‘अन्त’ कहीं भी सुविधानुसार रखे जा सकते हैं क्योंकि कोई भी कथा अनिश्चित होती है और सिद्धान्ततः वह अपने स्वरूप में अनन्त होती है। उसका कोई अन्त नहीं होता। वह कहीं से शुरू हो सकती है और कहीं भी बीच में छोड़ी जा सकती है। कथा का विकास ‘ए’ से ‘बी’ की ओर ही होगा इस अवधारणा को सहअस्तित्व के भावबोध से प्रतिस्थापित कर दिया गया कि बिन्दु ‘ए’, बिन्दु ‘बी’ और बिन्दु ‘सी’ आदि यथार्थ में एक ही हैं, समरूप हैं।

रेणु की रचनाओं में काल के इस देशज अवधारणा के संकेत तब मिलते हैं जब ‘मैला आँचल’ के अध्याय एकाएक (Abruptly) खत्म हो जाते हैं, जब घटनाओं को बिना समाधान के छोड़ दिया जाता है, जब ‘परती परिकथा’ के वृतान्त एक-दूसरे को आच्छादित (Overlap) करते दिखते हैं या जब नैरेटर पाठक को घटनाओं की व्यतिक्रमित होती शृंखला से मुक्त नहीं करता। रेणु ने जब देशज कथा वाचन की शैली अपने लेखन में अपनाई तो दरअसल वे आधुनिक उपन्यास विधा (Genre) को भारतीय काल-अवधारणा के निकट लाने की ओर ठोस कदम बढ़ा रहे थे।

निष्कर्षतः रेणु ने वाचिक साहित्यिक पद्धति के संलयन से जिस Genre का सृजन किया उसका स्वरूप पारम्परिक उपन्यास लेखन से कई रूपों में भिन्न था। उनकी इस नवेली शैली ने अपने को गद्य रूप तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि कविता की कई नई विशेषताओं, यथाः सांकेतिकता, संक्षिप्तता और रिद्म को अपना कर बहुअर्थता के कई स्तरों का निर्माण किया। रेणु की इस नव्य शैली ने कथा की वृत्तात्मक संरचना को अपना कर एवं दुविधा (Suspence) और पराकाष्ठा (Climax) की अपरिहार्यता को समाप्त कर काल के अरैखिक परिमंडल की ओर बढ़ना प्रारम्भ किया था। रचना के किसी खास चरित्र के अतीत को स्थायी रूप और विस्तार देने के बदले चरित्रों को असम्बद्ध वृतान्तों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। एक सर्वज्ञानी नैरेटर की जगह ढ़ेर सारे स्थानीय वाचकों का होना पाठकों को कथा को कई दृष्टियों से देखने का अवसर प्रदान कर रहा था। एक साथ कई वाचकों एवं एक तरह से महत्व पाते कई-कई पात्रों की उपस्थिति के साथ-साथ एकरैखीय काल को महत्वहीन बनाने की प्रक्रिया किसी खास व्यक्तित्व या आवाज के विकास का निषेध कर रही थी।

दूसरी ओर रेणु के उपन्यासों में कई-कई क्षीण आवाजें मिल कर समुदाय की मजबूत आवाज को स्थापित कर रहीं थीं। यह ‘सामुदायिक आवाज’ कभी किसी अनजाने नैरेटर के माध्यम से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होती और वह गाँव-समाज की भावनाओं की अभिव्यक्ति का रूप ग्रहण करती दिखती। उस नैरेटर की व्यक्तिगत पहचान मायने नहीं रखती थी, महत्वपूर्ण गाँव की दृष्टि और सोच थी जो बिल्कुल स्पष्ट होती थी। इस प्रकार रेणु के उपन्यासों की धूरी समुदाय का अनुभव थी, कोई चरित्र नहीं। दरअसल पूर्णिया के गाँव ही उन उपन्यासों के नायक और नायिका थे।”5

रेणु का इन्द्रियार्थवाद और उसके स्रोत

“स्केच है। नन्दलाल बसु का।"

‘स्केच’ का नाम है- पड़ोसी। गाँव की गली का एक कोना है; कुछ औरतें एक साथ बैठ कर हुक्का पी रही हैं; एक मर्द ‘बहंगी’ में कुछ लटका कर जा रहा है; दो मुर्गे लड़ रहे हैं; छोटे-छोटे ‘चूजे’ गेंद की तरह ‘राल’ कर रहे हैं। ...............एक कुत्ता घूरे पर लेटा है। स्केच को गौर से देखने लगा। भिंमल मामा ने अचानक उत्तेजित हो कर कहा- “इसे तुम शब्दों द्वारा प्रस्तुत करोगे? ...............खेल समझा है?”

भिम्मल मामा बकते-झकते चले गए, तो मैंने फिर एक बार उस ‘स्केच’ को देखा- लड़ते हुए मुर्गों की आवाज़ स्पष्ट सुनायी पड़ी। ..............गली की गंध नाक में समा गई, मुर्गों की ‘झटपटाहट’ से उड़ने वाली धूल के साथ........... ।

...............शब्द! नन्दलाल बसु के पास शब्द नहीं है, मेरे पास शब्द हैं। ................उनके लड़ते हुए मुर्गों की आवाज़ मैं सुन सका। शब्द-शिल्पी क्या शब्दों द्वारा इसे और स्पष्ट नहीं कर सकेगा?

फिर उसी दिन से मेरे शब्द-चित्रों में, स्केचों में, कहानियों में मुर्गे बोलने लगे, मोटर के हार्न, गाड़ी की सीटी, ढ़ोलक के ताल-शब्द उतरने लगे।“6

रेणु बसु मोशाय के ‘स्केच’ को देखते भर नहीं है। वहाँ वे मुर्गों के पंखों की ‘झटपटाहट’ ‘सुन’ रहे हैं, गली की ‘गंध’ को भी महसूस कर रहे हैं और उड़ती धूल का ‘स्पर्श’ का अहसास भी उन्हें हो रहा है। बिना शब्दों का सहारा लिए जब एक स्केच, मात्र रेखाओं के सहारे उनकी तीन-तीन ज्ञानेन्द्रियों को उद्वेलित करने में समर्थ था तो शब्द-शिल्पी के संकल्प ने शब्दों से कथाओं का ऐसा वितान रचा कि वे पाठक की पाँचों ज्ञानेन्द्रियाएँ उद्वेलित करने में सफल हुई। इसीलिए रेणु की रचनाओं में मात्र गप्प रसाता भर नहीं है बल्कि वहाँ चरित्रों और उनके परिवेश की अद्वैतता, रूप, नाद, रस, गंध, स्पर्श सबको एक साथ उपस्थित करती है। दरअसल उनकी लेखनी ने अक्षरों को बलाघात दिये और शब्दों को देह। उनकी रचनाओं में यह शब्द देहधारी भाषा इतनी प्राणवन्त हुई कि उसने रचनाओं को त्रिआयामी गतिशील चित्रों से भर दिया। पाठक को उनकी रचना में प्रवेश करते इसी प्राणवन्त भाषा, देहधारी शब्द और ध्वनियों के सौन्दर्य से सबसे पहले भेंट होती है और उस पर रेणु की लेखनी का जादू सर चढ़ कर बोलने लगता है। एक नशा-सा छा जाता है.......... इस्स.........।

समालोचक डा० रविभूषण ने अपने आलेख “तीसरी कसम: स्वप्न भंग और लोक संस्कृति की विदाई” में कथागायक रेणु के इन्द्रियार्थवाद को व्याख्यायित किया है, ”रेणु के यहाँ ‘महसूस’ करने (और किये जाने) का अपना एक अलग अर्थ है। कहानी में जिस शब्द-विशेष का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है, वह शब्द ‘इस्स’ है। कहानियों में बीज-शब्दों (की-वर्ड्स) की खोज और उन पर विचार हिन्दी में नहीं के बराबर है। (सम्भवतः विजयमोहन सिंह अकेले हिन्दी कथालोचक हैं, जिन्होंने प्रसाद की कहानियों पर लिखते हुए ‘बीज शब्दों’ की बात की है।) ‘तीसरी कसम’ में ‘इस्स’ 16 बार प्रयुक्त हुआ है। 15 बार हिरामन द्वारा और एक बार केवल एक पात्र धुन्नीराम द्वारा- “इस्स! तुम भी खूब हो हिरामन। उस साल कम्पनी का बाघ, इस बार कम्पनी की जनानी।” यह हिरामन के भाव-कोश का अपना शब्द है। संयुक्त शब्द, सामान्यतः अर्थहीन, पर पूर्णतः ध्वनियुक्त। ध्वनि संगीत का गुण है और रेणु संगीतधर्मी कथाकार हैं। ‘इस्स’ भावयुक्त, अप्रचलित, सहज प्रकट और अंतर्मन से उत्पन्न वह विशिष्ट शब्द है- विविध भावयुक्त शब्द, जिसमें एक साथ लज्जा, आश्चर्य और प्रसन्नता का सुमेल है। कहानी में वर्णित और कथित से कहीं अधिक महत्व अकथित का है। ‘इस्स’ में एक साथ भाव-सौन्दर्य और ध्वनि-सौन्दर्य है, वह आन्तरिक-आत्मीय लययुक्त शब्द है। हिरामन द्वारा कहानी में अनेक स्थलों पर 15 बार उच्चारित इस शब्द से उसके उस भाव-संसार में प्रवेश कर यह जाना जा सकता है कि विशिष्ट भाव दशाओं में उच्चारित शब्द के कोशगत अर्थ नहीं होते। इसे रेणु के शब्द-मोह के रूप में भी समझा जा सकता है क्योंकि यह कहानी में 16 बार प्रयुक्त है। रेणु का कथा-संगीत उनके शब्द-संगीत विशेषतः ध्वनि-संगीत से जुड़ा है। ‘इस्स’ में ‘स’ संयुक्त रूप में है। हिरामन के अवचेतन में क्या हीराबाई से जुड़ने, संयुक्त होने की एक सहज, सरल, प्रेममयी इच्छा से इसका कोई सम्बन्ध भाव स्थापित नहीं किया जा सकता?

फ़िल्म ’तीसरी क़सम’ का एक दृश्य

..............‘तीसरी क़सम’ कहानी के दो हिस्से हैं। पहला हिस्सा बैलगाड़ी से हीराबाई के फारबिसगंज मेले में आने तक का है। दूसरा भाग मेले और नौटंकी का है। पूर्व भाग में वास्तव संसार के साथ हिरामन का अपना भाव संसार है जो प्रमुख है। आरम्भ का एकान्त बाद में नहीं है। इस आरम्भिक हिस्से के स्वप्न-संसार में चम्पा फूल की सुगंध है। हीराबाई के बैलगाड़ी में बैठते ही हिरामन की पीठ में गुदगुदी लगती है और “रह-रह कर उसकी गाड़ी में चम्पा का फूल महक उठता है। पीठ में गुदगुदी लगने पर वह अंगोछे से पीठ झाड़ लेता है।” वह सोचता है, “औरत है या चम्पा का फूल! जब से गाड़ी मह-मह कर रही है।” यह हिरामन का स्वप्न लोक है। वस्तु संसार से अधिक प्रबल भाव-संसार है।

..........चम्पा जिसे संस्कृत में ‘चम्पक’ और अंग्रेजी में ‘प्लूमेरिया’ कहते हैं, पर कविताएँ कम नहीं हैं; ‘हाइकू’ तक लिखी गयी है पर कहानी में रेणु ने ही ‘तीसरी कसम’ में चम्पा के फूल की सुगंध फैलाई।

................कहानी में कहीं भी न तो चम्पा का वृक्ष है, न चम्पा पुष्प। पहले गाँवों में चम्पा का वृक्ष होना सामान्य बात थी- वहाँ कई प्रकार के सुगंधित पुष्प-पेड़ होते थे, जिससे पूरा वातावरण मह-मह करता था। वह हिरामन की स्मृति में है।

चम्पा का वृक्ष

 ...........इस पुष्प का महत्व भारतीय परम्परा में है- यह विष्णु और भगवती का प्रिय पुष्प है। कहानी में चम्पा के फूल की ‘महक’ के पहले ‘देवी मैया’ का जिक्र है और बाद में भी- “हिरामन को लगता है, दो वर्ष से चम्पानगर के मेले की भगवती मैया उस पर प्रसन्न हैं क्योंकि उसकी ‘कमाई’ अच्छी हो रही है। पिछले साल बाघगाड़ी से और इस बार ‘जनानी सवारी’ से। .........चम्पा फूल की मादक गंध से हीराबाई के तन की सुगंध भी जुड़ी है। लोककथा रूढ़ि में गंध से बेहोश होने का जिक्र है। कामदेव के पाँच पुष्प वाणों - नील कमल, मल्लिका, आम्र पौर और शिरीष कुसुम के साथ चम्पक भी है। इस फूल के उत्कट गंध के कारण ही इसके पास भौरे नहीं जाते। .................हीराबाई हिरामन के लिए ‘औरत’ कम ‘चम्पा का फूल’ अधिक है। यहाँ ‘स्वप्न’ ‘यथार्थ’ से बड़ा ही नहीं प्रभावशाली भी है। सुरेन्द्र चौधरी ने हिरामन के ‘इन्द्रिय बोध’ को ‘उसके विश्व बोध का भी हिस्सा’ कहा है, जो किताबी नहीं है, वह तीसरी दुनिया के तमाम-तमाम निरक्षरों में एक है। मगर आखर तो ध्वनि भी है, गंध और स्पर्श में भी है। मन की भाषा तो इन सब में साथ-साथ प्रकट होती है। यह पूरी यात्रा एक गंध-स्वर-स्पर्श-संधान ही तो है।”

सुरेन्द्र चौधरी

"........सुरेन्द्र चौधरी ने रेणु की कहानियों के गंध परिवेश पर लिखते हुए इस ‘प्रश्न’ को ‘उल्लंग खड़ा’ देखा था- “निःस्पृह यथार्थ से यह गंध परिवेश कैसे पैदा होता है?” हिन्दी और भारतीय कथा साहित्य में ही नहीं, संभवतः पश्चिमी यूरोपीय कथा-साहित्य में भी ऐसी ऐन्द्रियता कहाँ है? कहाँ हैं, ‘रूप-रस-गंध-स्पर्श-नादमय ऐसी कहानियाँ। रेणु जैसी इन्द्रिय ग्राह्यता और किसी में नहीं है। वे इन्द्रियार्थवादी हैं। .................उनका यह सौन्दर्यबोध पूँजीवादी सौन्दर्य-बोध से एकदम भिन्न है। ग्रामीण सौन्दर्य-बोध के साथ रचनाकार का अपना सौन्दर्य-बोध जुड़ कर एक नवीन सौन्दर्यबोध उत्पन्न करता है। उनका इन्द्रियबोध स्थान-बोध और समय-बोध से जुड़ा है। वहाँ खंडित कुछ भी नहीं है। जो है, वह संश्लिष्ट है।”7   "सिनेमा तकनीक का उपयोग"

रेणु ने अपने कहन में वर्णनात्मकता के बदले दृश्यात्मकता का उपयोग किया। गतिमान चाक्षुष चित्रण उनके गल्प रचाने और गप्प रसाने की धूरी है। यह अनायास नहीं आता है। सुवास कुमार का मानना है कि “रेणु कथाओं में फिल्म की तकनीक के प्रथम सफल प्रयोक्ता हैं जिसका भरपूर उपयोग सलमान रूश्दी जैसे कथाकारों ने बाद में किया।”8

समालोचक हरिकृष्ण कौल ने रेणु की कहानी ‘पुरानी कहानी: नया पाठ’ के उदाहरण से कथागायक के सिनेमा-शिल्प को व्याख्यायित करने की कोशिश की है, “भोर के मटमैले प्रकाश में ताड़ की फुनगी पर बैठे हुए वृद्ध गिद्ध ने देखा- दूर, बहुत दूर तक गेरुआ............... पानी-पानी-पानी! बीच में टापुओं जैसे गाँव-घर, घरों और पेड़ों पर बैठे हुए लोग। वहाँ एक भैंस की लाश! डूबे हुए पाट और मकई के पौधों की फुनगियों के उस पार ...................। राजगिद्ध पांखे तौलता है - उड़ान भरता है। हहास!”

..................इस अनुच्छेद में पूरी तरह से फिल्म टेकनीक का आभास मिलता है। सबसे पहले मानो, ताड़ की फुनगी पर बैठे हुए गिद्ध का ‘क्लोज अप’ दिया गया है। फिर जैसे कैमरा ‘जूम आउट’ करता है और ‘लांग शाट’ में दूर-दूर तक फैला पानी ही पानी नजर आता है। (पानी शब्द की आवृति विचारणीय है।) इसके बाद मानो कैमरा ‘जूम इन’ कर के धीरे-धीरे ‘पैन’ करता है और पानी के बीच टापुओं जैसे गाँव-घर, घरों और पेड़ों पर बैठे हुए लोग, डूबे हुए पाट और मकई की फुनगियाँ, उनके पार भैंस की लाश, एक के बाद एक नज़र आते हैं। तब, जैसे ‘शाट’ बदलता है। फिर उसी गिद्ध का ‘क्लोज अप’। गिद्ध उड़ान भरता है और कैमरा जैसे उसे ‘फालो’ करता है।

दृश्य जगत् के प्रति रेणु की इस प्रकार की संवेदनशीलता देखते हुए नागार्जुन के एक अन्य सन्दर्भ में कहे गए ये शब्द बहुत ही सही मालूम होते हैं कि “रेणु यदि कलकत्ता जैसे महानगर में पैदा हुआ होता और यदि वैसा ही सांस्कृतिक परिवेश, तकनीकी उपलब्धियों का वही माहौल इस विलक्षण व्यक्ति को हासिल हुआ होता तो अनूठी कथा-कृतियों के रचयिता होने के साथ-साथ सत्यजित राय की तरह फिल्म-निर्माण की दिशा में भी यह व्यक्ति अपना कीर्तिमान स्थापित कर दिखाता।”9

अदृश्य हिंसा की धाँह

लगभग सारी संस्कृतियों में अपने समूह के अतिरिक्त ‘अन्य’ समूहों को कमतर इन्सान, अवमानव (Subhuman) मानने का एक एथनोसेन्ट्रिक (Ethnocentric) सामाजिक-मनोविज्ञान विद्यमान रहा है। युद्ध, जातीय-नस्लीय धार्मिक-लैंगिक हिंसा, नरसंहार, दास-व्यापार आदि के क्रम में मानव-हिंसा के प्रति मनोदैहिक अवरोध (ग्लानि-अपराधबोध आदि) से उबरने के लिए ‘अन्य’-अवमानव (Subhuman) की अमानवीयकरण (Dehumanization) की प्रक्रिया भी सदियों से चलती आ रही है। डेविड लिविंगस्टोन स्मिथ अपनी पुस्तक ‘लेस दैन ह्यूमन’ में इस अमानवीयकरण (Dehumanization) की सामाजिक-मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को समझने-समझाने की कोशिश करते हैं।

David Livingstone Smith

डेविड लिविंगस्टोन स्मिथ के अनुसार ‘होमो सैपियन्स’ एक जीव-वैज्ञानिक अवधारणा है किन्तु सारे होमो सैपियन्य हूबहू हमारे जैसे इन्सान हैं कि नहीं यह एक लोक-अवधारणा का मामला है। वैज्ञानिकता इन पूर्वाग्रहों को अभी तक प्रभावित नहीं कर पाई है।10

“लेस दैन ह्यूमन” के अध्याय-9 में इस तथ्य के विश्लेषण की कोशिश की गई है कि कैसे कई मनोवैज्ञानिक कारक ‘अन्य’ लोगों को कमतर इन्सान समझने को संभव बनाते हैं। इन कारकों का विश्लेषण डेविड लिविंगस्टोन स्मिथ निम्नवत् करते हैं- हमारे पास एक लोक-जीव विज्ञान (Folk Biology) है और एक अपरिहार्य संज्ञानात्मक मापदंड (Cognitive Module) भी है जिसके आधार पर हम अपनी सहजानुभूति से सम्पूर्ण जीव-जगत को विभिन्न प्रकार की प्रजातियों (Races) में बाँटते हैं।

साथ ही हमारे पास एक लोक-समाजशास्त्र (Folk Sociology) भी है और इसके लिए भी एक संज्ञानात्मक मापदंड (Cognitive Module) है जिसके आधार पर हम मानव-जगत को विभिन्न नस्लों (Races) में बाँट देते हैं।

हम जैविक प्रजातियों (Species) और इनसानी नस्लों के उनके खास ‘सत्व’ (Essence) के रूप में कन्सीव (Conceive) करते हैं। यह ‘सत्व’ (Essence) उससे भिन्न होता है जिस तरह वे दिख रहे होते हैं या प्रतीत (Appearance) होते हैं।11

उसके बाद के चरणों में ‘खास नस्लीय सत्व’ (Uique Racial Essance) को कमतर इन्सानी सत्व (Suhuman Essance) से जोड़ा जाता है फिर यह माना जाता है कि यह खास इन्सानी समूह असल में अवमानवीय पशु हैं।12

‘होमो सैपियन्स’ होने के समभाव का वैज्ञानिक तर्क हमारे सदियों पुरानी कहानियों, मिथकों, कहावतों, किवंदन्तियों, अफवाहों के सामने घुटने टेक देता है। हमारे यहाँ तो ऋग्वेद के पुरुष सुक्त और फिर श्रीमद्भगवद् गीता में ‘चतुर्वण्य की अवधारणा’ स्वयं ईश्वर के द्वारा ही प्रदान की गई है। अतएव ब्रह्मा के चरणों से सेवा के लिए उत्पन्न शूद्रों का कर्म ही पूर्व निर्धारित है और इस चतुर्वण चतुर्वर्ण व्यवस्था की आलोचना तो गांधी भी नहीं करते है। उधर ग्रीक मिथकों में देवताओं के राजा जीअस ने प्रामेथ्यूस को इन्सान और जानवर बनाने का निर्देश दिया। फिर कुछ दिनों के बाद उन्होंने देखा कि पशुओं की संख्या कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है तो उन्होंने पुनः प्रामेथ्यूस को कुछ पशुओं को इन्सान बनाने का निर्देश दिया जिनका शरीर तो इन्सान का हो गया किन्तु आत्मा पशुओं की रही।

ग्रीक अपने से भिन्न भाषा बोलने वालों (बर-बर करने वालों) को बार्बेरिवन/बर्बर मानते थे और अरस्तू ने दास-व्यापार को यह दार्शनिक आधार दिया कि बर्बर लोग प्राकृतिक रूप से गुलाम हैं। दूसरी ओर अरब दार्शनिक इब्न सिना का भी विचार भी लगभग ऐसा ही था।13

डेविड लिविंगस्टोन स्मिथ कल्चरल श्यूडो स्पेसीजाइशेन (Cultural Pseudo Speciation) का भी उल्लेख करते हैं कि कैसे संस्कृति विशेष प्रजाति विभाजन का कार्य अपने पूर्वाग्रहों के अनुरूप करती रही है।14

अब दास या हमारे यहाँ दलित मानव की तरह दिखते तो हैं किन्तु पूर्वाग्रह यह मानता रहा है कि वे दरअसल पूर्ण मानव हैं नहीं। कारण स्पष्ट है कि उनमें वह सत्व (Essance) नहीं है। हमारे समूह-विशेष के इन्सानों की तरह उनमें विवेक और सौन्दर्य बोध नहीं है। अतएव वे पशुवत् हैं या पशु ही हैं। नतीजन उनके प्रति की जाने वाली हिंसा (दृश्य-अदृश्य) से चिन्तित या अपराध-बोध से ग्रसित होने की आवश्यकता नहीं है। यह तो होता आया है और हमारी परम्परा का हिस्सा है।

आश्चर्य यह है कि गांधी का अहिंसा दर्शन समाज में व्याप्त अदृश्य हिंसा की व्यापकता से बच निकल कर अध्यात्म के वायवीयता में प्रवेश कर जाता है। संभवतः भारतीय गाँवों, जहाँ इसका सबसे विद्रूप रूप प्रकट होता है जिसे अम्बेडकर रूढ़िगत परम्पराओं और जाति जहर से भरा नरक मान रहे थे वहाँ गांधी को जन्म लेने, पलने-बढ़ने का अवसर ही नहीं मिला। लेकिन कथा सम्राट प्रेमचन्द सद्गति, ठाकुर का कुआँ, सवा सेर गेहूँ, दूध का दाम, पूस की रात आदि में निषेधों-नकारों, दैनन्दिन के व्यवहारों-शोषणों के विविध रूपों में अमानवीयकरण की प्रक्रिया और संरचना की अदृश्य हिंसा को बारीकी से पकड़ने में कामयाब होते हैं। ‘सवा सेर गेहूँ’ में अर्थतंत्र की हिंसा न केवल शंकर को किसान से बंधुआ मजदूर बनाती है बल्कि उसकी अगली पीढ़ी तक उसकी आँच पहुँचती है। पीढ़ियों तक इस अदृश्य हिंसा की व्याप्ति हमें बेचैन कर देती है। दूसरी ओर ‘सद्गति’ में संरचना की यह अदृश्य हिंसा दुःखी चमार का प्राण ले कर अदृश्य से दृश्य या दैहिक हिंसा तक की अपनी व्याप्ति को प्रकट करती है।

प्रेमचन्द की परम्परा के ही रेणु भी अपनी कहानियों में भी अवमानव, अमानवीयकरण और अदृश्य हिंसा की धाँह को पकड़ने की कोशिश करते हैं। खास कर ‘ठेस’, ‘रसप्रिया’ और ‘तीसरी कसम’ में वर्चस्वशाली समूह-तंत्र की इस अदृश्य हिंसा के कई उपकरण साफ-साफ झलकते हैं।

‘ठेस’ कहानी हमारे नृशंस समाज के सारे पाखंडों को तार-तार करती दिखती है जो ‘सिरचन’ की श्रेष्ठतम और विलुप्त होती कारीगरी का नगदी या अनाज के रूप में भी कोई मूल्य या मजदूरी भी नहीं देना चाहती किन्तु दूसरी ओर उसकी मुँहजोर और चटोर होने की कहानियाँ प्रचारित कर उसका अमानवीयकरण करती चलती है ताकि उसके हो रहे शोषण के झिझक/फाँस या अपराध-बोध को ढँका जा सका। इस निर्लज्जता की ढंग से पर्देदारी हो सके।

‘रसप्रिया’ का ‘पंचकौड़ी’ जो हमारी महान संस्कृति के बल पर विश्वगुरु रहे समाज का विशुद्ध संस्कृतिकर्मी है। जिसके गले में बारहमासा, बिरहा, चाँचर, लगनी और सब से बढ़कर विधापति की रसप्रिया का वास है जो अपनी ‘विदपतिया मंडली’ का मूलगैन था और मिरदंगिया भी। वही अपनी जाति और आर्थिकी के कारण अधपगला, पगला, दसदुआरी, महाभिखारी की संज्ञा से नवाजा जा रहा है यानी वह इन्सान ही नहीं है उससे कमतर है एक सबह्यूमन है। जाति की छाप पीठ पर ऐसी लगी हुई है कि ब्राह्मण-बच्चे को बेटा मात्र कहने से उसकी पिटाई होते-होते बचती है। जिसे जाति छूपा कर जोधन गुरु जी के यहाँ मृदंग सीखना पड़ता है और जाति के कारण ही रमपतिया के साथ हुए सच्चे प्यार को झूठा कहना पड़ता है। शिष्य फुसलाने-चुराने के क्रम में हुई पिटाई से मृदंग बजाने वाली उंगली टेढ़ी हो गई है और कहानियाँ फैलाई गई है कि डायन ने बान मार कर उंगली टेढ़ी कर दी है। जिसे आज सुबह शोभा मिसिर के छोटे लड़के ने साफ-साफ कह दिया- ‘तुम जी रहे हो या थेथरई कर रहे हो मिरदंगिया?’

और जोधन गुरु जी की बारह बरस की उम्र में विधवा हुई रमपतिया के प्रति समाज और उसकी संरचना की हिंसा भी कम नृशंस नहीं है। रमपतिया जो प्यार करती है पंचकौड़ी से, परजात होने के कारण शादी करनी पड़ती है अजोधादास से। ‘बूढ़ा अजोधादास, जिसके मुँह में न बोल, न आँखों में लोर। ............मंडली में गठरी ढोता था। बिना पैसे का नौकर बेचारा अजोधादास।’ और गर्भधारण करना पड़ता है संभवतः ठाकुर टोले के नन्दू बाबू से जिनके यहाँ गरीबी की मार से वह घसियारिन का काम कर रही है। वैसे भी दलित-श्रमशील समाज की स्त्री के प्रति हिंसा ने अपने लिए तीन-तीन अवसर जुटा रखे हैं एक, दलित या श्रमिक होने के कारण, दूसरा उसकी गरीबी और तीसरी उसकी देह के कारण।

‘तीसरी क़सम’ में भी यह सामाजिक तंत्र की हिंसा ही है जिसने जाति, उम्र, पेशा आदि के कारण हीरामन-हीराबाई दोनों को प्रेम और दाम्पत्य से वंचित कर दिया है। विश्वनाथ त्रिपाठी के शब्दों में, “....... समानता है तो केवल इस बात की कि वे प्रेम की दुनिया से बहुत दूर हैं। हीराबाई की दुनिया में प्रेम का नाटक करने वाले होंगे- प्रेम करने वाला कोई नहीं। ........हिरामन के जीवन में इसकी कोई सम्भावना ही नहीं है।”

..........दाम्पत्य दोनों के जीवन में अघटित है- अघटित कहानी के बाद भी रह जाता है। लेकिन दाम्पत्य का जो स्वप्न इस कहानी में घटित होता है वह इस कहानी का मुख्य व्यापार है। वह यथार्थ-स्वप्न है। ऐसा स्वप्न जो खुली आँखों दिखलाई पड़ रहा है। स्वप्न वह केवल इस अर्थ में है कि बैलगाड़ी की यात्रा समाप्त होते ही वह झूठ हो जायेगा। स्वप्न घटित है बैलगाड़ी की यात्रा में। वह शुरू होता है यात्रा की शुरूआत से और भंग होता है यात्रा की समाप्ति पर।”15

यह यथार्थ-स्वप्न चम्पा के फूलों की मादक गंध से शुरू होता है और फारबिसगंज में झिलमिलाती सूरजमुखी की फूलों जैसी रोशनी के साथ खत्म होता है। कम्पनी का आदमी महुआ घटवारिन को सौदागर बन कर ले जाता है।

सच कहें तो जो सबह्यूमन और उसके अमानवीयकरण की अदृश्य हिंसा प्रेमचन्द की सद्गति, ठाकुर का कुआँ, सवा सेर गेहूँ में जो थोड़ा स्थूल रूप में प्रकट होता है वह रेणु की इन कहानियों में सूक्ष्म रूप में सर्वव्यापी सा हो जाता है। इस प्रकार हिन्दी कथा-साहित्य प्रेमचन्द से रेणु तक प्रगतिमान होता है।

सूरज में धब्बे की तलाश

रेणु जी की रचनाओं की भाषा की चित्रात्मकता, गत्यात्मकता, हमारी इन्द्रियों को उद्वेलित करने की अद्भुत क्षमता, शिल्प-कहन का अनूठापन-नवीनता तथा पश्चिमी नावेल के देशीकरण की सफलता आदि मिल कर एक सम्मोहक-संसार रचते हैं। इस संसार की इन्द्रधनुषी गलियों में सम्मोहित-पाठक ऐसा खोता है कि उसे रेणु की रचनाओं के फाँक दिखाई नहीं पड़ते।

किशोरावस्था से एक लम्बी अवधि कोईराला परिवार के सदस्य की तरह गुजारने के कारण रेणु के व्यक्तित्व में समाहित एक खास तरह का अभिजात्य, पंडित नेहरु और उनके परिवार के प्रति हार्दिक लगाव के कारण उनकी सत्ता-सापेक्ष दृष्टि, स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के प्रति तत्कालीन लोकबोध से प्रभावित नजरिया, भूस्वामी होने के कारण हजारों संताल बटाईदारों के प्रति दशकों से अनवरत चल रहे हिंसा और अन्याय के प्रति निरपेक्षता का भाव आदि उनकी रचनाओं में खीर में कंकड़ की तरह खटकते हैं। वे एक विसंवादी स्वर की तरह कथागायन की लय और उसके आरोह को दुष्प्रभावित करते हैं। आगे की पंक्तियों में कथागायक के गायन में उन फाँकों-कंकड़ों-विसंवादी स्वरों की पड़ताल करने की कोशिश की जायेगी।

“ता-ता थैया, ता-ता थैया, नाचो नाचो कोसी मैया”

“.......... जितेन्द्र ने हँस कर कहा था- ‘जी नहीं, मैं हजारीबाग शहर जा रहा हूँ। चालीस मील दूर। सुबह को पहली बस खुलेगी। जी नहीं। कोई काम नहीं। यों ही घूमने। सोचा, जरा डी. वी. सी. का काम प्रारम्भ होने के समय एक बार देख आऊँ। बहुत शोर सुन रखा है। नहीं, नहीं डी. वी. सी. कोई कालेज नहीं! दामोदर वैली कारपोरेशन। बोखारो में थरमल पावर प्लाण्ट। दामोदर नदी को हारनेस कर रहे हैं। तिलैया और कोनार में डैम।”16

“ .........जीत के मन का भी पौधा मुरझा गया था। वह इन्हीं घाटियों के पानी से सींच कर उसे जिलाने की उम्मीद कर रहा था। पंचेट, माइथन, दुर्गापुर ! प्यार के तीर्थ-क्षेत्र। पलास का रंग उसकी आँखों में हमेशा छाया रहता है। कोनार नदी के किनारे, डैम साइट पर, एक विशाल क्रेन की छाया में बैठते हुए कहा था जीत ने, -‘न जाने कोसी का काम कब शुरू हो ! वह मेरा इलाका है। कोसी-कवलित अंचल। जहाँ हर साल लाखों प्राणियों की बलि लेती है। ........धड़-धड़ धड़ाम !”17

1954 के अपने प्रथम उपन्यास ‘मैला आँचल’ में रेणु अपने अंचल (जिसमें देश विन्यस्त) की आवाम की देह में फैले रोग की तलाश करते डा. प्रशान्त को दो बड़े रोगों ‘गरीबी’ और ‘जहालत’ के पूर्ण संधान तक पहुँचाते हैं। उसके बाद सन् 1957 की रचना ‘परती परिकथा’ में पुनः अंचल है और है उसकी लाखों एकड़ परती-बन्ध्या धरती की व्यथा और मुँह बाए, विशाल मगरमच्छ की पीठ पर सवार नाचती, किलकती, अट्टहास करती, प्रलयकारिणी काली-कोसी मैया को बाँधने के स्वप्न को साकार करती कथा। रेणु का अपूर्व शिल्प सौन्दर्य यहाँ भी अपने चरम पर है, मुख्य कथा के साथ कई-कई उपकथाओं, परिकथाओं, आख्यानों, उपाख्यानों के जादू के साथ। रसाता हुआ गप्प और पूरी लय में गल्प रचाता कथा गायक। इस बार मात्र परानपुर की ओछी ग्राम्य राजनीति, ईष्या-द्वेष, जाति जहर का चित्रात्मक विवरण ही नहीं देता बल्कि आजादी-पूर्व और आजादी के बाद की देश की राजनीति की श्याम-श्यामा तस्वीरों से भी भेंट करवाता है। किन्तु इन सारी उपकथाओं-परिकथाओं के गायन का मुख्य उद्देश्य है पंडित नेहरू के विकास-स्वप्न को ठोस जमीन पर उतरते दिखाना। वही दुलरूया ‘विकास’ जिसका झंडाबरदार बनी हुई थीं भाखड़ा-नांगल जैसी विशालकाय बाँध परियोजनाएँ जो नये तीर्थ स्थान पुकारे जा रहे थे। क्या इस नवजात दुलरूआ ‘विकास’ लल्ला के असली पप्पा पंडित नेहरू ही थे? और क्या इन बड़े विशालकाय बाँधों की वैज्ञानिकता-सफलता स्वतः प्रमाणित थी? तो फिर स्वयं रेणु को ही बाद में कोसी-बाँध से मोहभंग और पछतावा क्यों हुआ? आइए! इन यक्ष-प्रश्नों के उत्तर तलाशने की कोशिश करते हैं।

‘दुलरूआ ‘विकास’ लल्ला के असली पप्पा’

आई० आई० टी०, कानपुर के मानविकी विभाग के शोधार्थी विकास दुबे अपने ‘खनन और विकास’ के शोध-अध्ययन के क्रम में ‘विकास’ शब्द के गढ़े जाने की प्रक्रिया को रेखांकित करते हैं। उनके अनुसार, ‘विकास के विमर्श’ को द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद गति मिली। ‘विकास’ शब्दावली की ऐतिहासिक निर्मिति को अर्थशास्त्री अर्तोरो इस्कोबार (Arturo Escobar) ने अपनी कालजयी कृति ‘इन्काउन्टरिंग डिवेलॅप्मॅन्ट’ में व्याख्यायित किया है कि किस ऐतिहासिक परिस्थितियों ने ‘विकास’ को आविष्कृत किया।

दरअसल द्वितीय विश्वयुद्ध ने औपनिवेशिक शक्तियों की सत्ता-संरचना को बदल दिया। पूँजीतंत्र की धूरी ब्रिटेन से अमेरिका की ओर खिसक गयी। दूसरी ओर विश्व के कई देशों में साम्यवाद का उदय हुआ। इसी अवधि में औद्योगिक रूप से अग्रसर देशों खास कर अमेरिका ने अपना उत्पादन दुगुना कर लिया जिसके कारण उसे उत्पादन के लिए कच्चे माल, उत्पादों के लिए नये बाजार और पूँजी निवेश के नये अवसर की इस नई वैश्विक व्यवस्था में तलाश करनी थी। इसी परिप्रेक्ष्य में पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों ने कई-कई आर्थिक शब्दावलियाँ गढ़ीं। ‘गरीब’, ‘अशिक्षित’, ‘कुपोषित’ आदि ऐसी असमान्यताएँ थीं जिनकी ‘विकास’ अर्थशास्त्रियों के अनुसार निराकरण आवश्यक था।

उसी क्रम में इन नवसृजित आर्थिक पदावलियों की नई श्रेणी-समूह का प्रक्षेपण एशियाई, अफ्रीकी और लातीनी अमेरिकी देशों पर किया गया। इन नवीन पदावलियों ने उन देशों को ‘अल्प विकसित’ या ‘तृतीय विश्व’ की संज्ञा से विभूषित किया। ‘प्रथम विश्व’ के विकसित देशों विशेषकर अमेरिका को अपने बहुपक्षीय संगठनों (Multilateral Organisation) के माध्यम से इन तृतीय विश्व के अल्प विकसित देशों को अत्यावश्यक सहायता पूँजी, वैज्ञानिक ज्ञान और तकनीक के माध्यम से करनी थी। यह सब ‘विकास के लिए आर्थिक सहायता’ (Development Aid) एवं विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से लक्षित ‘गरीब’, ‘अशिक्षित’, ‘कुपोषित’ देशों तक पहुँचाना था। यही वे माध्यम थे जिनके द्वारा अल्पविकसित देश पश्चिमी पूँजीवादी तंत्र से जुड़ सकते थे।

इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की भू-राजनीति (Geopolitics) में ‘विकास के विमर्श’ ने अमेरिकी नेतृत्व में फिर से ‘प्रथम विश्व’ का वर्चस्व ‘तृतीय विश्व’ पर कायम कर दिया। जिस प्रकार विश्व युद्धों के पूर्व औपनिवेशिक शक्तियों के ‘कल्याणकारी हृदय’ का यह मानना था कि उपनिवेशों के असभ्य-देसी लोगों को ‘सभ्य’ बनाने की जिम्मेवारी ईश्वर ने उनके कंधे पर डाली है। उसी ईश्वर ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ‘गरीब’ ‘पिछड़े’ तृतीय विश्व के देशों के ‘विकास’ की ‘पवित्र जिम्मेवारी’ फिर से उन्हें ही सौंप दी थी। इस प्रकार बदले हुए रूप में शासकों और शासितों के ‘पारिवारिक स्नेहपूर्ण सम्बन्धों की निरन्तरता कायम रही।18

Franklin Delano Roosevelt

लगता है हमारे प्रथम प्रधानमंत्री समाजवादी पंडित नेहरू का रुमानी हृदय भी कथित विकास-अर्थशास्त्रियों के नव्य पदावलियों के रेशमी जाल में उलझ गया था। स्पष्ट है कि सर्वप्रिय ‘विकास’ लल्ला के असली पप्पा नेहरू जी नहीं बल्कि अमेरिका के बत्तीसवें राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डेलानो रूजवेल्ट (1933-1945) एवं तैतीसवें राष्ट्रपति हेनरी एस० ट्रूमेन (1945-1953) थे जिनके ‘तेज’ को कात्र्तिकेय की तरह विशेषज्ञों-अर्थशास्त्रियों जैसी कई-कई माताओं ने धारण किया तब जाकर विश्वमोहिनी रूप वाले ‘विकास’ लल्ला का जन्म हुआ।



Harry Truman


उसी ‘विकास’ की अवधारणा और कार्यक्रमों के पैकेज के तहत बड़े बाँध की परियोजनाएँ हमारे यहाँ भी अवतरित हुईं। इस बहस में विस्तार में न जाते हुए केवल कोसी बाँध से जुड़े तथ्यों और बाँध निर्माण के बाद के दुष्परिणामों की थोड़ी झलक देखी जाए।



“- कोसी मैया की कथा............. जै कोसका महारानी...”


संयुक्त बिहार में बाढ़ की विभीषिका और बड़े बाँधों की आर्थिकी-राजनीति को विश्लेषित करता 1991 में प्रकाशित शोध-अध्ययन ‘जब नदी बंधी’ के अनुसार, “......1937 में 10 से 12 नवम्बर तक पटना स्थित सिन्हा लाइब्रेरी में एक सम्मेलन हुआ। ..........उस सम्मेलन में शामिल अधिकांश अभियंताओं, अंग्रेज प्रशासकों से ले कर भारतीय राजनेताओं तक की राय थी कि बाढ़ विभीषिका पर नियंत्रण के लिए नदियों को “बाँधना” नहीं बल्कि उनको “मुक्त करना” अधिक कारगर विकल्प साबित होगा।19



...........1937 से 1945 तक वह बहस जिन्दा रही। .......1945 तक उस बहस में दी गई चेतावनियाँ एवं सुझाव गुलाम भारत में किसी भी योजना की मंजूरी के लिए सर्वोच्च पैमाने बने रहे। भारत के आजाद होते ही वह बहस गुलाम भारत की पिछड़ी एवं पराजित मानसिकता की प्रतीक बन गई। ........जहाँ “गुलाम भारत” नदियों को मुक्त करने व रखने की हिमायत कर रहा था, वही आजाद भारत नदियों को बाँधने की हिम्मत करने लगा। ......1937 की बहस को नकारने के प्रथम परिणाम के रूप में दामोदर घाटी परियोजना और कोशी परियोजना प्रकट हुई। ...........जो परियोजनाएँ ब्रिटिश हुक्मरानों के लिए साम्राज्यवादी शोषण की तेज एवं अबाध बनाने का “साधन” थीं, वही भारतीय शासकों के लिए आधुनिक “विकास” का पैमाना बन गई।20



...........मई, 1954 में हमारे विशेषज्ञ पीली नदी पर बने तटबंधों द्वारा बाढ़ नियंत्रण के प्रयासों को देखने चीन गये थे। ........ चीन में बाढ़ नियंत्रण के लिए तटबंध की तकनीक कोशी तटबंध परियोजना शुरू होने के पूर्व ही “एक्सपायर्ड हो चुकी थी क्योंकि गाद का इतना अधिक जमाव, तटबंधों को ऊँचा करके या उन्हें और मजबूत करके नहीं रोका जा सकता। तटबंध जितने ऊँचे और मजबूत होते जायेंगे, गाद का जमाव उतना ही तेजी से बढ़ेगा क्योंकि उसके बाहर जाने के रास्ते बन्द हो जाते हैं। इस प्रकार हम अपने ही जाल में फंसते जाते हैं और बाढ़, तटबंध टूटना, नदी की धारा परिवर्तन आदि कई खतरे हमारा पीछा नहीं छोड़ते। ..........यह सब जानते हुए भी उत्तर बिहार में उस एक्सपायर्ड तकनीक को महज राजनीतिक निहितार्थ के लिए लागू किया गया।21



“भीगी बिल्ली से भूखी शेरनी”


तीन अमेरिकी बाँध विशेषज्ञों की देखरेख में पूर्ण हुए कोशी बाँध परियोजना के परिणाम किसी से छूपे हुए तो नहीं हैं। ‘जब नदी बंधी’ के अनुसार, “लगभग 1953 में शुरू हुई उत्तर बिहार में कोशी परियोजना का लक्ष्य था उत्तर बिहार में 9 लाख घन सेक प्रवाह पर 5.28 लाख एकड़ भूमि को बाढ़ से सुरक्षा प्रदान करना। हुआ क्या? इस परियोजना से आज की तारीख (1991) तक दोनों तटबंधों के बीच 2.7 लाख एकड़ जमीन स्थाई बाढ़ से ग्रस्त हो गई। तटबंध से सुरक्षित क्षेत्र की 4.5 लाख एकड़ जमीन जल जमाव की समस्या से ग्रस्त है।22



गाद का जमाव, तटबंधों की टूट, प्रति वर्ष बिना नागा बाढ़ की विभीषिका और स्वभाव अनुरूप कोसी मैय्या की धारा में परिवर्तन आदि से उत्तर भारत के लाखों मानव-जीवन आज भी त्रस्त है।


स्वयं रेणु जी ने अपनी बाद की रचना ‘पुरानी कहानीः नया पाठ’ में बाँध के बाद की कोसी और उसकी सहायक नदियों की बाढ़ की विभीषिका को चित्रित किया है। किन्तु वे ‘विकास’ की पूँजीवादी भू-राजनीति से नजर चुराते हुए, पी. डब्लू. डी. के इंजीनियरों की अदूरदर्शिता........... सलाह-परामर्श की कमी आदि का बहाना बनाते नजर आते हैं। काश! हमारा कालजयी कथागायक बड़े बाँधों की पीछे की अन्तरराष्ट्रीय राजनीति, मीलों फैली वन सम्पदा का विनाश, गरीब-श्रमशील हजारों परिवारों का विस्थापन और उसके बावजूद बाढ़ की विभीषिका की निरन्तरता आदि को देख पाता और दुलरूआ ‘विकास’ लल्ला के असली पप्पा का थोड़ा भी परिचय पा जाता तो ‘परती परिकथा’ का कथ्य-कथानक कुछ और ही होता। लेकिन उनके कई आलेखों से यह लगता है उनकी आँखों से पंडित नेहरु के प्रति अति श्रद्धाभाव की पट्टी कभी उतरी ही नहीं।


‘अन्य’-‘बाहरी’-‘अदृष्य’: रेणु की आदिवासी ग्रन्थि


आलोचक सुरेन्द्र चौधरी अपने आलेख ‘रेणु: एक अन्तर्कथा’ में यह रेखांकित करते हैं कि “रेणु के व्यक्तित्व का निर्माण गहरे भावनात्मक और सामाजिक अन्तर्विरोधों के भीतर से हुआ था।”23


हो सकता है इन्हीं भावनात्मक-सामाजिक अन्तर्विरोधों ने रेणु में आदिवासी ग्रन्थि को भी जन्म दिया हो। जो कथाकार स्वयं कृषक एवं श्रमशील समाज का हिस्सा हो जिसे ग्रामीण नर्तकों, गायकों, कारीगरों, हर जाति के मेहनतकशों यहाँ तक जुआड़ियों-नशेड़ियों तक से घुलने मिलने में कोई दिक्कत नहीं रही हो बल्कि वहीं से अपनी कथाओं के लिए अमर चरित्र चुने हों उसे अपने ही गाँव-समाज के आदिवासी टोले से इतना विलगाव क्यों रहा? वह दूर से एक दर्शक की तरह क्यों निरखता रहा? हम सभी इस तथ्य से सुपरिचित हैं कि इस कथागायक ने अपनी अमर कृति ‘मैला आँचल’ में ‘पोलिया टोली’, ‘तंत्रिमा-छत्रीटोली’ ‘यदुवंशी छत्री टोली’, ‘गहलोत छत्री टोली’, ‘कुर्म छत्री टोली’, ‘अमात्य ब्राह्मण टोली’, ‘धनुकधारी छत्री टोली’, ‘कुशवाहा छत्री टोली’, ‘रैदास टोली’ आदि-आदि के चरित्रों और परिवेश की अद्वैतता से ग्राम्य जीवन के सभी नौ रसों का आस्वादन पाठकों को करवाया है। ‘मैला आँचल’ के कथ्य और कथानक को गत्यात्मकता प्रदान करने में लगभग हर टोले का कोई न कोई पात्र अपने व्यक्तित्व की सम्पूर्णता, उसकी अच्छाई-बुराई, सुख-दुःख, ईर्ष्या-द्वेष, कामुकता-सामुदायिकता के साथ महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वहीं गाँव का संताल टोला बस अपनी मान्दर की मादक आवाज, संतालिनों की नाच और हँसी, महुआ रस और तीर के लिए याद किया जा रहा है। संताल टोले का एक भी मुकम्मल पात्र नहीं है जिसके व्यक्तित्व की सम्पूर्णता की झलक पाठक पा सके। केवल जमींदारी प्रथा समाप्ति के राजनैतिक स्वांग-पाखंड की पर्देदारी को तार-तार करने के लिए तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद के चालीस बीघा वाले खेत पर संतालों के असफल दखल अभियान और उस क्रम में होने वाली हिंसा की व्यापकता प्रकट करने की मजबूरी में ‘बिरसा माँझी’, ‘सुखी मुरमू’, ‘जगारी’, ‘सीनिया मुरमू’ जैसे कुछ संज्ञा पद रचे गए महसूस होते हैं। दूसरी ओर अपने गैर-आदिवासी समाज की सबसे बड़ी विशेषता जन्मना जाति-प्रथा की तलाश संताल आदिवासी समाज में भी करता हमारा सिरमौर कथाकार उक्त समाज से अपने अजनबीपन को अजाने ही रेखांकित कर जाता है, “संथाल लोग गाँव के नहीं, बाहरी आदमी है? ............लेकिन संथालों में भी कमार हैं, माँझी हैं। वे लोग अपने को यहाँ के कमार और माँझी में कभी खपा सके? नहीं.........”24





यह कहा जा सकता है कि अपनी अन्य रचनाओं की तुलना में रेणु ‘मैला आँचल’ में अपने अंचल के संताल बटाईदारों के प्रति थोड़ा उदार दिखते हैं। इस उपन्यास का अध्याय 19 का ढ़ाई पृष्ठ संताल बटाईदारों के चार पुश्त पहले संताल परगना से आ कर बसने, बबूल, झरबेर और साँहुड़ के पेड़ों से भरे जंगल, बंजर-परती-भीठ को उपजाऊ बनाने, नीलहे साहबों के नील के हौजों का इनके पसीनों से भरे रहने, बात-वेबात साहबों का कोड़ा खाने, जमींदारों की कचहरियों में मोगलिया बाँधी की सजा भुगतने और धरती के न्याय ने धरती पर इनका किसी प्रकार हक नहीं जमने दिया जैसे ‘सहानुभूतिपूर्ण’ वाक्यों से भरा पड़ा है।



रेणु ने 1937 के कांग्रेसी मंत्रिमंडल के कार्यकाल में जिला कलक्टर द्वारा संताल बटाईदारों की हालत सुधारने की कोशिश, जमींदारों-लठैतों का संतालों के खिलाफ हिंसा, न्याय व्यवस्था द्वारा उन्हीं को सजा दिये जाने आदि सारे वृतान्त कुछ पैराग्राफ़्स में निपटा कर मानों दिल का बोझ हल्का किया है। लेकिन समाजशास्त्री आनंद चक्रवर्ती, क्रिस्टोफर वि हिल, स्टीफन हेनिनघम आदि के शोध-अध्ययन संताल-आंदोलन की व्यापकता और उन पर हुए भयावह अत्याचारों की निरन्तरता से हमारा परिचय करवाते हैं। इन अध्ययनों के सार-तथ्यों को निम्नवत देखा जा सकता है।


दरअसल पूर्णिया का दियारा-क्षेत्र धरमपुर परगना (964 वर्ग मील क्षेत्रफल) से कोसी धीरे-धीरे पश्चिम की ओर खिसक रही थी। एक समय दार्जिलिंग पूर्णिया का ही हिस्सा था और कोशी नदी पूर्व की ओर बहती ब्रह्मपुत्र में जा कर मिलती थी। वही कोशी पश्चिममुखी हो गंगा में मिलने लगी। कोशी की पेटी से निकलने वाली जमीन को खेती योग्य बनाने के लिए मुख्य रूप से संताल, मुसहर, गंगोत समुदाय के लोगों को बसाया गया। 19वीं सदी के उतरार्द्ध और 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में कोसी के इलाके की आबोहवा “जहर-माहुर” से ज्यादा घातक थी। जनगणना के 1892-1907 के आँकड़े बतलाते हैं कि हैजा, काला जार और मलेरिया से मृत्युदर, जन्मदर से ज्यादा थी। इन प्रतिकूलताओं में भी इन्होंने इस दलदली, जंगल से भरे इलाके को खेती योग्य बनाने में अपनी पुश्तें खपा दीं। किन्तु इनका जीवन भागलपुर-मुंगेर-दरभंगा में बैठे जमींदारों के बिचैलियों (इस्तेमरदार, मिलिकदार और ठीकेदार) के निरन्तर अत्याचार, अनन्त अबबावों की वसूली और बंगाल (बिहार) काश्तकारी अधिनियम 1887 के तहत कोई हक नहीं पाने, उल्टे जोत से बेदखल होते रहने आदि की एक अनन्त दुःख की कथा बन कर रह गई। एक अनाथ जमींदार पुत्र धतुरानन्द चौधरी और संताल शिक्षक दुल्ला टुडू के सशक्त नेतृत्व में 1938 ई. से संतालों का जबरदस्त बटाईदारी आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। इस आंदोलन ने बहुविध बाधाओं के वाबजूद अपनी निरन्तरता बनाए रखी। कांग्रेसी मंत्रिमंडल का 1938 ई. में काश्तकारी कानून में बटाईदारों के पक्ष में संशोधन, पूर्णिया के तीन कलक्टरों (डबलू. जी. आर्चर, राय बहादुर रामेश्वर सिंह और एन. पी. भदानी) का बटाईदारों के पक्ष में खड़ा होना इस कातर व्यथा-कथा के क्षणिक सुख के पल हैं। भू-मालिकों द्वारा की गई व्यापक प्रतिक्रिया (जनवरी-फरवरी 1939 में 81 गाँवों में विवाद), फरवरी-दिसम्बर 1940 के बीच बटाईदारों के खिलाफ दस हिंसक घटनाओं की नृशंसता आदि की एक हल्की सी झलक मैला आँचल के इन ढ़ाई पृष्ठों और कुछ पैराग्राफ्स में हमें मिल पाती है।



जिस आन्दोलन के कारण 1937 के कांग्रेसी मंत्रिमंडल के प्रधानमंत्री श्री कृष्ण सिंह और वित्त मंत्री श्री अनुग्रह नारायण सिंह को पूर्णिया का दौरा करना पड़ा, स्वामी सहजानन्द बार-बार यहाँ आते रहे, जयप्रकाश नारायण ने संताल बटाईदारों के सबसे समस्याग्रस्त अंचल धमदाहा से मात्र 5 मील दूर वनमंखी में उनके समर्थन में विशाल जनसभा की उस आन्दोलन की व्यापकता और महता से फणीश्वरनाथ रेणु जैसा संवेदनशील और आन्दोलनकारी रचनाकार अपरिचित तो नहीं रहा होगा। लेकिन मैला आँचल में भी इस वाबत उनकी लेखनी सकुचाई और परदेदारी करती दिखती है।



संतालों ने संघर्ष की ऐतिहासिक चेतना, अटूट सामुदायिकता, जुझारूपन, मुख्य गाँव से बाहर बसावट और भूमि सम्बन्धी कानूनों के जानकार शिक्षक दुल्ला टुडू और धतुरानन्द चौधरी के सशक्त नेतृत्व में सारी हिंसा-अत्याचार सह कर भी अपनी लड़ाई को उस मुकाम तक पहुँचा दिया कि राजधानी की सचिवालय-विधानसभा की दीवारों तक उसकी अनुगूँज पहुँचीं। विधायिका के श्री विन्देश्वरी प्रसाद वर्मा, तत्कालीन मुख्य सचिव गोडबोले, राजस्व विभाग के उप सचिव राय हरदत्त प्रसाद सबों ने क्षमता भर इन बटाईदारों के पक्ष में काम किया।



Santhan Rebellion Affray between Railway Engineers and Santhals Illustrated London News-1856


उधर संतालों की विशाल हृदयता देखिए कि 1942 तक अपनी लड़ाई के बदले बेदखली, लाठी-गोली और जेल मिलने के बावजूद देश के लिए एक आवाज पर अपना आंदोलन स्थगित करना स्वीकार कर लिया। कांग्रेस जिला अध्यक्ष वैद्यनाथ प्रसाद चौधरी ने धमदाहा अंचल के संताल टोले धरहरा में आकर सभा की। दूर-दूर से हजारों की संख्या में आ कर आदिवासी उस मीटिंग में शामिल हुए। श्री चौधरी ने आह्वान किया कि अभी केवल देश की आजादी पर ध्यान दिया जाए बटाईदारी आन्दोलन स्थगित रखा जाए। संताल सहमत हो आजादी की लड़ाई में शामिल हुए। 1963 ई. में प्रकाशित पी. सी. राय चौधरी लिखित पूर्णिया गैजिटियर में पृष्ठ 106 से 108 तक में अगस्त क्रान्ति का तिथिवार ब्यौरा दिया गया है। 25 अगस्त 1942 को धमदाहा थाना पर धतुरानन्द चौधरी और दुल्ला टुड्डू के नेतृत्व में 25 हजार संतालों के साथ अन्य ग्रामीणों का जुटान, तिरंगा झंडा का फहराया जाना और बलूच सैन्य टुकड़ी द्वारा फायरिंग किए जाने का विवरण है। गैर सरकारी आँकड़े के अनुसार 45 आन्दोलनकारी शहीद हुए किन्तु पूर्णिया के युवा साहित्यकार-पत्रकार श्री गिरीन्द्रनाथ झा ने जो सरकारी आँकड़े उपलब्ध करवाये उसमें मात्र 14 शहीद सूचीबद्ध हैं और उनमें एक भी नाम संतालों का नहीं है।



उसी प्रकार 27 अगस्त 1942 को पूर्णिया सदर थाने के पास झंडोत्तोलन के लिए संतालों के जुटान और उन पर फायरिंग की सूचना गैजिटियर देता है किन्तु शहीदों में उनके नाम का उल्लेख नहीं मिलता। यानी कि संताल बटाईदारों का दीर्घ आन्दोलन और उनका निरन्तर बहता खून-शहादत, न सरकारी खातों में और न रेणु की रचनाओं में मुकम्मल स्थान प्राप्त कर पाता है। उनके सब-ह्यूमन होने की इतनी सजा तो मिलनी थी।



संताल बटाईदारों के आन्दोलन, मालिकों द्वारा मालगुजारी के बदले विधितः दी जाने वाली पर्ची तक नहीं दिए जाने, लगातार हिंसा और तनाव के कारण पूर्णिया में 1952 में सर्वे सेटलमेंट आपरेशन प्रारम्भ किया गया। संताल बटाईदारों के गाँवों में विशेष सजगता का निर्देश भी दिया गया। किन्तु मालिकों के रूतबा, लाठी-पैसे का दबाव और अमीन-कानूनगो के भ्रष्ट आचरण ने बटाईदारों के प्रति न्याय नहीं होने दिया। ‘मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ दोनों में इस सर्वे सेटलमेंट की व्यापक चर्चा है। लेकिन लगता है यहाँ लेखनी पर मालिक का नजरिया हावी है क्योंकि संताल बटाइदारों की परेशानी-अन्याय पर रचनाकार ने एक पंक्ति भी खर्च करना उचित नहीं समझा। समाजशास्त्री आनंद चक्रवर्ती, 1986 के ‘इकानामिक एण्ड पोलिटिकल वीकली’ के अपने आलेख द अनफीनिस्ड स्ट्रगल आफ संताल बटाईदार इन पूर्णिया डिस्ट्रिक्ट, 1938-1942 में जिले के भूमालिकों के एक संघटन बनाए जाने का विस्तार से उल्लेख करते हैं पूर्णिया के कांग्रेसी नेता और 1500 बीघे के जोतदार जमींदार बाबू लक्ष्मी नारायण सिंह सुधांशु एवं सबसे बड़े जमींदार वीर नारायण चाँद के नेतृत्व में 1939 ई. के जून माह में 500 मालिकों की सभा धमदाहा के मोगुलिया पुरन्दाहा गाँव में हुई। बटाइदारों को सबक सिखाने के लिए देश की पहली जमींदार - भूमालिकों की निजी सेना ‘किसान समिति’ का गठन किया गया। जिसकी खबर जिले से ले कर राजधानी पटना तक को थी। किन्तु रेणु की लेखनी इससे बिल्कुल अनजान बनी रही। मालिकों की निजी सेना ‘किसान समिति’ की छिटपुट हिंसा तो नियमित कार्य-व्यापार की हिस्सा थी किन्तु 22 नवम्बर 1971 को सारी सीमाएँ लाँघ दी गईं। हिन्दी के महान साहित्यकार, बिहार विधानसभा के सन् 1962 एवं 1967 में माननीय अध्यक्ष रहे बाबू लक्ष्मी नारायण सिंह सुधांशु के निर्देश और उनके अपनी बहन के बेटे के नेतृत्व में दिन के उजाले में चन्दवा-रूपसपुर गाँव के संताल टोले पर हमला किया गया। सरकारी आँकड़ो के अनुसार दस संतालों को गोली लगी और चार को जिन्दा जला दिया गया। पटना से निकलने वाले अखबारों, ‘फिलहाल’ जैसी पत्रिका के पन्ने आजाद भारत के इस प्रथम जघन्य नरसंहार के रक्त से रंग गई। किन्तु उसी जिले के हमारे सिरमौर पुरखे रचनाकार की लेखनी तटस्थ बनी रही। चन्द पंक्तियों का रिर्पोताज भी उनकी लेखनी से निसृत हो दिनमान आदि में छप पाता तो आज उन पर शक करने की नौबत नहीं आती।



दरअसल सच्चाई तो यही है कि पूर्णिया जिला आज भी अपने गाँव के आदिवासियों को ‘बाहरी’ और ‘अन्य’ ही मानता आ रहा है। आश्चर्य यह है कि जिस कथागायक ने दलित-कारीगर समुदायों के चरित्रों, उनके साथ होने वाले संरचनात्मक-अदृश्य हिंसा को पूरी संवेदनशीलता के साथ उकेरा हो उसी कथाकार की दृष्टि आदिवासी चरित्रों के सम्बन्ध में एकदम खाँटी, मुख्य धारा जैसी ‘अन्य’ और ‘सबह्यूमन’ मानने वाली हो जाती है। श्रेष्ठताबोध से भरे वर्णवादी सामान्य हिन्दुस्तानी की तरह वह भी आदिवासियों के सांस्कृतिक-सामाजिक-धार्मिक-ऐतिहासिक वैशिष्टय के प्रति जागरूक और जिज्ञासु नहीं हो पाया। नेपाल क्रान्ति और आजादी की लड़ाई का अगुआ यह कथाकार अगर गांधी-अम्बेडकर-लोहिया के कारण दलितों के प्रति संवेदनशील हुआ तो क्या उसे मरांग गोमके जयपाल सिंह मुण्डा के कारण आदिवासी और आदिवासियत के प्रति सजग-संवेदी नहीं होना चाहिए था? क्या राजनैतिक सजग-समाजवादी रेणु मरांग गोमके के व्यक्तित्व-कृतित्व के नितान्त अपरिचित थे? लेकिन उनके आलेखों से गुजरने पर झारखंड पार्टी और झारखंडी आंदोलन पर उनकी टिप्पणियों से भेंट तो होती है। लगता है इस सिरमौर कथाकार के दिमाग के किसी कोने में जमीन मालिक होने का अहम भाव छूपा बैठा था जो बटाईदारों पर शाश्वत अविश्वास की ग्रन्थि से ग्रस्त था।



अगर मान भी लिया जाए कि 1954 के ‘मैला आँचल’ में वे आदिवासी समाज से अपरिचित हैं लेकिन बाद की रचनाओं में भी तो यह कमी दूर होती नहीं दिखती। उल्टे सहानुभूति का भाव भी तिरोहित होते दिखता है। वे 1966 के ‘कितने चौराहे’ में भी प्रेतनियों के नाच की तुलना संतालियों के ‘झुंड’ नाच से कर रहे हैं। इससे दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है?25



उनकी एक बहुचर्चित कहानी ‘तीन बिन्दियाँ’ में नेपाल की तराई के मधुमारा जंगल के किरातों, उनकी शिकार कला, शिकार किए गए हिरणों की लाशों पर किरातों के दल के नाच का वर्णन है - हा-हिरा-हा-हिरा-हा-हिर्र-र-र-र......-।”26




किरात आदिवासी समुदाय


अब ‘किरात’ सम्बोधन को ही लें। यह नेपाल के तराइयों में बसने वाले विभिन्न आदिवासी समुदायों यथा; लिम्बू, लेपचा, सुनुवार, याखा, राई, बहिन्ग, चामलिंग, कुलुंग आदि का एक कामन पुकारू नाम है। जैसे हमारे झारखंडी आदिवासी समुदायों का सामान्य पुकारू नाम ‘कोल’ है। आस्ट्रो-एशियाटिक और साइनो-तिब्बतन भाषा परिवारों के इन आदिवासी समुदायों से अपरिचित गैर-आदिवासी समाज अपने ब्राह्मण ग्रन्थों (यजुर्वेद, अथर्ववेद, किरातार्जुनीय, योगवशिष्ठ, महाभारत आदि) में उल्लेखित ‘किरात’ सम्बोधन से आज भी इन्हें सम्बोधित करता आ रहा है। स्वाभाविक है कि रेणु जी भी इसी गैर-आदिवासी समुदाय से आते हैं अतः वे भी ‘किरात’ ही सम्बोधित करेंगे। जबकि थोड़ी सी जिज्ञासा ही यह बता सकती थी कि कोसी प्रक्षेत्र में नेपाल के पूर्वी हिस्से से ले कर सिक्किम-दार्जिलिंग तक राई, लिम्बू, लेमचा और सुनुवार आदिवासी समुदाय ही मुख्य रूप से बसे हुए हैं।



आगे भी रेणु की इस ग्रन्थि की गांठ को खुलता हुआ नहीं पाते। ‘आदिम रात्रि की महक’ कहानी में भी कथाकार एक अनाथ किशोर, केवल खुराकी पर खटने वाले करमा के यौनाकर्षण के सूक्ष्म-सांकेतिक काव्यात्मक विवरणों तक अपने को सीमित रखता है। आदिवासी समाज से अपने अजनबीपन के कारण केवल संकेत भर दे पाता है कि “- घर संथाल परगना या राँची-हजारीबाग की ओर होगा, किसी गाँव में? करमा-पर्व के दिन जन्म हुआ होगा, इसीलिए नाम करमा पड़ा। माथा, कपाल, होंठ और देह की गठन देख कर भी...........।”


कथाकार का बस इतना भर ही परिचय है आदिवासी समाज से....... एक अलग ‘नस्ल’ का ‘अन्य’ प्राणी......।


‘तबे एकला चलो रे’ जैसी बेहतरीन कहानी में रेणु ने एक भैंसे किशन महाराज को नायक बनाया है जैसा कि प्रेमचन्द ने ‘दो बैलों की कथा में’ हीरा-मोती बैलों को। कथाकार पाड़ा से भैंसा बनने तक अपने इस प्रिय प्राणी के एक-एक मनोभावों के सूक्ष्म और चित्रात्मक विवरणों से कहानी को चुम्बकीय आकर्षण प्रदान करता है और अन्त में उसकी शहादत की मर्मस्पर्शी प्रस्तुति हमारी आँखें डबडबा देती है। लेकिन वही कथाकार अपने गाँव-जवार के बाहरी अलंग पर ‘चार पुश्तों’ से बसे आदिवासी समाज से किसी ‘किशन महाराज’ से भी ज्यादा अपरिचित क्यों है कि उस जैसा मुकम्मल एक भी आदिवासी चरित्र अपनी किसी भी रचना में गढ़ नहीं सका? क्या वह उन्हें ‘किशन महाराज’ से भी ज्यादा सबह्यूमन मानता रहा?



पंजाबी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और कथाकारा अमृता प्रीतम का रुहानी प्रेम में आप्लावित एक रुमानी उपन्यास है ‘डाक्टर देव’ जो सन् 1949 में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास के उत्तरार्द्ध में आदर्शवादी नायक डाक्टर देव बिहार के जंगल क्षेत्र, राँची-हजारीबाग में अस्पताल खोलने पधारे हैं। लेकिन इस रचना की एक विशेषता यह भी है कि अमृता प्रीतम ने उस वक्त भी यहाँ के आदिवासी समुदायों को जानने-समझने के लिए ठीक-ठाक शोध किया था। वे हमारे आदिवासी समुदायों के नाम से सुपरिचित दिखती हैं। वे अपने विवरण में माँझी, बिरहोर, उराँव, गंझू, तुरी आदि का उल्लेख करती हैं। उसके बाद ले दे कर वही रूढ़िबद्ध पूर्वाग्रह। उनके शिकार और नाच के विवरण यथा, “जंगलों में रहने वालों का एक प्रसिद्ध नृत्य झूमर है। किन्तु मांझियों में झूमर-नृत्य में एक विशेष आकर्षण होता है। पुरुष और स्त्रियाँ मिल कर दो दिन और एक रात लगातार नाचते रहते हैं ..........।”27



हालांकि यहाँ यह देखकर सुकून होता है कि पंजाब की कथाकार 1949 ईस्वी में झारखंडी नृत्य ‘झूमर’ की विशिष्ट प्रकृति से नाम सहित सुपरिचित है। किन्तु 1959 ई. में प्रकाशित ‘ठुमरी’ का बिहार के ऐसे अंचल का कथाकार जहाँ आदिवासी समुदाय सदियों-आदिकाल से बसे हैं उन ‘किरातों’ के विशिष्ट सामुदायिक नाम तक से परिचित नहीं है।



उल्टे आदिवासी समुदाय के प्रति रेणु की गहरी दुर्भावना “कलंक मुक्ति (दीर्घतपा)” में प्रकट होती दिखती है जब वे ‘बागे’ नामक आदिवासी पात्र को लड़कियों के दलाल के रूप में प्रस्तुत करते हैं। “................लाभ की योजना बतलाते समय चतुर-चालक आदिवासी-सन्तान बागे ने स्पष्ट शब्दों में कहा- मुझे अपने को ‘दलाल’ कहने में कोई शर्म नहीं। मैं इसी की कमाई खाता हूँ। दलाली मेरा पेशा है। ........28”



जबकि 9 मई, 1965 के उनके आलेख ‘झारखंड के प्रेत’ और 16 मई, 1965 के दूसरे आलेख ‘एक सुन्दर सम्मेलन’ से यह स्पष्ट है कि वे झारखंड आन्दोलन, मरांग गोमके जयपाल सिंह मुण्डा, उनकी पत्नी जहांनारा जयपाल सिंह और झारखंड पार्टी के 1952 से लगातार विधायक रहे सुशील बागे जिन्हें वे ‘मंत्रिमंडलीय झारखंडी’ कह रहे हैं से खूब परिचित थे। यह अलग है इन आलेखों में झारखंड अलग राज्य की अवधारणा और यहाँ के नेताओं के प्रति उनकी दृष्टि नापसन्दगी वाली है। लेकिन सुशील बागे के नाम से ‘बागे’ उपाधि ले कर एक लम्पट चरित्र की रचना करने वाली ग्रन्थि को कौन-सा नाम दिया जाए?



1957 में प्रकाशित अपनी दूसरी कालजयी कृति ‘परती परिकथा’ के नायक जितेन्द्र मिश्र पर उसके राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वी कुबेर सिंह के इशारे पर झूठे और अश्लील इल्जाम लगाने के लिए रेणु को आदिवासी युवती ही मिलती है। यथा “एक आदिवासी युवती केरकेटा ने उठ कर कहा- “जितन बाबू के खि़लाफ मुझे भी कुछ कहना है। लेकिन, बातें ऐसी है कि मुँह से बयान नहीं कर सकती। ...........केरकेटा ने लिख कर दिया- “जितेन्द्र ने मेरी इज्जत ली है।”29



केवल रेणु ही क्यों बस्तर से सुप्रसिद्ध कथाकार शानी अपने कालजयी उपन्यास ‘काला जल’ में शहीद बाधा धूर के नेतृत्व में 1910 ईस्वी में अंग्रेजों के विरूद्ध हुई प्रसिद्ध क्रान्ति ‘भूमकाल’ को किन शब्दों में याद कर रहे हैं उसे देखना भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, “............. अल्लाह-अल्लाह वे दिन खुदा किसी को न दिखाए-दुश्मन-से-दुश्मन को भी नहीं। सन् 1910 जैसे बस्तर में काल बनकर उतरा था, जिसकी चपेट में हजार-हजार लोग कुत्तों की मौत मारे गए। कैसा बलवा था कि बस्तर के मुट्ठी-भर नंगे-भूखे, जाहिल और तीर कमान वाले आदिवासियों ने अंग्रेजी शासन के छक्के छुड़ा दिए।”30



कथित प्रगतिशील वरिष्ठ कथाकार शानी की अमर कृति ‘काला जल’ के उपर्युक्त उद्धरण में ‘नंगे-भूखे’, ‘जाहिल’ शब्दों पर गौर करने की आवश्यकता है। इस रचना के पृष्ठ 63 से 65 तक ‘भूमकाल’ के कथित आतंक का विवरण जिस अभिजन, हाकिम-हुक्काम, साहबी नजरिये से प्रस्तुत किया गया है, उससे गुजरने पर क्षण भर को यह सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि ये हमारे सिरमौर पुरखे कथाकार जिन्होंने अपनी कालजयी-अमर कृतियों से हिन्दी साहित्य को सम्पन्न किया क्या सचमुच अपने अन्तर्मन से भी प्रगतिशील, समतावादी, समाजवादी, वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पन्न थे?



22 नवम्बर, 1971 के चन्दवा-रूपसपुर नरसंहार ने भले हमारे इस सिरमौर कथाकार की लेखनी पर असर न डाला हो किन्तु उसके बाद जिला पुरेनिया ने देश-विदेश के कई समाजशास्त्रियों, मानविकी के शोधार्थियों का ध्यान खींचा। 80 के दशक में समाजशास्त्री आनन्द चक्रवर्ती, पेनसिल्वानिया के लाक हेवन विश्वविद्यालय के क्रिस्टोफर वी. हिल, आस्ट्रेलिया के स्टीफेन हेनिंन्घम, मनोषी मित्रा- टी. विजयेन्द्र आदि ने पूर्णिया की परिस्थितिकीय भिन्नता, कोसी नदी निरन्तर पश्चिम की ओर खिसकती धारा का प्रभाव एवं संताल बटाइदारी आन्दोलन और मुसहरों के संत और सती के नेतृत्व में निलहों के खिलाफ आन्दोलन को दर्ज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।



कहते हैं कि हिन्दी के महान साहित्यकार और विधान सभा के पूर्व अध्यक्ष बाबू लक्ष्मी नारायण सिंह सुधांशु की 17 अप्रैल, 1974 में स्वर्गवास के पश्चात् (संतालों के नरसंहार के उनके कुकृत्य को भूल) कतिपय साहित्यकार बन्धु पटना के काफी हाउस में उनकी स्मृति-सभा के आयोजन पर विचार कर रहे थे तो वहाँ उपस्थित रेणु जी ने उन्हें झिड़क दिया था।



न जाने क्यों मुझे लगता है कि अपनी कहानी ‘संवदिया’ के पात्र हरगोबिन की तरह अपनी बड़ी बहू पूरैनिया की कई अनकही कथा कहने में रेणु संकोच करते रहे।



रेणु के नारी चरित्रों की विवशता


रेणु के यहाँ प्रेमचन्द की रचनाओं जैसी जुझारू स्त्री-पात्र कम ही दिखती हैं जो लम्पट ब्राह्मण पुरूष के मुँह में हड्डी ठूस कर उसका ब्राह्मणत्व झाड़ सके। अगर ‘परती परिकथा’ की मलारी, नैना जोगिन की रतनी और जलवा की फातिमा दी जैसे अपवाद को छोड़ दे तो उनकी अधिकांश स्त्री-पात्र यथास्थिति को स्वीकार करती चलती हैं। ‘मैला आंचल’ में ‘लक्ष्मी दासिन’ का मठ में छोटी उम्र से यौन शोषण होता रहता है किन्तु समूचे गाँव ने मानो कान में तेल डाल लिया है। लछमी दासिन ने भी मानों इस नियति को स्वीकार कर लिया हो। हालांकि इसी उपन्यास में ‘फुलिया’ जैसी स्त्री-चरित्र के विकास में रेणु थोड़ा साहस दिखाते हैं। वह अपनी इच्छा से सहदेव मिसिर खलासी जी और फिर पैटमान जी का एक चयन करती है। किन्तु फिर एकाएक रचनाकार का आर्यसमाजी संस्कार जाग उठता है और फुलिया की देह में पाप स्वरूप गरमी का रोग लग जाता है। इस उपन्यास के दोनों प्रमुख महिला चरित्र कमली और ममता मानो केवल डा. प्रशान्त के चरित्र को उभारने के लिए पेन्टिंग के बैकग्राउन्ड का धूसर रंग भर बन कर रह गई हैं। वही हाल ‘परती परिकथा’ में ताजमनी और इरावती का है।



‘टेबुल’ कहानी में हमारा कथागायक न जाने चेतन-अवचेतन की किस अभिप्रेरणा से मिस दुर्बा दास की वस्तुरति (Fetishism) जैसे यौन-विचलन को इस इस संश्लिष्टता के साथ चित्रित करते हैं कि उसका पर्वजन हर सीमा पार करता हुआ दिखता है और वह पाठक को एक परफेक्ट खलनायिका दिखती है।



कथाकार को श्रमशील-दलित महिला पात्रों की देह की दुर्गन्ध से बहुत समस्या है। “नैना जोगिन” का एक विवरण देखिए, “मुझे अचानक रमेसर की माँ की गन्दी, हल्दी, प्याज-लहसुन, पसीने-मैल की सम्मिलित गंध भरी साड़ी की महक लगी। ‘अग्निखोर’ में कथाकार सूतपुत्र की माँ आभा रानी के कुछ यूँ विवरण देता है, “जी! बदबू! उतना सुन्दर सलोना मुखड़ा। सुरीली आवाज और मधुर कीर्तन और वैसे मुँह में सड़ी हुई गंध? ओह! आज भी याद करके वोमिट हो जाता है।”


“प्राणों में जुते हुए रंग” में मगहिया डोम जाति की स्त्रियों का चित्रण रेणु कुछ यूँ करते हैं,” औरतें और बच्चे गाँव में भीख मांगते हैं, जवान औरतें बुरा पेशा करती हैं (पुलिस मित्र की डायरी का हवाला)।........



“गन्दी घाघरी वाली औरतें भीख मांगती दिखाई पड़ीं। दूसरी उधर चिल्ला रही थी भीख देबा कि यहीं दरवज्जे पर पेशाब कर दीं।”


‘रेणु संचयिता’ के सम्पादक सुवास कुमार के अनुसार, “ ‘मैला आँचल’ और ‘परती: परिकथा’ जैसी दो महान कथाकृतियाँ प्रस्तुत करने के पश्चात् रेणु अपने समकालीन समाज में नारी की स्थिति को ले कर ‘पंचकन्या’ के मिथक को नए ढंग से रचना चाहते थे। ...........‘पंचकन्या’ की योजना भले ही अधूरी रह गई हो मगर रेणु ने ‘दीर्घतपा’, ‘जुलूस’ और ‘पल्टू बाबू रोड’ की तीन नायिकाओं (बेला, पवित्रा और बिजली) के जीवन को केन्द्र में रख कर एक नारी-विषयक ट्रायलाजी अथवा कथात्रयी अवश्य प्रस्तुत कर दी।”31



‘भारतीय संस्कृति कोश’ के अनुसार, “ ‘आहिनिक सूत्रावली’ में एक श्लोक आया है जिसमें अहिल्या, मंदोदरी, तारा, कुंती और द्रौपदी का उल्लेख है। इस श्लोक का जिस रूप में प्रचलन मिलता है, उसके अनुसार से पाँच कन्याएँ हैं जिनका नित्य स्मरण करने से पापों का नाश होता है।”32


इन मिथकीय ‘पंचकन्याओं’ में एक तथ्य सामान्य है कि इन पाँचों का एक से ज्यादा पुरुषों से दैहिक सम्बन्ध है भले अहिल्या के साथ इन्द्र ने धोखा दे कर सम्बन्ध बनाया हो। रेणु जी उल्लेख्य ‘कथात्रयी’ का ‘मूलगैन’ भी स्त्री-पात्रों की देह और उसके प्रति लिप्सा है।



‘जुलूस’ पवित्रा और पूर्वी बंगाल के उसके शरणार्थी साथियों की बहुआयामी संघर्ष-कथा के साथ-साथ तालेवर गोढ़ी, पंडित रामचन्द्र चौधरी, जयराम सिंध की यौन-लिप्सा का विशद् विवरण भी प्रस्तुत करता है। तालेवर गोढ़ी की भैरवियाँ, यथा; हरिमाया, गुणमंती, रेशमी, सिंगारों, गौरी, पहलवान रनवीर सिंध की पुत्र-वधुएँ आदि उक्त यौन-लिप्सा के अनाचारी कार्य-व्यापार की उपकरण मात्र हैं। किन्तु कथा यह समझाना चाह रही है कि ये पात्राएँ स्वार्थ-केन्द्रित होने के कारण नैतिकता का आग्रह नहीं मानती। उन्होंने अपनी भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए अपनी देह को माध्यम बना लिया है। रचना के उत्तरार्द्ध में नायिका पवित्रा और तंत्र-मंत्र साधना के माध्यम से वासना-पूर्ति में निरन्तर डूबे खल पात्र तालेवर गोढ़ी के बीच रूमानी सम्बन्ध विकसित होता दिखा कर रेणु क्या सिद्ध करना चाह रहे यह पाठक को समझ में नहीं आता। यहीं इस रचना की लय टूटती है और वह बिखर जाती है।



‘पल्टू बाबू रोड’ उपन्यास के केन्द्र में फूलबागान का राय परिवार और भोलाशाही का परिवार है। सूत्रधार पल्टू बाबू एक धूर्त और यौन-कुंठित व्यक्तित्व है। उनके इशारे पर चलने वाली राजनीति, व्यापार नीति, समाज नीति सब के सब भ्रष्ट और कुंठित होती जाती है। रायपरिवार का मुखिया लट्टू बाबू, पल्टू बाबू का शिष्य है जिसकी नजर में स्त्री मात्र देह है बस भोग्या। पत्नी, बेटी, भतीजी आदि सम्बन्धों का कोई अर्थ नहीं। अतएव वह अपनी व्यापार-वृद्धि के लिए किसी के भी सामने भतीजी बिजली की देह परोसता चलता है।



भोलाशाही परिवार की शिक्षित अधिवक्ता कन्या कुंतला अपने प्रतिशोध में पचासी वर्ष के पल्टू बाबू को विवाह के लिए चुनती है। विवाह की रात पल्टू बाबू की रहस्यमय मौत दिखा कर कथाकार उनके राह की व्यर्थता की ओर इशारा करना चाहता है किन्तु पूरी रचना पर स्त्री की देह और पुरुषों की कुंठाएँ कालिमा बन कर छाई रहती हैं।



‘दीर्घतपा’ में बेला गुप्ता की नियति के माध्यम से कथाकार घर-चारदीवारी के बाहर पैर रखने वाली लगभग सभी स्त्री चरित्रों की देह और चारित्रिक अशुचिता के बहाने एक पितृसत्तात्मक अवधारणा को ही स्थापित करता हुआ दिखता है। बेला गुप्ता, रमला बनर्जी, विभावती के बरक्स मुख्य खलपात्रा के रूप में श्रीमती ज्योत्सना आनन्द को गढ़ कर कथाकार उसी प्रसिद्ध पुरुषवादी उक्ति को प्रमाणित करने का उपक्रम करता है कि ‘स्त्री ही स्त्री का शोषण करती है’। यौन कुंठा और स्त्री-देह वर्णन में लेखनी कब वीभत्स रस में डूब जाती है संभवतः रचनाकार को भी इसका आभास नहीं होता, यथा; “बागे ने तिपाही पर प्याली रख दी और उसने दोनों हाथ बढ़ा कर श्रीमती आनन्द को उठाना चाहा, लेकिन श्रीमती आनन्द अपने दोनों हाथों को उसके गले में डाल कर लटक गयी। उसकी खुली अँगिया से उसकी ढ़ीली छातियाँ खिसक कर लटक गयीं। ..........बिनाई की थैली से भूरे रंग की ऊन के दो गोले बाहर लटक गये, मानो।”33



Virginia Woolf


वर्जीनिया वुल्फ ने फैलोसेंट्रिक कार्य-व्यापार पर अपनी पुस्तक ‘अपना एक कमरा’ में प्रकाश डाला है। उनके अनुसार “लेखक अपने लिंग से उपरत हो कर प्रायः नहीं लिख पाते हैं। निःसंदेह लिंग किसी भी रचनाकार के अनुभव और स्मृतियों को रचता है...... ।”



न जाने हमारे इस महान पुरखा कथाकार के मन के किस कोने में आभिजात्य संस्कार, एक पितृपुरूष और एक भूमालिक बैठा था जिसने अपनी रचनाओं में आदिवासी और स्त्री चरित्रों के चित्रण में अपनी समाजवादी-प्रगतिशीलता और समता भाव को किसी अजाने चौराहे पर छोड़ दिया था।




रेणु की रचनाओं में मुसलमान


रेणु के जिला पूरेनिया के आदि वशिन्दों में मुसलमान भी रहे हैं। आई. सी. एस., एल. एस. एस. ओ‘मेली 1911 के अपने गजेटियर में यह सूचित कर रहे हैं कि महानन्दा के पूर्वी इलाके खास कर किशनगंज में मुसलमानों की आबादी कुल जनसंख्या की तीन चौथाई है। इस गजेटियर के पृष्ठ 58 में धार्मिक विश्वासों की चर्चा करते हुए ओ’मेली बतलाते हैं कि हर गाँव में काली स्थान है और हिन्दू और मुसलमान दोनों मिल कर काली माँ का त्योहार मनाते हैं। मुस्लिम घरों की नई ब्याही बहू के लिए भी भगवती स्थान जा कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना जरूरी था। मुसलमानों के लिए खुदा का स्थान और काली स्थान दोनों बराबर का महत्व रखता है। पृष्ठ 61 में शेख जाति का विवरण देते हुए भी ओ‘मेली यह उल्लेख करना नहीं भूलते कि अपने पूर्वजों (राजवंशी-कोछ) की धार्मिक परम्परा का पालन करते हुए विषहरी माई के प्रति भी श्रद्धा भाव रखते हैं।



श्री पी. सी. राय चौधरी 1963 के अपने पूर्णिया गजेटियर के पृष्ठ 166 में जिला के धार्मिक जीवन पर प्रकाश डालते हुए यह सूचित करते हैं कि “हिन्दू और मुसलमानों के सदियों से साथ रहने का उनके धार्मिक व्यवहारों पर प्रभाव पड़ा था। बहुत सारे त्यौहार वे साथ-साथ मनाते थे। मुहर्रम का तजिया हिन्दुओं के कन्धे पर निकलता था तो दुर्गा पूजा का अखाड़ा मुस्लिम युवकों से भरा रहता था। एक गहरा भाईचारा दोनों कौमों के बीच दिखता था जो कभी-कभी साम्प्रदायिक घटनाओं से दुष्प्रभावित तो होता था किन्तु उसका असर बहुत दिनों तक नहीं रहता था।”



लेकिन रेणु की रचनाओं में न तीन-चौथाई मुस्लिम-पात्र दिखते हैं और न हिन्दुओं के कन्धे पर तजिया दिखता है और न मुस्लिम युवक दशहरे के अखाड़ा में लाठी-गदका भाँजते चित्रित होते हैं। उनकी कहानी ‘रसूल मिस्त्री’ एक अपवाद है जहाँ रसूल मियाँ के अदभुत उद्दात-परदुख कातर चरित्र से पाठक की मुलाकात होती है और मन में ठंडे पानी का झरना बहने लगता है। इसे छोड़ कर जो अन्य एक-दो जो मुस्लिमों का चरित्र चित्रण है उनमें न जाने क्यों हमारा कथाकार पूर्वाग्रह ग्रसित दिखता है।



आइये! ‘परती परिकथा’ के समसुद्दीन मीर से मिलते हैं, “दुलारीदाय वाली जमा में मुसलमान टोली के मीर समसुद्दीन ने तनाजा दिया है। ढ़ाई सौ एकड़ प्रसिद्ध उपजाऊ जमीन की एक चकबन्दी और पाँच कुण्डों में तीन पर पन्द्रह साल से आधीदारी करने का दावा किया है उसने।



समसुद्दीन मीर मुसलमान टोली का मुखिया है। स्वराज होने से पाँच दिन पहले तक अपने चेले-चाँटियों के साथ ढ़ोलक पर कव्वाली गाता था- कांगरेसी मुस्लमाँ मक्कार है’ गद्दार हैं, काफिरों के चन्द टुकड़ों पर पले..........।’ लेकिन, स्वराज्य होते ही- रातों रात सिर्फ परानपुर गाँव की मुसलमान टोली में ही नहीं, आसपास के गाँवों के मुसलमानों में भी एक ऐसी कानाफूसी का प्रचार उसने किया कि एक तिहाई मुसलमानों ने पाकिस्तान भाग जाने में ही अपना कल्याण समझा। समसुद्दीन कहता है- “जो रह गये हैं, सब मीर समसुद्दीन के साथ नमाज पढ़ते हैं। जो मीर समसुद्दीन कहेगा, वही बाकी मुसलमान भी दुहरायेंगे।



..........राजनीतिक लंगी लग गई मीर समसुद्दीन को और तीसरे ही दिन मीर समसुद्दीन कांग्रेसी हो गया। थाना कमिटि का मेम्बर है वह। एम. एल. ए. या एम. एल. सी. नहीं बनाये, कोई बात नहीं, सर्वे में पैरवी करके जमीन दिलवा देना कांग्रेस का कर्तव्य है।”34



कुछ इसी तरह का परिवेश ‘जलवा’ कहानी में भी देखने को मिलता है। फातिमा दी का अत्यन्त साहसी, देशभक्त, जुझारू-आदर्शवादी चरित्र को जिस प्रकार रेणु ने उभारा है कि वे पाठकों के दिलों-दिमाग पर छा जाती हैं। वे एक अमर चरित्र बन गई हैं। इसके लिए इस लेखनी को सौ-सौ सलाम। किन्तु फातिमा दी के अलावे इस कहानी में जो अन्य मुस्लिम चरित्रों का जो चित्र उभरता है वह कुछ समसुद्दीन जैसों का ही है जो स्वराज्य के पहले मुस्लिम-लीग के साथ है और आजादी के बाद भी राष्ट्रवादी मुसलमानों को काफिर-गद्दार समझते हैं। कहानी के अन्तिम भाग में टाउन-हाल में ‘नेशनलिस्ट-मुस्लिम-कान्फ्रेस’ का हिंसक विरोध का विवरण है जिसका नेतृत्व ‘कुलीन मुस्लिम नेताओं के साहबजादे’ और ’बड़े अफसरों के लड़के’ कर रहे थे। फातिमा दी को लगा कि “हम फिर सन् 1947 साल में लौट गए हैं। हवा में फिर वही जुनून, वही नारे, वही नज्जारे, वही चेहरे!!” कान्फ्रेस पर पत्थर बरसाये जा रहे हैं। डिलीगेट्स की खुले आम पिटाई होती है। पराकाष्ठा तो यह है कि बीच बचाव में फातिमा दी जैसी स्वतंत्रता सेनानी सामने आती हैं तो कट्टरवादी शोहदे न केवल उनकी पिटाई करते हैं, उनके कपड़े फाड़ दिये जाते हैं, हाथ तोड़ दिया जाता है और अन्त में चेहरे पर तेजाब डाल दिया जाता है। लगता है कथाकार साम्प्रदायिक मुस्लिम राजनीति की कलुष कथा कहने के लिए इससे ज्यादा और क्या विवरण दे सकता था।



और अन्त में ‘तीसरी कसम’ के “दि रौता संगीत नौटंकी कम्पनी” के नौटंकी वाले दृश्य को याद किया जाए।........ हे-ए, हे-ए, हीराबाई शुरू में ही उतर गई स्टेज पर। और उसे रण्डी-पतुरिया पुकारते सुन कर हिरामन अपने साथियों को एक-एक की गरदन उतारने का आह्वान करता है। “........लाल मोहर दुआली से पटापट पीटता जा रहा है सामने के लोगों को। पलट दास एक आदमी की छाती पर सवार है- ” साला, सिया सुकुमारी को गाली देता है, सो भी मुसलमान हो कर?



दरअसल फातिमा दी वाली कहानी ‘जलवा’ में ‘नेशनालिस्ट-मुस्लिम-कान्फ्रेन्स’ के ख़िलाफ़ हिंसक प्रदर्शन में व्यस्त ‘कुलीन मुस्लिम नेताओं के साहबजादों’ और ‘बड़े अफसरों के लड़कों’ से आपकी भेंट रेणु जी के 5 नवम्बर, 1965 में प्रकाशित आलेख ‘एक पाकशाला में एक पाक-नापाक बूचड़’ में भी होती है।35



इस आलेख के उत्तरार्द्ध के ‘एक पुरदर्द दास्तान’, ‘फिर वही नजारे, फिर वही जनून’ तथा ‘शिक्षित और कुलीन’ उपशीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत विवरणों से गुजरेंगे तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि 8 अगस्त, 1965 को पटना के अंजुमन-इस्लामिया हाल में आयोजित ‘नेशनलिस्ट मुस्लिम कन्वेंशन’ में शरीक होने वाले कार्यकर्ताओं-जनप्रतिनिधियों पर जो जानलेवे हमले हुए, उसी हृदयविदारक दृश्यों को यादगार बनाने के लिए रेणु ने ‘जलवा’ कहानी का सृजन किया जो अगस्त, 1966 में प्रकाशित हुई।



लेकिन जिन्ना के साथ खड़े लीगी मुसलमानों एवं कांग्रेस-गांधी के साथ खड़े नेशनलिस्ट मुसलमानों के बीच की लड़ाई तो पुरानी थी। आज़ादी मिलने के बाद पाकिस्तान न जा सके लीगी मुसलमानों ने रातों-रात अपनी टोपियाँ बदल ली थीं। यह सर्वज्ञात सच्चाई थी जो 1957 में प्रकाशित ‘परतीः परिकथा’ में मीर समसुद्दीन के कार्य-व्यापार के रूप में सामने आती है।



सुहैल अज़ीमाबादी


किन्तु रेणु जी की लेखनी ने ही तो हमारा परिचय ‘सुहैल अज़ीमाबादी’ जैसे ‘तरक्कीपसन्द मशहूर लेखक और पत्रकार’ से करवाया। देश के बँटवारे के दौरान......... दंगा......... मार काट में फिरकापरस्त हिन्दुओं ने जिनका सब कुछ लूट लिया लेकिन उनकी आदमियत को नहीं लूट सके।36



‘एक था फकीर’ रेखाचित्र मजहर-उल-हक जैसे महान स्वतंत्रता-सेनानी से आत्मीय बनने का अवसर देता है जो अपनी उद्दातता से जीते-जी मिथक बन गए। लोकगीतों-लोकगायकों के कंठों में बस गए।37



दिक्कत यह है कि जिस प्रकार रेणु जी द्वारा मुस्लिम लीगी-फिरकापरस्तों के कुकर्मों को ‘जलवा’ जैसी कहानी के माध्यम से बार-बार रेखांकित किया गया। उसी प्रकार सुहैल अजीमाबादी या फकीर मज़हर-उल-हक जैसे उद्दात चरित्र उनकी किसी रचना में नायक के रूप में क्यों नहीं दर्ज होते? भगवती स्थान पर आशीर्वाद पाती मुस्लिम बहुएँ, पीर बाबा की मज़ार पर शीश झुकाती हिन्दू नारियाँ, पूर्णिया के ग्रामीण मुस्लिम समाज में बरसों काली और विषहरी माई के प्रति श्रद्धाभाव रेणु की अथाह सांस्कृतिक-स्मृति का हिस्सा क्यों नहीं बन सके?



“श्रेष्ठ कलारूपों और परफेक्शन (पूर्णता) के बीच की दूरी सौतियाडाह से भरी होती है”



अगर आदिवासी-ग्रन्थि, स्त्री देह की आदिम महक-मीठे पाप जैसे भाव, ‘विकास’ के प्रति रुमानियत जैसे कतिपय दृष्टिदोषों को अपवाद माने तो फणीश्वरनाथ रेणु की जादूई लेखनी ने हिन्दी कथा-साहित्य के ग्राफ को प्रेमचन्द के बाद एक अपूर्व ऊँचाई तक पहुँचा दिया। उन्होंने अपनी ‘आंचलिकता’ में देश को विन्यस्त किया और उसके भीतर कहानी की खोज कर एक नई परम्परा की शुरूआत की। उनकी प्राणवन्त भाषा जिसने अचाक्षुष बिम्बों से आप्लावित, गतिमान, त्रिआयामी, सूक्ष्मतम भाव-विवरण प्रस्तुत कर पाठकों को रूप, नाद, रस, गंध, स्पर्श का अहसास करा पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को उद्वेलित करने में जिस प्रकार सफलता पाई, वह रेणु के पहले हिन्दी-साहित्य में संभव नहीं हुआ था। ‘गोदान’ के बाद ‘मैला आँचल’ ने हिन्दी कथा-साहित्य को जो समृद्धि प्रदान की उसने हमारे मन को अपने इस पुरखे साहित्यकार के प्रति सम्मान और गर्व से भर दिया। उनकी गप्प रसाती-गल्प रचाती विश्वमोहिनी कहानियाँ जिनके अपूर्व शिल्प सौन्दर्य का अनुकरण कर कम से कम दर्जन भर कथाकारों ने हिन्दी साहित्य को कई अविस्मरणीय कहानियाँ दीं। साथ ही सुश्री कैथरीन हैन्सन की इस स्थापना से हम सहमत हैं कि हमारे इस कथागायक ने यूरोपीय नावेल के जानर (Genre) के देशीकरण में सफलता पाई। उन्होंने अपने कहन, अपनी विशिष्ट शिल्प से ‘काल’ की एकरैखीय अवधारणा को बदल कर उसे भारतीय परम्परा के निकट लाने का प्रयास किया। एक कहानी से दूसरी कहानी उसके गर्भ से तीसरी कहानी, इस प्रकार कहानी की अनंतता की ‘कथासरित्सागर’ की भारतीय परम्परा को पुनर्नवा करने की जिम्मेवारी रेणु उठाते हैं और परती परिकथा में पूर्णतया सफल होते हुए भी दिखते हैं। ऐसे कालजयी रचनाकार के कृतित्व-व्यक्तित्व के प्रति नतमस्तक होना तो बनता है। वैसे न तो इन्सान पूर्ण (परफेक्ट) हो सकता है और न उसके कला रूप। वैसे भी परफेक्शन और श्रेष्ठ कलारूप के बीच सदा से छत्तीस का आँकड़ा रहा है।



ग्रन्थ सूची:



1. झा, सदन : ‘देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति’ का अध्याय ‘समय के बदले जगह और राष्ट्र के बदले प्रान्त: रेणु और आंचलिक आधुनिकता, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.



2. तिवारी, नित्यानन्द : बीसवीं शती: हिन्दी की कालजयी कृतियाँ पृ॰ 175-176


3. झा, सदन : तदैव


4. हैन्सन, कैथरीन : रेणु रिजनलिज्मः लैंग्वेज एंड फार्म द जर्नल आफ एशियन स्टडीज, वौल्यूम 40, न. 2 (फरवरी, 1981) पृ॰ 273-294


5. हैन्सन, कैथरीन : उपर्युक्त


6. रेणु, फणीश्वरनाथ : चुनी हुई रचनाएँ, विषयान्तर पृ॰ 174 वाणी प्रकाशन


7. डा. रविभूषण : “तीसरी कसम: स्वप्न भंग और लोक संस्कृति की विदाई”


8. सम्पादकः सुवास कुमार : रेणु संचयिता, पृ॰ 21, महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी वि॰वि॰. मेधा बुक्स, नई दिल्ली -110022


9. कौल हरिकृष्ण : फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियाँ: शिल्प और सार्थकता, पृ॰ 54-55


10. स्मिथ, डेविड लिविंगस्टोन : लेस दैन ह्यूमन, पृ॰ 305


11. तदैव : तदैव, पृ॰ 296-297


12. तदैव : तदैव, पृ॰ 301


13. तदैव : तदैव, पृ॰ 30-31


14. स्मिथ, डेविड लिविंगस्टोन : लेस दैन ह्यूमन, पृ॰ 84


15. त्रिपाठी, विश्वनाथ : कुछ कहानियाँ: कुछ विचार, पृ॰ 57-58


16. रेणु, फणीश्वरनाथ : परती परिकथा, पृ॰ 232


17. तदैव : तदैव, पृ॰ 233


18. दुबे, विकास : डेवलप्मेंट एंड डिपेन्डेन्सी इन बाक्साईट माइन्स, अध्याय - 2, पृ॰ 1-3


19. हेमन्त, धनश्याम : जब नदी बँधी, पृ॰ 8


20. तदैव : तदैव, पृ॰ 8,11


21. तदैव : तदैव, पृ॰ 21


22. हेमन्त, धनश्याम : जब नदी बँधी, पृ॰ 16


23. चौधरी, सुरेन्द्र : इतिहासः संयोग और सार्थकता, खंड 1, पृ॰ 17


24. रेणु, फणीश्वरनाथ : मैला आँचल, पृ॰ 187


25. रेणु, फणीश्वरनाथ : कितने चैराहे, रेणु रचनावली, खंड-3, पृ॰ 256


26. रेणु, फणीश्वरनाथ : ठुमरी, पृ॰ 146-147


27. प्रीतम, अमृता : डाक्टर देव पृ. 130


28. रेणु, फणीश्वरनाथ : कलंक मुक्ति पृ. 45


29. तदैव : पृ॰ 355


30. तदैव : पृ. 63


31. सम्पादकः सुवास कुमार : रेणु संचयिता, पृ॰ 28,


महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी वि॰वि॰,


मेधा बुक्स, नई दिल्ली -110022


32. शर्मा, लीलाधर : पर्वतीय, पृ॰ 502


33. रेणु, फणीश्वरनाथ : रेणु रचनावली, खंड-3, पृ॰ 4-7


34. रेणु, फणीश्वरनाथ : पृ-31-32


35. रेणु, फणीश्वरनाथ : रेणु रचनावली, खंड-4, पृ॰ 330-335


36. तदैव : तदैव, खंड-5, पृ॰ 27-28


37. तदैव : तदैव, खंड-5, पृ॰ 180-182


38. नागार्जुन : ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’-नागार्जुन रचनावली खंड 2/96-97



संताल बटाईदारी आंदोलन से सम्बद्ध निम्न शोध अध्ययनों को भी देखे जाने की आवश्यकता है जिनके कतिपय तथ्यों का उल्लेख इस आलेख में है-



Ø Anand : The unfinished struggle of Santhal Bataidars in Purnea District, 1938-42, Economic and Political Weekly ,Vol XXI ,No 42 , October 18, 1986 and Vol XXI, No 43, October 25, 1986

Ø Henningham , Stephen : Agrarian Relations in North Bihar : Peasant Protest and the Darbhanga Raj ,1919-20 , The Indian Economic and Social History Review, Vol. XVI ,1

Ø Hill ,Christopher V. : Water and Power : Riparian Legislation and Agrarian Control in Colonial Bengal

Ø Hill ,Christopher V. : Pieces of Puzzle : Santhal Bataidars in Purnia District , Economic and Political Weekly , March 19, 1988

Ø Hill ,Christopher V. ;Santhal Bataidars in Purnia District : Ecological Evolution of Sharecropping System , Economic and Political Weekly, August 22, 1987

Ø Henningham ,Stephen : Autonomy and Organisation : Harijan and Adivasi Protest Movement, Economic and Political Weekly, July 4 , 1981

Ø Mishra , Dinesh Kumar : The Bihar Flood Story , Economic and Political Weekly, August 30, 1997