रेत का घरौंदा / तेजेन्द्र शर्मा
आज फिर वही हुआ। यह मेरे साथ ही क्यों होता है? ...जीवन के कटु अनुभवों से भी कुछ नहीं सीख पाई हूँ मैं। बार-बार जीवन से नई उम्मीदें लगा बैठती हूँ। जब-जब उम्मीदों की चादर में छेद हो जाते हैं, एक बार फिर रेत के घरौंदे बनाना शुरू कर देती हूँ ...यह भी भूल जाती हूँ कि प्रारब्ध कितनी बेरहमी से रेत के घरौंदों को कुचल देती है। नेल्सन से नरेन तक का सफ़र मेरी पिछली दस वर्षीय ज़िन्दगी का लेखा-जोखा है। नेल्सन ...। जीवन से भरपूर, जीवन के छोटे से छोटे पहलू को भी जीना जानता था। ...पैसे की कोई कमी नहीं थी ...पाँच बेड़रूम का घर, लन्दन शहर के बीचोबीच। ...बेडरूम की खिड़की में से ही पूरा ग्रीन पार्क दिखाई देता था ...गर्मी की दोपहरी में चमकता, हरियाली से भरपूर, ग्रीन पार्क। कितनी यादें जुड़ी हैं इस पार्क से भी। तब मैं उन्नीस की रही होऊँगी या फिर बीस की ...वैसे इससे क्या फ़र्क पड़ता है।
नेल्सन कहीं भी अपने प्यार का इजहार करने में शर्म महसूस नहीं करता था...फिर चाहे पार्क हो या सड़क। ... लंदन में पैदा होने और गोरी चमड़ी का मालिक होने का एक यह भी लो लाभ है। ...मैं ...मैं पंजाब के एक छोटे से गाँव में जन्मी। ...अब तो सिर्फ़ नाम ही याद है ...नकोदर ...ना जाने कैसा लगता होगा देखने में। कुछ महीनों की ही तो थी जब बाऊजी और बीजी मुझे और मेरे दोनों भाइयों को लेकर लन्दन चले आये थे। ...दोनों भाई उम्र में मुझसे काफ़ी बड़े हैं। बड़ा महेश तो दस वर्ष बड़ा है और सोमेश उससे तीन वर्ष छोटा है।
ज़ाहिर है घर की सबसे छोटी सदस्या मैं ही थी। सबका प्यार जैसे मेरे लिए आरक्षित था। सबकी लाड़ो थी मैं। ...घर में शायद ही किसी को याद होगा कि मेरा कोई नाम भी है ...सब मुझे लाड़ो ही कहकर बुलाते थे। दीपा तो किसी को याद ही नहीं रहता था।
बहुत सी बातें को याद ना रखना अच्छा रहता है। ...अब नेल्सन को मिलने से पहले मेरे जीवन में ऐसा क्या था जिसे में अपनी याद में सहेज कर रखूँ ...हाँ, उन दिनों बहुत अच्छा लगता होगा कि बाऊजी और बीजी अपनी लाड़ो की ज़िद पूरी करने के लिए कैसे आपस में झगड़ पड़ते थे। पर बचपन के साथ ही यह यादें भी उड़न छू हो गईं। ...भाई कैसे अपनी बहन के नाज़-नख़रे उठाते थे, मेरे लिए यह भी इतिहास की बात हो गई है। ...आज की हालत तो यह है कि उन्हीं भाइयों की शक्ल देखे भी वर्षों बीत गये हैं।
समय को रोककर, सहेजकर अल्मारी में बन्द करके तो रखा नहीं जा सकता। नरेन हमेशा जीवन की व्याख्या बड़े खूबसूरत ढंग से करता है। कहता है, “इंसान का जीवन एक पहले से रिकार्ड किये वीडियो कैसेट की तरह होता है। वी.सी.आर. में केवल ‘प्ले’ करने का बटन है। ‘रिवाइण्ड’ और ‘फास्ट फारवर्ड’ के बटन हैं ही नहीं। जीवन जैसा है वैसा ही जीना पड़ता है। आप सुहाने पलों को ‘रिवाइण्ड’ करके दोबारा नहीं जी सकते और दुखी पलों को ‘फास्ट फारवर्ड’ करके आगे नहीं जा सकते। मनुष्य यदि इतना ही समझ ले तो अपनी परेशानियों से अधिक परेशान नहीं होगा और ज़िन्दगी को जीना सीख लेगा।”
मुझे नरेन की यह बात बहुत अच्छी लगती है कि जीवन के हर पहलू के लिए तर्क खोज लेता है। और यही बात सबसे अधिक बुरी भी लगती है कि जीवन उसके लिए तर्क-वितर्क ही बनकर रह गया है। जीवन जीना जैसे उसको भूल ही गया है।...उसने जैसे दिल से जीना बन्द कर दिया है...दिमाग से जीना शुरू कर दिया है।
उसके पास इसके लिए भी तर्क है। कहता है दिल का काम है सिर्फ़ धड़कना...सोचना नहीं। भावना और तर्क दिमाग के ही दो रूप हैं। हर व्यक्ति दिमाग से ही सोचता है और जीता है।...किसी के दिमाग में भावनाएँ तर्कशक्ति पर हावी हो जाती हैं, तो वोह इंसान भावुक बन जाता है, तर्कशक्ति को तिलांजलि दे देता है।...जबकि किसी के दिमाग में तर्कशक्ति भावनाओं से अधिक बलशाली हो जाती है, तो भावुकता उस व्यक्ति का साथ छोड़ जाती है और वह अपने जीवन का संचालन तर्क से करता है। दिल से जीना केवल कमजोर आदमियों और शायरों की कोरी बकवास है।”
नेल्सन तो दिल से जीता था। चाहे नरेन मेरी इस बात को माने या ना माने। नेल्सन खुलकर ठहाका लगाता था। कम से कम इस मामले में तो बिल्कुल भी अंग्रेज नहीं था। दिल का सच्चा था। मेरी ही कम्पनी में मैनेजर था। कम्पनी का प्रबंध सभालते-संभालते उसने कब मेरे दिल का प्रबन्ध भी अपने हाथों में ले लिया था, पता ही नहीं चला। अचानक महसूस हुआ कि नेल्सन के सामने मैं सहज नहीं हो पाती। दिल चाहता था कि वह मेरे आसपास रहे पर उससे बात करते वक्त होंठ सूखने लगते थे, धड़कन तेज हो जाती थी।
मनुष्य जीवित होकर भी ‘है’ से ‘था’ कैसी ह जाता है?...नेल्सन तो आज भी ज़िन्दा है...शायद उसने अपनी माँ की पसन्द की लड़की से विवाह भी कर लिया हो। जब मैं कर सकती हूँ तो वोह क्यों नहीं करेगा।...फिर एकाएक मेरे लिए केवल अतीत का हिस्सा बनकर कैसे रह गया?...ठीक भी तो है...यदि नरेन मेरा वर्तमान है तो नेल्सन को अतीत बनना ही होगा।...आजकल नेल्सन को ज्यादा याद करने लगी हूँ...उसकी बी.एम.डब्ल्यु. कार तो इसकी वजह नहीं हो सकती। उसका बड़ा सा घर भी कोई विशेष कारण नहीं होना चाहिए...तो फिर ऐसा क्या है...क्यों वह फिर से मेरे जीवन में घुसपैठ करने लगा है?...
जब-जब नरेन से नाराज होती हूँ, तभी यह घुसपैठ थोड़ी शिद्दत से होने लगती है।...जब-जब नरेन के व्यवहार से प्रसन्न होती हूँ, तो क्या मजाल कि हम दोनों के बीच किसी की याद तो क्या ...विचार भी आ पाये।...सच तो यह है कि नरेन ने मेरे अतीत के बारे में कभी कोई सवाल नहीं किया। उसने नेल्सन की निशानी टॉम को भी पूरे मन से अपना लिया है। उसे स्कूल छोड़ने जाता है, पढ़ाता है...और तो और हिन्दी बोलना भी सिखाता है। ...गोरा टॉम, अपने अंग्रेजी लहजे में हिन्दी बोलता कितना अच्छा लगता है। आज आठ वर्ष का हो गया है टॉम। ...सिर्फ़ साल भर का था जब नेल्सन से सम्बन्ध विच्छेद कर आई थी।
शिवांगी तो मरने के बाद भी नरेन के जीवन का अटूट अंग बनी हुई है। कैंसर की रोगी, दोनों छातियाँ कटवाई हुई शिवांगी के शरीर में ऐसा क्या होगा कि नरेन के तन और मन से शिवांगी निकल ही नहीं पा रही। कितनी बेरूखी से कह गया नरेन, “मेरे पास जितना प्यार था, वोह सब शिवांगी पर खर्च कर चुका हूँ। अब कुछ नहीं बचा है मेरे पास।...प्यार का सोता सूख चुका है।” नरेन को जीवन की एक अहम बात का अहसास नहीं है कि प्यार ही तो जीवन का एक ऐसा धन है, जो जितना खर्च किया जाये उतना ही बढ़ता है।
नेल्सन और मेरा प्यार भी फल-फूल रहा था। अब तो दफ्तर में भी सब को अहसास हो चुका था कि कहीं ना कहीं कुछ हो रहा है।...मेरे चेहरे पर प्यार की इबारत साफ लिखी रहती थी। उसे कोई भी पढ़ सकता था। ...फ़िल्मों में देखती थी जब नायक नायिका को तीन शब्द कहता है “आई लव यू” तो नायिका के चेहरे पर कैसे भाव आते हैं। मन चाहता था जब कभी भी नेल्सन मुझे यह शब्द कहे, तो सामने कहीं दर्पण लगा हो। इन शब्दों का प्रभाव, मैं अपने चेहरे पर देखने को अधीर थी।
किन्तु जब तक नेल्सन यह शब्द ना कहे, तो चेहरा देखने का अर्थ ही क्या रह जाता है। ...अभी तो मेरे चेहरे पर बड़े-बड़े अक्षरों में बस एक ही नाम छपा रहता था- नेल्सन।...मेरे दफ्तर में कई हिन्दुस्तानी लड़कियाँ काम करती थीं। अधिकतर गुजराती थीं। मन ही मन कहीं मुझसे जलती भी थीं। उनके माता-पिता भारत से उनके लिए पति आयात करना चाहते थे। उनके मन में भी तीव्र इच्छा उठती थी कि कोई नेल्सन उन्हें भी चाहे।...एक तरह से मैं ही उनकी नायिका बन गई थी। जो, वह केवल सोच पाती थीं, मैं कर रही थी।
सोचते तो मेरे माता-पिता भी थे कि मैं ग्ालत दिशा में जा रही हूँ। परन्तु मैं तो नेल्सन के प्यार में सराबोर थी। कुछ यूँ सा लगता था जैसे कई जन्मों से एक-दूसरे को जानते हों। जन्म ...हाँ, मेरा जन्मदिन ही तो था। नेल्सन ने मुझे एक हीरे की अँगूठी भेंट की थी। दोपहर के लंच-ब्रेक में ही मेरे पास आया था, “दीपा, हम आज डिनर साथ-साथ करेंगे।” ...नेल्सन को कैसे समझाती कि हमारे परिवार में जन्मदिन एक परिवारिक त्यौहार होता है। और फिर लाड़ो का जन्मदिन! घर में सभी अपनी लाड़ो की प्रतीक्षा में होंगे। ...फिर सोचा, कल को तो नेल्सन के साथ ही परिवार बनाना है। मन में कहीं डर भी था कहीं नेल्सन का प्रेम क्षणभंगुर का स्वप्न ही ना साबित हो।
साऊथ हाल के महाराजा रेस्टॉरेंट में बैठे थे हम दोनों। नेल्सन ने शैम्पेन मँगवाई थी। ...मैं जानती थी कि नेल्सन को शैम्पेन पीने से सिरदर्द हो जाता है ...पर आज मेरा जन्मदिन था। ...नेल्सन के लिए भी तो महत्वपूर्ण था यह दिन। मेरी संगत में नेल्सन को भी भारतीय भोजन पसन्द आने लगा था। चिकन टिक्का उसे विशेष तौर पर पसन्द था। वह ‘टिक्का’ को हमेशा ‘टीका’ कहता था। शैम्पेन का गिलास उठाकर नेल्सन ने चीयर्स कहा था और साथ ही वोह शब्द भी जिनकी प्रतीक्षा मुझे बेचैन किये जा रही थी। अपने अनोखे अंदाज में उसने मेरी ठोड़ी थोड़ी ऊँची उठाई थी, और सीधा मेरी आँखों में देखा था, “आइ लव यू, दीपा! मुझसे शादी करोगी?”
सैंकड़ों घंटियाँ एक साथ बजने लगी थीं। जीवन की तमाम खुशियाँ मुझे मिल गई थीं। मन कह उठा कि जीवन में इससे मधुर क्षण दोबारा कभी नहीं आ पायेगा। यदि मैं उसी क्षण मर जाती तो भी जीवन से कोई शिकायत नहीं होती...क्योंकि उस वक्त मैं संसार की सबसे तृप्त औरत होती। तभी नेल्सन ने मेरे करीब आकर अपने होंठ मेरे होंठों पर रख दिये थे। उसका आज का चुम्बन फ़रिश्तों की तरह पवित्र लग रहा था। ‘दीपा नेल्सन’ ...सोचकर ही रोमांच हो रहा था।
परन्तु क्या आज मुझे नेल्सन के बारे में सोचना चाहिए? ...क्या यह पाप नहीं होगा? ...किन्तु नरेन क्या शिवांगी के बारे में नहीं सोचता? ...उसके लिए भी तर्क है उसके पास, “तुम नेल्सन को इसलिए छोड़कर आई हो क्योंकि तुम्हारी उससे नहीं बनी। ...शिवांगी की बात दूसरी है ...वह अपनी मर्ज़ी से मुझे नहीं छोड़ गई ...भगवान ने उसे उठा लिया। ...मुझे उसकी हर बात याद करने का हक है।” ...कितनी नाराज़गी थी नरेन की आवाज़ में। ...मैंने तो सिर्फ़ इतना ही कहा था कि जैसे वह शिवांगी को याद करता रहता है, अगर मैं भी नेल्सन के बारे में वैसे ही बातें करना शुरू कर दूँ, ...बाद में घंटों रोती रही कि यह बात कही क्यों।
कहने से बाज भी तो नहीं आती। नरेन को साफ़-साफ़ कह दिया कि सुनीता और मंदिरा से ना मिला करे। मुझे उन दोनों की नीयत पर शक है। ...वह नरेन को केवल मित्र नहीं समझती हैं ...उनके मन मे कुछ और है। ...गुस्से में तो यहाँ तक कह गई कि उसकी अपनी नौकरानी उसका बिस्तर गर्म करती रही है।
तिलमिला उठा था नरेन। ...उठकर लिविंग रूम में चला गया था। यह नरेन की नई आदत है। ...गुस्सा आता है तो आधी रात को भी बेडरूम छोड़कर लिविंग रूम में चला जाता है। आवाज ऊँची नहीं करता। काश! यह उसने मेरे लिए किया होता। ...यह भी शिवांगी के लिए करता है ...शिवांगी को वचन दिया था उसने कि कभी ऊँची आवाज में बात नहीं करेगा। यहाँ भी शिवांगी मुझे मात दे जाती है। ...क्यों? ...शिवांगी मरकर भी मेरी सौत क्यों बन गई? ...पर अगर शिवांगी ज़िन्दा होती तो क्या मैं नरेन के पास होती?
नरेन से पहली मुलाकात लन्दन में ही हुई थी ... हाऊंसलो हाई स्ट्रीट में। मैं टॉम को बग्घी में बैठाकर मैक्डानल्ड से मिल्कशेक लेने अन्दर चली गई थी। बाहर आई तो देखा कि टॉम के साथ एक अजनबी खड़ा है। ...तरह-तरह के मुँह बनाकर, आवाजें निकलकर टॉम से बातें कर रहा है। वह तो सोच भी नहीं सकता था कि टॉम की माँ कोई हिन्दुस्तानी लड़की हो सकती है। ...बाद में नरेन ने बताया भी था कि पहली मुलाकात में वह मुझे टॉम की आया समझ बैठा था। ...टॉम रो रहा था और बग्घी में अकेला था। नरेन उसे चुप करवाने में व्यस्त था। बातों ही बातों में नरेन ने उसे बताया था कि वह लन्दन निवासी नहीं है। वह आफ़िस के काम से लन्दन आया है और अगले ही दिन वापिस भी जा रहा है।
ना जाने क्यों पहली ही नज़र में नरेन अच्छा लगा था। बात करता था तो जैसे मुँह से कविता निकलती थी। कुछ ऐसा था उसके व्यक्तित्व में कि आकर्षित हुए बिना रहा नहीं जा सकता था। पहली मुलाकात बहुत छोटी थी और उस समय में भी उसे पत्नी के लिए सेंट माइकल की ब्रा खरीदनी थी तो रेवालॉन की लिपस्टिक; घर के लिए और कुछ छोटा-मोटा सामन। अगली सुबह ही उसकी उड़ान थी। सुनकर तसल्ली हुई कि आफ़िस के काम से नरेन हर तीन-चार महीने बाद लंदन का दौरा कर ही लेता है।
और तीन-चार महीने बाद टेलिफ़ोन की घंटी पर सवार नरेन आ पहुँचा था। पेंटा होटल से बोल रहा था। टॉम रो रहा था, उसे भूख लगी थी। “टॉम रोता भी अंग्रजी में है?” नरेन के सवाल से होंठो पर स्वयमेव ही हँसी उभर आई थी। ...फ़ोन किया भी तो बडे अंदाज से था, “जी गोरे बेटे की काली माँ से बात कर सकता हूँ? ...सच होकर भी अच्छा नहीं लगा था यह वाक्य। ...आज अगर नरेन ऐसा ना के तो बुरा लगता है। लगता है जैसे औपचारिक हो गया है।
नरेन मेरे लिए एक शैम्पेन की बोतल ले आया था। मैंने उसे सीधा फ्रिज में रख दिया था। जब उससे पूछा कि क्या पियेगा, तो बोला ‘स्क्रू ड्राइवर’। मैं उसे कहाँ बख्शने वाली थी, “स्क्रू ड्राइवर से तुम्हारे स्क्रू तो कस सकती हूँ पर पिला नहीं सकती।” नेल्सन भी तो स्क्रू ड्राइवर ही पसन्द करता था - वोदका और संतरे का रस। ...नरेन को भी शैम्पेन पीने से सिर में दर्द हो जाता है। ...शिवांगी की मौत के बाद तो नरेन ने कुछ भी पीना बंद कर दिया है ...जीना बंद कर दिया है।
शिवांगी थी भी तो अद्भुत। भगवान ने जैसे उसे फ़ुरसत के क्षणों में बनाया था। जो भी उसे मिलता, उस पर लट्टू हुए बिना रह नहीं नहीं सकता था। “हमारी बीवी को देखकर अगर कोई आदमी दोबारा मुड़कर नहीं देखे, तो वह आदमी नार्मल हो ही नहीं सकता।” नरेन का यह दावा था। ...परन्तु शिवांगी केवल शरीर से ही सुंदर नहीं थी। उसका मन उसके शरीर से भी कहीं अधिक सुंदर था। मैं जब पहली बार मुम्बई गई थी तो नरेन के घर ही ठहर थी। शिवांगी को मिलने के बाद कुछ यूँ सा महसूस हुआ था जैसे मैं शिवांगी की मित्र हूँ और नरेन केवल मेरी मित्र का पति है।
शिवांगी जीवन के हर क्षेत्र में एक संपूर्ण व्यक्तित्व थी। ...पढाई, रसोई, सिलाई, कढ़ाई, साहित्य, राजनीति और बच्चों की परवरिश ...सभी विषयों में दक्ष। गार्गा और कुणाल दोनों में शिवांगी की छवि दिखाई देती है। नरेन को भी अच्छा लगता है कि उसके दोनों बच्चों की शक्ल में शिवांगी आज भी ज़िन्दा है। ...टॉम तो देखने में अंग्रेज़ लगता है। नरेन कहाँ कहने से बाज आता है, “गोरे बेटे की काली अम्मां, हम तो तुम्हें पहली मुलाकात में ही टॉम की आया समझे थे, उस हिसाब से मैं भी उसका अर्दली हो गया।” ...नरेन अनुशासन के मामले में सख़्त है, पर टॉम को प्यार बहुत करता है।
प्यार तो नेल्सन भी मुझे बहुत करता था फिर ...मैं नेल्सन को छोड़ने पर क्यों मजबूर हो गई थी। ...मैं भी तो उसे कम प्यार नहीं करती थी। ...नेल्सन की एक माँ भी थी। वह मेरे लिए सदा एक अंग्रेज़ औरत ही बनी रही, ...माँ नहीं बन पाई। ...और नेल्सन कभी भी यह बात नहीं समझ पाया कि मैं अपनी माँ, अपने पिता और भाई सभी को छोड़ आई हूँ।
उसकी माँ विधवा थी। ... यही उसकी माँ का सबसे बड़ा हथियार था। अपने विधवा होने का नाटक वह इतनी निपुणता से करती थी कि इस संसार की सबसे दुखियारी औरत वही लगती थी। ...उसकी आकांक्षा थी कि उसका पुत्र किसी लार्ड या नाईट का दामाद बने। परन्तु उसके पुत्र ने एक एकांउटेंट, और वह भी भारतीय, से विवाह कर लिया था। ...नेल्सन की माँ मुझे बार-बार याद दिलाती थी कि उसका पिता भारत में अफ़सर हुआ करता था और उन दिनों रेस्टॉरेंट में भारतीयों और कुत्तों को अन्दर आने की अनुमति नहीं होती थी। ...आज भारतीय उसकी बहू थी ...उसके लिए तो डूब मरने की बात थी। ...उसने अपने रिश्तेदारों से मिलना-जुलना तक बंद कर दिया था।
उसे डर लगता था कि लोग क्या कहेंगे। ...नेल्सन ने उसे जीते जी मार डाला था।
नेल्सन का तो मालूम नहीं। परन्तु मैंने तो अपने माता-पिता की हत्या कर ही दी थी। माँ को पक्षाघात हो गया था, पिता को दिल का दौरा पड़ा था। उन्हें तो समझ ही नहीं आ रहा था कि उनकी परवरिश में कहाँ कमी रह गई थी कि दीपा उनके मुँह पर कालिख पोतकर चली गई। ...महेश और सोमेश ने तो सदा के लिए मुझसे नाता तोड़ लिया था। ...मेरी राखी और भाईदूज को अनाथ कर दिया था उन्होंने।
ऐसे माहौल में हम हनीमून पर निकले थे। नेल्सन और मैं स्वयं भारत जाने को खासे उत्सुक थे। ...हमारा सफ़र दिल्ली से शुरू होकर आगरा, जयपुर, कश्मीर, बम्बई, गोवा, ऊटी से होता हुआ कन्याकुमारी पर जाकर समाप्त हुआ था। ...हर शहर में पाँच सितारा होटल में ही रखा मुझे।
नरेन से विवाह को तो दस महीने हो गये, अब तक तो हम अकेले एक फ़िल्म भी देखने नहीं गये। हनीमून को लेकर नरेन की एक अलग ही विचारधारा है, “हनीमून जीवन में एक ही बार मनाया जाता है। वोह तुम भी मना चुकी हो और मैं भी। ...घर में एक जवान बेटी है। हमे अपने बरताव को संयत और परिपक्व बनाना होगा। बच्चों के सामने हमें बड़ा दीखना है ...बच्चा नहीं।”
नरेन मेरी दिक्कत को समझता नहीं, यह कहना तो ग़लत होगा। ...पर अपनी तर्कशक्ति से मेरी हर ख्वाहिश का गला घोंट देता है। मैं सोचती हूँ शिवांगी मरी है, में तो ज़िंदा हूँ। मुझे क्यों ज़िंदा मार देना चाहते हो? ...नरेन दसियो चीजें गिनवा देता है कि देखो तुम्हारे लिए यह किया, वह किया, ऐसा किया, वैसा किया। ...जो बोल रहा होता है। वह सब उसने किया होता है। पर क्या वही जीवन है?
नरेन को जब पता चला था कि शिवांगी को स्तन कैंसर हो गया है, तो उसने सबसे पहले मुझे ही सूचित किया था। शिवांगी का बायाँ स्तन कटवा दिया गया। उसके तीसरे ही महीने दायाँ स्तन भी कैंसर की भेंट चढ़ गया था। ...मैं सोच-सोच कर हैरान होती रहती थी कि बिना छातियों की शिवांगी से नरेन कैसे प्यार कर पाता होगा। कैंसर के भयावह नाम ने मुझे मजबूर कर दिया था, कि मैं शिवांगी को मिलने मुम्बई जाऊँ। टॉम को साथ लिये नरेन के घर जा पहुँची थी। घर के बाहर दरवाजे पर नई नामपट्टी लगी थी ‘नरेन और शिवांगी का घरौंदा।’ मन में कहीं एक टीस सी उभरी थी। कोई किसी को इतना प्यार कैसे कर सकता है? ...और प्यार के इज़हार का इतना खूबसूरत तरीका!
शिवांगी मुझे गले मिल कर बहुत रोई थी। मैंने शिवांगी को पहली बार रोते देखा था, “दीपा, अब तो जीवन पर कोई विश्वास नहीं रह गया है। ...पता नहीं कब बुलावा आ जाये। गार्गी और कुणाल तो तुम्हारे हवाले किये जा रही हूँ। मेरे बाद इनकी देखभाल तुम्हें ही करनी होगी।”
“शिवांगी, नरेन को पूरा विश्वास है कि तुम ठीक हो जाओगी। जिस विश्वास से वह तुम्हारा इलाज करवा रहा है, उससे मेरे मन में भी विश्वास की कली अंकुरित हो रही है। ...तुम्हें ठीक होना ही है।”
“अब ठीक होकर भी क्या करूँगी? ...लगता है सारी दुनियाँ मेरी सपाट छातियों को देख रही है। ...बिल्कुल अधूरी हो गई हूँ मैं। ...इन छातियों की तारीफ़ में नरेन कविता करने को मजबूर हो जाता था ...आज तो उससे आँख मिलाने की हिम्मत नहीं बटोर पाती।”
“क्या नरेन ने कभी तुम्हारी छातियों के बारे में कुछ कहा?”
“वह क्या कहेगा! ...वह तो मुझे इतना प्यार करता है कि अगर सारी उमर बिस्तर पर पड़ी रहूँ, तो भी उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं उभरेगी। ...पर, मैं भी तो उसे प्यार करती हूँ। ...जानती हूँ केवल देखने से प्यार की भूख नहीं मिटती ...शरीर की भी जरूरत पड़ी है। ...यह आदमी अगर सारी उमर मेरे शरीर के साथ संबंध नहीं बना पायेगा, तो भी शिकायत नहीं करेगा। ...मैं तो बस इसे एक नज़र प्यार से देख लूँ तो इसे संभोग का आनंद आ जाता है। ...मेरी कोई ऐसी सहेली भी तो नहीं जो नरेन के काम आ सके।” शिवांगी रो पड़ी।
इतनी बड़ी बात और शिवांगी इतनी सहजता से कह गई। यदि मुझे पता चलता कि नेल्सन का किसी दूसरी औरत संबंध है तो मैं तो नेल्सन का जीना मुश्किल कर देती। ...और यह औरत अपनी किसी सहेली की तलाश कर रही है, जो बिस्तर में इसके पति के काम आ सके। मन में आया था कि कह दूँ, “मैं हूँ ना।” पर कह पाना इतना आसान नहीं था। ...अब गार्गी और कुणाल मुझसे और अधिक जुड़ने लगे थे। जितने भी दिन मुम्बई में रही, मैं उन्हें रोज़ अपने साथ बाहर ले जाती थी। वह दोनों भी टॉम से बहुत प्यार करने लगे थे। नरेन अपनी शिवांगी के पास बैठता था।
अगली बार नरेन लंदन आया तो शिवांगी ने हरे काँच की चूड़ियाँ भेजी थीं। मुझे लगा जैसे शिवांगी ने अपनी बंबई वाली बात फिर याद करवाई है। ...रात के खाने के बाद मैंने नरेन को होटल नहीं जाने दिया। घर पर ही रोक लिया। उस रात मैंने शिवांगी की चूड़ियों की लाज रख ली थी और उसकी ऐसी सहेली बन गई जो उसके पति के काम आ सके। नेल्सन से अलग होने के बाद मैंने पहली बार किसी मर्द के शरीर को छुआ था। दोनों को एक विचित्र सी तृप्ति का अहसास हुआ था। मन में किसी पाप का अहसास नहीं था।
मन में कहीं एक शक भी उभरा था। ...नरेन तो मुझे प्यार नहीं करता। फिर मेरे साथ हमबिस्तर होने को तैयार कैसे हो गया। ...पर उन क्षणों का आनंद इतना संपूर्ण था कि इस बेकार से सवाल को खड़ा होने का अवसर नहीं मिला।
अब मै नरेन के लंदन आने की प्रतीक्षा करने लगी थी। नरेन के लंदन आने का अर्थ था कि मैं तो दफ़्तर नहीं ही आऊँगी। बात अब शिवांगी की सहेली बने रहने तक नहीं थी। अब मैं नरेन की भी सखी बनना चाहती थी। ...किन्तु नरेन का व्यवहार मेरे प्रति खास ‘कैल्कुलेटिव’ था! ...वह अपने प्यार का इज़हार खुलकर नहीं करता था ...दबे स्वर में भी कहाँ करता था! ...अंतरंग क्षणों की पराकाष्ठा में भी कभी उसके मुँह से नहीं निकला, “आई लव यू।” ...फिर भी एक बात की तसल्ली थी कि हम दोनों के बीच कभी शिवांगी आकर खड़ी नहीं हुई।
शिवांगी जब जीवित थी तो हमारे बीच नहीं आ सकी। परन्तु मरने के बाद मेरी सबसे अच्छी सहेली, मेरी दुश्मन क्यों बनती जा रही है? ...वर्षा में साजन के साथ भीगने का आनंद ही कुछ और होता है। पर नरेन वर्षा में भीगते हुए; मेरे साथ चलते हुए भी, मुझे अकेला छोड़कर शिवांगी के साथ हो लेता है। मन एक ही सवाल बार-बार पूछता है कि मेरे दो-दो पति जीवित हैं, मैं फिर भी अकेली हूँ और शिवांगी इस दुनिया में नहीं हैं फिर भी उसका पति मेरे आस-पास दिखाई देता रहता है!